Quotes by Kishore Sharma Saraswat in Bitesapp read free

Kishore Sharma Saraswat

Kishore Sharma Saraswat Matrubharti Verified

@kishoresharmasaraswat6429
(68)

समीक्षा

**
सामाजिक बुराइयों का शमन करके-नवयुवकों के त्याग और तपस्या के बल पर भारत के नव निर्माण एवं उत्थान के लिए सपने संजोता उपन्यास है- भीष्म प्रतिज्ञा-
माणक तुलसीराम गौड़
: :

साहित्य जगत में श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ एक जाना-माना नाम है जो उच्च शिक्षित तो हैं ही साथ ही हरियाणा राज्य के सूचना आयोग में सलाहकार पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। आपकी अब तक सत्रह कृतियाँ साहित्य जगत में पदार्पण कर चुकी हैं जिनमें सात कृतियाँ प्रसिद्ध और बेस्टसेलिंग के दर्जे में आ चुकी हैं। इनके अतिरिक्त दो कहानी संग्रह तथा एक काव्य संग्रह ‘एक अभिलाषा अधूरी-सी’ के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। आपको आपकी श्रेष्ठ रचनाधर्मिता एवं साहित्य सेवा के लिए अनेक सम्मान एवं पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो एक गौरव का विषय है।

‘भीष्म प्रतिज्ञा’ नामक उपन्यास इनका इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है जिसे श्री किशोरजी ने मुझे अपना मानते हुए बड़े ही नेह के साथ भेजा है, जिसे मैंने सात दिन में पढ़ डाला। उपन्यास में गति है, लय है, मेरी-आपकी सब की बातें हैं, रोचकता है, घटनाओं की एक श्रृंखला है। उपन्यास के नायक जिसका नाम ‘कृपाशंकर’ है के मन में एक आग है तो कुछ कर गुजरने का जज्बा भी। भविष्य के सपने हैं तो सच को सच तथा झूठ को झूठ कहने का माद्दा भी। त्याग करने की तमन्ना है तो बलिदान होने का मन में बल भी। जीवन जीने की जिजीविषा है तो जीवन उत्सर्ग करने का साहस भी। किसी के साथ चलने की प्रबल इच्छा है तो किसी को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य भी। प्रेम का प्यासा है तो नेह लुटाने की चाहत भी। किसी का परामर्श मानने की ललक है तो नेतृत्व करने की क्षमता भी। पात्र व्यक्ति को सहयोग करने की भावना है तो जरूरत पड़ने पर सहयोग प्राप्त करने की तत्परता भी। और अंत में मानवोचित व्यवहार करने में हमेशा आगे रहने का स्वभाव है तो अपने मित्रों को उसी पथ पर चलने के लिए प्रेरणा देने की कूवत भी।

उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ का फलक बड़ा व्यापक और विस्तृत है। जिसमें इस उपन्यास के शीर्षक को सार्थक करता हुआ नायक कृपाशंकर एक छोटे-से गाँव का निवासी है। जो विद्यार्थी जीवन से ही एक होनहार छात्र रहा है। जिसके पिता का नाम पं. दीनदयाल, माता का नाम सावित्री तथा बहन का नाम यशोदा है। परिवार में मुफ़लिसी है। फिर भी अपनी सीमित आय में गुजारा करने वाला परिवार। परम संतोषी स्वभाव।

कृपाशंकर के मन में उसके प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन से ही एक ज्वलंत प्रश्न हमेशा बना रहा कि हम इस भारत भूमि में हमेशा बहुसंख्यक रहे, मगर हम ही क्यों निरंतर गुलाम रहे। क्यों हमने गुलामी को हमारी मानसिकता मान ली। क्यों नहीं हमने सामूहिक प्रयास और संघर्ष किए। क्यों नहीं हमने इकट्ठे होकर उन आतताइयों का मुकाबला किया! क्यों हमने हमारे आदर्शों- सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, बंकिमचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे वीरों, बलिदानियों, तपस्वियों के त्याग को भुला दिया!
उपन्यास के अनुसार यह वृति आज भी हमारे देश में विद्यमान है। मीर जाफर हर युग में पैदा हो रहे हैं। तभी तो उनके मामाजी कहते हैं, ‘‘इसका कारण था बेटा, द्वेष की भावना और आपसी फूट। जब एक राजा अंग्रेजों से लड़ता था तो दूसरा उनकी सहायता करता था। बस यही सिलसिला चलता रहा और अंग्रेज देश पर कब्जा करते गए।
पृष्ठ- 45

बालक कृपाशंकर के मन में ग्राम विकास की तड़प बालपन से ही कुलाँचें मारती रही। चाहे वह समस्या गाँव में पीने के पानी की हो या फिर शराब और अन्य नशाखोरी के विरोध की। गाँव में शिक्षा सुधार की बात हो या अन्य विकास की बातों की।
कहते है जहाँ चाह वहाँ राह मिल ही जाती है। अपनी निर्धनता के कारण जब कृपाशंकर की पढ़ाई में बाधा आई तो उस पर नेह बरसाने वाली अध्यापिका ने पढ़ने के लिए उसे अपने पास बुला लिया और यहीं से उसके जीवन ने करवट बदली।
वह पढ़ने के उद्देश्य से गाँव छोड़कर शहर आ तो गया पर उसका कोमल और मोम-सा मन गाँव की गलियों में ही भटकता रहा। उसे अपने बाल सखा जिसमें रामू पहलवान मुख्य था, हमेशा याद आता रहा। गाँव की ओछी राजनीति और स्थानीय राजनेताओं के नित नये हथकण्डे उसे बेचैन किए रहते। खासकर स्थानीय चुनावों में अपनाए जाने वाले षड़यंत्र।

