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#काव्योत्सव 2 ( प्रेम) नाद ये जो नाद बाहर है भीतर क्यों नहीं ये जो नाद भीतर है बाहर क्यों नहीं क्यों ये नाद ऊपर है नीचे नहीं क्यों ये नाद नीचे है ऊपर नहीं क्यों ये नाद हिलोरें मारता वाष्प नहीं बाहर के नाद अंदर आओ तुम अंदर के नाद बाहर आओ तुम उतरो नीचे आसमां से ओ नाद चलो तुम आसमां में मुझ संग ओ नाद एकमेक हो जाएं हम कि एक ही हो नाद खूबसूरत ब्रह्मांड की कल्पना में कुछ करें समानुभूति सा इस धरती पर
#काव्योत्सव 2 (प्रेम और रहस्य) *मेरे सवाल* मैं बर्फ ही तो थी पिघल गई तुम तो पत्थर थे रेत क्यों हुए मैं नदी ही तो थी उछल गई तुम तो सागर थे तूफ़ां क्यों हुए मैं हवा ही तो थी गुजर गई तुम तो पेड़ थे उखड़ क्यों गए मैं गुल ही तो थी झर गई तुम तो जड़ थे हिल क्यों गए मैं तारा ही तो थी टूट गई तुम तो ब्रह्मांड थे कण क्यों हुए
#काव्योत्सव 2 (सामाजिक) पिछले दशकों में पिछले छ: दशक से महीना-दर-महीना कमा रहे हैं बाबा मेरे फिर भी लाखों बाबा नहीं पहना पा रहे अपने बच्चों को पूरे कपड़े वो फिर रहे हैं नंगे इन सर्द गलियों में पिछले पाँच दशक से व्यंजन-दर व्यंजन पका रही है रसोई में मेरी अम्मा फिर भी लाखों माँए नहीं दे पाती है अपने बच्चों को भरपेट खाना पिछले चार दशक से पारी-दर-पारी मेरी बड़की बहन लिख रही है बच्चों की स्लेटों पर हाथ पकड़ कर् फिर भी सैकड़ों बच्चे नहीं देख पा रहे स्कूल का मुँह भी पिछले तीन दशक से अस्पताल-दर-अस्पताल मेरा भाई बाँट रहा है दवाइयाँ आम आदमी के लिए फिर भी सैकड़ों लोग तोड़ देते हैं दम इलाज के अभाव में पिछले दो दशक से किश्त-दर-किश्त मेरे पति बाँट रहे हैं ऋण सरकारी खातों से ज़रूरत मन्दों को फिर भी आर्थिक मार से ना जाने कितने लोग कर लेते हैं आत्महत्या पिछले एक दशक से मेरी भाभी कानों में हीरे के झुमके पहन छम्मक-छल्लो सी घूम रही है घर में और सैंकड़ों लोगों के मुँह तक निवाला भी मुश्किल से पहुँचा रही है ये हीरे की खदानें पिछले एक वर्ष से पृष्ठ-दर-पृष्ठ मैं भी लिख रही हूँ कविता कम्प्यूटर पर इंटरनेट के सारे रास्ते जान गई हूँ की-बोर्ड दबा-दबा कर ब्लॉग बनाने की रवायतें और फेसबुक पर अच्छे दोस्त तलाशने की मुहिम छिड़ी है और मेरे आस-पास की गृहणियाँ तो दूर की बात है मेरे पूरे मोहल्ले में इस कोने से उस कोने तक इस गली से उस पार तक नहीं है मुहैया बच्चों को भी एक अदद कम्प्यूटर !!
# काव्योत्सव 2 (प्रेम/अध्यात्म) मेरा मकसद तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश ! मेरा मकसद तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश ! मैं जानती हूँ तुझे पाने के लिए छोड़नी पड़ेगी धरती छोड़नी पड़ेगी देह भी मैं जानती हूँ कब छूटती है देह जब ले जाते हैं कंधो पर देह और घुल जाती है देह पंच-तत्वों में मैं जानती हूँ कब घुलती है देह जब छूट जाता है मोह धरती का और आत्मा विलग होती है देह से मैं जानती हूँ कब होती है आत्मा विलग देह से जब तड़प हो आकाश से मिलने की और तृष्णा जागे परमात्मा से मिलन की कब होगी वो तड़प तुमसे मिलने की ओ आकाश ! मेरा मकसद तुझे पाना तो नहीं ओ आकाश !
