#kavyotsav2
विषय : प्रेम / भावनाप्रधान
॥ हम चले अकेले ही थे..॥
हम चले अकेले ही थे
अंजान अंधेरी राहें।
कोइ मिला अचानक अपना,
दोनों बाँहें फैलाए।।
सामीप्य सहज पाते ही
चमके दो युगल परस्पर।
छँट गए घनेरे बादल
रवि लगा झाँकने हँसकर।।
ग़म गया बीत पतझड़ सा
ख़ुशियों की कलियाँ चटकीं।
फिर हवा बसंती आई
शाख़ों से लताएँ लिपटीं।।
हर ओर बिखरती ख़ुशबू
हँसती थी दसों दिशाएँ।
थे नभ से सुमन बरसते
मनहारी मस्त फ़िज़ाएँ ।।
गाते थे पंछी भँवरे
कुछ मधुर-मधुर से स्वर में।
शायद वो प्रेमगीत थे
जीवन के प्रथम प्रहर में।।
जीवंत उठी आशाएँ
स्वप्नों के पंख लगे थे।
उम्मीदों के सागर तट
रेतों के महल बने थे।।
क्या पता एक दिन कोई
क़ातिल सी लहर उठेगी।
अरमानों की बस्ती में
मुश्किल ही साँस बचेगी।।
अपने, अपने, अपने हाँ
अपने ही क्या सोचेंगे।
जिन पर अभिमान हमें था
वो ही रस्ता रोकेंगे।।
चाहा क्या हमने पाया
जीवन के अथक सफ़र में।
मन मीत मिले थे लेकिन
संग चल ना सके भँवर में।।
जिस जगह चले थे कल हम
आए हैं वहीं लौटकर।
सब लूट लिया अपनों ने
बाकी बस याद छोड़कर।।
- उदय