खोता भी कैसे मैं उसको
मिला जो मुझे कभी था ही नहीं
कैसे बनता वो रहनुमा मेरा
साथ मेरे जो चला ही नहीं
सजदे में झुकता भी तो क्यों झुकता
क्यूंकि उसमें खुदा कभी रहा ही नहीं
कतर के पंख मेरे खुश होता रहा वो
उसे क्या खबर की मैं तो कभी उड़ा ही नहीं
मेरी फितरत से वो क्यों ना हुआ वाकिफ
जबकि मैंने नकाब से खुद को कभी ढका ही नहीं
दरबदर क्यों मुझे ढूंढने लगा वो
मेरा तो कोई पता रहा ही नहीं
ग़म के खज़ाने दे कर उसे क्या हुआ हासिल
कई मुद्दात्तों से मैं तो हंसा भी नहीं
कुचल के रख़ दिया क़दमों तले मुझे
चाहे ज़मीन से मैं था उगा भी नहीं
मेरे दिल में रहता था वो
चाहे उसमें दिल था भी नहीं
सारे गिले उसको थे मुझसे
चाहे मुझे कोई शिकवा नहीं।
चाहे मुझे कोई शिकवा नहीं ।
-PEARL VERMA