ज़रूरत आ पड़ी है
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अब अंधेरों को नहीं डर दीपकों का,
कुछ मशालों की ज़रूरत आ पड़ी है।
जो निरंकुश शासकों को तिलमिला दें,
उन सवालों की ज़रूरत आ पड़ी है।।
वक़्त इतना बीत जाने पर अभी तक,
बस गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं।
जो विपक्षी 'क्रीज़' पर उतरे हुए हैं,
वे कुतर्कों से पछाड़े जा रहे हैं।
यदि विवादों के लिए तैयार हैं वे,
तो जियालों की ज़रूरत आ पड़ी है।।
और सब बेकार थे, हम ही कुशल हैं,
रोज़ ही ये शब्द दुहराए गए हैं।
क्या हुआ है, क्या नहीं, ये कौन जाने,
दूर तक भ्रम जाल फैलाए गए हैं।
काठ की हंडिया नहीं दो बार चढ़ती,
क्यूँ मिसालों की ज़रूरत आ पड़ी है।।
ठीक है, सत्ता मिली है, राज करिए,
खेल कीचड़ फेंकने का क्यों चुना है?
है विविधता से भरा जब देश अपना,
स्वर किसी का भी यहाँ क्यों अनसुना है?
हाँ, मुखर आलोचना की अहमियत है,
इन ख़यालों की ज़रूरत आ पड़ी है।।
--बृज राज किशोर 'राहगीर'