इस बीच महाविद्यालयीन पढ़ाई के दौरान जब उसका संपर्क सहपाठी दुस्यंत, अमरदीप, अनुराधा इत्यादि से होता है तो उसे जीवन के अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। दुष्यंत एक अमीर परिवार का बिगड़ेल लड़का था जो कॉलेज में तफरीह करने जाता है तथा सुंदर-सलोनी लड़कियों को छेड़ना, भद्दे मजाक करना तथा उनके साथ दिल्लगी करके अपना मन बहलाता है। इसी तारतम्य में जब वह अनुराधा के साथ निचले स्तर की हरकत करता है तो उसे मुँह की खानी पड़ती है। कहते हैं कि ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं तथा गोपाल की लाठी बजती कम, मगर चोट गहरी करती है।’ दुर्भाग्यवश दुस्यंत की एक भयंकर सड़क दुर्घटना होती है और वह कृपाशंकर तथा अनुराधा की असीम सहायता तथा सेवा-सुश्रुषा से बच जाता है।
बस, यहीं से दुष्यंत की जिंदगी बदल जाती है। जब वह अस्पताल में पड़ा हुआ स्वास्थ्य लाभ ले रहा होता है तब अनुराधा उससे मानवता के नाते मिलने जाती है। उसे देखकर पश्चाताप के मारे दुष्यंत के आँसू टपक पड़ते हैं। उसकी दुर्दशा देखकर अनुराधा की आँखें भी छलक जाती हैं।
तब दुष्यंत हिम्मत बटोरकर रुंधे गले से बोलता है- ‘‘भाई को माफ नहीं करोगी अनुराधा ?’’
ये चंद शब्द मानो तीर बनकर अनुराधा के दर्द भरे मन को छेदकर पार कर गए हों। वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। पत्थर का कठोर बुत आज मोम बनकर उसके सामने अपनी पहचान बदल चुका था। वाह रे समय! तू कितना बलवान है। आदमी तो तुच्छ है तेरे सामने। वो मूर्ख है जो तुझे पहचानते नहीं और तेरे र्वमान में मदमस्त होकर भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगते हैं। जबकि भविष्य तो अंधकार है, जिसे पहचान पाना मुश्किल है।
तब अनुराधा ने धीरे-से दुष्यंत का हाथ पकड़कर ऊपर उठाया और उसे झुककर माथे से लगाकर आँखें बन्द कर ली। उसके नयनों से टपके आँसू दुष्यंत की कलाई पर जा गिरे। मानो एक बहिन ने अपने भाई की कलाई पर धागे की नहीं अपितु आँसुओं की राखी बाँध रही हो। पृष्ठ 256
मेरे मतानुसार यह प्रसंग इस उपन्यास की आत्मा है।

जब कृपाशंकर देखता है कि गाँव हो या कस्बा, शहर हो चाहे नगर चारों तरफ अंधविश्वास, व्यसन, परंपरावादी सोच, रूढ़ीवादिता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, आडंबर, ढ़कोसले, लंपटता, चापलूसी, स्वार्थपन, छल-कपट, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद जैसी दिखने में लघु, मगर घाव करने में गंभीर बातों से जब तक नहीं निपटा जाएगा, आगे बढ़ना मुश्किल है। इन नन्ही-नन्ही बातों पर हम ध्यान भले ही नहीं दे पाते हों, मगर ये छोटी बातें ही आगे चलकर बड़े-बड़े प्रभाव डालती हैं। छोटी-छोटी बातों से ही देश बनता है और उसी से देश बिगड़ता है।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमारा कोई एक सहारा या कहो कि कोई निमित बनता है जैसे कृपाशंकर को वह अध्यापिका मिली और य सोदा को मामाजी। अन्यथा वे गरीब घर के बच्चे पढ़ और बढ़ नहीं पाते।

जब हमारे मन में किसी को जोड़ना होता है तो इसका माध्यम कोई भी हो सकता है, बशर्तें हमारा ध्येय पवित्र हो। जैसे कृपाशंकर ने कुश्ती दंगल के माध्यम से अपने गाँव वासियों को जोड़ा जो दो गुटों में बंटकर रोज आपस में सिर फोड़ते थे।
हम जो दुनिया के साथ व्यवहार करते हैं। उन पर हमारे मात-पिता या गुरुजनों की दृष्टि हमेशा रहनी चाहिए ताकि हम भटकें नहीं। इसी तारतम्य में एक बार दीनदयालजी कृपाशंकर से कहते हैं- ‘‘बेटा, जवानी का उबाल दूध की तरह होता है जो कभी भी बर्तन से बाहर निकल सकता है।’’ पृष्ठ 288
इसी तरह भारत भ्रमण के दौरान जब उसे एक जगह पुलिस कप्तान कहते हैं- ‘‘दूध में पानी तो मिलाया जा सकता है, मगर पानी में दूध नहीं मिलाया जा सकता। जब सारी व्यवस्थाओं को घुन और जंग लग चुका हो तो उन्हें जीवनदान देना इतना सहज नहीं है, जितना तुम मानकर चल रहे हो।’’ पृष्ठ 334
‘‘दुर्जन से मित्रता और दुश्मनी दोनों को त्याग दो। क्योंकि दोनों ही हानिकारक है।’’ पृष्ठ 362
कृपाशंकर के संघर्ष में पीटर की भी महत्वपूण भूमिका रही। जिसने उसके प्रथम उपन्यास ‘अपना देश’ को प्रकाशित करवाने, बिक्री की व्यवस्था करने तथा अग्रिम भुगतान देकर वह कृपाशंकर की आर्थिक सहायता करता रहा। अन्यथा उसकी भारत भ्रमण यात्रा सफल नहीं हो पाती।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला कुछ नहीं कर सकता। सभी मिलकर के बहुत कुछ कर सकते हैं। एकता में बहुत शक्ति होती है, यही इस उपन्यास का महत्वपूर्ण संदेश है। कहा भी गया है- ‘‘झुंड से बिछुड़कर तो शेर भी कमजोर पड़ जाता है।’’ पृष्ठ- 364
‘‘इनसान जितना दूर होता है, उसकी कशिश उतनी ही पास होती है और शायद जीवन की यही सब से बड़ी आकर्षक और मनोहारी अवधि होती है। पृष्ठ- 383
भारत भ्रमण के दौरान जब कृपाशंकर राजनेताओं की बातों के जाल में फँसकर चुनाव के वक्त जब संबोधन करता है तब उस पर जानलेवा हमला हो जाता है। अमनदीप उससे मिलकर जब उसके गाँव धर्मपुर जाकर उसकी माँ से मिलता है तब वह कहती है, बेटा, अम्माजी के हाथ से बनी हुई चीज और बाजार से खरीदी गई चीज में बहुत अंतर होता है। एक में आत्मिक स्नेह होता है और दूसरी में मजबूरी की तल्ख।’’ कितना हृदयस्पर्शी बचन है। पृष्ठ- 388
अब देखिए राजनीति पर एक तंज की बानगी, ‘‘राजनीति तो वो खेल है जहाँ पर ना कोई मित्र है और ना कोई दुश्मन, केवल स्वयं हित सर्वोपरि है।’’ यह एक कटु सत्य है। पृष्ठ- 404

भवन की सुदृढ़ता उसके सुंदर कंगूरों से नहीं बल्कि उसकी नींव की मजबूती पर निर्भर करती है। हमें सर्वप्रथम हमारे चरित्र को उज्ज्वल रखते हुए, हमारे हृदय में राष्ट्र प्रेम की ज्योत जगानी होगी, हमें हमारे कर्तव्य निर्वहन पर खरा साबित होतेेे हुए दायित्वों को भलि-भाँति निभाना होगा। अपनी स्वार्थपरता को तिलांजलि देते हुए परहित के मार्ग पर चलना होगा। यह काम सरल नहीं है। काँटों पर चलना है। मगर कुछ पाना है तो कुछ खोना होगा, यही सीख देता, समझाता है यह उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसे हर नवयुवक को न केवल पढ़ना चाहिए बल्कि इसे अपनी आदर्श रचना मानते हुए इससे समय-समय पर आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना चाहिए।
इस तरह एक वृहद उपन्यास जिसका समापन सुखांत होता है, जिसमें उपन्यास का नायक देशभक्त और रचनाधर्मी कृपाशंकर का शुभ विवाह अपने माता-पिता की सहमति से उपन्यास की नायिका अनुराधा के साथ होता है।

