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(अंतिम भाग)
प्रेरणा
राघवी दी का आश्रम से यह बहिर्गमन देख काव्या का मन अस्थिर हो गया था। क्योंकि उसने भी प्रेम में धोखा खाकर आश्रम की शरण ली थी पर उसने अभी तक साध्वी-दीक्षा नहीं ली थी।
एक रात, आश्रम से चुपके से निकल वह रागिनी-मंजीत के ठिकाने की ओर चल पड़ी। रात गहरी थी, मगर चाँद की मद्धिम रोशनी उसे रास्ता दिखा रही थी।
उसका इरादा केवल यह देखना था कि क्या वह प्रेम, जो उसने अपने जीवन में खो दिया था, राघवी दी और मंजीत के जीवन में जीवित था? वह यह समझना चाहती थी कि- क्या प्रेम वाकई देह और आत्मा का वह संगम है, जैसा विशुद्धमति और राघवी दी अपने प्रवचनों में बताया करतीं! या उससे कुछ भिन्न जो संसार में दिखता है...।
नदी घाट पर अपनी पृथक कुटिया डालकर रह रहीं बुजुर्ग साध्वी निर्मलमति ने उसे रात में यों जाते देखा तो अचानक टोक दिया, 'काव्या कहाँ जा रही हो, इस सर्द रात में?'
'राघवी दी से मिलने!' उसने सहमते हुए कहा।
'क्यों?'
'देखने कि- क्या प्रेम वाकई देह और आत्मा का वह संगम है, जैसा कि राघवी दी अपने प्रवचनों में बताती रहीं...!'
'बताने से क्या, करेगी तब पता चलेगा... प्रेम औरत को मजबूर कर देता है... उसमें वह घोड़ी तक बन जाती है।"
'औरत घोड़ी कैसे?' उसने अचरज से मुंह फाड़ा।
'न मानो तो देख आओ, जाके!' कह वे अपनी साधना में लग गईं।
...
काव्या की जिज्ञासा अब और तेज हो गई। तेज कदमों से वह आगे बढ़ चली। नहीं जानती थी कि यह रास्ता उसे कहाँ ले जाएगा, लेकिन वह एक खोज में निकल पड़ी— एक ऐसी खोज, जो शायद उसे खुद से दोबारा मिला दे।
गाँव की गलियों में भटकते पूछते उसने मंजीत के घर के पास पहुँच कर देखा कि खिड़की से हल्की रोशनी बाहर आ रही थी। वह चुपके से पास गई और खिड़की के किनारे खड़ी हो, भीतर झाँकने लगी।
भीतर, दीदी और मंजीत रसोई में साथ-साथ खड़े नजर आ रहे थे। मंजीत ने ट्राउजर और एक ढीली-ढाली कुर्ती पहन रखी थी। केस जो अब तक उसने देखे ही नहीं थे क्योंकि वे सलीके से सिर पर बंधी पगड़ी में छुपे रहते, आज उसकी पीठ और कंधों पर लहरा रहे थे। दाढ़ी भी खुली हुई। और इन सबके बीच उसका सौम्य मुखड़ा प्रौढ़ता की सुंदर छवि प्रतीत हो रहा था।
दीदी ने भी एक सूती छोटी बाँह की ढीली-ढाली कुर्ती-पजामी पहनी हुई थी और बाल मानो जल्दबाजी में सिर ऊपर बेतरतीब जूड़े की शक्ल में बांध रखे थे, जिनकी कुछेक लटें उनकी कनपटियों और पीछे गर्दन तक लटक रही थीं। इस वेशभूषा में आज वे नितांत एक साधारण घरेलू महिला लग रही थीं, न कि निर्धारित ड्रेसकोड वाली असाधारण साध्वी।
न जाने किन अनकही बातों में मशगूल मंजीत आटा गूँथ रहा था और दीदी सब्जी काट रही थीं। काव्या यह दृश्य किसी अचंभे की तरह देख रही थी। तभी न जाने क्या बात हुई कि राघवी दी ने मंजीत के गाल पर आटे का एक टीका लगा दिया!
