🌕 अंधेरी गुफ़ा – भाग 5 : “आवाज़ जो लौट आई” (पूर्ण संस्करण)रात गहराई हुई थी। पूरा गाँव नींद में डूबा था, पर हवा में एक अजीब-सी सरसराहट थी — जैसे कोई फुसफुसा रहा हो।
ललिता की नींद टूटी। वह हड़बड़ा कर उठी और चारों ओर देखने लगी। मिट्टी की दीवारों पर दीये की लौ काँप रही थी।
अचानक उसका ध्यान अपने हाथों पर गया — वही लाल माला!
उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। यह माला तो उसने महीनों पहले महेश के गले में डाली थी… उस रात… जब सब कुछ खत्म हो गया था।
वह घबरा कर घर से बाहर निकली। बाहर चाँद आधा छिपा था, हवा ठंडी और अंधेरा बहुत गहरा।
मंदिर की घंटी अपने आप हिल रही थी — जबकि वहाँ कोई नहीं था।
“कौन है?” ललिता की आवाज़ काँपी।
जवाब में सिर्फ़ हवा चली।
पर तभी एक धीमी-सी आवाज़ आई —
“ललिता…”
वह जम गई। आवाज़ साफ़ थी, पास से आई थी।
वह काँपते हुए बोली — “कौन है वहाँ?”
कुछ पल के बाद फिर वही फुसफुसाहट —
“वादा किया था न… मुझे अकेला नहीं छोड़ोगी…”
ललिता का शरीर सुन्न पड़ गया। यह वही आवाज़ थी — महेश की!
उसने धीरे-धीरे पीछे मुड़कर देखा। मंदिर के पीछे अंधेरा हिलता हुआ-सा दिखा, और फिर अचानक वहाँ से एक आकृति निकली।
सफेद कपड़ों में लिपटी एक छोटी-सी लड़की। चेहरा मासूम, पर उसकी आँखें — लाल, चमकती हुईं, जैसे अंगारें हों।
“तुम कौन हो?” ललिता ने डरते हुए पूछा।
लड़की मुस्कुराई — “मैं वही हूँ जिसे तुम गुफ़ा के बाहर छोड़ आई थीं…”
ललिता का चेहरा पीला पड़ गया।
“नहीं… मैंने तो तुम्हें बचाने की कोशिश की थी… मैं—”
लड़की की हँसी अब ठंडी और भारी हो चुकी थी —
“डर अब तेरे लिए बहाना नहीं बन सकता, ललिता। गुफ़ा सब जानती है…”
ललिता को लगा जैसे ज़मीन हिल रही हो। चारों ओर धुंध फैलने लगी।
वह मंदिर की दीवार से टिक गई — पर अब मंदिर की जगह गुफ़ा का द्वार था।
काला, अंतहीन, जैसे खुद अंधकार ने मुँह खोल दिया हो।
वह भागने लगी। पर मिट्टी उसके पैरों को खींचने लगी।
कानों में आवाज़ गूँज रही थी — “गुफ़ा कभी खाली नहीं रहती… कोई न कोई लौटकर आता है…”
वह चीख़ पड़ी, पर आवाज़ उसके गले में ही फँस गई।
अचानक, सब कुछ शांत हो गया।
कुछ क्षण बाद वह खुद को एक अंधेरे कमरे में पाई — दीवारों पर नमी, और बीच में एक टूटा आईना।
आईने में उसने खुद को देखा… पर प्रतिबिंब में उसका चेहरा नहीं था —
वहाँ महेश खड़ा था।
“तुम… तुम तो मर गए थे…” वह बमुश्किल बोल पाई।
महेश की आवाज़ भारी और टूटी हुई थी —
“मरना आसान था, ललिता… पर तेरा झूठ, तेरा डर — वो सब मुझे बाँध लाया है। गुफ़ा तब तक चैन नहीं लेगी जब तक सच्चाई बाहर नहीं आती।”
ललिता की आँखों से आँसू बह निकले। “मैंने कुछ नहीं किया…”
महेश आगे बढ़ा। उसके कदमों की आहट से दीवारें काँपने लगीं।
“जिस लड़की को तुमने बचाने की कोशिश की थी, वो बची नहीं थी ललिता… वो गुफ़ा की थी।”
“गुफ़ा की?”
“हाँ…” उसकी आवाज़ और भारी हो गई, “हर सौ साल में वो गुफ़ा किसी को बुलाती है। कोई मासूम, कोई बेगुनाह।
और जो भी अंदर जाता है, वो बाहर नहीं आता। पर इस बार, तूने दरवाज़ा खोल दिया था…”
ललिता पीछे हट गई। “मैं तो बस मदद करना चाहती थी!”
महेश की हँसी अब दानवी लग रही थी —
“मदद? या उत्सुकता? गुफ़ा ने तुझे चुना था, ललिता… अब तू लौट नहीं सकती।”
दीवारों से काले हाथ निकलने लगे। ललिता ने भागने की कोशिश की, पर उसके कदम वहीं जम गए।
महेश का चेहरा अब पूरी तरह पिघल चुका था, आँखों से काला धुआँ निकल रहा था।
“हर बार कोई लौटता है,” उसने कहा,
“और इस बार… तू लौटेगी, ललिता।”
अचानक, सब कुछ गायब हो गया।
सुबह हुई। गाँव वाले मंदिर के पास जमा हुए — वहाँ दीवार पर किसी ने खून से लिखा था —
“वह लौट आई है।”
मंदिर के अंदर ललिता की चूड़ियाँ टूटी पड़ी थीं, और लाल माला फिर उसी जगह रखी थी —
जहाँ से सब शुरू हुआ था।
उस दिन के बाद से, गाँव की औरतों ने रात में उस दिशा में जाना छोड़ दिया।
कहते हैं, अमावस की रात जब हवा रुक जाती है —
किसी टूटे स्वर में अब भी वही आवाज़ सुनाई देती है…
“ललिता…”
😈 जारी रहेगा — भाग 6 में…
जहाँ पहली बार “गुफ़ा” की आत्मा खुद बोलेगी —
और पता चलेगा कि महेश सच में मरा था… या बस किसी और रूप में लौट आया था 💀