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Shivam Kumar Pandey

Shivam Kumar Pandey

@sadharan


श्रीरामचरितमानस,भाग - 5
।। बालकाण्ड ।।


नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥



शब्दार्थ

नील – नीला, गहरा नीला

सरोरुह – कमल के समान (कमल जैसे पंखुड़ी वाले)

स्याम – कृष्ण, काले रंग के

तरुन – युवा, जवान

अरुन – लालिमायुक्त, सूर्य के समान प्रकाशमान

बारिज नयन – वर्षा के समान मृदुल और सुंदर नेत्र

करउ सो – करें वही, कृपा करें वही

मम उर धाम – मेरे हृदय का निवास

सदा – हमेशा

छीरसागर सयन – समुद्र की ओर लेटे हुए (सागर के समान विस्तृत और शांत)



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साधारण अर्थ

तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान, जिनका रंग गहरा नीला है, जिनके कमल सदृश चेहरे हैं, जो युवा और शक्तिशाली हैं, जिनकी आँखें वर्षा के समान मधुर और लालिमा वाली हैं, वे मेरी हृदयस्थली में हमेशा निवास करें और अपने समुद्र सदृश शांत विस्तार में कृपा करें।


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कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥



शब्दार्थ

कुंद इंदु सम देह – शरीर कमल और चंद्रमा जैसे सुंदर

उमा – माता पार्वती, शिव की पत्नी

रमन – प्रियतम, संग करने वाला

करुना अयन – करुणा का स्रोत, दया देने वाला

जाहि – जिस पर

दीन – दुखी, अभागा, गरीब

पर नेह – पर प्रेम, दया

करउ – करें

कृपा – अनुग्रह, दया

मर्दन मयन – पाप और दु:ख नाश करने वाला (शिव जी)



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साधारण अर्थ

तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान, जिनका शरीर कमल और चंद्रमा समान सुंदर है, जो माता पार्वती के प्रिय हैं और करुणा के स्रोत हैं, वे उन सभी दीनों और दुखियों पर प्रेम और कृपा करें और अपने अनुग्रह से पाप और कष्टों का नाश करें।


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श्रीरामचरितमानस,भाग - 4
।। बालकाण्ड ।।

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥



शब्दार्थ

जो – जो (जिसका)

सुमिरत – स्मरण करने पर, याद करने पर

सिधि – सिद्धि, सफलता, पूर्णता

होइ – प्राप्त होती है

गन नायक – गणों के नायक, गणपति (श्री गणेश)

करिबर बदन – हाथी के समान मुख वाले

करउ – करें

अनुग्रह – कृपा

सोइ – वही

बुद्धि रासि – बुद्धि का भंडार

सुभ गुन – शुभ गुणों से युक्त

सदन – घर, निवास



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साधारण अर्थ

तुलसीदास जी कहते हैं कि जिनका स्मरण करने से सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जो गणों के नायक और हाथीमुख वाले हैं, वे बुद्धि और शुभ गुणों के निवास श्री गणेश जी हम पर कृपा करें।

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मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ॥



शब्दार्थ

मूक होइ – चुप हो जाएँ, शांत हो जाएँ

बाचाल – बोलने वाले, वाचाल

पंगु – चलने में असमर्थ, कमजोर

चढ़इ – चढ़ते हैं, पहुंचते हैं

गिरिबर गहन – पर्वत के गहन स्थान पर, पहाड़ की गहरी जगह पर

जासु – जिसका

कृपाँ सो – कृपा करने वाला

दयाल – दयालु, कृपालु

द्रवउ – प्रवाहित करे, बहाए

सकल – सभी, सम्पूर्ण

कलि मल दहन – कलियुग की सभी पापों और दोषों का नाश, अज्ञान और बुराई का नाश


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साधारण अर्थ

तुलसीदास जी कहते हैं कि जिनकी कृपा से मूक बोलने लगे, वाचाल शांत हो जाएँ, और कमजोर पंगु भी पर्वत की गहरी जगह तक पहुँच सके; वही दयालु भगवान हैं, जो अपनी कृपा से कलियुग के सभी पापों, दोषों और अज्ञान को नष्ट कर देते हैं।


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श्रीरामचरितमानस,भाग - 3
।। बालकाण्ड ।।


यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा ।
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ॥
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां ।
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥




