Ishq Benaam - 7 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 7

Featured Books
Categories
Share

इश्क़ बेनाम - 7

07

आपदा में अवसर

सहालग लगते ही रमा की शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं। घर में एक नई चहल-पहल थी, जो पिछले दिनों के तनाव को धीरे-धीरे मिटा रही थी। रागिनी और मंजीत ने अपने रिश्ते को थोड़ा पीछे रखकर परिवार की खुशी को जो प्राथमिकता दी थी उसने माँ-बाप और बहन का दिल जीत लिया था। रागिनी ने अपनी बड़ी बहन के लिए साड़ियाँ चुनने से लेकर मेहमानों की लिस्ट बनाने तक हर काम में हाथ बँटाया। मंजीत भी जब समय मिलता, रागिनी के घर आकर छोटे-मोटे कामों में मदद करता। मैरिज गार्डन, कैटरिंग बुकिंग जैसे बड़े काम उसने अपने हाथ में ले लिए थे। उसकी सादगी और समझदारी ने धीरे-धीरे माँ और पिताजी का भरोसा जीत लिया था।

...

लगभग छह-सात महीने बाद रमा की शादी एक साधारण लेकिन खूबसूरत समारोह में संपन्न हो गई। रिश्तेदारों की भीड़, हँसी-मजाक और ढोल की थाप के बीच रागिनी और मंजीत एक-दूसरे को चुपके से देखकर मुस्कुरा लेते। मानो इसी अवसर की कल्पना में उनके दिल में खुशी के बगूले फूट उठते।

शादी के बाद रमा अपनी ससुराल चली गई, और घर में एक खालीपन-सा छा गया। अगले दिन बचे-खुचे मेहमान भी विदा हो गए क्योंकि आजकल किसी के पास अधिक समय कहाँ? शाम हुई तो माँ ने मंजीत से कहा, ‘बेटा, आज तुम यहीं ठहर जाओ, घर काटने को दौड़ रहा है!’

मंजीत ने खुशी-खुशी उनकी बात मान ली क्योंकि वह तो पल भर के लिए भी रागिनी से दूर नहीं होना चाहता था। रात को माँ-पिताजी अपने कमरे में सो गए, रागिनी अपने में, जिसमें रमा भी सोती थी। रहा मंजीत, सो उसने हॉल के दीवान बेड पर डेरा जमा लिया।

मगर अब न तो रागिनी और न मंजीत किसी की आँखों में नींद नहीं थी। जबकि माँ और पिताजी इतने दिन के थके-हारे घोड़े बेचकर सो गए थे।

रात बारह बजे के लगभग मंजीत टोह लेता हुआ रागिनी के कमरे में जा पहुँचा। कुछ देर धड़कते दिल से खड़ा रहा, फिर आहिस्ता से बैठ गया। जब रागिनी ने करवट बदली और उसे वहाँ पाया तो वह भी उठकर बैठ गई। तब मंजीत उसे अपनी बाँहों में ले कान में फुसफुसाया, ‘तुम्हारी दीदी तो आज मधुयामिनी मना रही होंगी!’

सुनकर रागिनी का चेहरा लाज से भर उठा। फिर थोड़ी देर बाद मंजीत के जवाब में वह भी फुसफुसाई, ‘ईश्वर किसी दिन तुम्हारी भी मनोकामना पूरी करे...गा!’

‘किसी दिन क्यों, आज...ही!’ कहते मंजीत ने अपने बेसब्र अधर इसके अधरों पर रख लिए...और उस पल में समय मानो थम गया। रागिनी के दिल की धड़कनें तेज हो उठीं, लेकिन एक अनकही खुशी और डर का मिश्रण उसे बेचैन कर रहा था। उसने हल्के से मंजीत को पीछे धकेला और फुसफुसाते हुए कहा, ‘मंजीत, ये ठीक नहीं... माँ-पिताजी जाग गए तो?’

मंजीत ने उसकी आँखों में देखा, उसकी बेचैनी को समझते हुए। उसने हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा, ‘रागिनी, तुम्हें लगता है, मैं तुम्हारे लिए कुछ गलत सोच सकता हूँ? मैं तो बस तुम्हारे पास होना चाहता हूँ, तुम्हारी बातें सुनना चाहता हूँ।’

रागिनी की नजरें झुक गईं, और वह हल्के से मुस्कुराई। उसने कहा, ‘तुम्हारी बातें तो हमेशा दिल को छू लेती हैं, पर ये रात और ये मौका... कुछ ज्यादा ही खतरनाक नहीं है?’ 

इस पर दोनों ही हल्के से हँस पड़े, और घर में बिछी खामोशी सहसा ही टूट गई। तब जैसे चौंक कर मंजीत ने उसका हाथ थामा और कहा, ‘चलो, छत पर बैठें, वहाँ खुली हवा में बातें करेंगे, और कोई डर भी नहीं रहेगा।’ 

रागिनी ने सहमति में सिर हिलाया, और दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे छत पर आ गए। रात की ठंडी हवा और तारों भरा आकाश उनके बीच की खामोशी को और गहरा रहा था।

खुले में पड़ी पुरानी बेंच पर बैठते हुए रागिनी ने कहा, ‘मंजीत, तुम्हें पता नहीं, जब हम छोटे थे, और दीदी के साथ मिलकर रात को छत पर तारे गिना करते थे...’ मंजीत ने बीच में कहा, ‘हाँ, और तुम हमेशा कहती थीं कि सबसे चमकीला तारा तुम्हारा है!’

‘तुम्हें कैसे पता...’ वह चहक उठी, बातों का सिलसिला चल पड़ा। रागिनी ने पूछा, ‘मंजीत, तुम सचमुच क्या चाहते हो? मेरा मतलब है, जिंदगी से, हमसे...’ मंजीत एक पल को रुका, फिर गहरी साँस लेते हुए बोला, ‘रागिनी, मैं बस इतना चाहता हूँ कि तुम हमेशा मेरे साथ रहो। न कोई दिखावा, न कोई बनावट। बस तुम और मैं, एक-दूसरे का साथ।’

रागिनी का दिल भर आया। उसने मंजीत की ओर देखा, और उसकी आँखों में वही सच्चाई दिखी जो उसे हमेशा से भरोसा दिलाती थी। वह उसके सीने में समा गई और तब मंजीत उसे उस छोटे से स्टोररूम में ले आया जहां बैठने तक के लिए ढंग की जगह न थी। पर उसने उस कबाड़ से भी एक साबूत स्टूल निकाल लिया, जिस पर बैठ उसने रागिनी को भी अपनी गोद में खींच लिया। फिर वह उसके स्तनों पर हाथ चलाने लगा तो रागिनी उन्हें बचाने पलट कर उसकी ओर मुख करके बैठ गई। इससे सीना सीने से जुड़ गया और हाथ चलाने का अवसर जाता रहा। लेकिन तब मंजीत ने उसके ओठों पर अपने ओठ रख लिए। और पहले उन्हें रह-रहकर चूमता रहा, फिर संतरे की फांकों की तरह मुंह में ले चूसने लगा।

पुरुष जब स्त्री के ओठ चूसने लगे तो उसकी देह की दहलीज पर एक अनोखी दस्तक होने लगती है, सो रागिनी ने मदहोशी में मुस्कराते हुए अपनी सलवार लूज कर ली, और तब उसे गोद मे लिए हुए ही मंजीत ने अपनी जिप उसकी सलवार में खोल दी। उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे को कसकर पकड़ आनन्द में आंखें मूंद लीं।

यह बड़ा अनोखा मिलन था, कि जिसके बाद दोनों अचरज से भरे हँस रहे थे...। 

००