#काव्योत्सव 2 ( रहस्यवाद ) क्या छतें साफ नहीं हो सकती इतने खूबसूरत शहर की सड़के दोनों तरफ ताज़ा पुती दीवारें चौराहों और नुक्कड़ों पर खूबसूरत हवेलियाँ लक-दक शीशों के पार दिखती मॉल की चमक जिसके चारों तरफ मंडराते आधुनिक पोशाकों में संवरे लोग महज 10 रुपये में ए.सी. बसों का सफर करीने से सजी दुकानें फ्लैटों की बालकनी में बच्चों के बाल संवारती माँए उन्हीं फ्लैटों में अपने खूबसूरत आस-पास के अहसास में सराबोर एक दिन चढ गई सीढीयाँ उस छत की जहाँ से पूर शहर का नज़ारा दिख रहा था मुझे पर वो हवेलियाँ, वो मॉल ,वो बसें सिर्फ बिन्दु-सी दिखाई दे रही थी दिख रहा था तो बस छतों पर पड़ा बेतरतीब कचरा कभी ना काम आने वाली टूटी हुई कुर्सियाँ गुलदान पुताई के पंछे पुरानी तस्वीरों के बोर्ड टूटी ईंटें घड़े के ठीकरे जंग लगे मटके के स्टैण्ड, टूटी बाल्टी और भी ना जाने क्या-क्या तमाम छतों पर पड़े सामान का नज़ारा लग रहा था भयानक मै घबरा कर उतर आई सीढीयाँ दम फूलने लगा हाँफ रही थे मैं कहाँ गई शहर की खूबसूरती मैं जो चिल्लाती हूँ बच्चों पर वो सही है कि बैठक साफ करने से नहीं आती है सफाई दरअसल हम सफाई की शुरुआत बैठक से करते हैं और तमाम कचरा गलियारे बेडरूम किचन गैरज और फिर छत की तरफ बुहार दिया जाता है जमता रहता है छतों पर घर का तमाम कचरा जो बरसों तक पड़ा रहता ज्यों का त्यों उस छत पर पड़ी नकारात्मक उर्जा के तले हम दिन रात उठते बैठते सोते जागते हैं और बैठक को साफ कर इतराते हैं खुद के सफाई प्रेम पर जिसमें ना कभी हम बैठते उस कुण्डी जड़ी बैठक को भूले भटके मेहमान का रहता है इंतज़ार ------------------ यूँ ही सजे संवरे लोग सौन्दर्य संवारने का दावा करती ये तथाकथित दुकानों की थ्रेडिंग से ईर्ष्या का एक बाल तक नहीं उखड़ता ना तो कोई मसाज कुण्ठा को क्लांत होने से बचा पाती है ना ही ब्लीचिंग द्वेष को धूमिल कर पाती है हाँ ! वैक्सिंग फेशिअल ब्लीचिंग जैसे ग्लोबल शब्दो से चमकते चेहरों के दिल की सारी गन्दगी रक्त शिराओं से बहती हुई दिमाग की छत पर जमा हो रही है ------------------- ऐसे ही हमारी बुहारी परिवार से समाज और समाज से देश के रास्ते होकर पसर गई है विश्व की छत पर जमा हो गया है सारा कूड़ा कचरा उस विश्व की छत पर जिस पर पड़े आतंकवाद भ्रष्टाचार विश्व राजनीति और परमाणु युद्ध के खतरों के नीचे अपने-अपने देशों को खूबसूरत मॉल भवनों , हवेलियों को सजाने का भ्रम पाले हुए सांस भी नहीं ले पा रहे हैं मेरा बस इतना सा ही सवाल मेरे शहर के लोगों से क्या छतें साफ नहीं हो सकती ?
