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मोहब्बत तोड़ डालेगी तुम्हारे हर उशूलों को नियति से ग्रस्त पागलपन की कोई हद़ नहीं होती कुबेर मिश्रा
सत्य कहने के लिए भी क्या जरूरत है 'सपथ' की ? सरिता बहने के लिए कब माँग करती किसी 'पथ' की ? खोजने वाला कहाँ परवाह करता किसी ' कथ ' की ? हौशले मंजिल को छूते क्या जरूरत किसी ' रथ ' की ? कुबेर मिश्रा
अहा कौन तुम स्वप्न सुन्दरी चन्द्र कला में रमी हुयी शान्त निशा की मधु उपवन सी उज्वल घटिका थमी हुयी छिटक चाँदनी पुष्प पल्लवित शांत झील नीलांचल पट शशि छाया उन्मुक्त वेदिका स्वप्न लोक क्रीड़ांगन तट तुम रचना की प्रथम पँक्ति सी मचल उठी ज्यों कोकिल गान उतर रही घूँघट पट खोले खिली चाँदनी सी मुस्कान कविता के आवारा शब्दों सी इठलाती बल खाती यूँ इतराती मन भरमाती मदमाती सी लहराती रतनारे चञ्चल नैनों का जादू भरा तरल संघर्ष संसय की धूमिल पगडंडी या फिर सावन का स्पर्श हो पेंचो खम से भरी हुई बैरागी मन की सी कविता या सावन के गलियारों सी लहराती बलखाती सरिता वर्षा मेह सदृश आच्छादित श्यामल गहन सघन घन केश सुर्ख कपोल उषा का आगम देव कामिनी तन परिवेश कुबेर मिश्रा
तुम कौन हो ? ---------------- स्वर्ग से उतरी हुई तुम, अप्सरा हो या परी। या मदिर सैलाब हो, अंगूर लतिका से झरी।। वर्तिका से प्रकट होती, सी निराली रोशनी। या थके राही की मंजिल, स्वर्ण फटिका मरमरी।। सृष्टि का संगीत हो, या देव गृह जलता दिया। या बहारों की थमी, मदमस्त घटिका रस भरी।। कहकशाँ मुस्कान हो, या नील पट की चाँदनी। या कि उतरी हो जहाँ में, मार रतिका मद भरी।। गंग की उच्छल तरंगें, या जमुन जल धार हो। या कि जन्नत द्वार वाली, कांति पटिका मरकरी।। Kuber Mishra
शशि कर हास ललाट जटा बिच राजति गंगा वृश्चिक कुण्डल कान भभूति बदन मन चंगा गले मुण्ड की माल व्याल कर शूल विराजे नर्तन करती प्रकृति शम्भु डमरू जब बाजे शिव अभिषेक उमंग छटा अम्बर लहराये करत सृष्टि सिंगार जटा शंकर विवराये सावन बरसत मेघ केश शिव थामे गंगा हँसत हरित तृन भूमि हिलोरत गंग तरंगा Kuber Mishra
उसका पलटना अटल है किस्मत पलटती है जरूर जब पलटती है तो सब कुछ पलट देती है हजूर लालसा विकराल बन जब होश पर भारी पड़े तब गुनाहों की सतत फेहरिस्त बढ़ना लाजिमी कुबेर मिश्रा
निरखत नैन नेह रतनारे मोर मुकुट अधराधर बंशी पीत बसन तन धारे दीपमाल उर पुष्प पल्लवित नयन कोर कजरारे विटप रसाल लता मदमाती चंदिनि डगर बुहारे कूल कदंब ताल सर प्रमुदित छलिया रूप निहारे कालिंदी जलधार हिलोरत मुरली गान उचारे सुध बुध खोई व्रज ललनायें तन मन हरि छवि वारे कुबेर मिश्रा
लक्ष्य असंभव कुछ नहीं, धैर्य लगन दृढ़ पाठ। गढ़े गेह अनवरत जिमि, बढ़ई पंछी काठ।। Kuber Mishra
जटा में गंग की तरंग अर्ध चन्द्र भाल पर ! त्रिनेत्र दृष्टि झाँकती है काल के कपाल पर !! गले मे माल व्याल की है कोटि सूर्य सम प्रभा ! चिता की भस्म अंग अंग अंक शायिनी विभा !! हाथ में विशाल शूल दीनबन्धु भूतनाथ ! भूमि पर डटे हुए हैं आशुतोष विश्वनाथ !! चल रहा सृजन विनास सृष्टि पर गड़ी है दृष्टि ! चर अचर सजीव जीव हो रही कृपा की वृष्टि !! गगन गगन निनाद गूँज देव देव महादेव ! कर रहे हैं वन्दना प्रकृति मनुष्य दैत्य देव !! भंग की उमंग संग वृषभ हस्त कन्धरा ! कृपालु चन्द्र शेखरे नमो जगत धुरन्धरा !! व्याप्त व्योम उच्च भाल पद पखारता है सिन्धु ! सौम्य रूप में विराजमान ईश दीनबन्धु !! विश्ववास शान्त रूप शम्भु देव शंकरा ! निकृष्ट शक्ति के लिए प्रचण्ड शिव भयंकरा !! पनप रही बुराइयों का विश्व में प्रबल प्रवाह ! थाम लो त्रिशूल आज भूमि की यही है चाह !! जगद्गुरुम् कुबेर कर रहा नमन कराल काल ! विश्वनाथ शूल की छटा बिखेर दो विशाल !! धर्म योद्धा से --- Kuber Mishra https://www.amazon.com/gp/r.html?C=2Z24ENUUAEWUK&K=3O4LNVSXRYI2V&M=urn:rtn:msg:20190428032045f121d7f844c64433ba1615e78740p0na&R=1WHVV8PY01OKM&T=C&U=http://www.amazon.com/dp/B07R8NH1DY?ref_=pe_3052080_276849420&H=MX0ALGCKCIPW4HAOIL9RSMWI5IAA&ref_=pe_3052080_276849420
वर्षा ऋतु सौन्दर्य ---------------------- दिनमान प्रचंड प्रकोप घटा। बादल जल धार पयोधि सटा।। शशि शेखर नृत्य उमंग उठे। लहरात छटा नभ शम्भु जटा।। सावन जल थल सम भाव पटा। घहरात घटा कहुँ मेघ फटा।। सर पोखर सब लहराय उठे। उतरी सुरपुर की दिव्य छटा।। दादुर जल कुक्कुट झींगुर रव। तरु पालव कोंपल रति अभिनव।। छवि दृश्य अलौकिक भूमि जगे। बरखा ऋतु गीत पुनीत विभव।। लहरात तरंगिणि धार चली। जलनिधि हिय प्रेम पुकार फली।। तटबंध झकोरत बोरत सब। प्रियतम आलिंगन धाय मिली।। पछुवा पुरवा पुरजोर बही। घन गर्जन तर्जन शोर मही।। विचलित मन काम लगाम कटे। मनसिज निज स्यंदन डोर गही।। कुबेर मिश्रा
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