समीक्षा
**
सामाजिक बुराइयों का शमन करके-नवयुवकों के त्याग और तपस्या के बल पर भारत के नव निर्माण एवं उत्थान के लिए सपने संजोता उपन्यास है- भीष्म प्रतिज्ञा-
माणक तुलसीराम गौड़
: :
साहित्य जगत में श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ एक जाना-माना नाम है जो उच्च शिक्षित तो हैं ही साथ ही हरियाणा राज्य के सूचना आयोग में सलाहकार पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। आपकी अब तक सत्रह कृतियाँ साहित्य जगत में पदार्पण कर चुकी हैं जिनमें सात कृतियाँ प्रसिद्ध और बेस्टसेलिंग के दर्जे में आ चुकी हैं। इनके अतिरिक्त दो कहानी संग्रह तथा एक काव्य संग्रह ‘एक अभिलाषा अधूरी-सी’ के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। आपको आपकी श्रेष्ठ रचनाधर्मिता एवं साहित्य सेवा के लिए अनेक सम्मान एवं पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो एक गौरव का विषय है।
‘भीष्म प्रतिज्ञा’ नामक उपन्यास इनका इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है जिसे श्री किशोरजी ने मुझे अपना मानते हुए बड़े ही नेह के साथ भेजा है, जिसे मैंने सात दिन में पढ़ डाला। उपन्यास में गति है, लय है, मेरी-आपकी सब की बातें हैं, रोचकता है, घटनाओं की एक श्रृंखला है। उपन्यास के नायक जिसका नाम ‘कृपाशंकर’ है के मन में एक आग है तो कुछ कर गुजरने का जज्बा भी। भविष्य के सपने हैं तो सच को सच तथा झूठ को झूठ कहने का माद्दा भी। त्याग करने की तमन्ना है तो बलिदान होने का मन में बल भी। जीवन जीने की जिजीविषा है तो जीवन उत्सर्ग करने का साहस भी। किसी के साथ चलने की प्रबल इच्छा है तो किसी को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य भी। प्रेम का प्यासा है तो नेह लुटाने की चाहत भी। किसी का परामर्श मानने की ललक है तो नेतृत्व करने की क्षमता भी। पात्र व्यक्ति को सहयोग करने की भावना है तो जरूरत पड़ने पर सहयोग प्राप्त करने की तत्परता भी। और अंत में मानवोचित व्यवहार करने में हमेशा आगे रहने का स्वभाव है तो अपने मित्रों को उसी पथ पर चलने के लिए प्रेरणा देने की कूवत भी।
उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ का फलक बड़ा व्यापक और विस्तृत है। जिसमें इस उपन्यास के शीर्षक को सार्थक करता हुआ नायक कृपाशंकर एक छोटे-से गाँव का निवासी है। जो विद्यार्थी जीवन से ही एक होनहार छात्र रहा है। जिसके पिता का नाम पं. दीनदयाल, माता का नाम सावित्री तथा बहन का नाम यशोदा है। परिवार में मुफ़लिसी है। फिर भी अपनी सीमित आय में गुजारा करने वाला परिवार। परम संतोषी स्वभाव।
कृपाशंकर के मन में उसके प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन से ही एक ज्वलंत प्रश्न हमेशा बना रहा कि हम इस भारत भूमि में हमेशा बहुसंख्यक रहे, मगर हम ही क्यों निरंतर गुलाम रहे। क्यों हमने गुलामी को हमारी मानसिकता मान ली। क्यों नहीं हमने सामूहिक प्रयास और संघर्ष किए। क्यों नहीं हमने इकट्ठे होकर उन आतताइयों का मुकाबला किया! क्यों हमने हमारे आदर्शों- सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, बंकिमचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे वीरों, बलिदानियों, तपस्वियों के त्याग को भुला दिया!