समीक्षित कृति में विविध प्रकार की शैली का प्रयोग हुआ है जिससे इसमें रोचकता आ गई है, भाषा सीधी, सरल, प्रांजल तथा देशज शब्दों से सजी हुई है। यत्र-तत्र मुहावरों का समुचित प्रयोग हुआ है। पात्रानुकूल भाषा से उपन्यास में एक अलग ही प्रभावोत्पादकता पैदा हो गई है तथा यह कृति भी उत्कृष्टता की श्रेणी में आ गई है।

इस वृहद उपन्यास की संरचना के लिए उपन्यासकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ जी को मेरे हृदय की अतल गहराइयों से मैं बधाई देता हूँ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत, पाठक तथा विशेषकर युवावर्ग में इसका खुले मन से स्वागत होगा।

***
मेरी पुनः शुभकामनाएँ।
पुस्तक का नाम : भीष्म प्रतिज्ञा
लेखक : किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. : 90502 23036
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : के बी एम प्रकाशन
प्रथम संस्करण : 2025
मूल्य : रुपये : 699
पृष्ठ : 449 (सजिल्द)
**
समीक्षक :
माणक तुलसीराम गौड़
बेंगलुरु
मो. नं. :
87429 1695

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 39 की

कथानक : समय का फेर कुछ ऐसा हुआ कि राधोपुर गाँव में जगपाल का परिवार जो कुछ भी नहीं था, अब सब-कुछ हो गया। रमन जब तक कलेक्टर पत्नी के साथ अपनी हनीमून ट्रिप से वापस लौट न आया, 'नन्दलाल अखाड़ा' को लेकर अंतिम स्वरूप दिए जाने का मामला टाल दिया गया था।
फिर जब रमन लौटा तो बैठक हुई और इसमें अखाड़े के लिए जमीन का बन्दोबस्त करना, साथ ही आवश्यक सुविधाओं हेतु धन उपलब्ध कराना आदि मुद्दे शामिल थे।
90 वर्षीय ताऊ हवा सिंह ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में यह भी तय हुआ कि अखाड़े का उद्घाटन ताऊ द्वारा ही किया जाएगा।
ऐन वक्त पर यद्यपि ताऊ का स्वास्थ्य बिगड़ गया और ताऊ के लिए कविता ने अपनी कार भेज दी। ताऊ अस्पताल में कुछ ठीक होकर आए, सुबह उद्घाटन किया और शाम तक चल बसे।

उपन्यासकार ने इस 20 पृष्ठीय अंक को केवल 'नन्दलाल अखाड़ा' पर केन्द्रित किया है। गाँव के पूर्व में रहे किसी प्रसिद्ध खिलाड़ी को इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती। इस परम्परा से निश्चय ही अन्य खिलाड़ी भी प्रोत्साहित होते हैं।
प्रस्तुत है, वे पंक्तियाँ जो किसी भी खेल और खिलाड़ी को महत्त्वपूर्ण बनाना प्रेरक एवं अनुकरणीय होता है:
- नन्दू ताऊ के पश्चात गाँव में कोई ऐसा पहलवान नहीं हुआ जो उसकी बराबरी कर सकता। दंगल में बड़े-बड़े पहलवान दाँव-पेंच में उसके सानी नहीं थे। धोबी-पटका का ऐसा दाँव चलाता था कि अपने से भारी पहलवानों को धूल चटा देता था। (पृष्ठ 771)
समय के साथ बदलती परिस्थितियों ने पूर्व में अन्याय के प्रतीक केहर सिंह को अब एक अति सभ्य, दयालु और सौम्य पुरुष बना दिया था:
- 'मैंने अज्ञानतावश उस भद्र पुरुष (नन्दू ताऊ) के साथ काफी अन्याय किया था। अब मैं उस पाप को धोना चाहता हूँ। जमीन का जो भी टुकड़ा कुश्ती अखाड़े के लिए चयनित किया जाता है, भू मालिक को उसकी कीमत मैं अपनी ओर से अदा करूँगा।' (पृष्ठ 773)
- 'यह सब उस लड़के (रमन) की करामात है। भला हो उसका जिसने हम लोगों की आँखें समय रहते खोल दी हैं, वरना हम तो कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ कर अपना समय बर्बाद कर रहे थे।' (पृष्ठ 779)
लेखक ने ग्राम प्रधान केहर सिंह के कहे संवाद से एक बहुत महत्वपूर्ण बात कह दी है। इसके लिए उनकी लेखनी की जितनी सराहना की जाए, कम है।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
23.01.2025

