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जहन में एक गांव रहता है जिसमें न बिजली थी न अस्पताल था न पाठशाला थी न रेल गाड़ियों की आवाजाही न बसों की खीच पुकार उस गांव में वृक्ष रहते थे अपने मित्रों और रिश्तेदारों के साथ एक बंबा था थे उसी से जुड़े कई एक कूल किनारे उस गांव का लोक जीवन भ्रमित नहीं था वह लालित्य में फलित था हरियाली तीज ले आई वहीं से पुरवा हवा आज मेरी खिड़की में। कल्पना मनोरमा
अच्छी माँएँ बच्चों की नाराजगी की चिंता नहीं करतीं वे उनके भविष्य की उधेड़-बुन में उधेड़ती रहती है जीभर-भरकर अपने आपको अच्छी माँएं ऊपर-ऊपर से लीपकर चिकना नहीं बनातीं वे बेटियों को पाथती रहती हैं कण्डों की तरह वे नहीं छोड़तीं हैं उनका एक भी कोना बिना थपका इसके बदले में माँओ को प्यार नहीं मिलता है बेटियों की तरफ से मिलती है नासमझ बेरुख़ी लेकिन वे फिर भी मढ़ती रहतीं है अपनी ढोलक अंधरे खटीक की तरह लगन और मेहनत से वे सोचती हैं देखती हैं बहुत दूर तक अच्छी माँएँ चाहती हैं कि जब बेटियाँ करें आरम्भ पाथना अपनी जिन्दगी को तो बना सकें अद्भुत आकार गृहस्थी का अच्छी माएँ डाँटने से नहीं ज्यादा दुलराने से डरती हैं अच्छी माँएँ कोयल नहीं, बया होती हैं | -कल्पना मनोरमा
पिता पेड़ की वह फुनगी हैं जिसको हमने छू न पाया ।। झुक आते हैं सूरज-चन्दा नम नदिया के शीतल जल पर लेकिन पिता नहीं झुक पाते ममता के गीले इस्थल पर आकाशी गंगा के वासी पता नहीं उनका मिल पाया ।। चट्टानें भी ढह जातीं जब उग आती है उन पर धनिया उनका मन हीरे का टुकड़ा बुद्धि बनी है चालू बनिया रही पूजती खामोशी को फिर भी दर्शन हो ना पाया ।। मेरे भीतर हैं वे हर पल फिर भी उनको ढूंढ न पाई कौन घड़ी में विधना तूने उनके भीतर भीत उठाई अभिभूत है जीवन मेरा उसने पाया,उनका साया ।। -कल्पना मनोरमा 8.10.2020
अनुभूति 'अनु' के चित्र पर कल्पना मनोरमा की कविता स्त्री जब जन्म देती है स्त्री को कहलाती हैं वे माँ-बेटी बेटी के बहाने से करती रहती है माँ अपनी ही इच्छाओं की मरम्मत करीने से और माँ की छाँव और ममता के बहाने से बेटी सीखती रहती है अपनी जिंदगी के लिहाफ़ में बखिया सीधा डालना हर दिन जब माँ जलाती है खुद को तब मिलता है उजास बेटी को और उसी दीपदीपाने में सीखती है अबोध बेटी अपना नन्हा दीया जलाना समझ की बाती कभी घटती है तो कभी बढ़ती है बस उसी को सम्हालने का नाम हैं परंपरा इसी सहेजने और सहजवाने में खप जाती हैं दोनों समूची स्त्रियाँ लेकिन फिर भी मुस्कुराती हैं वे एक -दूसरे को देखकर अपने-अपने उम्र के आख़िरी मोड़ तक । -कल्पना मनोरमा
कल्पना मनोरमा लिखित कहानी "कमल पत्ते-सा हरा-भरा गाँव " मातृभारती पर फ़्री में पढ़ें https://www.matrubharti.com/book/19895581/kamal-patte-sa-hara-bhara-ganva
गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं -------------------------- पालोगे गिलहरियाँ तो पछताना पड़ेगा किसी ने कहा था उससे क्योंकि गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं जो ख़ोज लाएँगी अपनी जरूरत का सामान कबाड़ से बेकार पड़ी चीज़ों से और तीर लेंगीं घोंसला अपना गायेंगी प्रभाती और बहलायेंगी मन तुम्हारा गिलहरियाँ तो काटती हैं तुम्हारे चुने हुए सामन से घर में घुसकर छाती पर चढ़कर नहीं आँख बचाकर तुम्हारी अच्छी-अच्छी चींजों को नई दरी को पाँव के नीचे से पाँवदान और कालीन को तकिये की झालर को खिड़की के उस पर्दे को जो बचाता है चटक धूप और माटी से वे नहीं सोचती कुतरने से पहले उस चीज के बारे में जिसको चुना होगा किसी ने अपना बहुत कुछ चुका-चुकाकर बड़े ही जतन और प्यार से गिलहरियाँ मजबूर होती हैं शायद अपने दाँतों से जो बढ़ते रहते हैं बेतहाशा उनके मुँह में वे घिसती रहती हैं लगातार कुतर-कुतरकर जड़ें किसी न किसी कीं अपने दाँतों को गिलहरियाँ गौरैयाँ नहीं होतीं जो बोल-बोलकर सरेआम फुदक-फुदक खा जायेंगे कटोरे से चावल और परात से गुंथा आटा वे करती हैं काम अपना छिप-छिपकर बड़ी ही नज़ाकत से और होते ही आहट भाग जाती हैं दबे पाँव तुम्हारी नाक के नीचे से बिखेरते हुए थाली से मूंगफली के दाने याकि काली मिर्च या साबूदाना क्योंकि गिलहरियाँ नहीं कर सकती हैं प्रेम गौरैयों की तरह | -कल्पना मनोरम
कामनाएँ पूर्ण हों पर पाँव विचलित हों नहीं चलते रहें हर हाल में थककर कभी ठहरें नहीं निज कर्म से हो आसरा,सम्मान सबको दे सकें। हो लक्ष्य में सागर समाहित रुकें मन लहरें नहीं । -कल्पना मनोरमा
माटी के पुल ********** माटी के पुल टूट गये सब उजड़ गये जो तगड़े थे | नई पतंगें लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी, थे जिन पर मांझे कच्चे दौड़ रहे थे दौड़ें लम्बी छूट गये जो लँगड़े थे || महँगी गेंद नहीं होती है, होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मंगा पायी लहँगा थे हल्दी,कुमकुम अक्षत सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरज़रूरी बने काम सब चाहत वाले बिगड़े थे || -कल्पना मनोरमा 23.08 .2020
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