Ishq Benaam - 3 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 3

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इश्क़ बेनाम - 3

03

चौखट भीतर तूफान

सुबह की धुंधली रोशनी में रागिनी अपने मन मे आशंकाओं के घटाटोप बादल लिए मरे-मरे कदमों से घर की ओर बढ़ चली...।

दरवाजा खुला था। देहरी पर कदम रखते ही उसने देखा, मम्मी रसोई में थीं, लेकिन उनका चेहरा गंभीर था। पापा हॉल में अखबार लिए बैठे थे, पर उनकी आँखें अखबार पर कम, दरवाजे की ओर ज्यादा थीं। रमा दीदी, जो पिछले कुछ महीनों से बीमार थीं और बिस्तर पर ही रहती थीं, कमरे से बाहर निकलीं। उनकी नजरें रागिनी पर टिकीं, जैसे कुछ पूछने को बेताब हों।

रागिनी ने चप्पलें उतार कर नजरें झुकाए जूता स्टैंड में रखीं और चोटी में गुँथा गजरा छुपाए, धीरे से बोली, ‘मम्मी, मैं आ गई।’

मम्मी ने पलटकर देखा, फिर तवे पर रोटी सेंकते हुए कड़क स्वर में कहा, ‘कहाँ थी तू रात भर? कवि सम्मेलन तो शाम को खत्म हो गया होगा! फोन भी स्विच्ड ऑफ! हम सब कितना परेशान हुए, तुझे अंदाजा है?’

रागिनी का गला सूख गया। उसने सोचा था कि मम्मी को मनाना आसान होगा, लेकिन उनकी आँखों में गुस्सा और चिंता का मिश्रण साफ दिख रहा था। 

‘मम्मी, रात हो गई थी... वापसी का कोई साधन नहीं मिला। मजबूरी में रुकना पड़ा। नगर-पंचायत अध्यक्षा के घर रुकी थी।’ उसने मंजीत के सुझाए बहाने को दोहराया, लेकिन उसकी आवाज में आत्मविश्वास की कमी थी।

पापा ने अखबार मोड़ा और चश्मा उतारते हुए कहा, ‘रागिनी, हम जैन हैं। सुबह तड़के उठकर नहा-धो, मंदिर जी निकल जाने जाने वाले लोग... हमारे घर में ऐसी आवारागर्दी नहीं चलती। तूने बताया भी नहीं कि इतनी दूर जा रही है। और ये नगर-पंचायत अध्यक्षा का घर? कौन है वो? तुझे हमने इतनी छूट नहीं दी कि रात बाहर गुजारी जाए!’

उनकी आवाज में सख्ती थी, लेकिन उससे ज्यादा दुख।

रमा, जो अब तक चुप थी, बोल पड़ी, ‘रागिनी, तूने तो कहा था कि कवि सम्मेलन है, जल्दी लौट आएगी। फिर रात भर कहाँ थी? और ये गजरा, ये साड़ी? उसने मम्मी से छिपाने कि मैंने ही पहनाई, झूठ बोलते सवाल किया, ‘तू तो सलवार-कुर्ते में गई थी न?’

पर मम्मी ने रमा को शक की नजर से देखते सोचा कि- उसे छूट देने में तुम्हारा भी कम हाथ नहीं... साड़ी तो तेरी ही और ये घर से ही पहन कर गई, मैंने कल ही देख लिया था! दोनों मिलकर हमारी आँखों में धूल न झौंकों। ये (तुम्हारे पापा) इतने सीधे न होते तो, पता चल जाता दोनों को।’ पर वे चुप रहीं, यही सोच कि उसकी हालत अभी कमजोर है। 

मम्मी की टेढ़ी नजर देख रागिनी का दिल धक-धक कर रहा था। उसने साड़ी को कसकर पकड़ा, जैसे वह उसका आखिरी सहारा हो, बोली, ‘दीदी, साड़ी तो आपकी ही... मैंने सोचा कवि-सम्मेलन में अच्छा न लगेगा सलवार-सूट! गजरा... वो मेले से लिया!’ उसने हड़बड़ाते हुए कहा। 

लेकिन माँ की आँखों में शक गहरा रहा था। रमा के रिश्ते की बात चल रही थी, और परिवार पहले ही उसकी बीमारी और शादी की चिंता में डूबा था। रागिनी का इस तरह रातभर बाहर रहना पास-पड़ोस और उनके अल्प संख्यक समाज में तूफान ला सकता था।

उन्होंने गैस-चूल्हे से तवा उतारा और रागिनी के पास आकर बोलीं, ‘बेटी, हमने तुझे कविता लिखने की आजादी दी, मगर इसका मतलब ये नहीं कि तू घर की मर्यादा भूल जाए। गनीमत थी कि रात कोई मेहमान न आया! अगर देख लेता कि तू रातभर बाहर रही, तो आज क्या इज्जत रह जाती हमारी? 

