उस आत्मा से भला क्या छिपा है जो हमे निरंतर भीतर बाहर देख रही है। हमारा आँख मिलाना यदि स्वंय की श्रेष्ठता देखनी है तो यह दूषित है । किन्तु जो अपनी सारे अवगुनो को स्वीकार कर उसके त्याज्य भाव के साथ आत्मा मे समर्पण का भाव रखता है। और अपनी ही आत्मा से सामर्थ्य आग्रह करता है । वह आईने के समक्ष खड़ा हो सकता है। और उस सत्य को देखने की लालसा रख सकता है।।
- Ruchi Dixit