लघुकथा— सेवा
दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, '' चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा,हम ने उसे कहा था,'' कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसूता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.
'' अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?''
इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, '' भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.''
'' फिर ?''
'' मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.''
'' क्या ?'' डॉक्टर साहिबा का यकिन नहीं हुआ, '' उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?''
सास को उस का नामपता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,'' बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.''
'' हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.''
यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चक्करा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.
'' इस की समाजसेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,'' धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.
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०७.०३.२०१८
ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
सशि, पोस्ट ऑफिस के पास
रतनगढ़-४५८२२६ मप्र