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 38 की

कथानक : दूल्हा-दुल्हन को विवाह के बाद अगली सुबह गाँव की परम्परा के अनुसार मंदिर ले जाया गया। अतिथियों की विदाई के बाद वे चंडीगढ़ पहुँच कर हनीमून के लिए डलहौजी के लिए निजी कार द्वारा एक ड्राइवर लेकर प्रस्थान कर गए। लेकिन पठानकोट से बाहर निकलते ही चढ़ाई शुरू हो गई। ड्राइवर डलहौजी के कुछ पहले सीधी चढ़ाई का अभ्यस्त न था अत: चढ़ाई पर कार चलाने की अभ्यस्त कविता को ड्राइविंग करनी पड़ी।
डलहौजी पहुँच कर उन्होंने अगली सुबह ड्राइवर को चंडीगढ़ के लिए रवाना कर दिया और फिर दोनों विशेषकर रमन ने वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का खूब आनन्द लिया। कविता तो इन्हीं वादियों में पल-बढ़कर बड़ी हुई थी और यहाँ के रास्तों से भी परिचित थी।
पहले दिन तो वे डलहौजी में ही घूमते रहे- पहले, गाँधी चौक व बाद में सुभाष चौक। रमन प्रथम बार इतने सुहावने दृश्य देखकर आनंद में डूबा हुआ था। वह जिधर भी देखता, प्रकृति मुस्कुराती ही नजर आती थी।
कविता ने वहाँ से रमन के लिए एक हिमाचल टोपी एक हाफ कोट तो रमन ने कविता के लिए एक महंगा पश्मीना शाल खरीदा। दुकानदार ने कविता की सुंदरता तथा व्यक्तित्व देख कर ही यह कहते हुए शाल दिखाई थी कि इससे बढ़िया शाल कहीं नहीं मिलेगी।
दूसरे दिन उन्होंने अपनी कार के लिए होटल वालों को कहकर एक ड्राइवर बुक कर लिया था जो सुबह ही वहाँ पहुँच गया था।
अब पहले वे लकड़ मंडी पहुँचे जहाँ से खजियार जाने के लिए रवाना हुए जहाँ पूरा रास्ता ढलान में था। खजियार वहाँ से 22 किमी. था जिसे बेहद खूबसूरत होने के कारण *मिनी स्विटजरलैंड* भी कहा जाता है।
होटल आकर वे दूसरे दिन सुबह 56 किमी.दूर चंबा शहर के लिए रवाना हुए। रास्ते में वहाँ की निराली सुंदरता के साथ दोनों ने फोटो खिंचाई और चंबा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँचे, साथ ही म्यूजियम, पैलेस आदि को देखा। मंदिरों के शहर चंबा में चौरासी ऐसे मंदिर हैं जिन्हें आठवीं और दसवीं शताब्दी में बनवाया गया था।
बारिश के कारण उन्हें जल्द ही होटल में लौटना पड़ा था।
अगले दिन सुबह भी बादलों की गर्जना और बिजली की कड़क ने उन्हें होटल से बाहर न निकलने के लिए विवश कर दिया। फिर वे प्रकृति और प्रेम पर ही बातों में लीन रहे।
ड्राइवर के आने पर उन्होंने कल सुबह आने के लिए कहा ताकि वह उन्हें चंडीगढ़ छोड़कर आ सके।
एक और सुबह हुई तो बाहर बर्फ की सफेद चादर प्रत्येक वस्तु को अपने में समेटे हुए थी।
वे अपनी कार द्वारा उसी ड्राइवर को साथ लेकर भारी मन और डलहौजी में बिताए सुनहरी मीठी यादों के साथ चंडीगढ़ के लिए रवाना हुए और लुधियाना कुछ ऊनी गिफ्ट खरीदते हुए देर शाम चंडीगढ़ पहुँचे जहाँ भुआ उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं।
दूसरे दिन वे पिंजौर गार्डन गए जहाँ का दृश्य स्वर्ग की तरह था। वहाँ रंग महल और जल महल पहुँचकर कविता ने मैनेजर को अपना परिचय देकर सुइट बुक करा लिया। रात वहीं रुक कर दूसरे दिन बुआ के पास ठहरते हुए हुए अगले दिन अपने घर की ओर प्रस्थान कर गए।

उपन्यासकार ने एक तरह से चंडीगढ़ से डलहौजी, खजियार व चंबा का सुंदर वर्णन यात्रा-वृत्तांत की तरह किया है।
कुछ झलकियाँ प्रस्तुत हैं:
- 'काफी सर्दी है, कितनी ठंडी हवा चल रही है।'
- 'यही तो पहाडों की खासियत है। ये हवा और हरियाली न हो तो यहाँ पर कौन आएगा?'
- 'प्रकृति की अजीब विडम्बना है। उसे भी मानो ये ऊँचे पहाड़ और दुर्गम रास्ते ही पसंद हैं।' (पृष्ठ 704)
- प्रकृति ने सारी ने सारी नेमत इन पहाड़ों को बक्श दी है। अपने दाएँ, बाएँ और सामने देखो, कहीं आपको उदासी नजर आती है क्या? ऐसा प्रतीत होता है मानो ब्रह्मांड में स्थित समस्त पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और ये कल-कल करते झरने अपने यौवन की बहार में मदमस्त हों।' (पृष्ठ 717-18)
लेखक ने चंडीगढ़ में पिंजौर गार्डन का वर्णन कुछ इन शब्दों में किया है:
- पूरी नहर को प्रकाश से आलोकित कर दिया गया था। पानी की फुहारें रंगीन प्रकाश के आलिंगन में अनगिनत इंद्रधनुषों का आबोधन करवा रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो।
- 'सचमुच आपका यहाँ पर ठहरने का निर्णय स्मरणीय है। यहाँ का एक दिन ही किसी सुहाने सफर के सौ दिनों के बराबर है। अब डलहौजी से वापस आने का मुझे कोई मलाल नहीं रह गया है।' (पृष्ठ 765)
लेखक 84 पृष्ठीय इस अंक को सही मायने में एक यात्रा-वृत्तांत बनाकर पाठकों को चंडीगढ़ से डलहौजी और चंबा के दर्शनीय स्थलों, वहाँ के दुर्गम चढ़ाई के मार्गों, पहाड़ों के सुंदर मनभावन दृश्यों की तुलना यूरोप व स्विट्जरलैंड से करते हुए, साथ में वर्षा व बर्फबारी के कारण मार्ग अवरुद्ध होने सम्बन्धी विविधतापूर्ण चित्रण से पाठकों से अपनी लेखनी का लोहा मनवाने में सफल हुए हैं।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
20.01.202

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 37 की

कथानक : शादी राधोपुर गाँव के एक व्यक्ति रमन की हो रही थी लेकिन पूरे गाँव का कायाकल्प हो गया था क्योंकि गाँव में उनकी चहेती जिलाधीश, बहू बनकर आ रही थी।
गाँव में सब लोग इस शादी से आह्लादित थे। बारातियों के लिए चंडीगढ़ का एक नामी होटल बुक करा लिया गया। कुछ पलों के लिए राज्य के मुख्यमंत्री भी वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुँचे।
बाराती इस खूबसूरत शहर में घूमे-फिरे, बढ़िया नाश्ता-खाना खाकर तृप्त हुए। फिर सायं दुल्हन की विदाई की बेला आ गई।
इधर दुल्हन की मामी अपने ओछे वक्तव्यों से बाज नहीं आ रही थी।
रात 10 बजे बारात राधोपुर पहुँची तो दुल्हन की सास ने दुल्हन की अगवानी की। सबने रात का खाना खाया। गाँव की महिलाएँ लोकगीतों को गाने में मस्त थीं। फिर स्टेज पर कार्यक्रम हुआ। थकान के बावजूद सबमें जोश था। दूल्हा-दुल्हन थक चुके थे लेकिन नाच-गानों में ही सुबह के तीन बज गए। कविता, जिसके आदेशों का डंका पूरे जनपद में चलता था, आज बेबस होकर कार्यक्रम समाप्ति के लिए बेचैन हो रही थी।

