गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं
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पालोगे गिलहरियाँ तो
पछताना पड़ेगा
किसी ने कहा था उससे
क्योंकि
गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं
जो ख़ोज लाएँगी अपनी
जरूरत का सामान
कबाड़ से
बेकार पड़ी चीज़ों से
और तीर लेंगीं घोंसला अपना
गायेंगी प्रभाती और
बहलायेंगी मन तुम्हारा
गिलहरियाँ तो काटती हैं तुम्हारे
चुने हुए सामन से
घर में घुसकर
छाती पर चढ़कर नहीं आँख बचाकर
तुम्हारी अच्छी-अच्छी चींजों को
नई दरी को
पाँव के नीचे से पाँवदान और
कालीन को
तकिये की झालर को
खिड़की के उस पर्दे को
जो बचाता है
चटक धूप और माटी से
वे नहीं सोचती कुतरने से पहले
उस चीज के बारे में
जिसको चुना होगा किसी ने अपना बहुत कुछ
चुका-चुकाकर बड़े ही जतन
और प्यार से
गिलहरियाँ मजबूर होती हैं शायद
अपने दाँतों से
जो बढ़ते रहते हैं बेतहाशा
उनके मुँह में
वे घिसती रहती हैं लगातार
कुतर-कुतरकर जड़ें किसी न किसी कीं
अपने दाँतों को
गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं
जो बोल-बोलकर सरेआम
फुदक-फुदक खा जायेंगे कटोरे से
चावल और परात से गुंथा आटा
वे करती हैं काम अपना छिप-छिपकर
बड़ी ही नज़ाकत से
और होते ही आहट
भाग जाती हैं दबे पाँव
तुम्हारी नाक के नीचे से
बिखेरते हुए थाली से मूंगफली के दाने
याकि काली मिर्च या साबूदाना
क्योंकि
गिलहरियाँ नहीं कर सकती हैं प्रेम
गौरैयों की तरह |
-कल्पना मनोरम