Shri Bappa Raval - 8 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 8 - भोजकश में प्रेम पड़ाव

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श्री बप्पा रावल - 8 - भोजकश में प्रेम पड़ाव

सप्तम अध्याय
भोजकश में प्रेम पड़ाव

अगले दो दिवस में ही मेवाड़ की सम्पूर्ण सेना ने विजयपुरा की भूमि छोड़ दी। महाराज विन्यादित्य भी अपने दल बल के साथ बादामी लौट आये। थोड़े विश्राम के उपरान्त उन लोगों ने पूरे महिष्कपुर को अपने आधीन करने की योजना बनानी आरम्भ की। और महाराज विन्यादित्य के आदेश पर शीघ्र ही नागादित्य और शिवादित्य अपनी सैन्य टुकड़ी लेकर महिष्कपुर के विभिन्न नगरों के शासकों को बल या वार्ता के प्रयोग से चालुक्यभूमि का भाग बनाने के उद्देश्य से निकल पड़े।

तीन वर्ष और बीते। दोनों गुहिल योद्धाओं ने लगभग सम्पूर्ण महिष्कपुर को चालुक्यों के आधीन कर दिया। अब अंतिम नगरी भोजकश को अपने आधीन करने के उद्देश्य से नागादित्य ने वहाँ प्रस्थान किया और सीमा पर अपनी छावनी डाल दी।

सूर्य के उदय होने में एक घड़ी शेष थी। भोजकश नगर की सीमा पर अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ पड़ाव डाले गुहिलवंशी वीर नागादित्य रिक्त हाथों से ही अंगीठी को ठीक करता हुआ बुझती हुई अग्नि की लौ बनाए रखने का प्रयास कर रहा था। उसकी दृष्टि सामने के वनों के मध्य से होकर आते हुए संकरीले मार्ग की ओर थी, मानों किसी की प्रतीक्षा में हो। इतने में एक तेरह वर्ष का बालक चहकता हुआ उसके निकट आकर बैठ गया, “क्या लगता है? भोजकश नरेश हमारा प्रस्ताव मानेंगे?”

उस बालक का भोला मुख देख नागादित्य को हँसी आ गयी, “आपको तो अभी से राजनीति में कुछ अधिक ही रुचि होने लगी है, कुमार जयसिम्हा।”

“इसीलिए तो पितामह ने मुझे यहाँ भेजा है। अब पिताश्री चालुक्यराज को तो राज्य के कार्यों से ही फुर्सत नहीं मिलती। सोचा यहाँ आया तो राजनीति और संधि के कुछ गुण सीख लूँगा, और यदि युद्ध का प्रसंग उत्पन्न हुआ तो क्या ही कहना।”

“आप अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं है, राजकुमार जयसिम्हा। यदि रण प्रसंग उत्पन्न हुआ तो उचित यही होगा कि आप उस रक्तपात से दूर रहें। स्मरण है न गुरु विक्रमादित्य ने क्या आदेश दिया था?”

“हाँ, पितामह का आदेश स्मरण तो है।” सिम्हा ने मुँह बनाते हुए कहा, “मुझे लगा था आप तो मुझे थोड़ी छूट देंगे। पता है आपके ज्येष्ठ भ्राता ने एक मास पूर्व मेरे साथ तलवारबाजी का अभ्यास करते हुए क्या कहा था? कि वत्स जयसिम्हा, अब तुम बालक नहीं रहे।”

“तर्क तो उत्तम दिया है, किन्तु इतना पर्याप्त नहीं है मुझे बहकाने के लिए।”

झेंपते हुए सिम्हा ने भौहें सिकोड़ीं, “हाँ, वो तो समझ आ रहा है।” श्वास भरकर कुछ क्षण विचार करते हुए उसने आगे कहा, “किन्तु आपको मेरी एक विनती तो माननी ही पड़ेगी। यदि युद्ध का प्रसंग उत्पन्न होता है, तो मैं दूर के पर्वत पर खड़ा होकर युद्ध अवश्य देखूँगा।”

“अरे, किन्तु..।”

सिम्हा ने नागादित्य का हाथ पकड़ते हुए कहा, “मान जाईये न। मुझे भी तो रक्तपात को देखने का अभ्यास होना चाहिए, इससे उत्तम अवसर और कहाँ प्राप्त होगा? वचन देता हूँ मैं ऐसे स्थान पर खड़ा रहूँगा जहाँ शत्रु का कोई शस्त्र मुझे स्पर्श भी न कर पाएगा। अब तो मान जाईये।”

नागादित्य के मुख पर भी मुस्कुराहट छा गयी, “ठीक है, स्वीकार है। किन्तु आपको अपने वचन का पालन करना होगा, कुमार।”

“आप चिंता न करिए, मैं शत्रु के शस्त्रों की पहुँच से दूर ही रहूँगा। ”