उपन्यासकार ने विवाह की तैयारियों से लेकर चंडीगढ में विवाहोत्सव, विदाई व राधोपुर में बारात वापसी व उत्सव समाप्ति तक का वर्णन बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।
प्रस्तुत हैं, बेटी की विदाई के कुछ मार्मिक क्षण:
- माँ की आँखों में आँसू थे, जिन्हें वह रोकने की कोशिश कर रही थी। आखिर कब तक रोक पाती। मुँह मोड़कर अपने दिल में रुका हुआ गुबार निकालने लगी। इससे पहले कि सुचित्रा, भाभी को ढाढ़स बँधाती वह स्वयं ही बच्चों की तरह अपना धैर्य खो बैठी। भाई के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी। महेश्वर प्रसाद जी मुँह से कुछ न बोल पाए। भारी मन से बहन के सिर पर हाथ रखकर उसे चुप कराने की कोशिश करने लगे। (पृष्ठ 679)
- पीहर का घर दुनिया में सबसे अनमोल चीज होती है। उससे बिछोह शायद सबसे अधिक मार्मिक होता है। डबडबाती सुर्ख आँखों को भींचकर वह पहले माँ की छाती पर अपना सिर टिकाकर उस जननी के मातृत्व के स्नेह में सराबोर हो गई, जिसकी कोख से जन्म लेकर वह आज उस मुकाम तक पहुँची थी। माँ ने उसका सिर अपने चेहरे के सामने लाकर उसके माथे को चूमा और फिर अपने आलिंगन में लेकर अपनी दुलारी को अपने धड़कते दिल से लगा लिया। (पृष्ठ 679)
लेखक ने सभी वैवाहिक घटनाओं का जीवन्त वर्णन किया है जिसमें उत्कृष्ठ भाषा शैली, जानदार संवाद व परिवेश का चित्रण, सब-कुछ मानो सामने घटित हो रहा हो।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
17.01.2025

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 36 की

कथानक : रमन की प्रबल इच्छा थी, कविता से बात करने की। किन्तु अभी करूँ या नहीं, सोचता ही रह गया वह कि खुद कविता का फोन आ गया। कुछ अन्तरंग वार्तालाप हुआ फिर पता चला कि शादी 14 जून को चंडीगढ़ में होगी।
बाद में कविता के मम्मी-पापा से बात करने पर तय हुआ कि वह रमन के साथ जाकर कपड़े व गोल्ड चंडीगढ़ से ही खरीद लेगी।
दोनों निजी कार द्वारा ड्राइवर को साथ लेकर चंडीगढ के लिए रवाना हुए। समय कम था, पहले कपड़ों की खरीदारी की फिर एक रेस्तराँ में डोसा खाया, हनीमून पर जाने के बारे में भी विचार किया और अंत में काॅफी पीकर गोल्ड खरीदने के साथ ही वापसी के लिए कार में बैठ गए।
जिला मुख्यालय पहुँचने तक रात के ग्यारह बज गए थे। क्वार्टर में खाना खाकर रमन विश्राम घर में सोने चला गया और सुबह जब राधोपुर पहुँचा तब जाकर घर वालों को शांति मिली।
जगपाल ने प्रबुद्ध लोगों को शाम को घर आने का न्यौता भेजा ताकि विवाह के बारे में बातचीत हो जाए।
सभी बुजुर्ग जगपाल के घर इकट्ठा हो गए। सबने रमन की तारीफ की और विवाह के लिए मिलजुल कर अच्छी तरह विवाह को निपटाने की बात कही क्योंकि यह विवाह तो गाँव की इज्जत का सवाल था।
सब लोगों के बीच केहर सिंह भी था जो गुमसुम बैठा था, लौटते समय उसने ताऊ हवा सिंह को कहा कि उसने जगपाल व रमन के साथ बहुत बुरा किया था और अब वह इसका पश्चाताप करना चाहता है क्योंकि उसने जगपाल की फसल खराब की, वह बतौर हर्जाने उसकी मदद करना चाहता है। उसने ताऊ को कहा कि वह किसी तरह स्वाभिमानी जगपाल को इस मदद को स्वीकार करने के लिए तैयार करे ताकि वह इस मानसिक बोझ से किसी तरह विमुक्त हो जाए।

इस अंक में सब-कुछ सकारात्मक होने से उपन्यासकार ने पाठकों का मन खुशी से भर दिया है।
प्रस्तुत है, केहर सिंह के बारे में ताऊ द्वारा जगपाल को कहे संवाद के अंश:
- 'कल शाम जब हम लोग यहाँ से घर जा रहे थे तो केहर सिंह मेरे साथ ही हमारे यहाँ पहुँचा। मुझे लगता है, वह जरूरत से अधिक ही बदल गया है। एकदम साधु प्रवृत्ति का हो गया है। अपने पुराने पापों को इसी जन्म में धो डालना चाहता है। क्षमा-याचना तो पहले ही कर चुका है परन्तु अब वह उनसे उऋण भी होना चाहता है।' (पृष्ठ 671)
केहर सिंह का यह परिवर्तन सिद्ध करता है कि बुरा आदमी भी एक दिन बुराई त्याग कर अच्छाई की ओर बढ़ना चाहता है। साथ ही यह भी कि परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि अतीत का जानी दुश्मन भी हितैषी बन जाता है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर।
14.01.2025

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 35 की

कथानक : मुख्यमंत्री द्वारा राधोपुर में स्कूल के उद्घाटन की दूसरी सुबह कविता के पिता ने खुशनुमा माहौल में उसे बताया कि वे राधोपुर में सबके सामने रमन के साथ उसकी सगाई का ऐलान करके आ गए हैं।
कविता के ऑफिस जाने के बाद उसके मम्मी-पापा ने कविता की भुवा-फूफा तथा मामा-मामी को फोन कर आने का निमंत्रण दिया ताकि कविता के विवाह की तैयारियों पर बात की जा सके।
वे सब निश्चित समय पर कविता के सरकारी बंगले में पहुँच गए तो पहले लड़के रमन को लेकर बात हुई, बाद में विवाह की तैयारियों पर। यह भी तय हुआ कि विवाह सुविधाजनक स्थल चंडीगढ़ में ही रखा जाए।
सब-कुछ तय होने के बाद सभी अपने-अपने स्थान के लिए रवाना हो गए।

उपन्यासकार ने इस अंक में मुख्यत: कविता जो जिला कलक्टर है, के घर व ऑफिस की व्यस्तता के चित्रण के साथ ही पहली बार अपने घोषित पति के साथ मीठी बातों के संवादों से भी पाठकों को रूबरू करवाया है, साथ ही परिवार जनों के आत्मीय व कंटीले वचनों का भी आस्वादन कराया है।
प्रस्तुत है, बिगड़े रिश्तों वाले परिजनों के मध्य संवादों की छोटी सी झाँकी:
- 'कौन लोग हैं वो, जहाँ मेरी भानजी को भेज रहे हो चुपके-चुपके?'
- 'देहाती लोग हैं, परन्तु हैं मन के बहुत अच्छे।'
- 'क्या? हमारी बेटी देहात में जाएगी, जहाँ पर इसने अभी तक पैर भी नहीं रखा है? शहर में क्या लड़कों का अकाल पड़ गया है जो नोबत यहाँ तक आ पहुँची?'
- 'गाँवों में क्या इंसान नहीं रहते? बल्कि वहाँ पर अभी भी इंसानियत कायम है। रिश्तों में अच्छाई सर्वोपरि होती है, न कि सूट-बूट के साथ मन की मैल। पति-पत्नी का रिश्ता तो मन मिले का होता है, चाहे वो जंगल में ही क्यों न हो।' (पृष्ठ 631)
लेखक ने छोटी से छोटी बातों का भावनात्मक चित्रण कर इस अंक को भी रोचक और पठनीय बनाया है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
11.01.2025

