🌕 अंधेरी गुफ़ा – भाग 10 (अंतिम अध्याय, पूरा संस्करण)
रात बहुत गहरी थी।
आसमान पर काले बादल ऐसे टंगे थे मानो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें वहीं रोक कर खड़ी हो।
अर्जुन गुफ़ा के अंदर उस जगह पड़ा था जहाँ ज़मीन अब भी हल्की-हल्की धड़क रही थी।
उसका शरीर काँप रहा था, और मुँह से बस एक ही शब्द निकल रहा था —
“ललिता…”
धीरे-धीरे गुफ़ा की दीवारों से धुंध उठने लगी।
वही ठंडी हवा फिर से चल पड़ी — जैसे किसी ने पुराना जादू दोबारा जगा दिया हो।
दीवारों पर उकेरे गए अजीब निशान लाल रोशनी में चमकने लगे।
अर्जुन ने डरते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ाया… तभी किसी ने पीछे से फुसफुसाया —
“वापस मत जा अर्जुन…”
वो आवाज़ उसकी अपनी माँ जैसी थी —
मुलायम, लेकिन बेहद डरावनी।
अर्जुन ने पलटकर देखा —
वहाँ धुंध के बीच एक औरत खड़ी थी, सफ़ेद साड़ी में, बिखरे बालों के साथ।
उसकी आँखों से आँसू नहीं, सफ़ेद धुंआ निकल रहा था।
ललिता: “अब समझे… क्यों कोई लौटकर नहीं आता इस गुफ़ा से?”
अर्जुन (काँपते हुए): “तुम… तुम कौन हो?”
ललिता (धीरे से मुस्कुराते हुए): “वो जिसने तुझे जन्म दिया… और इस गुफ़ा में खो गई।”
अर्जुन की सांस रुक गई।
उसके दिमाग़ में सब याद आने लगा —
उसकी माँ बचपन में अचानक ग़ायब हो गई थी।
सब कहते थे — ललिता गुफ़ा में गई थी और लौटकर कभी नहीं आई।
आज, इतने साल बाद, वही ललिता उसके सामने थी।
ललिता: “इस गुफ़ा ने मुझे जिंदा निगल लिया था, अर्जुन…
मैं मरकर भी यहाँ से जा नहीं सकी।
हर साल कोई न कोई इस गुफ़ा में आता है, और मैं उसे चेतावनी देती हूँ…
पर वो सुनता नहीं।”
अर्जुन की आँखों से आँसू निकल आए।
उसने हाथ बढ़ाया — “माँ… मुझे माफ़ कर दो… मैं सिर्फ़ तुम्हें ढूँढना चाहता था…”
ललिता: “तू मुझे नहीं, खुद को ढूँढ रहा था।
इस गुफ़ा ने तुझमें मेरा हिस्सा जगा दिया है।
अब तू भी इस जगह का हिस्सा बन चुका है…”
अचानक पूरा माहौल बदल गया।
गुफ़ा के अंदर तेज़ झोंका चला, और चारों ओर से हज़ारों फुसफुसाहटें गूंज उठीं —
“और जोड़ो… और जोड़ो…”
दीवारें काँपने लगीं, और ज़मीन फटने लगी।
अर्जुन ने देखा — दीवारों से आत्माएँ निकल रही थीं, जिनके चेहरे डर और दर्द से भरे थे।
उनमें कुछ बच्चे थे, कुछ बूढ़े, और कुछ वही गाँव के लोग जिन्हें वो पहचानता था।
हर एक का चेहरा पिघलता जा रहा था, जैसे मोमबत्ती की लौ में पिघल रहा हो।
वो भागने लगा, पर हर रास्ता उसी जगह लौट आता।
गुफ़ा के बीच में एक बड़ा पत्थर का द्वार था —
जिस पर लिखा था:
“जो सच खोजेगा, वो खुद रहस्य बन जाएगा।”
अर्जुन के पैर जैसे ज़मीन में धँस गए।
वो चीख़ा — “माँ, मुझे यहाँ से निकालो!!”
ललिता की आँखों में आँसू थे, पर चेहरा शांत।
वो उसके पास आई, और बोली —
“बेटा, तू अब मुझे मुक्त कर सकता है।
मेरे शरीर की राख उसी पत्थर के नीचे है… उसे सूरज की रौशनी दिखा दे, और जा… फिर कभी मुड़कर मत देखना।”
अर्जुन ने काँपते हुए पत्थर हटाया।
नीचे राख का छोटा-सा ढेर था।
उसने कांपते हाथों से राख उठाई और बाहर की ओर दौड़ा।
हर कदम के साथ गुफ़ा की आवाज़ें तेज़ होती जा रही थीं —
“मत जा… मत जा…”
पर अर्जुन भागता रहा।
जैसे ही वो बाहर पहुँचा, सूरज की पहली किरणें धरती पर पड़ीं।
उसने राख ज़मीन पर रखी — और हवा का झोंका आया।
राख उड़कर आकाश में समा गई।
और उस पल गुफ़ा के अंदर से एक तेज़ चमक उठी —
सभी आत्माएँ मुक्त हो गईं।
अर्जुन ने पीछे मुड़कर देखा —
गुफ़ा का मुंह अब पत्थर से बंद हो चुका था।
जहाँ पहले अंधेरा था, अब शांति थी।
वो धीरे-धीरे घुटनों के बल बैठ गया, और आँखों से आँसू बहने लगे।
“माँ… तू अब आज़ाद है…”
बस इतना कहा — और उसके पीछे हवा में एक हल्की मुस्कान सी गूंज उठी।
To doston kahani kaisa laga ?
Comments 💬 me guy's
Thank you 😊