हमारे घर के बाहर एक नल होता था। हम जब भी बाहर से लौटते, बाहर की चप्पल, शू-रैक पर रख के, अच्छे से हाथ-पैर धोते, फिर घर के अंदर जाते। बाहर की चप्पलें-जूते हमारे घर के अंदर कभी नहीं गए, उसी तरह घर की चप्पलें कभी बाहर नहीं गयीं। रसोई के अंदर तो घर की चप्पलें भी नहीं गयीं। वैसे भी केवल सर्दियों में ही घर के अंदर चप्पल पहनने की ज़रूरत पड़ती थी। टॉयलेट के बाहर एक जोड़ी चप्पलें हमेशा मौजूद रहती थीं। घर की चप्पलें टॉयलेट के अंदर नहीं जा सकती थीं। मम्मी अगर किसी बीमार को देखने अस्पताल जातीं, तो लौट के उनका नहाना तय था। कपड़े पानी में भिगा दिए जाते। बच्चों को मम्मी कभी अस्पताल नहीं ले जाती थीं ( वैसे कहीं भी नहीं ले जाती थीं 😢) किसी वजह से अस्पताल जाना ही पड़े तो यही प्रक्रिया हम लोगों के साथ दोहराई जाती।
मम्मी की रसोई चमचम करती। बना हुआ खाना सफेद धुले कपड़ों से ढँका होता। पानी के मटकों के मुंह भी सफेद कपड़ों से ढँके रहते। सफाई की इन आदतों ने हम सबको किसी भी मौसमी बीमारी से हमेशा बचाये रखा। चर्मरोग हमारे घर में कभी किसी को नहीं हुए।
सफाई की इन आदतों का पालन अधिकांशतः ख़त्म हो चुका है। पूरे घर में, रसोई में चप्पल पहनने का रिवाज़ अब आम है। अस्पताल से लौट के शायद ही कोई नहाता हो अब। इतना सब लिखने का मतलब केवल ये कि यदि हम इन आदतों को फिर अपना लें, तो कोरोना के दादाजी भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
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