"अरे, रागिनी! तू तो रोटी से ज्यादा मेरे दिल को जलाती है..." मंजीत ने मजाक में कहा और हँसते हुए उन्हें अपनी बाहों में खींच लिया, तो दीदी ने भी उसकी छाती पर एक हल्का-सा मुक्का मार दिया और हँसते हुए कहने लगीं, "बस, वड्डी तकदीर हो गई मेरे शेफ! अब झट से रोटी बनाओ, पेट विच चूहे कूद रहे ने...।"
काव्या यह देख स्तब्ध थी। यह साधारण पल कितना गहरा था— उनका साथ, उनकी हँसी, एक-दूसरे के प्रति सहज स्नेह, यह चुहलबाजी।
...
वह खड़ी रही उन्हीं पैरों, अपने अतीत को याद करती हुई। समय जाने कितना गुजर गया! जब ध्यान टूटा, उसने देखा- दोनों साथ बैठकर खाना खाने लगे थे।
मंजीत ने दी के लिए एक कौर बनाया और उन्हें खिला दिया, दी ने भी वही किया, और दोनों की आँखों में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलक उठा।
वह ताज्जुब में थी कि बिना बिजली के इस घर में, केवल दिये की रोशनी के सहारे वे कैसे प्रसन्नता पूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे...। काव्या को अपने खोए हुए प्रेम की याद आई, लेकिन इस बार दुख की जगह एक अजीब सी तसल्ली थी। अब वह उनके इस अमूल्य प्रेम की चश्मदीद बन जैसे अपने खोए प्रेम को खोजना चाहती थी, इसलिए उसने गुप्त रूप से घर के भीतर दाखिल होने की बात सोची और उसे सफलता भी मिल गई क्योंकि मंजीत उसी वक्त बाहर लगे सार्वजनिक हैंडपंप से पानी भरने चला आया। सो, जब तक उसने घर की ओर से पीठ फेर हैंडपंप चलाकर बाल्टी भरी, काव्या दबे पांव घर में घुस, आंगन में लहलहाते पौधों के अंधेरे साये में छुप गई, जहां से पूरा घर देख सकती थी।
...
मंजीत पानी की बाल्टी लेकर बाहर से लौटा और दरवाजा बंद कर लिया। उसने नहीं जाना कि कोई अंदर आ गया है! बाल्टी उसने रसोई के पास बनी मोरी पर रखी और राघवी के साथ बर्तन धुलवाने लगा। चाँद की हल्की रोशनी में मोरी का दृश्य बड़ा सम्मोहक था। दीदी की पजामी की मोहरी हल्की गीली थी, और जूड़ा लगभग खुल चुका था। तभी मंजीत ने शरारत कर उनके चेहरे पर पानी छिड़क दिया, और दी ने ठंड से सिहरते उसकी ओर देखा, लेकिन उनकी आँखों में शिकायत नहीं, मोहब्बत की चमक थी। काव्या यह दृश्य एकटक देखती रह गई। यह दुर्लभ पल इतना कीमती था कि उसका मन अपने खोये हुए प्रेम को बरबस याद करने लगा।
बर्तन धोने के बाद मंजीत और राघवी एक-दूसरे के करीब आ गए। मंजीत ने राघवी के माथे पर एक कोमल चुंबन दिया, तो राघवी ने उसके कांधे पर अपनी ठुड्डी टिका ली। काव्या को यह दृश्य इतना सुंदर लगा कि उसके जी में आया कि दौड़कर उनके गले लग जाय... लेकिन उसका मन अपने अतीत की त्रासदी में खो गया। वह खड़ी रही और समय गुजर गया।
इस बीच, मंजीत छत पर रावी तट का नजारा देखने चला गया था। राघवी कमरे में जाकर दर्पण के आगे अपनी चोटी संवारने लगी। जब मंजीत वापस लौटा और उसने दरवाजे पर हल्की खटखट की, तो राघवी ने खट्ट से दरवाजा खोल दिया। काव्या की साँसें थम गईं। वह अंधेरे में खड़ी थी, और कमरे में जलता दीया राघवी और मंजीत की अलौकिक छवि को रोशन कर रहा था।
दी ने अब एक रंगीन मैक्सी पहनी हुई थी, और उनकी पीठ पर लटकती चोटी में लाल फूलों का गजरा लगा था। दीये की रोशनी में वे इतनी सुंदर लग रही थीं कि मंजीत एक पल के लिए ठगा-सा रह गया। फिर उसने उनके रुखसारों को इतनी गहराई से चूमा कि चुंबन की वह मधुर ध्वनि काव्या के कानों में भर गई, और लाज से सुर्ख हुए अपने गाल लिए दीदी ने दरवाजा बंद कर लिया।
काव्य वहां से हटकर खिड़की की सीध में आ गई। हालांकि बारिश की छुटपुट बूँदें अब उसके चेहरे को भिगोने लगी थीं, और सर्द हवा के झोंकों से देह काँप उठी थी, पर वह हटी नहीं। शॉल को उसने और कस लिया।
इधर मंजीत ने रागिनी को अपने भुजपाश में कस उसके उन्नत उरोजों पर अपना चेहरा रख लिया था, और रागिनी ने गोया एक अनोखे आनन्द का अनुभव करते हुए अपनी गर्दन ऊपर उठा आंखें छत की ओर उलट दी थीं। तब मंजीत के ओठ उसके उरोज-वृन्तों को दबाते बुदबुदा उठे:
ये आँखें
बस उतनी ही छलकनी चाहिए
जितने में न डूबे ये संसार...