नागादित्य ने उसकी पीठ थपथपाई और सामने के संकरीले मार्ग से अश्व पर आरूढ़ हुए आ रहे एक सैनिक की ओर देखा। शीघ्र ही वो सैनिक नागादित्य के समक्ष आ खड़ा हुआ और अश्व से उतरकर उसे प्रणाम करते हुए कहा, “भोजकश के महाराज 'भूरिश्रवा' ने चालुक्य ध्वज का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया, महामहिम। उन्होंने कहा है वो युद्ध को भी सज है।” 

श्वास भरते हुए नागादित्य ने पहले आकाश की ओर देखा, फिर उसकी हताशा भरी दृष्टि एक पत्थर के सहारे रखी अपनी तलवार पर पड़ी, “न जाने इस खड़ग की रक्त की प्यास कब बुझेगी।” अपने कंधे उचकाये नागादित्य उठकर खड़ा हुआ और गर्जना करते हुए घोषणा की, “भोजकश का राजा मूर्ख और विलासी है, जो अपने अहम के लिए अपनी

महज सात सहस्त्र की सेना की बलि चढ़ाने निकला है। हमारी संख्या उनसे कहीं अधिक है, तो ध्यान रहे हमें प्रयास करना है कि शत्रु सेना के योद्धाओं की कम से कम संख्या में मृत्यु हो। क्योंकि आगे चलकर वो हमारी ही सेना का भाग बनेंगे। और यदि अधिक शव गिराने की आवश्यकता पड़ी तो उसका निर्णय मैं बीच रणभूमि में लूँगा।” नागादित्य सिम्हा की ओर मुड़ा, “सज रहिए राजकुमार, अपने जीवन का पहला युद्ध देखने के लिए।”

“अवश्य।” सिम्हा ने मुस्कुराते हुए सहमति जताई।

******

पौ फटते ही भीषण युद्ध आरम्भ हुआ और आधे प्रहर से भी कम समय में चालुक्यसेना बड़ी सरलता से भोजकश के योद्धाओं पर हावी हो गयी। भोजकश नरेश भूरिश्रवा को बंदी बनाने के उद्देश्य से शत्रु के सैन्य व्यूह को बड़ी सरलता से पार करते हुए वीर नागादित्य उन्हीं के रथ की ओर बढ़ा चला जा रहा था। तभी बायीं ओर से वायु गति से चक्र के घूमती हुई एक धारधार ढाल अकस्मात ही उसके निकट आ गयी, जिसकी चोट से बचने के लिए नागादित्य को अपने अश्व को छोड़ नीचे कूदना पड़ा। उसका दौड़ता हुआ अश्व अपनी दिशा खोकर आगे बढ़ चला जिसका लाभ उठाकर भूरिश्रवा ने भाला चलाकर उस अश्व का कण्ठ छेद दिया। पीड़ा से तड़पता हुआ वो अश्व भूमि पर गिर पड़ा। अपने अश्व की दुर्दशा देख भूमि पर खड़े तलवार संभाले नागादित्य ने दाँत पीसकर मुट्ठियाँ भींचते हुए बायीं ओर दृष्टि घुमायी।

भयंकर धूल की आंधी उड़ाते हुए मेवाड़ का ध्वज लिए लगभग पाँच सौ हाथियों का दल भोजकश की सेना की सहायता करने आ पहुँचा था। एक-एक हाथी के शरीर के अधिकतम मर्म स्थल वज्र समान सुदृढ़ कवच से ढके हुए थे और हर गज की सूंड पर दसियों शूल भी बंधे हुए थे, जिसके बल पर एक ही प्रहार में वो हाथी तीन सैनिकों को घायल कर रहे थे।

“तुम वास्तव में क्षत्रिय कुल पर कलंक हो, मेवाड़ नरेश।” मेवाड़ का ध्वज देख क्रोध में नागादित्य की नसें तन गयीं। किन्तु अगले ही क्षण उस गज दल का नेतृत्व करने वाले योद्धा को ध्यान से देख वो दंग रह गया। वो कोई पुरुष नहीं अपितु एक स्त्री थी। गज दल का आगे से नेतृत्व कर रही उस स्त्री के शिरस्त्राण में छिपे मुख से दिख रहे नेत्र एकटक नागादित्य पर ही टिके हुए थे, कदाचित वो चक्र समान घूमती हुई ढाल भी उसी ने फेंकी थी।

