#kavyotsav2
विषय: प्रेम / श्रृंगार
|| मुक्तक ||
[1]
बिठाकर सामने उनको ग़ज़ल जब भी लिखेंगे हम ।
डूबकर प्रेम सागर में शब्द मोती चुनेंगे हम ।।
कलम होगी दिवानी सी, मिलें जब-जब नजर उनसे ,
कभी वो हीर सी होंगी कभी राँझा दिखेंगे हम ।।
[2]
किसे फुरसत है जमाने में प्रेम सरिता बहाने की।
सबको जल्दी है सिर्फ अपना ज़लवा दिखाने की॥
फिर भी वक्त से चंद लमहे चुराए हैं सिर्फ आपके लिए ,
क्योंकि हमें तो आदत है रूठों को मनाने की ।।
[3]
ये ज़ालिम दिल लगी कैसी सनम बिन रह नहीं सकते।
ये कैसा दर्द मीठा सा जिसे हम सह नहीं सकते ॥
झुकी नजरों की भाषा को जमाना क्यों नहीं समझे ,
मुहब्बत चीज ऐसी है लफ़्ज में कह नहीं सकते ॥
[4]
कभी मिलकर कहीं हमसे जरा नजरें झुका लो तुम ।
दबा कर होठ दांतो से जरा सा मुस्करा दो तुम ।।
कसम खाकर जमाने की लुटा दें हर खुशी हँसकर ,
मेरे कांधे ऐ रख के सर जरा सा गुनगुना दो तुम ।।
[5]
मेरी हर बात में ज़ालिम तुझे साजिश नजर आए ।
मैं हंसकर भी अगर बोलूं तुझे गाली सी चुभ जाए ॥
तू कितना भी तल्ख हो ले, सहेंगे लाख ज़िल्लत भी ,
मगर कोशिश यही है बस...तेरी आदत बदल जाए॥
[6]
इस ओर मुहब्बत है उस ओर जमाना है ।
दोनों ही तो रूठे हैं दोनों को मनाना है ॥
उल्फ़त की ये राहें भी, तलवार दुधारी सी ।
खुद को भी बचाना है उनको भी बचाना है ॥
- उदय