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ख़ुशी मैं ख़ुशी हूँ मैं बसती आप में ही हूँ पर आप हैं कि मुझे इसमें,उसमें तलाशते हैं कभी यहाँ तो कभी वहाँ कभी ऊँचे मकान में तो कभी लम्बी गाड़ी में खोजते हैं पर क्यूँ जनाब? ग़लत फ़हमी के शिकार हैं आप मैं आपके घर के कोनो में बसी हूँ सरकार अंधेरी झोपड़ी की उस गुदड़ी में मिल जाती हूँ मैं, उसकी थकी देह की सुकून भरी गहरी नींद में जो नहीं मिलती करवट बदलते उन मोटे गद्दे तकियों में आधी-अधूरी भूख से भरे हुए उदर में भरी हुई पात की छूटी हुई जूठन से मिले हुए सुख से टकराए हुए अहं की थकी हुई देह की छुवन भरे नेह की ख़ुशी हूँ मैं ख़ुशी जो बसी हूँ तुम्हीं में, बस तलाश लो मुझे अपने में। ज्योत्सना सिंह लखनऊ 10:43pm. 1-1-2020
सुकून मिलता है दिल को तेरे आ जाने से दिन भी चाँद निकलता है तेरे आ जाने से
माना स्पर्श ज़रूरी है उसकी भी अपनी भाषा है पर मर्यादा हर रिश्ते में हो मेरी इतनी परिभाषा है ज्योत्सना सिंह लखनऊ
चित्र प्रतियोगिता के लिए (नफ़रत की परखनली) सालों पहले लगी शर्त आज उन दोनो को उम्र के इस पड़ाव में याद आ रही थी। उसने कहा था। “सन्तान ईश्वर की देन है।” पर उसे अपने वैज्ञानिक प्रयोग पर ग़ुरूर था तभी तो वह बोली थी। “हमने कितनी प्रगति कर ली है ये तुम भी जानते हो हम परखनली शिशु सालों पहले बना चुके हैं।” साहित्य का वह उपासक बोल उठा था। “उसकी मर्ज़ी में ही तेरी जीत है।” और उसने उसे ग़लत साबित करने के लिए अपनी ही औलाद को दुनिया में लाने के लिए विज्ञान का सहारा लिया था। नव जीवन संचार में प्रेम की जगह घृणित अहंकार ने ले ली। वह जैसे जन्मा था वैसे ही पला भी था। पर न जाने क्यूँ आज उन्हें उससे चाहत की आस हो आई। और वह उससे ठोकर खा एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप करने लगे। “यह तुम्हारा वैज्ञानिक प्रयोग है ऐसा तो होना ही था।” “मैंने उसे सब इंजेक्शन दिए थे उसमें कोई कमी नहीं है वह बलवान है बुद्धिमान है। बस हमें अपना ही तो नहीं समझता।” वह ख़ुद से ही हारता हुआ थोड़ा व्यंग्यात्मक लहज़े से बोला। “काश तुमने भावनाओं का भी एक इंजेक्शन लगाया होता तो आज वह हमारा ही होता।” वह दोनो ही हारे हुए एक दूसरे को नफ़रत की परखनली से देखने लगे। ज्योत्सना सिंह लखनऊ 10:22pm. 21-9-19
बिन जल मछली सुन कर उनका दिल धक से कर गया एक बार फिर से! बस अस्फुटित से बोल उनके फूटे। “हे ईश्वर! दूसरी बार उम्मीद जगा कर आख़िर क्यूँ?