Ishq Benaam - 1 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 1

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इश्क़ बेनाम - 1

(1)

पंजाबी होते, और अपने घर तथा समाज में पंजाबी बोलते हुए भी, मंजीत एक हिंदी कवि था। क्योंकि आसपास का वातावरण हिंदी भाषियों का था और उसने पढ़ाई भी हिंदी माध्यम से की थी इसलिए उसका हिंदी कवि होना कोई चमत्कार न था। पर एक अहिंदी भाषी का हिंदी कवि होने के नाते उसका विशेष सम्मान था। इसके साथ ही उसका लुक- काली दाढ़ी और काली पगड़ी भी उसे ध्यानाकर्षक बनाती। उसकी टोन, पढ़ने का लहजा भी अन्य कवियों से अधिक आकर्षित करता। और रागिनी के हृदय में भी कविता के अंकुर फूटते थे, सो वह रागिनी को कविता सिखाने और कवि सम्मेलनों का मंच दिलाने के बहाने ही उसके करीब आ रहा था। और यह पिछले दो-तीन बरस से चल रहा था। लेकिन वह अभी तक अपने शहर की कवि गोष्ठियों में ही रागिनी को ले जा सका था। 

वहाँ वह दो-तीन घंटे उसकी बगल में बैठ कर प्रेम की तपिश महसूस करता। उसे छू-छू कर ठंडक पाता। शायद इसी खातिर वे अक्सर समय से पहुँच जाते जबकि अन्य कवि लेट आते। यों गोष्ठी विधिवत शुरू होने से पहले उसे अपने गीत पढ़वाते, उसकी कविताएँ पढ़ते दिल में भावनाओं के अदेखे और अनुपम बगूले उठते-फूटते सो वह हरेक रचना पर उसकी तारीफ करता, और धीमे स्वर में कहता, ‘लाओ, तुहाड़ी कलम चुम्म लवां!’ और इसी बहाने उसकी उंगलियाँ चूम लेता। 

शहर की कवि-टोली की बड़ी उम्र की कवयित्रियाँ जहाँ रागिनी की कविता पर मुँह ऐंठतीं, वहीं पुरुष वर्ग उसकी तारीफ करता अघाता नहीं। क्योंकि वह सबसे युवा कवयित्री थी। जब वह कविता पाठ करती तो उसके हाव-भाव कवियों के दिमाग में पॉज बन चस्पां हो जाते। उसका स्वर उन्हें स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की याद दिला देता। और मंजीत तो- रागिनी जब कविता पढ़ रही होती, खूब उचक-उचक कर तारीफ करता:

-वाह!

-शाबाश!

-बड़ी सोहणी कविता है!

-तुहाड़ी कविता ने मेरा दिल जित लिया है!

-कविता दी भावना बड़ी गहिरी है!

...

कहना न होगा कि इसी रास्ते रागिनी को उसने लगभग अपना बना लिया था। और इसीलिए वह उसकी किसी बात से इनकार नहीं करती, जबकि दूसरे कवियों को अनसुना और चलता कर देती। 

किंतु यह मौका केवल कवि-गोष्ठियों और स्थानीय कवि-सम्मेलनों तक ही सीमित होता। और वह भी, रागिनी वहाँ खुद से पहुँच जाती क्योंकि तब शाम का समय होता। दूसरे घर वालों को यह पता न चले कि उसे कोई लेकर गया है! लड़की होने के नाते वह इतना एहतियात तो बरतती ही। जबकि मंजीत मन मार कर रह जाता कि उसे अपने पीछे स्कूटर पर बिठा कर गोष्ठियों में ले जाने का मौका न मिलता। अन्य कवियों को वह नहीं दिखा पाता कि- देखो, रागिनी को लेकर मैं आया हूँ! 

पर इज्जत यों बनी थी कि वापसी में वह हमेशा मंजीत के साथ ही जाती। हालांकि गली के मोड़ से पहले ही कह उठती, ‘बस-बस! रोको...’ क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि मंजीत दरवाजे तक जाए और मम्मी-पापा या बहन उसे उसके साथ आया देख लें! क्योंकि किसी के साथ आया देख लेने में ही यह खतरा छिपा था कि आगे के कार्यक्रमों में जाना बंद हो जाता...। 

मोड़ पर जहाँ वह स्कूटर रोकता, अक्सर अँधेरा रहता, और उतर कर जाते-जाते रागिनी गोया एहसान चुकाने उसके करीब से मुस्कराती हुई गुजरती तो हाथ पकड़ लेता! जैसे कहता हो, ‘अबी नु जावो लाडो...!’ तब लगता कि वह भी भावुक हो आती! और हाथ छुड़ा मजबूरन चली तो जाती मगर उसकी काली पगड़ी और काली दाढ़ी के बीच चमकता गोरा मुखड़ा, काली आँखें, लाल ओठ आँखों में छाये रहते।