रमा की शादी की बात चल रही है, ऐसे में तेरा ये सब करना हमें और मुश्किल में डाल रहा है।’

रागिनी की आँखें नम हो गईं। उसे मंजीत के साथ बिताए पल याद आए- वो गजरा, वो कविता, वो छत पर ठंडी हवा में साँसों का संगम। लेकिन अब वो सब एक सपने जैसा लग रहा था, और सामने था परिवार का गुस्सा और उसकी अपनी गलती का अहसास। 

‘मम्मी, मैंने कुछ गलत नहीं किया... बस रात हो गई थी।’ उसने धीमे स्वर में कहा, लेकिन उसकी आवाज में विश्वास नहीं था।

पापा ने गहरी साँस ली और बोले, ‘रागिनी, हम तुझ पर भरोसा करते हैं, लेकिन ये भरोसा टूटना नहीं चाहिए। अब तू जा, नहा-धो ले। और हाँ, अगली बार ऐसी कोई बात हुई तो हम तुझे कहीं नहीं जाने देंगे।’

रमा ने रागिनी को एक बार फिर घूरा, फिर चुपचाप अपने कमरे में चली गई। रागिनी समझ गई कि दीदी को उस पर पूरा शक है।

रमा की बीमारी ने उसे पहले ही चिड़चिड़ा बना रखा था, और अब रागिनी का ये व्यवहार उसे और खटक रहा था।

रागिनी अपने कमरे में गई, साड़ी उतारी, और गजरे को हाथ में लेकर बिस्तर पर बैठ गई। चमेली की खुशबू अब भी बाकी थी, जिसमें मंजीत की बातें, उसकी कविता, और उसकी गर्म साँसें घुली थीं। उसने गजरे को तकिये के नीचे रख दिया, जैसे वो उन यादों को संभालकर रखना चाहती हो। लेकिन मन में डर था...अगर रमा या मम्मी-पापा को मंजीत के बारे में पता चल गया, तो क्या होगा? और रमा की शादी की बात, जो पहले ही मुश्किल में थी, क्या उस पर भी असर पड़ेगा?

उधर, मंजीत अपने घर पहुँचा। उसका मन अभी भी रागिनी की मुस्कान और खुली छत पर बिताए उन पलों में अटका था। लेकिन उसे भी अहसास था कि रागिनी के परिवार को मनाना आसान नहीं होगा। नताशा को तो वह धता बता देगा, उसने सोचा।

...

रागिनी ने नहाकर कपड़े बदले और रसोई में मम्मी की मदद करने लगी। मम्मी अब थोड़ा शांत थीं, लेकिन उनकी चुप्पी में एक अनकहा तनाव था। रागिनी ने चुपके से फोन ऑन किया। मंजीत का मैसेज थाः ‘रागिनी, तुम ठीक तो हो? घर में सब ठीक?’ उसने जवाब नहीं दिया, क्योंकि उसे डर था कि कोई देख न ले।

शाम को रमा ने रागिनी को छत पर बुलाया, पूछा, ‘रागिनी, सच बता, तू किसके साथ थी?’

रमा की कमजोर आवाज में भी गजब की सख्ती थी। रागिनी ने नजरें झुका लीं, ‘दीदी, मैं अकेले नहीं थी, और लोग भी थे... कवि सम्मेलन में बहुत सारी कवयित्रियाँ भी थीं।’

रमा ने ठंडी साँस ली, ‘मुझे अपनी शादी की चिंता नहीं, लेकिन मम्मी-पापा को और तनाव मत दे। तू जानती है, मेरी तबीयत ठीक नहीं है। अगर तेरी वजह से कुछ गलत हुआ, तो मैं तुझे कभी माफ नहीं करूँगी।’

रागिनी का दिल भारी हो गया। उसने रमा के हाथ को पकड़ा और कहा, ‘दीदी, मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी। आप निश्चििंत रहो...।’ लेकिन रमा की आँखों में विश्वास नहीं था।

रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे रागिनी सोच रही थी...क्या मंजीत के साथ उसका ये सपना सिर्फ एक बसंत की याद बनकर रह जाएगा? या वो इसे आगे ले जा पाएगी? और अगर ले भी गई, तो क्या उसका परिवार, उसका समाज, और रमा की शादी की राह में आने वाली मुश्किलें उसे ऐसा करने देंगी?

वक्त धीरे-धीरे बीत रहा था, और रागिनी के मन में सवालों का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा था। मंजीत की कविता और उसकी बाँहों की गर्माहट अब भी उसके दिल में थी, लेकिन सामने था परिवार की इज्जत और रमा की नाजुक हालत का बोझ।

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