शब्दार्थ

यत्-माया- वश-वर्त्ति – जिसकी माया के वश में रहकर

विश्वम् अखिलम् – सम्पूर्ण जगत

ब्रह्म-आदि-देव-असुरा – ब्रह्मा आदि देवता और असुर भी

यत्-सत्त्वात् – जिसके अस्तित्व से

अमृषा एव भाति – सत्य सा प्रतीत होता है

सकलम् – समस्त, सब कुछ

रज्जौ यथा अहेः भ्रमः – जैसे रस्सी में साँप का भ्रम होता है

यत्-पाद-प्लवम् – जिनके चरणरूपी नाव

एकम् एव – एकमात्र

हि – निश्चय ही

भव-अम्भोधेः तितीर्षावताम् – संसार रूपी सागर को पार करना चाहने वालों के लिए

वन्दे अहम् – मैं प्रणाम करता हूँ

तम् अशेष-कारण-परम् – जो सबका कारण और कारणों से भी परे हैं

राम-आख्यम् ईशम् हरिम् – राम नाम से प्रसिद्ध परमेश्वर विष्णु (हरि)



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साधारण अर्थ

मैं भगवान श्रीराम को प्रणाम करता हूँ, जो सम्पूर्ण जगत के परम कारण हैं। जिनकी माया के अधीन होकर देवता, असुर और ब्रह्मा तक बंधे रहते हैं। जिनके अस्तित्व से यह जगत सत्य सा प्रतीत होता है, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम होता है। जिनके चरण कमल ही संसार रूपी दु:सागर से पार पाने के लिए एकमात्र नौका हैं। वे ही सभी कारणों के परे, सर्वोच्च परमेश्वर श्रीहरि हैं, जो राम नाम से प्रसिद्ध हैं।


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नानापुराणनिगमागमसम्मतं
यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ।।


शब्दार्थ

नाना – अनेक, भिन्न-भिन्न

पुराण – प्राचीन धार्मिक ग्रंथ

निगम – वेद

आगम – शास्त्र या अन्य मान्य ग्रंथ

सम्मतं – स्वीकार किया गया, मान्य

यद् – जो

रामायणे – रामायण में

निगदितं – कहा गया, वर्णित

क्वचित् – कहीं-कहीं

अन्यतः अपि – अन्य स्थानों पर भी

स्वान्तः सुखाय – अपने हृदय की प्रसन्नता के लिए

तुलसी – तुलसीदास

रघुनाथ – श्रीराम

गाथा – कथा, कीर्ति

भाषा – सरल भाषा

निबन्ध – ग्रंथ या रचना

अति मञ्जुलम् – अत्यन्त सुन्दर

आतनोति – विस्तार करता है, प्रस्तुत करता है



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साधारण अर्थ

तुलसीदासजी कहते हैं कि जो विषय अनेक पुराणों, वेदों और शास्त्रों में मान्य है और जो रामायण में तथा कहीं-कहीं अन्य ग्रंथों में भी वर्णित है, उसी विषय को वे अपने हृदय की प्रसन्नता के लिए, श्रीराम की कथा के रूप में, सरल भाषा में, अत्यन्त सुन्दर ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत करते हैं।


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श्रीरामचरितमानस, भाग - 2
।। बालकाण्ड ।।


सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ ॥




शब्दार्थ

सीता-राम – माता सीता और भगवान राम

गुण-ग्राम – गुणों का समूह, श्रेष्ठता का भंडार

पुण्य-अरण्य-विहारिणौ – पवित्र वन में विहार करने वाले (राम और सीता)

वन्दे – मैं वन्दना करता हूँ, प्रणाम करता हूँ

विशुद्ध-विज्ञानौ – शुद्ध ज्ञान और विवेक से युक्त

कवि-ईश्वरौ – कवियों के स्वामी (राम, जो सबका हृदय जानते हैं)

कपीश्वरौ – वानरों के स्वामी (राम और सीता, जिनके प्रति हनुमान और वानरसमूह समर्पित हैं)



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साधारण अर्थ

मैं माता सीता और भगवान राम को प्रणाम करता हूँ, जो अनंत गुणों के भंडार हैं, जिन्होंने पवित्र वन में विहार किया, जो शुद्ध ज्ञान और विवेक से परिपूर्ण हैं, और जो कवियों तथा वानरों के भी स्वामी हैं।


