प्रणाली भागते-भागते तालाब के पास पहुँचने ही वाली थी,
लेकिन उससे पहले ही सामने से सैनिकों ने उसे घेर लिया।
सैनिक: तो है ये वो बहुरूपिया? चल, अब हमारे साथ—गरुड़ के पास।
रात बहुत काली और घनी थी, किसी का चेहरा ठीक से दिख नहीं रहा था।
सैनिक जब उसका नकाब हटाने लगे, तभी एक तलवार की नोक एक सैनिक की गर्दन पर आ टिकी।
साथ ही एक तेज़, ठंडी आवाज़ गूंजी—
रहस्यमयी आवाज: एक अकेले पर इतने लोग?
थोड़ी गलत बात नहीं लग रही?
चाँद कभी बादलों से निकल रहा था, कभी उन्हीं में गुम हो जा रहा था।
इसी आती-जाती रोशनी में उस शख्स की आँखें एक पल को चमकीं।
उसके चेहरे पर भी कपड़ा बंधा था।
बलखाती हुई, सुनहरी-सी आँखें, जिनमें एक अजीब-सी चमक थी—
हिम्मत, कौशल, बगावत, और बेबाकी—सब कुछ एक साथ।
प्रणाली (धीरे से, साँस रोकते हुए): वर्धान्...?
सैनिक चौंक कर उसकी ओर पलटे।
सैनिक: तू कौन है?
वर्धान् (तलवार घुमाते हुए, ठंडे स्वर में): यकीन मानो... मुझे जानकर अच्छा नहीं लगेगा।
सैनिक: तो तू भी इसके साथ है?
वर्धान्: सुनने की मंशा हो, तो बताऊँ... नहीं है ना?
तो या तो लड़ो, या इसे जाने दो!
इतना कहते ही सैनिकों ने उस पर हमला कर दिया।
प्रणाली स्तब्ध थी। वो उस रहस्यमयी योद्धा का चेहरा देखना चाहती थी...
पर वो जिस तेज़ी और तीखेपन से तलवार चला रहा था,
उसकी हर एक चाल मानो वर्षों की साधना का परिणाम थी।
उसकी बाजुओं में वो लचीलापन, हाथों में वो ताकत...
हर वार मुलायम, लेकिन सटीक। ये कोई आम लड़ाई नहीं थी।
कुछ ही देर में वर्धान् ने सारे सैनिकों को ढेर कर दिया।
वो प्रणाली के पास आया—
वर्धान् (थोड़ा गुस्से और फिक्रमंदी के साथ): क्या तुम ठीक हो?
माना कि तुममें कौशल है... पर ये गरुड़ लोक के सैनिक हैं!
थोड़ा संभल कर आना चाहिए था!
प्रणाली उसे रोशनी में खींचना चाहती थी।
वो उसका चेहरा साफ देखना चाहती थी।
लेकिन वर्धान् धीरे से पीछे हट गया—
वर्धान्: अच्छा ठीक है, तुम जो भी हो... जहाँ से भी आई हो...
अभी तुम जाओ।
और तभी दूर से सैनिकों की आवाजें फिर से सुनाई देने लगीं।
वर्धान् तलवार लेकर सतर्क हो गया।
वर्धान्: तुम निकलो! मैं देखता हूँ इन्हें!
प्रणाली हिचक रही थी।
वर्धान् (पलटकर): जाओ!
प्रणाली के हाथों का गरुड़ पुष्प मुरझाने लगा था।
अब उसके पास कोई रास्ता नहीं था।
वो तेजी से निकलने लगी, लेकिन तभी उसका कमरबंद पास के पेड़ में फँस गया।
उसने झटके से खींचा और भाग निकली।
सैनिक जब वहाँ पहुँचे,
वर्धान् ने बिना घबराए अपना नकाब हटाया।
सैनिक (मशाल उठाते हुए): गरुड़...! आपको होश आ गया?
वर्धान् (गंभीर स्वर में): हम्म...
सैनिक: राजकुमार! यहाँ कोई जासूस आया था?
