Ishq Benaam - 21 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 21

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इश्क़ बेनाम - 21

फिर एक निर्णय

कुछ दिनों बाद जब शरद ऋतु विदा हो गई और शीत का आगमन हो गया राघवी ने आश्रम की मुख्य संचालिका साध्वी विशुद्धमति के आगे अपनी भावनाओं को उजागर कर दिया। 

उसने मंजीत के साथ उनके कक्ष में पहुंच हाथ जोड़कर कहा, 'माताजी, मैं साध्वी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी मंजीत के साथ एक ऐसा रिश्ता जीना चाहती हूँ, जो प्रेम को आत्मा की शुद्धता और एकता पर आधारित रखे।'

विशुद्धमति ने गंभीरता से उसकी बात सुनी। उन्होंने कहा, 'राघवी, जैन दर्शन में आत्मा ही सत्य है। वासना या देह का आकर्षण तृष्णा का रूप ले सकता है, जो आत्मा की शुद्धता को बाधित करता है। साधना का मार्ग है इस तृष्णा को समझना और उसे नियंत्रित करना, ताकि आत्मा का स्वरूप प्रकट हो।'

यह सुन राघवी बुझ गई। तब मंजीत ने साहस के साथ अपनी पतली-सुरीली आवाज में कहा, 'माताजी, वासना मानव स्वभाव का हिस्सा है। इसे गलत या सही कहने के बजाय, इसका संतुलित और नैतिक उपयोग महत्वपूर्ण है। यदि प्रेम; सत्य, अहिंसा और आत्मा की शुद्धता पर आधारित हो, तो क्या वह आत्मा की मुक्ति का मार्ग नहीं बन सकता?'

विशुद्धमति ने एक गहरी साँस ली। वे समझ गईं कि पिछली कुछेक घटनाओं की तरह यह भी एक अप्रिय घटना होने जा रही है, जब कोई साध्वी अपने प्रेमी के सँग भाग जाने को आतुर है। उन्होंने बीच का रास्ता तलाशते हुए कहा, 'मंजीत, रागिनी, तुम दोनों की बात सत्य की खोज जैसी लगती है। जैन दर्शन कहता है कि आत्मा ही परम सत्य है, और देह की इच्छाएँ उसे आवृत कर सकती हैं। लेकिन यदि प्रेम आत्मा की शुद्धता को बढ़ाए, और अहिंसा के सिद्धांतों का पालन करे, तो वह साधना का हिस्सा बन सकता है। पर देह के आकर्षण को आत्मा के सत्य के अधीन रखना होगा।'

रागिनी ने उत्साह से कहा, 'माताजी, आपने हमें सिखाया कि आत्मा की शुद्धता ही साधना का लक्ष्य है। देह और आत्मा का समन्वय प्रेम की पूर्णता हो सकता है। मैं एक साध्वी हूँ, तो अपनी साधना और अहिंसा के सिद्धांतों को बनाए रखते हुए मंजीत के साथ मिलकर प्रकृति-प्राणि-सेवा करना चाहती हूँ।'

विशुद्धमति मौन हो गईं। उनके मन में राघवी और मंजीत के प्रति प्रेम और चिंता दोनों थीं। वह जानती थीं कि यह पथ कठिन है, पर जैन दर्शन की आत्मा-केंद्रित दृष्टि में यदि प्रेम शुद्ध और अहिंसक हो, तो वह आत्मा की मुक्ति का मार्ग बन सकता है। उन्होंने मन ही मन कहा, रागिनी, मंजीत, यह पथ आसान नहीं। पर यदि तुम दोनों अपने मन की शुद्धता और आत्मा की एकता को बनाए रखते हो, तो यह प्रेम साधना का हिस्सा बन सकता है।

माताजी की इस मूक सहमति से प्रेरित हो राघवी ने आश्रम छोड़ने का फैसला कर लिया। उसने अपनी जिम्मेदारियाँ अन्य शिष्यों को सौंप दीं और मंजीत के साथ एक छोटे से गाँव के साधारण घर में रहने चली आई, जहाँ बिजली तक की सुविधा न थी। उनकी योजना थी कि यहीं रहकर बच्चों को पढ़ाएँगे, असहायों की सेवा-सुरक्षा करेंगे और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करेंगे।

...

उस शाम, रावी तट के इस गाँव में महावट की हल्की बारिश हो रही थी। मंजीत और रागिनी अपने घर की छत पर बरसाती में बैठे थे। बारिश की बौछार उनके चेहरों को भिगो रही थीं, और हवा में ठंडक थी। मंजीत ने राघवी का हाथ थामा और कहा, 'रागिनी, मैंने तुम्हें हमेशा एक स्त्री के रूप में देखा, पर आज मैं तुम्हें एक जागृत आत्मा के रूप में महसूस करता हूँ। क्या तुम मेरे साथ इस पल को जीना चाहोगी— प्रेम के उस सत्य को, जो देह और आत्मा की एकता में है?'

रागिनी ने उसकी आँखों में देखा। उसके मन में अब कोई भ्रम नहीं था। उसने कहा, "मंजी, मैं तुम्हारे साथ हर पल जीना चाहती हूँ— देह के आकर्षण को सम्मान देते हुए, पर आत्मा की शुद्धता को आधार बनाकर। माताजी ने यही सिखाया है कि प्रेम का सत्य मन की शुद्धता में है।'

...

