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लघुकथा *सौगंध* सुनील के कदम तो आगे बढ़ रहे थे परंतु मस्तिष्क भूतकाल में गोते खा रहा था| बड़े भाई रमन के साथ उसका झगड़ा घर-घर में चर्चा का विषय बन चुका था| सुबह-शाम बस अकारण कलह शुरू हो जाती| चिंताग्रस्त पिताजी ने कई बार सुलह करवाने की कोशिश की परंतु झगड़ा जस का तस रहा| तंग आकर उन्होंने कहा था कि मैं भी तुम दोनों का बाप हूँ| सौगंध खाता हूँ कि एक न एक दिन तुम दोनों को कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर मजबूर कर दूंगा| यह सब याद करके सुनील का हृदय भयानक टीस से छटपटा उठा| उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि पिताजी की सौगंध यूँ पूरी होगी| विचारों में मग्न उसे पता ही नहीं चला कि पिताजी की शवयात्रा कब शमशान में पहुंच गई। © विनोद ध्रब्याल राही* 9625966590
सिपाही(अकबर से)--जहाँपनाह, यह व्यक्ति शराब पीकर नगर में हुड़दंग मचा रहा था| अकबर---इसे बंदी बना लिया जाए| संता---नहीं हुजूर, मुझे बंदा ही रहने दो|
गौरेया: गौरेया ! बचपन की नन्ही दोस्त नज़रों से ओझल हो कहाँ हो तुम...... मुझसे नाराज़ हो क्या? अनगिनत यादें हैं तम्हारी मेरी धुंधलाती आँखों में पूरा बचपन बिताया तुम्हारे साथ खेलकर तुम्हारा फुदकना मेरे आँगन में भूलने की बात है भला आह ! मैं बिखेरता चावल के दाने तुम चुगती थी चौकन्नी, खेल ही खेल में मैं फैंकता था तुम पर झूठ-मूठ के पत्थर तुम उड़ जाती 'फुर्र....' हंसाती, लोटपोट कर देती, कई बार टोकरा-रस्सी बाँध पिंजरा बना कोशिश की तुम्हें पकड़ने की परंतु तुम गज़ब की चतुर कभी हाथ नहीं आई न ही नाराज हुई दोस्त की इस दुष्टता पर आती रही बार-बार, रोज मेरे आँगन मुझसे मिलने गौरेया ! आ जाओ फिर एक बार मेरे आँगन में दोहराऊंगा नहीं बचपन की दुष्टता , कहाँ हो तुम...... कहीं जाने-अनजाने में बन तो नहीं गई तुम मेरा ही शिकार| .............. विनोद ध्रब्याल राही
लघुकथा मिलन 'जब से होश संभाला है तब से आज तक दिन खेत में ही उदय हुआ है और खेत में ही अस्त| पहले दिन-रात मेहनत करके माँ-बाप का मन हर्षाते रहे फिर देह तोड़कर इन बच्चों के लिए कमाते रहे| अनाज से ज्यादा मिट्टी खाई है| पानी से ज्यादा पसीना पिया है| आज उनकी राह अलग और हमारी अलग?' क्रोध में काँपता हुआ हरिया चारपाई पर बैठकर खांसने लगा| फिर पीठ पर वही स्पर्श जो आज तक बड़े से बड़े घाव को पल भर में भरता आया है,'मैं हूँ न|' हरिया की फूली साँस सामान्य होने लगी| खाँसी रूक गई| चारपाई पर लेट गया और उसके सीने पर ढुलक गई वो चुंबकीय स्पर्श देने वाली क्षीण काया| सत्तर वर्ष पूर्व के प्रथम मिलन की भांति| तब दोनों के हृदय की धड़कनों ने रफ्तार पकड़ी थी और आज क्षीण होती हुई शून्य| परम शून्य की ओर| .................... विनोद ध्रब्याल राही बाघनी, काँगड़ा हि प्र 9625966500
#kavyotav ** गांव ** गांव की सुबह की शीतल शांत पवन नवजात अग्निशिखा सी समेटे तपन बालहंस की मनमोहनी लुभावनी सूरत शिखर पर बने शिवालय में सजी मूरत बाबा का तपोवन पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। मखमली घास के बिछोने पर बीता बचपना चूल्हे में आग सुलगाती अम्मा का डांटना शैतानी करने पर बापू का सिंह सा गुर्राना दादा का चिल्लाना, डरावनी कहानी सुनाना दादी को सताना पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। सुख दुख, दुर्योग वियोग से बेखबर यौवन तुनक मिजाजी, अल्हड़ अलबेलापन, बांकपन पनघट पथ पर चंचल गोरी का आना जीवंत संगमरमरी मूरत का दिल में समाना ढेरों सपने सजाना पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। ग्वाले का पीछा करते, चिड़ाते नन्हे शैतान घुंघरू बजाती, धूल उड़ाती बैलगाड़ी की शान सैंकड़ों कोस की पहचान समान, अगाध प्यार निष्कपट मधुर लोकाचार, उच्च संस्कार परस्पर चिंतन पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। पीपल की ठंडी छांव में सजा रंगमंच हुक्के का दम भरते, मसलों पर बतियाते पंच हरिए का झोंपड़े, दिलावर का ऊंचा मकान पुष्प से खिले, मिट्टी सने किसानों की मुस्कान हर खेत खलिहान पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। दूर दूर तक फैला पीली सरसों का मैदान गुनगुनाते रंग बिरंगे कीट भंवरों का गान आम, जामुन के पेडों की टहनियां मापना नाचते मस्त मयूर का आहट पाकर भागना नदिया का छोर पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। सांझ ढले पक्षियों का कतारबद्ध लौट जाना दूर क्षितिज का मुस्कुराते हुए पास बुलाना छत पर चढ़ कर सप्तऋषि, व्याध को ढूंढना सितारे गिनने की शर्त लगाना, हार जाना गांव में बीता पल पल याद आता है जब कंक्रीट का जंगल नश्तर चुभाता है। © विनोद ध्राब्याल राही
कविता *व्यथा* कोका कोला की बोतल फेयरनेस क्रीम सुगंधित हेयर ऑयल या सुप्रसिद्ध अभिनता की फिल्म नहीं जो मिलेंगे उसे कई प्रोमोटर स्वयं करना है उसे अपना प्रोमोशन दिखना है खूबसूरत गोरा चिटा पहननी है हाई हील चाल में लानी है नवीनता करनी है कैटवॉक हाथों में चाय की ट्रे लेकर जैसे तैसे उतरना है खरा दर्जनों पारखी नज़रों में चुकाना है अपना मोल स्वयं खरीददार के हाथों तभी मिलना संभव है उम्र भर का कद्रदान परंतु महंगाई के इस दौर में गारंटी कोई नहीं। © विनोद धरब्याल राही
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