वर्धान्: नहीं।
यहाँ कोई नहीं आया।
मैंने जासूस समझ कर इन्हें बेहोश कर दिया...
इनमें से कोई मरा नहीं है। वैद्य के पास ले जाओ।
सैनिक: जी, राजकुमार।
वे सब वहाँ से चले गए।
अब वर्धान् अपनी तलवार रखकर उस पेड़ के नीचे बैठ गया।
उसने आँखें बंद कर लीं और लंबी साँस ली।
वर्धान् (मन में): पता नहीं मैं कितने दिनों से इस हालत में हूँ...
पता नहीं वो फूल वाली... क्या सोच रही होगी मेरे बारे में?
पक्का परेशान हो रही होगी...
वो ज़मीन पर हाथ फेर रहा था कि तभी
कुछ उसके हाथ में आ गया।
उसने उसे उठाया, आँखों के सामने लाया और देखा—
रत्नजड़ित कमरबंद...!
वो स्तब्ध रह गया।
वर्धान् (मन में): क्या... वो एक स्त्री थी?
क्या सच में...? एक स्त्री गरुड़ लोक में?
क्या वो यहीं की थी? या... किसी और लोक से?
या... वो सच में कोई जासूस तो नहीं?
उसी वक्त उसका अंगरक्षक वहाँ आया।
अंगरक्षक: गरुड़ वर्धान्!
आपको यहाँ अकेले नहीं आना चाहिए। कृपया हमारे साथ महल चलिए।
उन्होंने वर्धान् को सहारा दिया और महल ले गए।
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दूसरी ओर:
प्रणाली महल पहुँची।
उसने गरुड़ पुष्प वैद्य को सौंपा।
वैद्य ने पहले उस पुष्प को पारस को सूंघाया,
फिर उसका लेप बनाकर उसके माथे पर लगाया।
वैद्य: इससे राजकुमार की जान तो बच गई...
पर वो पहले जैसे कब होंगे, ये नहीं कहा जा सकता।
महाराज (गंभीर स्वर में): कुछ दिनों में राजकुमार का राज्याभिषेक है।
वैद्य: महाराज... राजकुमार को थोड़ा वक्त दीजिए।
वैद्य वहाँ से चला गया।
अब महाराज सोच में डूबे हुए थे।
प्रणाली: पिताजी... आप चिंता मत कीजिए। भैया जल्दी ठीक हो जाएंगे।
महाराज: राजकुमारी...
आप जाकर अपने राज्याभिषेक की तैयारी कीजिए।
प्रणाली (हैरान होकर): पिताजी...!?
महाराज: पुत्री, ये हमारे राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल है।
और तुम भी उतनी ही योग्य हो जितने पारस।
प्रणाली: परंतु...
महाराज (सख़्ती से): अगर तुम विवाह से बचना चाहती हो,
तो यही एक रास्ता है!
प्रणाली मन ही मन इस निर्णय से सहमत हुई,
लेकिन उसने शर्त रखी कि जब पारस पूरी तरह स्वस्थ हो जाएगा,
तो राज्य उसे लौटा दिया जाए।
महाराज ने सहमति में सिर हिला दिया।
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गरुड़ लोक में:
अगले दिन पूरे लोक में ये खबर फैल गई—
गरुड़ वर्धान् अब ठीक हो चुके हैं!
राज्य में उत्सव जैसा माहौल बन गया।
वर्धान् सुबह-सुबह प्रणाली से मिलने ही जा रहा था,
तभी रास्ते में गरुड़ शोभित ने उसे रोक लिया।
गरुड़ शोभित (गंभीरता से): धरती पर जा रहे हो?
वर्धान् चौंक गया।
उसके मन में एक ही सवाल— इन्हें कैसे पता चला...?
गरुड़ शोभित (धीमे लेकिन तेज़ स्वर में):
सोच क्या रहे हो...?
मुझे ये भी पता है कि तुम वहाँ क्यों और किससे मिलने जाते हो।
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