प्रकृति की आवाज़ में जो डर था, उस एक शब्द — "Mr. Raghuvanshi… रुक जाइए…" — ने रिध्दान के गुस्से को एक पल में बर्फ बना दिया।
उसका हाथ हवा में ही ठहरा रह गया।
फिर वो लड़का जो ज़मीन पर बेहाल पड़ा था, धीरे-धीरे रेंगता हुआ वहाँ से भाग निकला।
बाकी सब भी बिखरे बालों, फटे कपड़ों और काँपते हुए हाथों के साथ भाग गए।
अब वहां सिर्फ दो लोग बचे थे…
एक, जिसके हाथ अब भी खून से सने थे… और दूसरी, जिसकी आँखों से बहते आँसू हर शब्द कह चुके थे।
रिध्दान धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा, जैसे कुछ बोलना चाहता हो…
पर अल्फाज़ गले में ही अटक गए।
वो बस झुकते हुए फिक्र में बोला:
"तुम्हें… कहीं चोट तो नहीं आई?"
उसकी आवाज़ धीमी थी, पर उस धीमी आवाज़ में एक ज़ख्मी शेर की दहाड़ छिपी थी…
जो अभी भी डर रहा था — उसे कहीं कुछ हुआ तो नहीं।
प्रकृति की पलकों पर आंसुओं की बूँदें ठहरी थीं।
वो कुछ पल तक उसे देखती रही…
फिर अपनी आंखें उसकी कलाई की तरफ ले गई, जहां से खून बह रहा था।
उसने धीरे से वही चोट दिखाई और कहा:
"आपको… लगी है… आप ठीक हैं?"
उसका लहजा टूटे हुए शीशे सा था… बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर जुबां भीग गई थी।
रिध्दान ने उसकी आँखों में देखा… और बस सर हिलाया — जैसे खुद को मजबूत दिखाना चाह रहा हो।
लेकिन उसकी आँखें सब बयाँ कर रही थीं।
कई पल तक दोनों कुछ नहीं बोले…
सिर्फ एक गूंज थी… सांसों की, धड़कनों की, और उन अनकहे जज़्बातों की जो अब लावा बनकर दिलों में उबल रहे थे।
रिध्दान ने एक नज़र चारों तरफ डाली…
फिर बिना कुछ कहे उसकी ओर बढ़ा और कार की ओर इशारा किया।
वो खुद आगे जाकर उसके लिए दरवाज़ा खोलता है — जैसे वो अब भी उसकी हिफाज़त में खुद को खड़ा करना चाहता हो।
प्रकृति, चुपचाप, हल्के क़दमों से चलती हुई कार में बैठ जाती है।
उसके बैठते ही रिध्दान दरवाज़ा बंद करता है…
और बिना एक शब्द बोले ड्राइविंग सीट पर जाकर बैठ जाता है।
कार स्टार्ट होती है।
सड़कें सुनसान हैं…
हल्की बारिश अब थम चुकी है… पर हवा में नमी बाकी है…
जैसे आसमान भी कुछ महसूस कर चुका हो।
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पूरे रास्ते… प्रकृति की नज़रें सिर्फ और सिर्फ रिध्दान पर थीं।
वो उसे देख रही थी जैसे पहली बार देख रही हो…
उसका चेहरा, उसकी प्रोफाइल, उसके भीगे हुए बाल, और उसकी आंखें — जो सामने सड़क पर थीं, पर दिल… कहीं और।
वो उसे टटोलना चाहती थी…
पूछना चाहती थी —
"वो तस्वीर… क्या वो मैं थी?"
"इतने सालों से… क्या तुम मुझे ही ढूंढ रहे थे?"
पर कोई आवाज़ उसके होठों से बाहर नहीं निकली।
शायद… क्योंकि वो जानती थी, ये मौन… ये खामोशी… इस वक़्त सबसे पवित्र है।
उसने पलकों के नीचे एक छोटा सा आंसू छिपा लिया…
और मुस्कुरा दी — हल्के से, जैसे किसी ख्वाब को महसूस करके।
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रिध्दान अब भी चुप था।
पर उसकी आंखों के किनारे से कभी-कभी झांकती वो बेचैनी साफ थी।
वो बोलना चाहता था… पर डरता था, कहीं उसके शब्द प्रकृति को फिर से दूर न कर दें।
शायद ये खामोशी दोनों को पहली बार एक-दूसरे के और करीब ला रही hai
...कार अब धीरे-धीरे उस जानी-पहचानी गली में मुड़ी, और फिर प्रकृति के घर के सामने आकर रुकी।
रिध्दान ने बिना कुछ कहे, हमेशा की तरह, उसके लिए दरवाज़ा खोला।
प्रकृति बाहर निकली…
एक पल को खामोश खड़ी रही…
फिर उसकी ओर देखा… धीरे से मुस्कुराई — वो मुस्कान जो बहुत कुछ कहती थी, पर शब्दों से परे थी।
रिध्दान ने भी उसे देखा…
उसकी आंखों में थकान नहीं, अब सिर्फ वो थी।
वो देख रहा था जैसे उसे याद कर लेना चाहता हो — पूरे वजूद के साथ।
प्रकृति का दिल धड़क उठा।
वो कुछ पूछना चाहती थी… शायद उस पेंटिंग के बारे में, शायद उन सालों की खामोशी के बारे में…
पर फिर उसकी नजर रिध्दान की आंखों में अटक गई —
और उसने महसूस किया…
अब कुछ भी कहना ज़रूरी नहीं।
बस नज़रों की वो एक मुलाक़ात ही काफी थी।
उसने धीरे से गर्दन झुकाई, जैसे शुक्रिया कह रही हो…
और मुड़कर घर के भीतर चली गई।
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रिध्दान वहीं खड़ा रहा…
उसकी नजरें अब भी उसी दरवाज़े पर थीं, जहाँ अभी कुछ देर पहले वो खड़ी थी।
फिर खिड़की की लाइट जली।
वो मुस्कुराया —
एक हल्की सी, बेआवाज़ मुस्कान, जो सीने में कहीं गहराई तक उतर गई।
वो अब भी खड़ा था…
जैसे वो रौशनी सिर्फ घर की नहीं, उसके दिल के हिस्से की भी हो।
प्रकृति ने पर्दे के पीछे से एक बार देखा…
वो अब भी वहीं था —
खड़ा… चुप… और सिर्फ उसे देखता हुआ।
एक पल को उसकी आँखें भी नम हो गईं…
पर उसने वो लाइट बंद नहीं की।
जब तक लाइट जली रही… रिध्दान वहीं खड़ा रहा।
और जब आखिरकार प्रकृति ने धीरे से लाइट बंद की…
रिध्दान ने आसमान की ओर देखा, एक सांस ली… और चुपचाप लौट गया…
पर उसकी आँखों में अब भी प्रकृति की रौशनी बसी हुई थी।