पुस्तक समीक्षा
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बाल मन का मंथन करते हुए उससे अमृत निकालता हुआ बाल उपन्यास है -
‘उन्मुक्त उड़ान’
- माणक तुलसीराम गौड़
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बालकों के लिए लिखना बहुत ही दुष्कर कार्य है। इसके लिए न केवल बालक बनना पड़ता है बल्कि बालक बनकर जीना पड़ता है। जिसे कहते हैं परकाया प्रवेश। जो एक बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि बालकों की रुचि, स्वभाव और उनके कार्यकलापों को जानना-समझना हँसी-खेल नहीं। यह एक तरह से रस्सी पर चलने की कसरत जैसा है, जिसे ख्यातनाम तथा इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड्स धारक साहित्यकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ ने सफलतापूर्वक कर दिखाया है। अर्थात् आपने हाल ही में अपना बाल उपन्यास ‘उन्मुक्त उड़ान’ नाम से लिखा है जो अभी-अभी प्रकाशित हुआ है।
जिसका मुख्य नायक है विश्वनाथ नामक लड़का जो अपने ननिहाल में रहकर नाना-नानी के पास पढ़ता है, क्योंकि उसके पिताजी का स्थानांतरण ऐसे शहर में हो गया है जहाँ भाषा हिंदीतर होने की वजह से आने वाली परेशानियों के कारण उनके साथ जा न सका।
विश्वनाथ स्वभाव से नटखट, उच्छृंखल तथा शरारती है। वह न केवल स्वयं ऐसी हरकतें करता है बल्कि अपने सहपाठियों को भी उकसाकर अपने साथ में कर लेता है, खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, जैसे।
पहले इस गाँव में भी पाठशाला नहीं थी, मगर सजग ग्रामीणों के सद्प्रयासों से न केवल पाठशाला ही खुली बल्कि देखते-ही-देखते वहाँ छात्र-छात्राओं की संख्या भी बढ़ने लगीं। अच्छे कार्यों में रोड़े डालने वाले यहाँ भी उपस्थित हुए, मगर उनकी एक न चली। गाँव वालों को शिक्षा का महत्व मालूम था। कहा भी गया है कि पढ़े-लिखों के चार आँखें होती हैं।
बच्चों को वैसे भी बंदरों की संज्ञा कहो या उपमा दी गई है। शरारतें तो ये करते ही हैं, परंतु जब ये अपनी सीमाएँ लाँघने लगते हैं तब क्या परिवार, क्या पड़ोसी तथा क्या पाठशाला इनकी हरकतों से तंग आकर तौबा-तौबा कर बैठते हैं। बालक विश्वनाथ की गिनती भी ऐसे ही बच्चों में होती है, मगर एक बात और है नटखट और उन्मुक्त आचरण वाले बच्चे सामान्यतः पढ़ने में मेधावी होते हैं जिससे वे अपने शिक्षकों के आँख के तारे बन बैठते हैं। कहते हैं कि दुधारू गाय की लात भी बर्दाश्त की जाती है। विश्वनाथ के साथ भी यही हुआ।
वह अपने सहपाठियों के कान भरकर उनसे कभी बहाना बनाकर छुट्टी लेने के लिए कहता, कभी बरगद के पेड़ में छिपकर खो जाने का ढोंग रचते, कभी बंदर बनकर नाटक करते, कभी पाठशाला की घड़ी में छेड़-छाड़ करते तो कभी ज्वार के खेत में जा छुपते। अर्थात् नाना प्रकार की खुराफातें करने में अव्वल था, वह।
एक समय ऐसा भी आता है जब अध्यापकजी उसकी हरकतों से बाज आकर उसको घर भेजने की तैयारी कर लेते हैं। लेकिन यह खबर जंगल में आग की तरह जब उसके घर पहुँचती है तो उसकी नानी सुभाषिनी सिंहनी-सी हुंकार उठी- ‘‘बच्चा है, इसका कुछ तो लिहाज़ करो। आप मास्टर जी को समझा नहीं सकते ? आखिर वे भी तो इंसान हैं। उनके भी तो अपने बच्चे होंगे। बच्चों से गलती हो ही जाती है। इसका मतलब ये तो नहीं है कि उन्हें समझाने की बजाय बच्चे को अव्यवहारिक दंड दिया जाए।’’ पृष्ठ 86
खैर येन-केन-प्रकारेण यह आग बुझ गई और विश्वनाथ पहले की तरह उसी स्कूल में पढ़ने लगा।
हमें ऐसे बच्चों की उड़ान पर नजर तो रखनी चाहिए, मगर रोक नहीं। यह उन्मुक्त उड़ान ही उन्हें एक दिन सफल व्यक्ति बनाने में मदद करेगी। ऐसा मेरा मानना है।