आप ने ऐसा किया आप गुड दिखा कर ईंटा मार रहें हैं मुझे। जीवन सफ़र के किनारे पर लगी मैं और कितना इंतज़ार करूँ?” फ़ोन किनारे रख उन्होंने मुँह से चादर तान ली वह नहीं चाहती थी कि उनके भीगे कोरों को कोई देख पाए। तभी कमरें का दरवाज़ा पीछे धकेलते हुए उन्होंने ने प्रवेश किया और उन्हें इस क़दर लेटा देख परेशान होते हुए पूछा। “क्या हुआ तबियत तो ठीक है?” “मुझे क्या होगा?” उन्हें ने उनकी चादर हटाते हुए कहा। “कुछ तो हुआ है।” करवट बदलते हुए वह बोली। “तुम नहीं समझोगे।” पास रखे उनके फ़ोन को देख फिर कुछ देर के मौन के बाद वह बोले। “क्यूँ नहीं समझूँगा? क्यूँ कि मैं पुरुष हूँ मुझे फ़र्क़ नही पड़ता। अरे! मैं सब समझता हूँ अभी सैर के लिए नहीं गया था मैं उसी का हाल जानने हॉस्पिटल तक गया था।।” इतना सुन वह उठ कर बैठने की कोशिश करती हुई ज़ोर लगा कर बोली। “क्यूँ गए आप वहाँ तक आप को अपनी इज़्ज़त नहीं प्यारी है फिर कुछ वह बोल देती तो पहले कम सहा है आप ने जो फिर से वहाँ चले गए।” सहारा दे उन्हें लिटाते हुए वह बोले। “मुझे अपनी और तुम्हारी दोनो की इज़्ज़त का ख़्याल है।मैं बस डॉक्टर से हाल पूछ कर चला आया हूँ।” “क्या कहा डॉक्टर ने?” “छोड़ो तुम सुन न सकोगी।” सब कुछ जान लेने के भाव उनके चेहरे पर देख वह अफ़सोस भरे शब्दों में उनका हाथ कस कर पकड़ बोले। “अधिक नशा करने की वजह से ही दो बार गर्भपात हुआ है और अब वह कभी माँ नहीं बन पाएगी।” हिचकियाँ लेते हुए वह बोले जा रहे थे। “बस इसी सब की वजह से ही तो मैं नशा करने से उन दोनो को माना करता था आख़िर बाप हूँ। मैं उनकी आधुनिकता का बाधक नहीं था। बस उसे माँ बनता हुआ देखना चाहता था। और वह मुझे अपना दुश्मन समझने लगी।” एक दूसरे को सहारा देते हुए दोनो की ही आँखो से गंगा यमुना बह रही थी और दिल बिन जल मछली सा तड़प रहा था। ज्योत्सना सिंह लखनऊ 11:16pm. 3-3-2020
लहू लूहान सारा ग़ुस्सा मेरा काफ़ूर हो गया उसकी हथेलियाँ देख कर दसो उँगलियों के पहले पोर पर उसने किसी नुकीली चीज़ से उकेर रखा था। “Please sorry” मैं सिर्फ़ इतना ही तो बोल पाई थी। “पागल हो गए हो क्या?” वह चुप रहा मैंने उसकी हथेली अपने हाथ में ले चूम ली और भर्राए गले से पूछा। “कैसे किया ये तुमने? बहुत दर्द हुआ होगा फिर कभी ऐसा मत करना।” वह मेरे आँसूओं को अपनी हथेली में ले अपने माथे पर लगाता हुआ बोला। “आप के लिए कुछ भी।” मैं जानती थी की वह सब कुछ सह सकता है बस मेरी नाराज़गी उससे बर्दाश्त नहीं होती और यही कारण था कि वह मेरी हर बात को अपने सर माथे रखता था। मैं भी उसकी हर बात को ख़ुशी-ख़ुशी पूरी करती थी मुझे ये ख़्याल रहता था कि वह किसी भी बात से दुःखी न हो पहले ही उसके जीवन में समस्यायें कम न थी। उसने मेरे कहने पर ही तो अपना घर बसाया था। वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था। मेरे समझाने पर विवाह कर वह वैवाहिक जीवन जीने लगा पर वह जीवन की एक नई जंग में फँस गया था। रोज़ ही एक नई उलझन के साथ वह मेरे पास आता और मैं उसकी उलझनों को सुलझाने में उसकी मदद कर उसे सफल जीवन जीने का