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 34 की

कथानक : इस बार के मुख्यमंत्री ईमानदारी और मेहनती अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर देखना चाहते थे। मुख्यमंत्री के निर्देश पर ऐसे अधिकारियों की सूची बनी, उसमें प्रथम गिने-चुने व्यक्तियों में कविता का नाम भी था। मुख्यमंत्री ने ऐसे लोगों को व्यक्तिश: उनके पसंद के जिले में जिला स्तर पर लगाने हेतु बुलाया।
कविता ने झिझकते हुए कहा कि वह तो सर्विस छोड़कर ग्रामीण बच्चों का स्तर सुधारना चाहती है जिसका भवन एक वर्ष में बनकर तैयार हो जाएगा। मुख्यमंत्री ने उसे एक वर्ष तक वहाँ जिला कलक्टर के पद पर काम करने को कहा। यही नहीं, कविता के अनुरोध पर वे राधोपुर गाँव को आदर्श ग्राम बनाने को राजी हो गए।
कविता ने खूब मेहनत कर मुख्यमंत्री जी का दिल जीत लिया और उन्होंने राधोपुर ग्राम में स्कूल के साथ प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र तथा स्टेडियम का उद्घाटन करने की तिथि निश्चित कर दी।
कविता ने इस बीच स्वयं मुख्यमंत्री की चाहत पर फिलहाल रमन व अपने माता-पिता की भी मंशा पर नौकरी छोड़ने का विचार त्याग दिया क्योंकि स्कूल का काम तो रमन खुद सँभाल सकता था।
स्कूल के लिए अनुदान कविता के पिता द्वारा दिया गया था। रमन ने भी वहाँ कविता के माता-पिता का मन जीत लिया था।
मुख्यमंत्री जी ने उद्घाटन के लिए पहुँचकर अपने भाषण में भी कविता की खूब सराहना की। उद्घाटन के बाद कविता तो मुख्यमंत्री जी के साथ प्रोटोकॉल के तहत चली गई लेकिन सभी ग्रामवासियों के समक्ष उसके पिता ने कविता के साथ रमन की सगाई की घोषणा कर दी तो सबकी खुशी की सीमा न रही क्योंकि रमन के त्याग और पहल पर ही राधोपुर गाँव का इतना विकास संभव हुआ था। वहाँ हर्ष के बीच केहर सिंह ने सबके बीच कहा कि कन्यादान तो मैं ही करूँगा।

उपन्यासकार ने इस अंक को भी सकारात्मकता से भरकर पाठकों को आनन्दित कर दिया। इसी अंक में उपन्यास के भविष्य की नींव रखने की रूपरेखा तैयार हुई है। जैसे- कविता के मम्मी-पापा का राधोपुर आना तथा स्कूल के निर्माण हेतु राशि उपलब्ध कराना, उनको गाँव वालों की आत्मीयता के साथ रमन के लिए खुशी-खुशी स्वीकारोक्ति, कविता का मुख्यमंत्री की पहल पर सर्विस न छोड़ने का निर्णय करना।
यहाँ प्रस्तुत हैं, नये ईमानदार मुख्यमंत्री व कविता के बीच संवादों के कुछ अंश:
- 'एक पिता को अपनी संतान से क्या अपेक्षाएँ होती हैं? यही न कि वे बड़े होकर उसका सिर गर्व से ऊँचा करें। मिस कविता! तुम मेरी बेटी के समान हो। मेरी जिम्मेदारियों को निभाने का कुछ बोझ तुम पर भी है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, लोगों में मेरी सरकार की कार्यप्रणाली और उपलब्धियों को लेकर एक सकारात्मक सोच बनी है। मैं उसे बनाए रखना चाहता हूँ। यह तभी संभव है यदि तुम जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों का सहयोग मुझे मिलता रहे। इसलिए मैं तो कहूँगा तुम जल्दबाजी में कोई निर्णय मत लो। वैसे मुझे भी तो पता चले कि तुम नौकरी किसलिए छोड़ना चाहती हो?'
- 'सर, मैं स्कूल के माध्यम से जनता की सेवा करना चाहती हूँ। गाँव के बच्चे शिक्षा में पिछड़ जाते हैं। मैं उनको दूसरों की बराबरी पर लाने का प्रयास करूँगी, ताकि शिक्षा की असमानता को समाप्त किया जा सके।'
- 'अच्छा प्रयास है। परन्तु कितनों का भला होगा? अधिक से अधिक पाँच-दस गाँवों का, बस। राज्य में कितने गाँव हैं? जहाँ पर तुम हो, वहाँ से सैंकड़ों-हजारों गाँवों का भला किया जा सकता है। इस असमानता को कौन दूर करेगा?' (पृष्ठ 596-97)
इसमें कोई शक नहीं कि राधोपुर का कायाकल्प हो रहा है और उपन्यास की बुनियाद निश्चित आकार ले रही है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
8.1.202

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 33 की

कथानक : राधोपुर गाँव की घटना से सम्बन्धित जाँच की संचिका जिला प्रशासन के आग्रह पर कविता को सौंपी गई थी अत: कविता ने केहर सिंह को निर्देश दिया कि वह निर्धारित तिथि को लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में जाँच के मामले में प्रस्तुत हो।
केहर सिंह विश्राम गृह पहुँचा तो कविता ने उसे चाय पिलाई तथा अपनेपन से कहा कि वह सच्चाई से न भागे क्योंकि सच का साथ भगवान भी देता है। यदि वह ऐसा करेंगे तो वह उनका पूरा साथ देगी। इससे केहर सिंह पिघल गया और बोला कि वह भी अब गलत मार्ग पर चलते हुए थक चुका है और शाँति चाहता है। कविता ने कहा कि दोनों पक्ष चाहें तो आपस में समझौता करके मुझे लिखित में दे सकते हैं कि वे सरकार की ओर से इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं चाहते।
केहर सिंह ने कविता से कहा कि वह माफी चाहता है कि आपको अब तक गलत समझता रहा।
कविता ने केहर सिंह को कहा कि वह गाँव में एक एकड़ जमीन खरीदना चाहती है। केहर सिंह खुश हो गया और इसके लिए कविता को शीघ्र बात करके अवगत कराने की बात कही।
केहर सिंह ने सचमुच बुराई का रास्ता छोड़ दिया था और अब वह सबको कविता की प्रशंसा करते नहीं थकता था। उसने कविता की अभिलाषा अनुसार माधो से जमीन को लेकर बात की। वह और ननकी तैयार हो गए क्योंकि यह जमीन परोपकार हेतु ली जा रही थी। अन्तत: माधो के साथ ही केहर सिंह ने भी अपने एक हजार वर्ग गज के भूखण्ड को प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र के नाम पर हस्तान्तरण करने के इंद्राज संबंधित रजिस्टर में दर्ज करवा दिए।

