मिल जाए आसानी से जो वो मंज़िल कैसी
उठ जाए सुबह से पहले वो महफ़िल कैसी
वक़्त-ए-आख़िर मुक़र्रर है तेरा भी मेरा भी
तेरे सितम से जो मिट जाए तो मेरी हस्ती कैसी
थक कर रुका हूँ मैं हार कर नहीं
फिर तेरे गलियारों में ये ख़ुशी कैसी
तीरगी से जूझ रहा था अब तक मैंने माना
पर देख मेरे आसमान में ये सुर्ख़ी कैसी
डूबे जो साहिल पे आ कर वो कश्ती कैसी
जला कर घरों को जो रौशनी करे वो बस्ती कैसी
साहिब-ए-मसनद है वो कौम का सुनते आये हैं
पर जो फ़िरकों को लड़ाए वो सरपरस्ती कैसी
मिल जाए आसानी से जो वो मंज़िल कैसी....
•इश्तियाक (व्यंग्य चित्रकार)