मंत्र देती। आज मैं सब्ज़ी काट रही थी और वह मेरे ही क़रीब खड़ा अपना दुखड़ा रो रहा था मैंने उसकी बात सुन उससे कहा। “क्या रोज़-रोज़ एक ही मसला लिए परेशान होते रहते हो।” मैं आगे कुछ और कहती कि वह बोल उठा। “प्यार करता हूँ तुमसे! तभी कुछ और समझ नहीं आता।” मैं सिहर उठी और झटके से सब्ज़ी की जगह उँगली कट गई घायल मैं क्रोध से काँप रही थी मेरी ममता को उसने ऐसे प्यार के रूप में देखा उसने आगे बढ़ मेरे बहते हुए रक्त को रोकना चाहा मैं ने उसे सख़्ती से रोकते हुए कहा। “काश उस रोज़ ही मैं तुम्हारे मन के इस भाव को समझ गई होती जब तुमने पोर पर अपनी क्षमा याचना लिखी थी तो आज रिश्ते यूँ लहू लूहानन होते।” खून भरी उँगली से मैंने उसे बाहर का रास्ता दिखाया और खुद को संयत किया। ज्योत्सना सिंह लखनऊ 11:12pm 20-3-2020
वादा सूरज की पहली किरण और एक वादा “मैं तुम्हारे साथ हूँ।” और बस फिर पूरा दिन चुटकियों में गुज़र जाता और वो लम्बी वाली मुस्कान मेरे छोटे से चेहरे को ढँके रहती और मैं बिना थके चलती रहती इतना चलती इतना चलती की मुझे पाँव की बेवाई नज़र ही न आती नज़र आता तो बस इतना कि इसके उसके चेहरे पर कहीं कोई शिकन न आने पाए। पर फिर भी कोई न कोई आड़ी-तिरछी रेखा वक्राकार हो कर अपना गढ़ा सा निशान छोड़ जाती। हाँ कभी-कभी कुछ शब्द कान को राहत दे देते जब तैरते हुए वो आ कर मेरे कान से टकरा जाते। “अरे बहुत काम काजी है सब काम आता है और बहुत जल्दी से निबटा लेती है सारे काम और कभी थकान इसके चेहरे पर नज़र नहीं आती।” पर एकांत में अपने उस कोने में जैसे ही जाती और कमर को जाने अनजाने कसरत नुमा कर के उन शिराओं को राहत देने की नकाम कोशिश करती तो वही मीठे बोल चुभ जाते। “कभी थकती नहीं है।” और मैं फिर सीधी हो कभी कुछ बुनने में और कभी कुछ चुनने में खुद को व्यस्त कर लेती। उसी व्यस्तताओं के बीच तुम फिर मुझे बुझी-बुझी नज़रों से देखते और बिना तुम्हारे बोले ही मैं समझ जाती की तुम यही कह रहे हो। “मैं लगा तो हूँ पर हर बार ना कामयाबी मेरे लिए द्वार खोले खड़ी ही रहती है और मेरे साथ-साथ तुम भी पिसती हो सबकी बातें सुनती हो एक न एक दिन मैं तुम्हारे लिए ख़ुशियों के द्वार ज़रूर खोलूँगा बस तुम मेरा साथ मत छोड़ना।” और फिर तुमने अपना वादा पूरा किया तुम्हारी नौकरी के साथ ही हमारा घर सुख सुविधाओं से भर गया मैं भी तो तुम्हारे साथ ही गरम चुपड़ी रोटियों का स्वाद लेने लगी। तभी तो सलाख़ों के उस पार खड़े तुम से मैं बस इतना ही कह पाई “कैसे कहूँ मैं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ? ईमान की सूखी रोटी बेमानी की चुपड़ी रोटी से कहीं ज़्यादा स्वादिष्ट थी।” ज्योत्सना सिंह लखनऊ 11:23pm. 11-2-2020
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