उपन्यास के अनुसार यह वृति आज भी हमारे देश में विद्यमान है। मीर जाफर हर युग में पैदा हो रहे हैं। तभी तो उनके मामाजी कहते हैं, ‘‘इसका कारण था बेटा, द्वेष की भावना और आपसी फूट। जब एक राजा अंग्रेजों से लड़ता था तो दूसरा उनकी सहायता करता था। बस यही सिलसिला चलता रहा और अंग्रेज देश पर कब्जा करते गए।
पृष्ठ- 45
बालक कृपाशंकर के मन में ग्राम विकास की तड़प बालपन से ही कुलाँचें मारती रही। चाहे वह समस्या गाँव में पीने के पानी की हो या फिर शराब और अन्य नशाखोरी के विरोध की। गाँव में शिक्षा सुधार की बात हो या अन्य विकास की बातों की।
कहते है जहाँ चाह वहाँ राह मिल ही जाती है। अपनी निर्धनता के कारण जब कृपाशंकर की पढ़ाई में बाधा आई तो उस पर नेह बरसाने वाली अध्यापिका ने पढ़ने के लिए उसे अपने पास बुला लिया और यहीं से उसके जीवन ने करवट बदली।
वह पढ़ने के उद्देश्य से गाँव छोड़कर शहर आ तो गया पर उसका कोमल और मोम-सा मन गाँव की गलियों में ही भटकता रहा। उसे अपने बाल सखा जिसमें रामू पहलवान मुख्य था, हमेशा याद आता रहा। गाँव की ओछी राजनीति और स्थानीय राजनेताओं के नित नये हथकण्डे उसे बेचैन किए रहते। खासकर स्थानीय चुनावों में अपनाए जाने वाले षड़यंत्र।
इस बीच महाविद्यालयीन पढ़ाई के दौरान जब उसका संपर्क सहपाठी दुस्यंत, अमरदीप, अनुराधा इत्यादि से होता है तो उसे जीवन के अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। दुष्यंत एक अमीर परिवार का बिगड़ेल लड़का था जो कॉलेज में तफरीह करने जाता है तथा सुंदर-सलोनी लड़कियों को छेड़ना, भद्दे मजाक करना तथा उनके साथ दिल्लगी करके अपना मन बहलाता है। इसी तारतम्य में जब वह अनुराधा के साथ निचले स्तर की हरकत करता है तो उसे मुँह की खानी पड़ती है। कहते हैं कि ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं तथा गोपाल की लाठी बजती कम, मगर चोट गहरी करती है।’ दुर्भाग्यवश दुस्यंत की एक भयंकर सड़क दुर्घटना होती है और वह कृपाशंकर तथा अनुराधा की असीम सहायता तथा सेवा-सुश्रुषा से बच जाता है।
बस, यहीं से दुष्यंत की जिंदगी बदल जाती है। जब वह अस्पताल में पड़ा हुआ स्वास्थ्य लाभ ले रहा होता है तब अनुराधा उससे मानवता के नाते मिलने जाती है। उसे देखकर पश्चाताप के मारे दुष्यंत के आँसू टपक पड़ते हैं। उसकी दुर्दशा देखकर अनुराधा की आँखें भी छलक जाती हैं।
तब दुष्यंत हिम्मत बटोरकर रुंधे गले से बोलता है- ‘‘भाई को माफ नहीं करोगी अनुराधा ?’’
ये चंद शब्द मानो तीर बनकर अनुराधा के दर्द भरे मन को छेदकर पार कर गए हों। वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। पत्थर का कठोर बुत आज मोम बनकर उसके सामने अपनी पहचान बदल चुका था। वाह रे समय! तू कितना बलवान है। आदमी तो तुच्छ है तेरे सामने। वो मूर्ख है जो तुझे पहचानते नहीं और तेरे र्वमान में मदमस्त होकर भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगते हैं। जबकि भविष्य तो अंधकार है, जिसे पहचान पाना मुश्किल है।
तब अनुराधा ने धीरे-से दुष्यंत का हाथ पकड़कर ऊपर उठाया और उसे झुककर माथे से लगाकर आँखें बन्द कर ली। उसके नयनों से टपके आँसू दुष्यंत की कलाई पर जा गिरे। मानो एक बहिन ने अपने भाई की कलाई पर धागे की नहीं अपितु आँसुओं की राखी बाँध रही हो। पृष्ठ 256
मेरे मतानुसार यह प्रसंग इस उपन्यास की आत्मा है।
जब कृपाशंकर देखता है कि गाँव हो या कस्बा, शहर हो चाहे नगर चारों तरफ अंधविश्वास, व्यसन, परंपरावादी सोच, रूढ़ीवादिता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, आडंबर, ढ़कोसले, लंपटता, चापलूसी, स्वार्थपन, छल-कपट, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद जैसी दिखने में लघु, मगर घाव करने में गंभीर बातों से जब तक नहीं निपटा जाएगा, आगे बढ़ना मुश्किल है। इन नन्ही-नन्ही बातों पर हम ध्यान भले ही नहीं दे पाते हों, मगर ये छोटी बातें ही आगे चलकर बड़े-बड़े प्रभाव डालती हैं। छोटी-छोटी बातों से ही देश बनता है और उसी से देश बिगड़ता है।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमारा कोई एक सहारा या कहो कि कोई निमित बनता है जैसे कृपाशंकर को वह अध्यापिका मिली और य सोदा को मामाजी। अन्यथा वे गरीब घर के बच्चे पढ़ और बढ़ नहीं पाते।
