Quotes by Anwar Suhail in Bitesapp read free

Anwar Suhail

Anwar Suhail Matrubharti Verified

@anwarsuhail8337
(16)

लौकिक ज्ञान के अलमबरदारों को
आसपास गूंजती आवाजों में
रूप-रस-छंद-लय का अंदाज़ तो होता है
लेकिन ह्रदय की गहराइयों में गूंजती
ख़ामोशी सुन नहीं पाते उनके कान
वो अंधे और बहरे होते हैं
रूह के आर्तनाद या मस्ती के आलम से बेखबर
लौकिक ज्ञानियों ने बनाये हैं अनोखे सौन्दर्य-शास्त्र
और मेरी रूह को छूकर निकल जाने वाले स्पर्श ने
कभी ऐसा कोई दावा नहीं किया
आओ कि उसे हम महसूस करें .....

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हम जो बहुत विशवास से
अंतिम सत्य जानने का
करते हैं दावा
जबकि सत्य अपने पूरे बांकपन के साथ
हमारे इस आत्विश्वास पर
मुस्कुराता रहता है....

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तेरी गली पे चलता हूं तो
पैर के छाले दब जाते हैं
तुझसे मिलने की चाहत में
दिल के घाव भर जाते हैं
ख्वाब की बातें सुबह सवेरे
ज़ख्म हरा फिर कर जाते हैं।।।।

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बेशक हम शायर हैं पारसद नहीं भाई
क्यूं फिर हमीं से चाहते हो समाधान

अपनी विद्वता, पद-प्रतिष्ठा को
आड़े नहीं आने देता कि तुम कहीं
अपनी मासूम, बेबाक छवि को छुपाने लगो
मैं नहीं चाहता कि मेरे आभा-मंडल में
गुम जाए तुम्हारा फितरतन चुलबुलापन

तुम्हें जानकार हौरानी होगी
कि हम लोग बड़े आभाषी लोग हैं
और हम खुद नहीं जानते अपनी वास्तविक छवि
परत-दर-परत उधेड़ते जाओ
फिर भी भेद न पाओगे असल रूप

तुम जिस तरह जी रहे हो दोस्त
बेशक, उस तरह से जीना एक साधना है
बेदर्द मौसमों की मार से बेपरवाह, बिंदास
भोले-भाले सवाल और वैसे ही जवाब
बस इतने से ही तुम सुलझा लेते हो
अखंड विश्व की गूढ़-गुत्थियाँ
बिना विद्वता का दावा किये
यही तुम्हारी ऊर्जा है
यही तुम्हारी ताकत
और यही सरलता मुझे तुम्हारे करीब लाती है......

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तुम जिन्हें आज कह रहे हो
आस्तीन के सांप
मैं इन्हें तब से जानता हूँ
जब ये आस्तीनों में चुपचाप थे पलते
और मैं हैरान होता था कि तुम
येन-केन-प्रकारेण इनका
करते थे वंदन-अभिनन्दन

तब से अब तक गंगाजी में
बहुत सा पानी बह चुका दोस्त
तुमने बहुत देर कर दी असलियत बताने में
ये तब भी मलाई चाटते थे और अब भी

मुझे मालूम है की तुम जानते थे
कि ये आस्तीन बदलने में माहिर हैं
और जिन आस्तीनों में पलते हैं
उन्हें कभी नहीं डसते, विषधर हैं फिर भी

मैंने तब भी तुम्हें किया था आगाह
जब आस्तीनों से निकलकर ये विषधर
सत्ता या सेठाश्रयी प्रतिष्ठान के मंचों पर
भव्य-दिव्य बने चमका करते थे
जिनकी अनुशंषाओं से जाने कितने संपोलों ने
पा लिए पद-प्रतिष्ठा और अलंकरण

देखो तो, आस्तीनों से बेदखल होकर अब
ये संपोले कैसे बिलबिला रहे हैं
और हमें अचानक प्रतिरोध का पाठ
चाह रहे पढ़ाना, कि इनकी खुल चुकी है पोल
और होशियार रहो किहमनें
सीख ली है प्रतिकार की भाषा......

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भाग कर कहाँ जाएँ
हर जगह तुम्हे पायें

जब से किया किनारा मैंने
दूरियां हैं घटती जाएँ

तुम क्या जानो कैसे-कैसे
बेढंगे से ख्वाब सताएं

गुपचुप-गुपचुप, धीरे-धीरे
माजी के लम्हात रुलाएं

चारों ओर भिखारी, डाकू
मांगें और लूट ले जाएँ

तुमसा दाता कहाँ से पायें
वापस तेरे दर पर आयें

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हम सोचते हैं कि कल शायद
सब ठीक हो जाए
उम्मीद बांधे रखते हैं
कि कल आज से बेहतर ही होगा
इस बेहतर कल की
उम्मीद का दामन थामे
खप गई जाने कितनी पीढ़ियां

यह तो अच्छा है कि इंसान
थोपे हुए हमलों को
ठेंगा दिखाकर भी
देख लेता है सपने
एक बेहतर कल के सपने

मज़बूत किलों के बंद कमरों में
ज़मीनी-खुदा इस निष्कर्ष पर
पहुंच ही जाते हैं कि बहुत जब्बर है
इंसान की जिजीविषा
बहुत चिम्मड़ है इंसान की खाल
और किले की हिफ़ाज़त के लिए
ख़ामोश और मुस्तैद इंसानों की
ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी।।।।

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