उपन्यासकार ने इस लंबे अंक में पूर्व में बुराई के प्रतीक खलनायक केहर सिंह का हृदय परिवर्तन दिखाया है जो कविता के कारण ही संभव हो पाया क्योंकि वह अब इस सिद्धांत पर काम करने लगी थी कि बुराई पर जितना चाबुक चलाया जाए, वह उतनी ही अधिक नासूर बनकर उभरती है। जबकि दयालुता के दो शब्द भी उस नासूर को मिटाने के लिए मरहम का काम करते हैं।
प्रस्तुत है, केहर सिंह के हृदय परिवर्तन को दर्शाते अंश:
- 'भाई, मैं आज जाँच के सिलसिले में शहर गया था। जाँच अधिकारी वही लड़की है जो पहले यहाँ पर एसडीएम हुआ करती थी। बहुत नेक और बुद्धिमान अधिकारी है। मुझे तो साक्षात किसी देवी का अवतार लगती है। लगे भी क्यों न, उसकी बातों का मुझ पर ऐसा जादू चढ़ा जिसे बतलाने की जरूरत नहीं है। सब कुछ आपके सामने है। काश! मैं उसे पहले समझ पाता तो इतनी देर न होती।' (पृष्ठ 557)
- 'बहुत लंबे अर्से से इस गाँव को आपसी नफरत का ग्रहण लगा हुआ था। परन्तु एक दिन अंत तो हर एक चीज का लिखा हुआ है। केहर सिंह भाई आज हमारे बीच में है।हमें पिछले सभी कटु अनुभवों को भूलकर गाँव के हित में नए सिरे से पहल करनी होगी। एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। इसी तरह केहर सिंह के साथ आने से हमारी सोच, हमारी क्षमता और हमारा हौंसला भी दोगुना हो गया है।' (पृष्ठ 559)
- 'भाइयो! मुझे अपने किए पर बहुत पछतावा है। इतना कुछ होते हुए भी आपने मुझे माफ कर दिया। शायद इस जन्म में मैं इसका ऋण न उतार सकूँ। जीवन में नैतिक मूल्यों की कमी और कुसंग का प्रभाव, दो ऐसी बलाएँ हैं जो इंसान को हैवान बना देती हैं। मैं भी इनसे अछूता नहीं रहा। अब जब होश आया तो मालूम हुआ कि पाया कम और खोया अधिक है। उस खोई हुई अमूल्य सम्पदा को पुन: पाना चाहता हूँ, जो आपके सहयोग के बिना असम्भव है।' (पृष्ठ 561)
लेखक ने जीवन के संघर्षों के बाद अब इस अंक से निगेटिव लोगों को भी सकारात्मकता की ओर धकेला है जो उपन्यास को सुखद अंत की ओर ले जाएगा। हालांकि उस चरम बिंदु पर पहुँचने के लिए हमें 42 अंकों तक पहुँचना होगा।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 32 की

कथानक : राजू बैंक में ड्यूटी ज्वाइन करने शिमला पहुँच गया जहाँ उसे मकान भी किराए पर मिल गया तो अब अपनी पत्नी जयवंती यानी रमन की बहन को लेने शिमला से वापस आया। इस बार उसके घर पर दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई कर रही उसकी बहन रंजना को भी बुला लिया था। दूसरे दिन वह पत्नी को लाने अपने ससुराल गया और फिर उसके साथ शिमला।
राजू, रमन को भी कुछ दिनों के लिए शिमला ले जाना चाहता था लेकिन अगले सप्ताह न्यायालय में रमन की पेशी होने से उसका जाना टल गया।
रमन को पेशी में दोषमुक्त कर दिया गया था। अब पाठशाला को पुन: चालू करने से पहले अपने साथियों की सहमति लेकर रमन थोड़े समय के लिए शिमला के लिए रवाना हो गया जहाँ वह शाम होते-होते पहुँच गया।
अगले तीन दिनों में रमन शिमला के दर्शनीय स्थलों को देखने के बाद जयवंती के आग्रह पर संजौली में स्थापित देवी माँ के मंदिर में जाने का प्रोग्राम बना।
रमन हैरान रह गया क्योंकि मंदिर के प्रांगण में कविता अपनी मम्मी के साथ दिखाई दी। वहाँ जिस तरह मृदु वाणी में रमन व कविता में संवाद हुआ, उससे कविता की मम्मी सुशीला के मन में दोनों को लेकर शंका हुई।
सुशीला ने उन सबको अगले दिन घर आने का न्योता दिया। सुशीला ने रमन व उसके परिवारजनों का विवरण जाना। जयवंती ने भी उन्हें घर पर आमंत्रित किया।
दो दिन बाद जयवंती व राजू को बैंक की एक पार्टी में जाना था। राजू घर पर ही रहा। कुछ ही देर में कविता अकेले रमन के यहाँ पहुँच गई। उनके बीच पहले मीठी तकरार, गिले-शिकवे फिर भविष्य के बारे में परस्पर गंभीर मंत्रणा हुई। रमन का कहना था कि वह उसके बराबरी का नहीं है। कविता ने कहा कि वह नौकरी छोड़ रही है। रमन ने इसके लिए मना किया तो कविता गंभीरतापूर्वक बोली कि उसने सोच-समझकर ही निर्णय लिया है। मुझे विश्वास है कि मम्मी-पापा भी मान जाएँगे।
इस बीच दो घंटे बीत गए थे। राजू व जयवंती के भी लौटने का समय होने वाला था। कविता जाने को हुई तो जाते-जाते तेज बारिश होने लगी। उसे लौटना पड़ा।
जयवंती खाना बनाकर गई थी जिसे दोनों ने मिलकर खाया। इस बीच दोनों के बीच अपनेपन से भरी बातें हुईं जो बारिश रुकने तक जारी रहीं।
अब कविता को यह कहकर उठना पड़ा कि वह कल एसी बस से जाएगी, सी ऑफ करने जरूर आना।
कविता के जाते ही रमन के बहन-बहनोई आ गए थे।
घर जाकर कविता व उसके मम्मी-पापा की रमन को लेकर बात भी हुई और बहस भी। कविता ने जब उन्हें बताया कि वह नौकरी छोड़कर देहात में शिक्षण कार्य करेगी। अविश्वास और आश्चर्य के बीच उसने पापा और मम्मी को अपने तर्कों से शांत कर दिया।
दूसरे दिन रमन व जयवंती कविता को सी ऑफ करने बस स्टैंड गए थे, तब कविता, रमन को यह कहने में सफल हो गई थी कि उसके मम्मी-पापा का आशीर्वाद उनके साथ है।