फिर एक बार यह हुआ कि हाथ पकड़ने के बजाय उसने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया! और तब दिल धड़क गया रागिनी का। मगर मंजीत की उसे चूमने की हिम्मत न पड़ी, गोया डर कर छोड़ दिया तो जान में जान आ गई और वह मन ही मन मुस्कुराती हुई चली गई।

मगर दूसरी बार जब फिर ऐसा मौका आया और चेहरा हथेलियों में भर लिया मंजीत ने और इस बार चेहरा बढ़ा गाल चूम लिया तो लगा, पैरों से जमीन खिसक गई! जब छोड़ी उसने, वह लटपटाई-सी तेज कदमों से बढ़ गई, जैसे फिर न पकड़ ले! मगर दाढ़ी-मूँदों की रेशम-सी छुअन कपोल को रात भर गुदगुदाती रही। 

और फिर अगली बार जब ऐसा मौका आया कि मंजीत ने उसका चेहरा हथेलियों में भर ओठ चूम लिए तो गोया पीछा छुड़ाने जल्दी से उसने भी ओठ चूम लिए उसके और झटके से दामन छुड़ा भाग ली...।

...

यों छोड़ते वक्त जब कभी अँधेरों-उजालों में चुंबनों के इस आदान-प्रदान ने प्रेम की अग्नि को भड़काने में कोई कसर न छोड़ी थी...। मगर दो दिलों की तरह दो देहें एक होने से बची थीं तो इसीलिए कि एक होने का ऐसा कोई मौका अभी मिला न था। 

गीतों और कविताओं के माध्यम से मिलन का इजहार दोनों ही तरफ से अक्सर होता रहता पर उसे धरातल पर उतार लाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। 

और वैसे तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी। मंजीत अपने किसी ऐसे मित्र से उसके कमरे की चाबी ले सकता था जो अकेला रहता हो और कभी-कभार बाहर जाता हो! या फिर किराए के बल पर शहर के किसी होटल या लॉज में भी बुला सकता था! पर उसे रागिनी के मन की थाह न थी। क्योंकि वह कुँवारी और वह विवाहित। अगर उसने इनकार कर दिया, उसे नीच प्रकृति का समझ लिया (क्यूँकि बड़ी उम्र की कवयित्रियाँ उसे समझाती रहती होंगी कि विवाहित पुरुष ज्यादा खतरनाक होता है!) तो बात बिगड़ जाएगी। प्रेम का अर्थ देह नहीं होती, यह बात वह अपनी कविताओं में भी कह चुकी है। जबकि देह की माँग होती तो है, मंजीत यह बात अच्छी तरह जानता था। 

जानता था कि रागिनी एक नवयौवना है। प्रेम में पड़कर देह उसकी भी देह की चाहत से भर गई होगी। यह बात अलग कि वह संकोच में इनकार कर दे, या उसके विवाहित होने से बिदक जाए...! इसीलिए उसने सोचा कि किसी दूसरे शहर में कवि-सम्मेलन के बहाने ले जाए और किसी तरह एकांत पा प्रणय की जिद ठान ले। 

जानता है, मनुष्य प्रेम में कमजोर पड़ जाता है....और प्रेमी का नाजायज आग्रह भी एक सीमा के बाद टाल नहीं पाता। यकीन था कि रागिनी उसका आग्रह टाल नहीं पाएगी। आसक्त न होती तो स्कूटर से उतर कर अँधेरे में उसके नजदीक ही क्यूँ आती! 

इतना ही नहीं, अपने गीतों और कविताओं से भी वह प्रेम का इजहार करती तो है! यह इजहार देह की चाहत नहीं तो और क्या है? चुम्बन के बाद उसकी देह का बिजली के तार की तरह झनझना जाना और चुम्बन के बदले चुंबन देना क्या कहता है!?

लेकिन इस तरह वे एक दूसरे को छूने और हद से हद आधे-अधूरे चुम्बन से आगे नहीं बढ़ सके थे। इसलिए इस बार मंजीत ने यह सोच कर कि, शहर से बाहर के किसी कवि-सम्मेलन में उसे ले जाऊँ तो यात्रा में तो नजदीक से नजदीकतर होने का मौका मिलेगा ही, रात अधिक हो गई और लौटने का कोई साधन नहीं बना तो वहीं किसी धर्मशाले या लॉज में ठहर जाने पर तो मिलन एकसौ एक फीसदी होकर रहेगा ही...। 

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