#kavyotsav
नेह के दाने
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देहरी पर फुदकती चिड़िया।
चुगती नेह के दाने।
और, उड़-उड़ जा बैठती
छत की मुंड़ेर पर।
ढूँढ़ती, घर की रौनक।
आँगन की बैठक।
चूड़ियों की खनक।
पायल की रुनझुन।
शिशुओं का कलरव।
बड़ों का प्यार।
माँ की मनुहार।
दादाजी का दुलार।
और, घर के कोने-कोने से नि:सृत
निश्छल प्रेम की फुहार।
परंतु, अब गूँजती है
सिर्फ़, बूढ़ी दादी की खाँसी
घर के सन्नाटे को चीरती हुई।
अब नहीं होता -
ढलती शाम के साथ घरों से निकले
धुएँ के बादलों का आपस में मिलना।
नहीं जुटती अब नीम तले की चौपाल।
बंद हो गया जमुनिया फुआ का
घर-आँगन घूम
गाँव भर की कहानियां बाँचने का
सिलसिला भी।
कहाँ खो गई परिवारों की परंपरा
संस्कारों की सीख
स्नेह की शीतल छाँव
फागुन की रंगमंडली
दशहरे की नौटंकी
और, ग्रामीण एका ?
क्या निगल लिया है इसे
फ्लैटों में पनपती
मॉलों में पलती
लिफ्टों में चढ़ती इस पश्चिमोन्मुखी
अत्याधुनिक संस्कृति ने ?
यह क्षरण है, या कि -
संस्कृति का रूपांतरण ?
छत पर बैठी चिड़िया विह्वल - विचलित।
नेह के दाने तलाशती, उदास फुदकती।
इस देहरी से उस देहरी
इस मुंड़ेर से उस मुंड़ेर।
- विजयानंद विजय