*उक्त 59 पृष्ठीय 32 वाँ भाग अब तक का सबसे लंबा किन्तु सर्वश्रेष्ठ बन पड़ा है।* उपन्यासकार की लेखनी का जादू पाठकों के मन-मस्तिष्क पर अपना प्रभाव जमाने में सक्षम है। इस अंक की कई पंक्तियाँ उद्धृत करने योग्य हैं किन्तु समीक्षक की भी अपनी सीमाएँ होती हैं।
यहाँ प्रस्तुत हैं केवल चंद संदर्भों की पंक्तियाँ:
- 'आपके गाँव में कविता नहीं बल्कि राज्य सरकार की एक जिम्मेदार अधिकारी गई थी, जिसका अधिकार क्षेत्र तय करना दूसरों के नियंत्रण में था। कर्तव्यों को रिश्तों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता है।' (पृष्ठ 533)
- 'मम्मी, सुनो! मेरे सामने दो ही विकल्प हैं। पहला, मैं शादी न करूँ और आपके पास रहूँ। दूसरा, शादी वहाँ करूँ जहाँ मेरी अंतरात्मा मुझे कहती है। फैसला आपको करना है।' (पृष्ठ 543)
- 'पापा, आपके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। क्यों न उसमें से कुछ हिस्सा उस नेक काम में लगा दिया जाए तो अनेकों जिंदगियों के परोपकार के साथ-साथ आपकी पहचान को भी उन लोगों के जीवन में बनाए रखे। पापा, रमन एक बहुत ही बुद्धिमान और नेक इंसान है। मैं उसके साथ मिलकर और आपके सहयोग से गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसा स्कूल स्थापित करना चाहती हूँ जिसमें नवीनतम आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान करने के लिए सभी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध हों...' (पृष्ठ 544)
- एक प्रतिष्ठित पद को त्यागकर दूरवर्ती देहात में जाकर पुरुषार्थ का कार्य करना त्यागी साधु, महात्माओं का काम होता है। लाड़-प्यार और सभी सुख-सुविधाओं के साथ पली-बढ़ी यह लड़की वहाँ जाकर कैसे खुश रहेगी? (पृष्ठ 544)
- 'मम्मी जी, याद करो, कभी आपने ही कहा था कि एक शिक्षक देश और समाज के उत्थान में अधिक योगदान दे सकता है। आपने यह भी तर्क दिया था कि एक अधिकारी का दायरा सीमित होता है, जो कि उसके अपने विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों तक ही सीमित होता है। आपने यह भी कहा था कि एक शिक्षक अपने सेवा-काल में न जाने कितनी भावी प्रतिभाओं के चरित्र निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देता है। आपने यह भी कहा था कि समाज के निर्माण की चाबी शिक्षक के हाथ में है, न कि प्रशासक के। मैंने आपको वचन दिया था कि अगर मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति में नाकामयाब रही तो अवश्य एक शिक्षक बनकर आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करूँगी। मम्मी जी, वो समय अब आ गया है। मैं अपने काम का दायरा बढ़ाना चाहती हूँ। मैं एक शिक्षक बनना चाहती हूँ।' (पृष्ठ 545)
- 'देखो सुशीला! भगवान, इंसान के भाग्य की लकीर उसी दिन खींच देता है, जिस दिन इंसान धरती पर पैदा होता है। कोई माने या न माने, मैं तो इस उपपत्ति पर यकीन करता हूँ। त्याग की भावना उसी में होती है जो महान होता है। इसलिए हमारे लिए यह समय खुशी का होना चाहिए, न कि पश्चाताप का।' (पृष्ठ 546)
कहना होगा कि इतना वृहद अंक, जो महत्वपूर्ण घटनाओं से ओत-प्रोत है; में एक तरह से लेखक की भी अग्नि-परीक्षा होती है, लेखक ने संवादों, कथोपकथनों, परिवेश के चित्रण सभी में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। अस्तु, एक प्रकार से उपन्यासकार पाठकों का दिल जीतने में सफल रहे हैं।
अभी उपन्यास की 10 और कड़ियाँ शेष हैं जो 400 पृष्ठों में समाहित होंगी, में भी श्री किशोर शर्मा जी सारस्वत की लेखनी का जादू देखना शेष है।
तो आनन्द लीजिए, उपन्यास के 10 और खूबसूरत अंकों का।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर

Read More

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 31 की

कथानक : कविता के स्थानान्तरण पर विदा होते समय भीतर से उसके हृदय में एक तड़प थी। रमन और उसके बीच जो दीवार खड़ी हो गई थी, वह स्थानान्तरण से और भी मजबूत होनी थी।
रमन की पाठशाला बंद हो गई क्योंकि किसी उसके अपने ने ही पाठशाला में शराब का कार्टून रख दिया था। आखिर वह कौन था? इसका पता रमन के साथियों ने लगा लिया और यह भी उससे लिखवा लिया कि किस तरह केहर सिंह ने उसे 500 रुपये का लालच देकर यह काम कराया था। यद्यपि जिसने यह किया, उसके लिए अब बहुत शर्मिंदा था। बहरहाल, छांगू राम नाम के उस आदमी की लिखित मूल प्रति वकील को सुपुर्द कर दी गई।

उपन्यासकार ने अब दोषियों की परतें खोलने का काम आरम्भ कर दिया है अत: कथानक में रोचकता बढ़ती जा रही है।
इस अपेक्षाकृत छोटे अंक में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई हैं- 1.कविता का स्थानान्तरण होने से उसका कार्यमुक्त होना तथा 2.पाठशाला में शराब की बोतलों के पाए जाने के कांड का भंडाफोड़ होना।
कार्यमुक्त होने के बाद कविता के मन में उमड़े विचार यहाँ द्रष्टव्य हैं:
रमन की बेरुखी उसे और भी परेशान किए जा रही थी। आखिर ऐसा कब तक चलेगा? उसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। मेरी और उसकी स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। मुझे मेरे पद की गरिमा बनाए रखने का बंधन है, परंतु वह तो बंधनमुक्त है। मैं तो उससे मिलने राधोपुर नहीं जा सकती, परन्तु उसे यहाँ पर टोकने वाला कोई नहीं है। एक स्त्री होने के नाते मेरी कुछ मजबूरियाँ हैं, परन्तु उस पर तो कोई ऐसी विवशता नहीं है। कितना अच्छा होता, आज वह मेरे बगल में या सामने बैठकर इन पलों की तन्हाई में मेरे साथ होता। आदमी कितना भी कठोर हो, स्त्री का हृदय कोमल होता है। वह कठोरता में भी उस कोने को तलाशती है, जिसमें प्यार की जरा सी भी आहट हो। कविता आज उसी आहट को महसूस करना चाहती थी, एक मृगतृष्णा की तरह। (पृष्ठ 480-81)
लेखक ने यहाँ कविता के मन को टटोल कर उसके मन की परतें खोली हैं। आज दो व्यक्ति मन के साथ स्थान से भी दूर हो गए हैं लेकिन कविता के मन के उद्गार उसके मन को प्रतिबिंबित कर रहे हैं। देखना यह है कि इस कपल का मिलन अब कहाँ होता है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
1.1. 2025
5:30 a.m.

Read More