#काव्योत्सव 2 (जीवन दर्शन) हाहाकार हाहाकार मचा है मन में मै कौन ? मैं क्यों ? किसके निमित्त ? क्या करने आई हूँ पृथ्वी पर ? प्रश्न दर प्रश्न बढती जाती हूँ दिल के हर कोने में पाती हूँ मचा है हाहाकार ---------------- चलती जाती हूँ सड़क पर शोर गाड़ियों का घुटन धुँए की चिल्ल-पौं होर्न की सबको जल्दी आगे जाने की उलझे हैं सारथी हर गाड़ी के देते हुए गालियाँ एक दूसरे को देख रही हूँ मैं एयरकंडीशन कार में बैठी मचा है सड़क पर हाहाकार -------------------- चलती हूँ हाई-वे पर दौड़्ते दृश्यों में एक बस्ती के बाहर ज़मीन से ऊपर सिर उठाए नल के नीचे बाल्टियों की कतारें अपनी बारी के इंतज़ार मे तितर-बितर लोग उलझते एक दूसरे से कि नहीं है सहमति एक घर से दो बाल्टी की मेरे घर के बाहर एक बालिश्त घास का टुकड़ा पी जाता है ना जाने कितना गैलन पानी और यहाँ बस्ती में एक बाल्टी पानी के लिए मचा है हाहाकार -------------- पिज़्ज़ा पर बुरकने के लिए चीज़ केक को सजाने के लिए क्रीम डेयरी बूथ पर रोकी कार मैंने देखकर लम्बी कतार सड़क तक थोड़ी धक्कमपेल में ठिठकी मैं कोई झगड़ा कोई फसाद आशंका मन में कतार के सबसे पीछे खड़े मफलर में लिपटे चेहरे को पूछा “आज क्या है इस डेयरी पर ” मूँग की दाल मिल रही है कंट्रोल रेट पर बहनजी ! आप भी ले आओ राशन कार्ड एक धक्के से खिसक गया वो और पीछे मचा है यहाँ भी हाहाकार ! -------------- मेरे चाचा का इकलौता बेटा सड़क दुर्घटना में सो गया सदा के लिए चीखों-पुकार करुण-क्रन्दन नोच गया दिल पोस्ट्मार्टम के इंतज़ार में खड़े हम अस्पताल के पोर्च में प्रसव वेदना से तड़पती माँ ने दम तोड़ दिया छ्ठा बच्चा था उसका “अब इतने जनेगी तो मरेगी ही ना ” लोगों के जुमले मचा रहे थे मन में मेरे हाहाकार --------------------- उड़ीसा में आया है फैनी तूफान ले ली है जानें कितने लोगों की रोते बिलखते उजड़ते बिखरते लोगों के चेहरे पिछली सारी यादों को गडमगड करते कभी सुनामी कभी बाढ कभी भूकम्प कभी सूखा और नहीं तो तूफान भंवर इससे भी नहीं थमा धरती सागर तिल-तिल बढती ग्लोबल वार्मिंग मच रहा हैं हाहाकार ----------------- धरती से ऊपर क्षितिज पर आसमान में कभी बादलों का रोना वर्षा से कभी सूरज का सोखना धरती से कभी छेद है ओज़ोन परत में और धरती के पार आकाश गंगा के रास्ते सौर मण्डल के अपने दर्द कभी सूर्य को ग्रहण कभी चन्द्र को ग्रहण कभी टूटता तारा कभी उलका पिण्ड अलग होते आकाश से मचा है खगोल में भी हाहाकार ------------------ उठती हूँ नींद से मचा है हाहाकार अब भी मन में उथलता पुथलता नख से शिख तक करता हुआ आँखे नम कौन हूँ ? क्यों हूँ ? कहाँ से ? कब आई हूँ ? अपना ये हाहाकार कुलबुलाता है धरती पर बिसरते लोगों से लेकर धरती के पार तक उनके हाहाकार से छोटा हो गया है मेरा हाहाकार -----------------