अपने योद्धाओं की दुर्दशा देख क्षणभर को नागादित्य ने श्वास भरी और अपनी दाईं ओर से निकट आते भूरिश्रवा रथ को देखा जिनसे छूटने वाले बाण उसी की ओर आ रहे थे। छलांग लगाते हुए नागादित्य भूमि पर कूदा और लुढ़कते हुए उन बाणों से बचा और भूमि पर गिरा एक भाला उठाकर लुढ़कते हुए भूरिश्रवा के रथ के अश्वों के पैरों को छेद डाला। वो अश्व बिदक गये जिससे भोजकश नरेश के रथ का संतुलन बिगड़ा और वो लुढ़कते हुए भूमि पर गिर पड़े। किन्तु इससे पूर्व नागादित्य उन पर झपटता, भूरिश्रवा बिना एक और क्षण का विलंब किए पीछे की ओर भागने लगे।

गजदल के द्वारा अपने सैकड़ों सैनिकों को हताहत होते देख नागादित्य ने भाला संभाले लाल रंग का ध्वज लहराते हुए गर्जना की, “प्राणघात।”

उस गुहिलवंशी वीर की घोषणा सुनते ही चालुक्यों की सेना घायल नरव्याघ्र की भाँति भोजकश के वीरों पर टूट पड़ी और इस बार उनके शस्त्र प्राण लेने के लिए चले। राजा भूरिश्रवा अपनी सेना के बीचों बीच जा छिपे थे, अब नागादित्य और उसकी अश्वारोही और पैदल सेना के पाँच-पाँच सौ हाथियों के दल से सीधे टकराने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था।

चालुक्यों ने एकत्र होकर हाथियों पर तीर और भाले बरसाने आरम्भ किये। वो शस्त्र हाथियों को पीछे हटने पर विवश अवश्य कर रहे थे, किन्तु उन्हें कोई घातक क्षति नहीं पहुँचा पा रहे थे। वहीं नागादित्य की दृष्टि उस स्त्री पर थी जो तीर पर तीर बरसाये चालुक्यों को घायल किये जा रही थी। कुछ क्षण विचार कर नागादित्य ने मन ही मन कुछ निर्णय लिया। ढाल और भाला संभाले धीरे-धीरे उसने अपने पग बढ़ाए और गज सेना की नायिका के हाथी के शरीर के मर्म स्थलों को ढूँढकर उन पर लक्ष्य साधने का प्रयास करने लगा। किन्तु वो कार्य भी भूँसे के ढेर में सुई ढूँढने के बराबर था। उसे अपनी ओर आता देख नायिका ने उस पर तीरों की बौछार आरम्भ की। बड़ी कठिनाई से ढाल घुमाते हुए स्वयं का रक्षण करता हुआ नागादित्य आगे बढ़ा चला जा रहा था। बचते बचाते दो तीर भी नागादित्य के कंधों में आ धँसे, किन्तु कवच पर फैलते रक्त ने भी उसके कदम नहीं रोके अपितु उसने अपनी गति और तेज कर दी और वो दौड़ता हुआ नायिका के हाथी के सूंड के प्रहार से बचते हुए उसके उदर के ठीक नीचे आ छिपा। उस हाथी के इधर-उधर घूमने के साथ ही वो भी दौड़ दौड़कर स्वयं को बचाता रहा और अंततः उस हाथी को विवश करने का मार्ग मिल ही गया। 

नागादित्य ने उस हाथी की गर्दन के ठीक नीचे खड़े होकर पूर्ण बल उसके कण्ठ पर भाले से वार किया जो सीधा उसकी नली में जा घुसा। चिंघाड़ता हुआ वो गज तड़पते हुए इधर-उधर दौड़ने लगा, और उस पर सवार नायिका भी अपना संतुलन खोने लगी। दौड़ते हुए नागादित्य ने उस बिगड़े हुए हाथी के प्रहारों से बचते हुए एक और भाला उठाया और उसका अगला प्रहार सीधा उस गज के पीठ पर बांधी हुई काठी पर हुआ जिस पर वो नायिका सवार थी। इस प्रहार को वो नायिका भी न संभाल पायी और अपने बिखरे हुए अस्त्रों सहित भूमि पर आ गिरी। नागादित्य ने बिना एक और क्षण विलंब किये तलवार संभाली और उस नायिका को अपने ही उस घायल और तड़पते हाथी के पैरों से बचाता हुआ एक ओर ले गया और तलवार सीधा उसकी गर्दन पर टिका दी, “अपनी सेना का और विध्वंस नहीं चाहती तो श्रेष्ठ यही होगा कि पराजय का ध्वज लहरा दो।”

उस युवती ने दाँत पीसते हुए अपने हाथी की ओर देखा। उसके कण्ठ से फूटा रक्त भूमि पर फैलने लगा था, और अंततः वो अपनी चेतना खोते हुए भूशायी हो गया। स्वयं के कण्ठ पर तलवार टिकी देख उस युवती ने अपनी पैनी आँखों से नागादित्य को घूरा और अगले ही क्षण अपनी बाजूबंद में छिपी कटार निकाल नागादित्य की तलवार को स्वयं से दूर किया और भूमि पर बाईं ओर लुढ़कते हुए एक तलवार उठाकर तत्काल ही उठ खड़ी हुई।