उसके पश्चात् शाला में गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय पर्व मनाने का सुअवसर आता है तब विश्वनाथ अपने मामा चैतन्य की सहायता से शानदार तैयारी करता है। कार्यक्रम के पूर्वाभ्यास के दौरान उसने मास्टरजी को चैतन्य द्वारा लिखित समूहगान दिखाया। उन्होंने पूरी तन्मयता से इसे पढ़ा तो यह अध्यापकजी को पसंद आ गया।
26 जनवरी के दिन सर्वप्रथम हमारा पावन राष्ट्रगान तथा फिर राष्ट्रगीत गाये गए। उसके पश्चात् - समूहगान हुआ जो बहुत ही प्यारा था-
भारत माँ के बच्चे हैं
इरादे हमारे पक्के हैं
झुकने ना देंगे शीश
हम अपने वतन का
देशभक्त हम सच्चे हैं।
पृष्ठ 107
इस अध्यक्षीय भाषण से कार्यक्रम का समापन होता है-
‘प्यारे बच्चों! अधिक समय न लेते हुए मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि तुम इस देश के भावी कर्णधार हो और देश को आगे बढ़ाने का उत्तरदायित्व तुम्हारे कंधों पर है। आपको शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिससे तुम जिम्मेदार और सक्षम नागरिक बन सको और देश के विकास में अपना योगदान दे सको। किसी ने ठीक ही कहा है -‘बच्चा पढ़ेगा तो देश बढ़ेगा’ आओ हम सब मिलकर बोलेंः
‘जयहिंद!’ पृष्ठ 110
अंत में जब बच्चों को लड्डू बाँटे जाते हैं तब हमारे बचपन के दिन याद हो आते हैं, उस समय हम यह भूल जाते कि अरे, हम तो उपन्यास पढ़ रहे हैं।
कुछ समय पश्चात् उसके पिताजी का स्थानान्तरण पुनः उनके शहर में हो जाने से विश्वनाथ को यह पाठशाला छोड़कर जाना पड़ता है तब वह दृश्य बहुत ही गमगीन तथा मार्मिक हो जाता है। उस विदाई की वेला में सबकी आँखें गीली थीं। कौन कह सकता है कि यह वही बालक था जिसे कभी इस स्कूल से स्थाई रूप से निकाले जाने का निर्णय हुआ था। यही है बचपना। यही है बालकपन। यही है ‘उनकी उन्मुक्त उड़ान’ जिसे उपन्यासकार हमारे सन्मुख प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं।
उपन्यासकार में वर्णित देशप्रेम के गीतों से वातावरण देशभक्तिमय हो गया। साथ ही गीत बच्चों के बहुत करीब होते हैं, जिससे बच्चे इन्हें पढ़कर, गाकर या गुनगुनाकर बड़े खुश होंगे।
उपन्यास की भाषा सहज, सरल, प्रांजल तथा प्रवाहमान है जिससे पढ़ने में उत्सुकता तथा निरन्तरता बनी रहती है। साथ ही हर उम्र के बच्चे इसे न केवल सरलता से पढ़ पाएँगे बल्कि समझ भी पाएँगे।
बाल साहित्य में बाल उपन्यासों का अकाल-सा है, मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह उपन्यास उस रिक्तता की पूर्ति करने में सफल होगा। साथ ही बाल मनोविज्ञान पर आधारित होने से यह बालकों के मन को पढ़ने, उनका विश्लेषण करने तथा तदनुसार समाधान निकालने के लिए यह उपन्यास बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा।
यह मेरा परम सौभाग्य है कि श्री सारस्वतजी के प्रकाशित साहित्य में से चार कृतिया पढ़ने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ। जिसमें उन्होंने मानव को गढ़ने, उनमें चरित्र निर्माण करने, देश के प्रति समर्पण की भावना भरने तथा आने वाले कल के भविष्य अर्थात् बच्चों को पंछी की तरह उन्मुक्त और ऊँची उड़ान भरने की प्रेरणा देने वाली है ताकि वे सायं को अपने घोंसलों में सुरक्षित लौट सकें।
मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ जी की अन्य पुस्तकों की तरह यह बाल उपन्यास भी पाठकों-साहित्यप्रेमियों का स्नेह पाएगा तथा एक नया कीर्तिमान स्थापित करेगा।
एक उत्कृष्ट बाल उपन्यास के लिए मेरी हार्हिक बधाई।
शुभेच्छु,
माणक तुलसीराम गौड़
साहित्यकार और समीक्षक
संपर्क -
87429 16957
समीक्षित कृति -
उन्मुक्त उड़ान
उपन्यासकार -
किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
संपर्क -
90502 23036
विधा - बाल उपन्यास
प्रकाशक - के. वी. एम.
प्रथम संस्करण - 2025
मूल्य -
250/ - रुपये मात्र
पृष्ठ - 121 (पेपर बैक)
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