#काव्योत्सव 2 ( सामाजिक) *लोग हैं यहाँ काँच के* लोग हैं यहाँ काँच के ना पारदर्शी...ना पारभासी टूटने से जिनके आवाज़ नहीं होती फिर भी टूटॅने से उनके बिखर जाती हैं किरचें लहुलुहान हो जाते हैं खुद भी आस-पास वाले भी राहें हैं यहाँ ना नुकीली...ना पथरीली चलने से उन पर चुभन नहीं होती फिर भी लगातर चलने से हो जाते हैं घाव लहू नहीं निकलता फिर भी बस,होता है पदार्थ सफेद-सा वृक्ष हैं यहाँ जहरीले न पीले न मुरझाए हुए फिर भी देते है फल लाल,पीले और मीठे खाने से जिनको मरता नहीं कोई उस मीठे जहर से मरते भी हैं,जीते भी हैं दीपक हैं यहाँ जिनमें ना तेल हैं ना बाती फिर भी रोशन हैं टिमटिमाते भी हैं रोशनी से जिनकी रहें रोशन नहीं होती ले जाती हैं इंसान को एक गहरे गर्त में ।
# काव्योत्सव 2 ( स्त्रीविमर्श ) मत करो विलाप ए स्त्रियों ! कि विलापने से कांपती है धरती दरकता है आसमान भी कि सुख और दुख दो पाले हैं ज़िन्दगी के खेलने दो ना उन्हें ही कबड्डी आने दो दुखों को सुख के पाले टांग छुड़ा कर भाग ही जाएंगे अपने पाले या दबोच लिये जाएंगे सुखों की भीड़ में मत करो विलाप ए स्त्रियों ! कि गरजने दो बादलों को ही बरसने दो भिगोने दो धरती को कि जीवन और मृत्यु के बीच एक महीन रेखा ही तो है मिटकर मोक्ष ही तो पाना है फिर से जीवन में आना है कि विलापने से पसरती है नकारात्मक उर्जा कि उसी विलाप को बना लो बाँध और झोंक दो जीवन में मत करो विलाप ए स्त्रियों ! कि विलापने से नहीं बदलेगी जून तुम्हारी कि मोड़ दो धाराओं को अपने ही पक्ष में बिखेर दो रंग अपने ही जीवन में अपने आस-पास उगा दो फूल चुग लो कंकर कि तुम्हारी कईं पीढियों को एक भी कंकर ना चुभ पाये और फूलों के रास्ते रंग भरी दुनिया में कर जाएँ प्रवेश मत करो विलाप ए स्त्रियों ! बहुत हुआ विलाप व्यर्थ हैं आँसू कि जाना है हमें बहुत आगे अपनी बनाई दुनिया को दिखाना है दुनिया को संवारना है उन को भी जो विलाप के कगार पर अब भी पड़ी है बिलखते हुए उठाना है उन्हें कन्धे पकड़ कर समझाना है बुझाना है और ले जाना है रंगों भरी दुनिया में मत करो विलाप ए स्त्रियों ! संगीता सेठी
#काव्योत्सव 2 (रहस्यवाद) मैं पाताल लोक में डूब रही थी मछलियों के डर से दुबक रही थी खा जाएंगी किसी भी वक्त मगरमच्छ सी दुनिया निगल लेगी समूचा मुझे कि वो देवदूत सा ले आया घसीट कर जमीन पर फूली हैं सांसे मेरी भरा है पानी मेरे फेफड़ों में उम्मीद है बचा ही लेगा मुझको मरने से वो मैं धरती के जंगलों में भटक रही थी जानवरो के भय से दुबक रही थी झाड़ियों के पीछे खा ही जाएगी सिंह सी दुनिया किसी भी वक्त उधेड़ देगी देह मेरी कि वो देवदूत सा उड़ा लाया है आसमान में जहाँ विचर रही हूँ हवा सी मैं उम्मीद है दिला ही देगा मोक्ष मुझे ले जाएगा ब्रह्मांड के पार वो !
मैं नींव तेरे मकान की # काव्योत्सव 2 (भावना प्रधान) मै नींव तेरे मकान की कभी खुदी कभी चिनी हिली नहीं वहीं रही बनी रही बनी रही मै नींव तेरे मकान की मैं चाह कभी बनी नहीं मकान के कंगूरे की सजाती रही औरों को अन्धेरे में मैं खुद रही मै नींव तेरे मकान की उन पत्तियों-सी पेड़ की धूप रोक छांह बनी झुलसी समय चक्र में पीली बन मैं झड़ चली मै नींव तेरे मकान की उस नदी-सी कल-कल बही प्रेम प्यार लुटा चली सोख ली दुनिया ने जब पैरों तले मैं रौन्दी गई मै नींव तेरे मकान की तेरे पैरों को ज़मीन दी तेरे पंखों को उड़ान दी जब तुझे लगा कि व्यर्थ हूँ मोक्ष आत्मा-सी हुई मै नींव तेरे मकान की संगीता सेठी
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