वो ही इबादत थी मेरी
वो ही मेरा फसाना था
पर कश्ती थी पुरानी मेरी
और तूफ़ान को भी आना था
समझे चाहे ना एक लफ्ज़ भी वो
उस शख़्स को आंखों से एक शेर सुनाना था
ना ही वो आग का दरिया था
ना मैंने डूब के जाना था
बस इतनी इल्तेज़ा थी मेरी
इतना उसे बस बताना था
नहीं होता मुक्कम्मल जो किसी को
क्यों उसे इस ज़िन्दगी में आना था
टुकड़े क्यों किए तस्वीर के मेरी
जब वापस उसे नहीं उठाना था
उन टुकड़ों में कतरा कतरा हुआ था वो खुद भी
क्युकी मेरे अक्स भी तो उसी का नज़राना था
-pearl verma