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उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् ।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥



शब्दार्थ

उद्भव – उत्पत्ति

स्थिति – पालन, स्थिर रखना

संहार – संहार, विनाश

कारिणीम् – करने वाली

क्लेश-हारिणीम् – दुखों का नाश करने वाली

सर्वश्रेयस्करीं – सबका कल्याण करने वाली

सीताम् – माता सीता को

नतः अहम् – मैं नमन करता हूँ, प्रणाम करता हूँ

राम-वल्लभाम् – भगवान राम की प्रिय पत्नी



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साधारण अर्थ

मैं माता सीता को प्रणाम करता हूँ, जो सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली शक्ति हैं, जो सभी क्लेशों का हरण करती हैं और सबका कल्याण करने वाली हैं। वे भगवान राम की परम प्रिय पत्नी हैं।

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इस सामग्री को मैंने chatgpt(A.i.) की मदद से तैयार किया है । जो की मेरी खुद की मौलिक(original) सामग्री है ।

श्रीरामचरितमानस,भाग-1
।। बालकाण्ड ।।


वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥



शब्दार्थ:

1. वर्णानामर्थसंघानां – वर्णों के अर्थ और उनके समूहों के

2. रसानां – रसों के

3. छन्दसामपि – छन्दों के भी

4. मङ्गलानां – मंगलों के

5. च – और

6. कर्त्तारौ – कर्ता (निर्माता) दोनों

7. वन्दे – मैं वंदना करता हूँ

8. वाणीविनायकौ – वाणीे और विनायक (सरस्वती और गणेश को)


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साधारण अर्थ: इस श्लोक में हम उन सभी गुणों की वंदना कर रहे हैं जो वर्णों के अर्थ और उनके समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों में समाहित हैं। हम उनके कर्ताओं की भी वंदना करते हैं, जो वाणी (ज्ञान) और विनायक (गणेश) के रूप में हमारे जीवन में मंगल लाते हैं।

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भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥


शब्दार्थ

भवानी – माता पार्वती

शङ्करौ – भगवान शंकर (शिव)

वन्दे – मैं वन्दना करता हूँ, प्रणाम करता हूँ

श्रद्धा – भक्ति, निष्ठा, विश्वास का प्रारम्भिक रूप

विश्वास – दृढ़ आस्था, अटल भरोसा

रूपिणौ – स्वरूप वाले, जिनका रूप है

याभ्यां विना – जिनके बिना

न पश्यन्ति – नहीं देख पाते

सिद्धाः – सिद्ध पुरुष, योगी, ज्ञानवान

स्वान्तःस्थम् – अपने अंतःकरण (हृदय) में स्थित

ईश्वरम् – परमात्मा, भगवान



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साधारण अर्थ

मैं माता भवानी और भगवान शंकर को प्रणाम करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रकट होते हैं। जिनके बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित परमात्मा का दर्शन नहीं कर सकते। अर्थात् आत्मा के भीतर बसे ईश्वर को देखने और अनुभव करने के लिए श्रद्धा और विश्वास का होना आवश्यक है।

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वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥



शब्दार्थ

वन्दे – मैं प्रणाम करता हूँ, नमन करता हूँ

बोधमयम् – ज्ञान स्वरूप, चेतना से युक्त

नित्यं – सदा, हर समय

गुरुम् – गुरु को, आचार्य को

शङ्कररूपिणम् – शंकर (भगवान शिव) के स्वरूप वाले

यम् आश्रितः – जिनका आश्रय लेकर, जिनसे सम्बद्ध होकर

हि – वास्तव में, निश्चय ही

वक्रः अपि – टेढ़ा होने पर भी, वक्र रूप में भी

चन्द्रः – चन्द्रमा

सर्वत्र – हर स्थान पर, सब जगह

वन्द्यते – वन्दना किया जाता है, आदर प्राप्त करता है



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साधारण अर्थ

मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो सदा ज्ञानमय और भगवान शंकर के स्वरूप वाले हैं। जैसे चन्द्रमा अपनी वक्रता के बावजूद शिवजी के मस्तक पर सुशोभित होकर सर्वत्र पूजनीय हो जाता है, वैसे ही जो शिष्य गुरु का आश्रय लेता है, वह भी सब ओर आदर और सम्मान प्राप्त करता है।


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