अध्याय 5 — ‘मर्द बनो’ वाली दुनिया में टूटी हुई आत्मा
(1) सुबह जो कुछ बदल गई थी…
रात की नींद तो आई ही नहीं थी… तकिए की सीली हुई जगह इस बात की गवाही दे रही थी कि फिर एक लड़का... आज भी अंदर से रोया है।
अलार्म बजा था, पर उसके मन में कोई आवाज़ नहीं थी जो कहे — “उठो, कुछ करना है।”
आज भी वही रूटीन था — मुँह धो, नाश्ता कर और उस दुनिया में वापस लौट जहाँ उसे हर रोज़ ‘मज़बूत लड़का’ बनकर दिखाना पड़ता था।
माँ ने पूछा,
“क्या हुआ बेटा, आज कुछ परेशान लग रहा है?”
पर उसने मुस्कराकर कह दिया,
“कुछ नहीं माँ, बस नींद नहीं आई थी।”
और माँ भी समझ गई, पर कह नहीं पाई — क्योंकि इस समाज में लड़कों की तकलीफ़ों पर माँ भी सिर्फ़ चुप रहना जानती है।
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(2) स्कूल नहीं, एक अखाड़ा था
स्कूल... जहाँ लड़कियों के लिए सहेलियाँ थीं, उनके बालों की तारीफें थीं, साइकिल से गिरने पर "Are you okay?" था।
और लड़कों के लिए?
"गिरा बे तू?"
"कितना सुसरा कमज़ोर है रे तू..."
"अबे रोएगा क्या बे, मर्द बन!"
हर बात पर ताने, हर गलती पर थप्पड़ और हर चोट पर मज़ाक।
क्लास के कोने में बैठा एक लड़का – मन के भीतर से चुप और भीड़ में सबसे ज्यादा हँसने वाला – आज फिर खुद को किसी ‘अज्ञात युद्ध’ के लिए तैयार कर रहा था।
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(3) दोस्त... या दोहरा चेहरा?
उसकी ज़िंदगी में कुछ दोस्त ऐसे थे जो दोस्त कम और दबाव ज़्यादा थे।
ऋषभ, जो उसका बचपन का दोस्त था, आजकल बस तभी साथ देता था जब कोई फायदा होता।
"भाई तेरा नोट्स भेज दे, कल पक्का तेरा काम कर दूँगा," कहता था वो।
लेकिन जब उसे जरूरत होती, तो यही ऋषभ गायब हो जाता।
एक लड़का, जो सच्चा रिश्ता चाहता था, आज तक ये समझ ही नहीं पाया कि दोस्ती भी एक सौदा बन चुकी है।
और तब, किसी ने पीठ पीछे कुछ ऐसा बोला कि उसके भरोसे की आख़िरी कड़ी भी टूट गई:
> “अबे उसे तो बस इस्तेमाल कर लो… बड़ा भाव खाता है।”
वो लड़का चुपचाप सुन रहा था — लेकिन अंदर एक आँधी उठ चुकी थी।
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(4) वो लड़की... जो समझती थी, पर…
फिर ज़िंदगी में आई वो।
जिससे बात करते ही दिल को सुकून मिलता था।
जो पूछती थी — “तू ठीक है ना?”
जो सुनती थी बिना टोके।
पर समाज ने उसे भी सिखा दिया था कि एक लड़का जब टूटता है, तो वह कमज़ोर होता है।
एक दिन जब उसने कह दिया —
“मैं बहुत अकेला हूँ…”
तो जवाब आया —
“तू तो हँसता रहता है, तुझे क्या कमी है?”
उसी दिन उसने जाना,
एक मुस्कुराते चेहरे को कभी कोई गहराई से नहीं पढ़ता।
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(5) अकेलापन — जो साथ नहीं छोड़ता
कभी सोचा है?
एक लड़का जब छत पर बैठकर तारों को देखता है,
वो कोई रोमांटिक सीन नहीं होता।
वो लड़का वहाँ खुद से बातें करता है —
“क्या मैं सही कर रहा हूँ?”
“क्या मैं अच्छा बेटा हूँ?”
“क्या मैं कभी किसी का फेवरेट बन पाऊँगा?”
पर जवाब… खामोशी होती है।
वो अकेलापन… जो घर में चार लोगों के बीच भी चुपचाप साथ चलता है।
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(6) समाज की वो दीवारें…
बचपन से सुना है:
“मर्द रोते नहीं हैं।”
“तू लड़का है, सहना तुझे ही होगा।”
“तेरा दर्द तुझे ही छुपाना है।”
पर क्या कोई पूछता है उस लड़के से —
“तू ठीक है ना?”
कोई नहीं जानता कि
जो लड़का "मैं ठीक हूँ" कहता है,
वो सबसे ज़्यादा बिखरा होता है।
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(7) फिर आई जिम्मेदारियों की आँधी…
घर की हालत बिगड़ रही थी।
पापा की तबीयत अब पहले जैसी नहीं थी।
माँ के चेहरे पर चिंता की रेखाएं थीं।
छोटे भाई की फ़ीस भी भरनी थी।
और ये सब कुछ —
उसके सिर पर आ पड़ा।
उम्र — सिर्फ़ 17 साल।
लेकिन बोझ — पूरी ज़िंदगी का।
उसने पढ़ाई के साथ एक छोटा-सा पार्ट टाइम जॉब करना शुरू कर दिया।
कभी-कभी पेट आधा भरता था, लेकिन तबीयत कभी किसी को नहीं बताई।
बस एक शब्द हमेशा ज़हन में रहता था —
“मर्द को सहना पड़ता है।”
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(8) बदलाव की शुरुआत… खुद से
एक दिन खुद से ही सवाल किया —
“क्यों डरता हूँ रोने से?”
“क्यों छुपाता हूँ दर्द?”
“क्यों खुद को सिर्फ इसलिए मारता हूँ कि कोई मज़ाक न बनाए?”
और उस दिन, छत पर बैठे-बैठे,
उस लड़के ने खुद से वादा किया —
> “अब खुद के लिए जियूँगा।
अब जो दिल में है, वो कहूँगा।
चाहे दुनिया कुछ भी कहे,
अब मैं 'मर्द' बनने की बजाय, इंसान बनूँगा।”
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(9) आज का लड़का
वो लड़का अब सब कुछ सहते-सहते समझ चुका है कि दुनिया बदलने वाली नहीं।
पर अगर कुछ बदल सकता है,
तो वो है उसका नज़रिया।
अब जब कोई कहता है —
“मर्द बनो, रोते क्यों हो?”
तो वो कहता है:
> “मर्द ही तो हूँ, इसलिए रोता हूँ…
क्योंकि दिल है, और मैं उसे दबाना नहीं चाहता।”
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अध्याय समाप्त — लेकिन कहानी नहीं
Chapter 5 सिर्फ़ एक मोड़ है उस अनकही लड़ाई का,
जो हर लड़का अकेले लड़ रहा है — बिना ताली, बिना तालियाँ।
पर अब ये कहानी सिर्फ़ सहने की नहीं,
बल्कि खुद को पहचानने की भी है।