Chapter 3: घर की दीवारों के पीछे
(एक लड़के की चुप्पी, एक टूटती आत्मा)
---
घर... एक ऐसा शब्द जो अपने आप में एक गर्माहट और सुरक्षा की भावना जगाता है। जहाँ मां की ममता हो, पिता की छाया हो, भाई-बहनों की मुस्कान हो, और दीवारें हर भाव छुपाकर रख सकें।
पर क्या हर घर ऐसा होता है?
या फिर कुछ घरों की दीवारें केवल गवाह होती हैं — चुप रह जाने वाले लड़कों की चुप्पियों की?
यह कहानी है आरव की। एक ऐसा लड़का जिसे बचपन में किसी चीज़ की कमी नहीं थी... सिवाय एक चीज़ के — इमोशनल अपनापन।
---
💔 “तू लड़का है... रोता क्यों है?”
आरव पाँचवीं कक्षा में था, जब पहली बार स्कूल में उसके दोस्त ने उसके सामने उसका मज़ाक उड़ाया — "अबे तू रो क्यों रहा है, लड़का होकर शर्म नहीं आती?"
वो चुप रहा। घर आया, माँ से कहा — "मुझे बहुत बुरा लग रहा है।"
माँ का जवाब था:
> "तू लड़का है ना, मजबूत बन। रोने की आदत छोड़।"
तब पहली बार आरव ने जाना कि उसकी भावनाएं कमज़ोरी मानी जाती हैं।
और उसी दिन उसके अंदर एक दीवार उठी — खुद के और दुनिया के बीच।
---
🧱 "उसने सुना, लेकिन समझा नहीं…"
आरव को कभी डाँट पड़ती, कभी फेल होने पर ताने मिलते, और कभी उसकी चुप्पी पर कहा जाता,
> “किस बात का मुंह लटकाया है? कोई काम कर, यूँ ही बैठा रहेगा तो आदमी क्या बनेगा?”
किसी ने ये नहीं पूछा कि
> "क्या तुम ठीक हो?"
"क्या किसी बात ने तुम्हें तोड़ा है?"
"क्या तुम सुनना चाहते हो कि तुम भी कीमती हो?"
माँ रोटियाँ बेलती रहीं, पापा अख़बार पढ़ते रहे, दीवारें सब सुनती रहीं।
पर आरव की आवाज़... उन दीवारों से टकराकर लौट जाती थी।
---
😶 "मैंने बोलना छोड़ दिया..."
बचपन में जो आरव हर बात बताता था — स्कूल में क्या हुआ, नया क्या सीखा —
अब वो बस हाँ और ना में जवाब देने वाला इंसान बन गया।
रात के खाने पर जब घरवाले हँसते, वो चुपचाप थाली देखता।
जब सब टीवी पर बहस करते, वो कमरे में घुस जाता।
क्यों?
क्योंकि हर बार उसकी बात काटी जाती थी।
हर बार उसे गलत ठहराया जाता था।
हर बार उसे कम महसूस कराया गया।
---
🕯️ "दीवारों के पीछे दबा एक ख्वाब"
आरव का एक सपना था — लेखक बनने का।
वो कहानियाँ लिखता था, छिपकर — डायरी में, कभी मोबाइल नोट्स में।
पर जब पहली बार उसने माँ को दिखाया...
माँ बोली,
> “ये सब फालतू चीजें छोड़, इंजीनियर बन, जैसे तेरे चाचा का बेटा बना है।”
पापा ने कहा,
> “कहानी-कविता से कोई पेट नहीं भरता। मर्द बन, कुछ ठोस कर।”
उस दिन आरव ने अपनी डायरी आग में डाल दी।
उसके ख्वाब की राख शायद आज भी घर की दीवारों के पीछे पड़ी होगी।
---
🔥 "जब लड़कों की आत्मा चीखती है..."
आरव बड़ा हुआ, कॉलेज गया, और वहां उसने देखा कि दूसरे भी उसी पीड़ा से गुज़र रहे थे।
कोई कहता, "मेरे पिता ने कभी गले नहीं लगाया।"
कोई कहता, "मैं अकेला हूँ लेकिन किसी को कह नहीं सकता।"
कोई हँसते हुए कहता, "भाई डिप्रेशन है शायद, पर मैं तो लड़का हूँ, कैसे बताऊँ?"
एक समाज जो लड़कों को सुपरमैन बनाना चाहता है,
वो भूल जाता है कि सुपरमैन के पास भी अकेलेपन की गुफा होती है।
---
🪞 "एक दिन खुद से मुलाक़ात हुई"
एक रात, आरव शीशे के सामने खड़ा था।
आँखों में आँसू थे। होंठों पर चुप्पी थी।
उसे एहसास हुआ कि...
> "मैंने हर किसी से कुछ न कुछ उम्मीद की — माँ से ममता, पापा से अपनापन, दोस्तों से समझदारी...
लेकिन खुद को कभी गले नहीं लगाया।"
उसने उसी रात लिखा —
"मैं लड़का हूँ... लेकिन मैं भी टूटा हूँ।
मुझमें भी दिल है — जो धड़कता है, डरता है, और तरसता है… बस एक आवाज़ के लिए — 'मैं समझता हूँ तुझे।'"
---
✊ और अब वो लिखता है... हर उस लड़के के लिए...
आज आरव एक ब्लॉगर है।
वो छुपी कहानियाँ लिखता है — लड़कों की चुप्पी पर, उनके टूटते सपनों पर, और उनके अकेलेपन की चीखों पर।
उसका ब्लॉग है —
> “दीवारों के पीछे”
वो लिखता है,
> “हर लड़के के अंदर एक बच्चा होता है — जो रोना चाहता है,
पर वो नहीं रोता... क्योंकि उसे बचपन में ही सिखा दिया गया था — "तू लड़का है।"”
---
🔚 नोट्स घर के लिए…
> घर वो जगह होनी चाहिए जहाँ लड़के सबसे ज्यादा खुलकर रो सकें।
जहाँ “मर्द बन” नहीं, बल्कि “इंसान बन” की सीख दी जाए।
जहाँ दीवारें आवाज़ों की कब्रगाह न बनें — बल्कि जज़्बातों की गूंज बनें।
---