अगली सुबह... ऑफिस
प्रकृति अपने डेस्क पर बैठी थी, पर उसका मन अब भी पिछली रात में उलझा हुआ था।
कल की लड़ाई... वो आँखें... वो पागलपन... और वो चुपचाप उसकी फिक्र करना – सब उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे।
वो फाइलें पलट रही थी, लेकिन ध्यान एक भी शब्द पर नहीं था।
तभी...
Ridhaan ऑफिस में दाखिल होता है।
सारा स्टाफ खड़ा हो जाता है, जैसे हवा थम गई हो।
लेकिन प्रकृति अपनी जगह से नहीं हिलती।
Ridhaan चलते-चलते उसकी तरफ एक नजर डालता है।
उसकी आँखों में वो जानलेवा तेज़ नहीं, एक चुपचाप सी बेचैनी थी...
जैसे वो कुछ कहना चाहता हो, पर खुद से ही डर रहा हो।
वो बिना कुछ बोले अपने केबिन में चला जाता है।
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Ridhaan का केबिन
(वो कुर्सी पर गिरता है जैसे पूरी रात जंग लड़ के आया हो।)
Ridhaan (मन में):
"मुझे नहीं सोचना उसके बारे में... मुझे खुद को संभालना है...
रिद्धि को देखना है... ये मामला हल्का नहीं है।
लेकिन पता नहीं क्यों… उसे देखते ही लगता है जैसे साँसें वापस चलने लगी हों।
जैसे खुद को फिर से जिंदा पाया हो..."
(तभी कबीर अंदर आता है)
Kabir (बिना औपचारिकता के):
"भाई, जो टीम उत्तराखंड जा रही थी, उस रिपोर्टर के घर में इमरजेंसी हो गई है।
अब क्या करें?"
Ridhaan (थोड़ा थका, लेकिन बेरुखा):
"तू देख ले… अब ये सब मुझसे नहीं हो पाएगा।"
Kabir (मुस्कराकर, हल्की चुटकी लेते हुए):
"तेरे बस का अब कुछ नहीं रहा…
लगता है ग्राउंड रिपोर्टिंग से ज़्यादा ज़मीन हिल रही है अंदर?"
Ridhaan (तेज़ी से):
"तेरी ज़ुबान काट दूंगा मैं। चुपचाप काम कर।"
Kabir (हँसते हुए):
"अरे बाबा, जा रहा हूँ। तू तो आजकल बहुत जलने लगा है..."
(कबीर चला जाता है, Ridhaan एक गहरी साँस लेता है)
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और उसी वक़्त...
Ridhaan अपने P.A. से कहता है:
"एक नया कॉन्ट्रैक्ट तैयार करो।
नाम: प्रकृति शर्मा।
क्लॉज डालो — ये कंपनी छोड़ी तो भारी भरकम पेनाल्टी लगेगी।
और हाँ, क्लॉज को ऐसा रखना कि वो नॉर्मल टर्म्स में छुप जाए... लेकिन enforceable हो।
और साइन आज ही चाहिए।"
P.A. (हिचकिचाता हुआ):
"लेकिन सर… क्या—"
Ridhaan (कड़क):
"ये 'क्या' 'क्यों' मत पूछो। जो कहा है वो करो।"
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कुछ देर बाद... ऑफिस फ्लोर
Ridhaan बाहर आता है, सभी उसकी तरफ देखने लगते हैं। प्रकृति भी ध्यान देती है।
Ridhaan (सीधा, लेकिन ठंडे लहजे में):
"उत्तराखंड की ग्राउंड रिपोर्टिंग अब कैंसिल है।
कोई वहां नहीं जाएगा।
सिर्फ ड्रोन से aerial shots लिए जाएंगे। That’s it."
Kabir (साइड में बड़बड़ाता है):
"हाँ… क्योंकि किसी को बचाने का काम अब सर खुद ही करते हैं…"
(प्रकृति का ध्यान अपने हाथ पर जाता है — पट्टी लगी होती है।
और एक दम से उसे याद आता है कल की रात… वो पागलपन, गुंडों को अकेले पीटना, उसकी फिक्र में तड़पना…)
दिल हल्का कांपता है…
“ये आदमी... हर बार वहीं क्यों होता है जहाँ मुझे उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है?”
“क्यों कोई इसे देखकर खिंच न जाए?”
“क्यों Mr. Raghavanshi… आप जैसे हो?”
और वो पेंटिंग..... वो आपके पास क्यों है, वो मैं ही हूं, I am very sure। पर आपके पास क्यों कैसे?????
वो धीरे से उठती है, और एक दवा की छोटी सी डिब्बी उठाकर सीधे Ridhaan के केबिन की ओर बढ़ती है।
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Ridhaan का केबिन — फिर से
(दरवाज़ा हल्के से खटखटाती है। Ridhaan जानता है कौन है… लेकिन जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं…)
प्रकृति:
"Mr. Raghavanshi… ये—"
Ridhaan (बिना देखे, बेरुखी से):
"तुम्हें दिख नहीं रहा या जानबूझकर नहीं देखना चाहती कि मैं बिज़ी हूं?"
(कुछ सेकंड चुप्पी। प्रकृति गहरी साँस लेती है। वो कमजोर नहीं दिखना चाहती…)
प्रकृति (धीरे से):
"कल मेरी वजह से आपको चोट आई थी…
बस… इसी लिए ये दवाई लाई हूँ।
लगा लेना…"
(वो पलटने लगती है)
Ridhaan (तुरंत उठते हुए, हल्के गुस्से में):
"तुम्हारी जगह कोई और भी होता… तब भी मैं यही करता।
You should know that."
(प्रकृति रुक जाती है। उसकी पीठ उसकी तरफ है।)
Ridhaan (कड़वा स्वर, खुद को तोड़ते हुए):
"और हाँ… कोई गलतफहमी मत पालना कि मैं तुम्हारे लिए वहाँ था।
या तुम्हारे लिए किसी से लड़ने गया था।
मैं कोई फिल्मी हीरो नहीं हूँ, जिसे बचाने का शौक हो।"
(प्रकृति पलटती है, उसकी आँखों में ग़ुस्सा, बेइज़्ज़ती और तड़प — सब कुछ एक साथ)
वो तेज़ी से टेबल से दवा उठाती है और ज़ोर से ज़मीन पर दे मारती है......
रिधान की आंखे खुली रह जाती है।