यह कहानी एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी रेखा जी की कहानी है यह एक सच्ची कहानी पर आधारित है । बस कहानी के पात्रों के नाम मैं थोड़ा फेर बदल किया गया है । यह उन दिनों की बात है जब रेखा जी के पिता कानपुर में रहते थे अपनी तीन बेटियों और एक बेटे के साथ । रेखा जी उन मैं से तीसरे नंबर की थी । बचपन से ही पढ़ाई लिखाए का शौक रखने वाली मां - बाप के आंखो का तारा थी । घर में सबको कैसे खुश रखना होता था रेखा जी को बहुत अच्छे से आता था । रेखा जी के पिता सरकारी विद्यालय में हेड मास्टर थे, बच्चो को हिंदी सिखाते थे । घर में सब कुछ सही ही चल रहा था । फिर अचानक से सन 1994 की बात है जब रेखा जी के पिता का तबादला दूसरे शहर में हुआ तो उनको उधर जाना पड़ा पिछे से ये लोग इधर रह गए । यह पहली बार था जब यह लोग अपने पिता के बगैर रहे थे। इन लोगो के लिए भी ये आसान नहीं था पर क्या करे मजबूरी थी । तब रेखा जी 4 थी कक्षा में पढ़ती थी , रोज़ अपने भाई बहनों के साथ विद्यालय जाना उनका रोज़ का काम था। एक दिन हुआ यू की वह अकेले विद्यालय जा रही थी और रास्ते में उन्हें एक गरीब बच्चा उनके स्कूल के बाहर खड़ा हुआ दिखाई दिया । ऐसा कई दिनों तक चलता रहा और वो उस बच्चे को रोज़ देखती , एक दिन उन्होंने उससे हिम्मत करते हुए पूछ ही लिया कि वह इधर रोज़ क्या करता है खड़े होकर ? बच्चे ने भी बड़े नम्रता से जवाब दिया कि स्कूल के अंदर मैं जा नहीं सकता पैसे नहीं है इसलिए आप जैसे बच्चो को देख कर ही मन भर लेता हूं । यह देख कर रेखा जी को बड़ा अजीब लगा और उन्होंने अपने विद्यालय मैं जाकर अपने अध्यापकों से बात करने की कोशिश की जब उन लोगों ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया तो रेखा जी ने अपने घर वालो से बात की ओर तब तक प्रयत्न करती रही जब तक उस बच्चे का विद्यायल में एडमिशन नहीं हो गया । उनकी इस नेकी को देख कर उनका पूरा परिवार और मोहल्ला काफी खुश था कि उन्होंने इतनी होती छोटी सी उम्र में इतना बड़ा काम किया जिस उम्र में लोगो को नेकी का मतलब भी नहीं पता होता ।