बात करते-करते रात काफी गहरी हो चुकी थी। बारिश की बूंदें बरसाती पर लगातार टपक रही थीं, और हवा में ठंडक बढ़ गई थी। रागिनी की आँखों में नींद का हल्का-सा आलम छाने लगा था। उसने जमुहाई लेते हुए कहा, 'मंजी, चलो, अब नीचे चलें। रात बहुत हो गई।'

कच्ची सीढ़ियों पर संभल-संभल कर उतरते दोनों नीचे आ गए। कमरे में मिट्टी का एक छोटा-सा दिया जल रहा था, जिसकी मद्धिम रोशनी दीवारों पर नरम छायाएँ बुन रही थी। कोने में एक लकड़ी की छोटी सी शैया, जिस पर साधारण से गद्दे के ऊपर सफेद चादर बिछी थी, पैताने तह किया काला कम्बल रखा था। 

मंजीत ने धीरे से काठ की किवाड़ी बंद की, जिसकी चरमराहट बारिश की सरसराहट में खो गई।

राघवी शैया पर बैठ गई, जैसे ध्यान चौकी पर। उसकी नजरें दीये की लौ पर टिकी थीं, जो रोशनदान से आती-जाती हवा के झोंके से हल्के-हल्के डोल रही थी। 

मंजीत ने कुछ देर बाद अपनी पगड़ी उतार, वस्त्र बदल लिए। फिर वह राघवी के पास आकर बैठा तो, एक पल के लिए दोनों के बीच खामोशी छा गई, पर दिल के दरवाजे खुल गए! 

दो पल बाद मंजीत ने धीरे से, लगभग फुसफुसाते हुए कहा, 'रागिनी... साध्वी जी, अब आप अपनी यह ड्रेस त्याग दीजिए। ज-ज-जब तक हमारे बीच यह औपचारिकता बनी रहेगी, देह के भीतर छुपी आत्मा की खोज हो नहीं पाएगी।'

रागिनी की साँसें एक पल के लिए रुक गईं। उसकी आँखें मंजीत के चेहरे पर टिक गईं, जहाँ एक गहरी सच्चाई और प्रेम की झलक थी। पर उसका मन एक बार फिर साध्वी राघवी और रागिनी की भावनाओं के बीच उलझ गया। साध्वी का चोला, जो उसकी साधना और संयम का प्रतीक था, अब उसके लिए एक प्रश्न बनकर खड़ा था। क्या यह चोला वाकई उसकी आत्मा की खोज में बाधा था, या यह उसकी शुद्धता का आधार था?

उसने एक गहरी साँस ली। जैन दर्शन की वह वाणी उसके मन में गूँजी— "मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ।" 

सभी जीवों के प्रति मैत्री, और किसी के प्रति वैर नहीं...। मंजीत के प्रति उसका प्रेम भी तो मैत्री का ही एक रूप है! 

उसने धीरे से अपनी पलकें झुकाईं और मंजीत ने उठकर कमरे की एकमात्र आलमारी से उसे एक सादा सा गाउन उठाकर दे दिया। फिर वह पीठ फेर कर खड़ा हो गया और रागिनी ने भारी संकोच के साथ साध्वी के चोले की साड़ी को खोलना शुरू किया... इस बीच उसकी नजरें मंजीत की पीठ पर टिकी रहीं।

साड़ी धीरे-धीरे वदन से सरकती गई, और दीए की रोशनी में उसकी त्वचा पर एक सुनहरी आभा छाती गई। मंजीत उसका यह भव्य रूप सामने टँगे एक छोटे से दर्पण में देख रहा था, जिसकी खबर रागिनी को नहीं थी। 

चोला उतारकर उसने सावधानी से तह किया और कमरे की उसी एकमात्र खुली आलमारी में रख दिया। फिर मंजीत का दिया गाउन बदन में डाल मुस्कराने लगी। 

जब मंजीत ने पूछा, 'ड्रेस चेंज हो गया?' वह किसी नव-ब्याहता-सी सकुचाती हुई बोली, 'जी!'

मंजीत घूमा तो, उसकी नजरें उस पर टिकी रह गईं। क्योंकि दीपक की लौ से दीप्त इस परिधान में वह बिना मेकअप ही अनुपम सुंदरी प्रतीत हो रही थी। निसंदेह, उसकी नजरों में लालसा उभर आई। पर अपने प्रेम और एक स्त्री के प्रति गहरा सम्मान भी। शायद, वह एक ऐसी चाहत जो देह से परे, आत्मा की गहराइयों तक जा रही थी...उसे लालसा कहना बनेगा नहीं। 

उसने धीरे से रागिनी का हाथ थामा और कहा, 'साध्वी, तुमने आज एक और बंधन तोड़ा। वह चोला तुम्हारी साधना का हिस्सा था, लेकिन आत्मा उससे कहीं बड़ी है।'

रागिनी की आँखें नम हो गईं। वह मंजीत की हथेली पर अपना गाल पर रख भीगे स्वर में बोली, 'मंजी, मैंने वह चोला त्यागा नहीं, उसे और भी गहराई से अपनाया है। वह ड्रेस और यह लिवास; यहां तक कि देह भी, सब आत्मा के आवरण हैं, और तुम्हारा प्रेम मुझे उस तक ले जा रहा है।'

मंजीत ने धीरे से उसे अपनी बाँहों में लिया। उसका स्पर्श नरम था, जैसे वह राघवी को नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को छू रहा हो। रागिनी ने भी अपनी बाँहें उसके कंधों पर रख दीं, और उस पल में दोनों एक-दूसरे में समा गए। दीये की लौ अब स्थिर हो चुकी थी, मानो वह भी उनकी इस एकता का साक्षी बनना चाहती हो।

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