जब हमारे मन में किसी को जोड़ना होता है तो इसका माध्यम कोई भी हो सकता है, बशर्तें हमारा ध्येय पवित्र हो। जैसे कृपाशंकर ने कुश्ती दंगल के माध्यम से अपने गाँव वासियों को जोड़ा जो दो गुटों में बंटकर रोज आपस में सिर फोड़ते थे।
हम जो दुनिया के साथ व्यवहार करते हैं। उन पर हमारे मात-पिता या गुरुजनों की दृष्टि हमेशा रहनी चाहिए ताकि हम भटकें नहीं। इसी तारतम्य में एक बार दीनदयालजी कृपाशंकर से कहते हैं- ‘‘बेटा, जवानी का उबाल दूध की तरह होता है जो कभी भी बर्तन से बाहर निकल सकता है।’’ पृष्ठ 288
इसी तरह भारत भ्रमण के दौरान जब उसे एक जगह पुलिस कप्तान कहते हैं- ‘‘दूध में पानी तो मिलाया जा सकता है, मगर पानी में दूध नहीं मिलाया जा सकता। जब सारी व्यवस्थाओं को घुन और जंग लग चुका हो तो उन्हें जीवनदान देना इतना सहज नहीं है, जितना तुम मानकर चल रहे हो।’’ पृष्ठ 334
‘‘दुर्जन से मित्रता और दुश्मनी दोनों को त्याग दो। क्योंकि दोनों ही हानिकारक है।’’ पृष्ठ 362
कृपाशंकर के संघर्ष में पीटर की भी महत्वपूण भूमिका रही। जिसने उसके प्रथम उपन्यास ‘अपना देश’ को प्रकाशित करवाने, बिक्री की व्यवस्था करने तथा अग्रिम भुगतान देकर वह कृपाशंकर की आर्थिक सहायता करता रहा। अन्यथा उसकी भारत भ्रमण यात्रा सफल नहीं हो पाती।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला कुछ नहीं कर सकता। सभी मिलकर के बहुत कुछ कर सकते हैं। एकता में बहुत शक्ति होती है, यही इस उपन्यास का महत्वपूर्ण संदेश है। कहा भी गया है- ‘‘झुंड से बिछुड़कर तो शेर भी कमजोर पड़ जाता है।’’ पृष्ठ- 364
‘‘इनसान जितना दूर होता है, उसकी कशिश उतनी ही पास होती है और शायद जीवन की यही सब से बड़ी आकर्षक और मनोहारी अवधि होती है। पृष्ठ- 383
भारत भ्रमण के दौरान जब कृपाशंकर राजनेताओं की बातों के जाल में फँसकर चुनाव के वक्त जब संबोधन करता है तब उस पर जानलेवा हमला हो जाता है। अमनदीप उससे मिलकर जब उसके गाँव धर्मपुर जाकर उसकी माँ से मिलता है तब वह कहती है, बेटा, अम्माजी के हाथ से बनी हुई चीज और बाजार से खरीदी गई चीज में बहुत अंतर होता है। एक में आत्मिक स्नेह होता है और दूसरी में मजबूरी की तल्ख।’’ कितना हृदयस्पर्शी बचन है। पृष्ठ- 388
अब देखिए राजनीति पर एक तंज की बानगी, ‘‘राजनीति तो वो खेल है जहाँ पर ना कोई मित्र है और ना कोई दुश्मन, केवल स्वयं हित सर्वोपरि है।’’ यह एक कटु सत्य है। पृष्ठ- 404
भवन की सुदृढ़ता उसके सुंदर कंगूरों से नहीं बल्कि उसकी नींव की मजबूती पर निर्भर करती है। हमें सर्वप्रथम हमारे चरित्र को उज्ज्वल रखते हुए, हमारे हृदय में राष्ट्र प्रेम की ज्योत जगानी होगी, हमें हमारे कर्तव्य निर्वहन पर खरा साबित होतेेे हुए दायित्वों को भलि-भाँति निभाना होगा। अपनी स्वार्थपरता को तिलांजलि देते हुए परहित के मार्ग पर चलना होगा। यह काम सरल नहीं है। काँटों पर चलना है। मगर कुछ पाना है तो कुछ खोना होगा, यही सीख देता, समझाता है यह उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसे हर नवयुवक को न केवल पढ़ना चाहिए बल्कि इसे अपनी आदर्श रचना मानते हुए इससे समय-समय पर आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना चाहिए।
इस तरह एक वृहद उपन्यास जिसका समापन सुखांत होता है, जिसमें उपन्यास का नायक देशभक्त और रचनाधर्मी कृपाशंकर का शुभ विवाह अपने माता-पिता की सहमति से उपन्यास की नायिका अनुराधा के साथ होता है।
समीक्षित कृति में विविध प्रकार की शैली का प्रयोग हुआ है जिससे इसमें रोचकता आ गई है, भाषा सीधी, सरल, प्रांजल तथा देशज शब्दों से सजी हुई है। यत्र-तत्र मुहावरों का समुचित प्रयोग हुआ है। पात्रानुकूल भाषा से उपन्यास में एक अलग ही प्रभावोत्पादकता पैदा हो गई है तथा यह कृति भी उत्कृष्टता की श्रेणी में आ गई है।
इस वृहद उपन्यास की संरचना के लिए उपन्यासकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ जी को मेरे हृदय की अतल गहराइयों से मैं बधाई देता हूँ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत, पाठक तथा विशेषकर युवावर्ग में इसका खुले मन से स्वागत होगा।
***
मेरी पुनः शुभकामनाएँ।
पुस्तक का नाम : भीष्म प्रतिज्ञा
लेखक : किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. : 90502 23036
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : के बी एम प्रकाशन
प्रथम संस्करण : 2025
मूल्य : रुपये : 699
पृष्ठ : 449 (सजिल्द)
**
समीक्षक :
माणक तुलसीराम गौड़
बेंगलुरु
मो. नं. :
87429 1695