यह सुन रागिनी गोया मदहोशी में हँसी और उससे छूटकर कमरे में पड़े एक छोटे से तख्त की शैया की ओर बढ़ गई। मंजीत उनके पीछे। ...और जब वह घुटनों के बल उस पर चढ़ रही थी, हथेलियां आगे जमाए, मंजीत ने लपक कर कमर पकड़ ली।
काव्या धक से रह गई, क्योंकि उसकी राघवी दीदी अब सचमुच एक घोड़ी बनी नजर आ रही थीं, और उनकी पीठ पर झुका मंजीत जैसे, घोड़ा!
यह देख सहसा उसे विष्णु पुराण की वह कथा याद आ गई जिसे एक बार मुनि विहिप सागर जी ने हयग्रीव अवतार का मजाक उड़ाते अपने प्रवचन में सुनाया था:
'हमारे तीर्थंकरों की चौबीसी की नकल में हिंदू अवतारों की चौबीसी तो आर्यों की रची कुंठाएं हैं। विष्णु के हयग्रीव अवतार के बारे में विष्णु पुराण में एक कथा मिलती है, जिसके अनुसार- विष्णु जी एक बार लक्ष्मी जी पर ही कुपित हो गए और उन्हें घोड़ी बनने का श्राप दे दिया। फिर उनकी तपस्या से खुश हो खुद भी घोड़ा बन गए और उनके साथ रमण करने लगे, जिससे एकवीर नामक पुत्र का जन्म हुआ, जिससे हैहयवंश की उत्पत्ति मानी जाती है...'
मगर उस कल्पित पुराण कथा को आज वह यथार्थ होते देख रही थी... दी ने गर्दन मोड़ मुस्कुराते हुए मंजीत को ऐसे देखा जैसे कह रही हों कि- तुम इसी के लिए तो बारह साल से हमारे पीछे लगे थे! और तब मंजीत ने भी अपना चेहरा बढ़ा उनके ओठ अपने ओठों में भर लिए थे, जैसे कह रहा हो कि- लंबे विरह के सारे पलों का हिसाब आज लेकर रहेगा...।
काव्या को उनका वह मिलन जिसमें तख्त की चूलें हिल गई थीं, बादल-बिजली की तड़प और चमक से भरा एक हैरतअंगेज दृश्य प्रतीत हो रहा था...।
जब वह चरम पर पहुंचा, दोनों प्राणियों के कंठ से सम्मिलित बीन बज उठी। जिसके बाद दोनों एक-दूसरे के गले लग, मिलन की मधुर मुस्कान लिए बेसुध सो गए, काव्या खिड़की छोड़ बाहर निकल आई।
मन ही मन ठान लिया उसने कि— अपने अतीत के दुख को अब छोड़ देगी। क्योंकि आज उसने भी जान लिया कि प्रेम केवल दुख या धोखा नहीं; बल्कि विश्वास, साथ, और आत्मा की एकता भी है। मंजीत और राघवी का बेनाम प्रेम उसके लिए एक सबक बन गया था।
समाप्त