अपने प्रतिद्वंदी का प्रतिरोध देख नागादित्य ने भी अपने कवच पर लगी धूल झाड़ी और तलवार पर कसाव बढ़ाते हुए शिरस्त्राण की लोहे की जालियों के पीछे छिपी उस स्त्री के नेत्रों की ओर देखा, जिनमें आत्मविश्वास और साहस की कोई कमी नहीं थी। दोनों सेनाओं के प्रतिनिधि बिना कोई क्षण गँवायें एक-दूसरे की ओर दौड़े। उस युवती ने लगभग तीन ऊँची छलांग लगाई और सिंहनी की भाँति गुर्राती हुई नागादित्य पर झपटी। उसका पहला प्रहार अपनी तलवार पर रोकने में ही नागादित्य को उसके बल का भान हो गया, एक स्त्री के वार में इतने बल का आभास पाकर उसके नेत्र भी आश्चर्य से फैल गये। कुछ क्षणों तक तो वो बस उसके प्रहार रोकते हुए उसके हर दांव और पैरों की चाल को समझने का प्रयास करता रहा। दस क्षणों तक यही करने के उपरान्त नागादित्य चोट खाये नाग की भाँति फुफुकारा और अपनी कमर की ओर चलने वाली उस युवती की तलवार को ऊपर उठाते हुए सीधा उसका दायाँ हाथ ही पकड़ लिया जिसमें उसने तलवार थाम रखी थी। कुपित हुई उस युवती ने अपने बाएँ हाथ के बाजूबंद में छिपी एक और कटार निकाली और नागादित्य के बायें पंजे को घायल कर उसकी तलवार छुड़ा दी। तत्काल ही नागादित्य ने उस युवती की ही तलवार छीन ली और अगले ही क्षण उसकी कटार छुड़ाते हुए उसे भूमि पर धक्का दिया और इस बार अपने घुटने से ही उसका घुटना दबाकर, उसके बायें हाथ को अपने दायें पंजे से दबाते हुए तलवार उसकी गर्दन पर टिका दी ताकि वो पुनः उठ न सके। इस बार उसने उस युवती को प्रथम बार इतने निकट से देखा। उसके नेत्र सहित होंठों का लावण्य बड़े से बड़े सूरमाओं के बल को झुकाने का सामर्थ्य रखने वाला प्रतीत हो रहा था। गुहिल नागादित्य भी दो क्षण को उसके नेत्रों को देख भ्रमित सा हो गया। किन्तु शीघ्र स्वयं को संभालते हुए उसने चेतावनी देते हुए कहा, “नारी हो, मेरे लिए अवध्य हो, किन्तु तुम्हारी सेना इतनी भाग्यशाली नहीं है। व्यर्थ में अपने योद्धाओं को न गँवाओं, कन्या। पराजय स्वीकार कर लो।”

लेटे हुए ही उस युवती ने क्रोधवश ही सही किन्तु सहमति में सिर हिलाया। नागादित्य ने उसके घुटनों से अपना घुटना हटाया और उस युवती के उठने के दौरान भी तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई रही। अपनी मुठ्ठियाँ भींचते हुए उस कन्या ने दूर खड़े अपने एक योद्धा को संकेत दिया। उस योद्धा ने तत्काल ही समर्पण का संकेत भेजे, ऐसी ध्वनि में बिगुल बजाया।

अपने सबसे बड़े सहायक दल परमारों की गज सेना के पीछे हटने पर, राजा भूरिश्रवा ने भी अपने दो सहस्त्र से अधिक योद्धाओं के शवों को गिरा देखा और समर्पण का निर्णय लेते हुए श्वेत ध्वज लहराया।

भयावह विध्वंस की आशंका लिए वो युद्ध एक प्रहर से भी कम समय में समाप्त हो गया। नागादित्य ने क्षणभर को उस कन्या की ओर क्रोध भरी दृष्टि से देखा और तलवार नीचे करते हुए कटाक्ष किया, “तुम परमारों के लिए तो वचनों का भी कोई मोल नहीं। तीन वर्ष पूर्व ही तुम्हारे महाराज मानमोरी ने वचन दिया कि अरबियों से सिंध का रक्षण किए बिना वो महिष्कपुर की सीमा में प्रवेश नहीं करेंगे। और आज एक युवती के नेतृत्व में....।”

“सावधान गुहिलवंशी नागादित्य..।” नागादित्य का कटाक्ष सुन उस कन्या ने भौहें सिकोड़ीं और अपना शिरस्त्राण उताराते हुए गुर्रा उठी। किसी अप्सरा समान उसके मृगनयन देख क्षणभर को वो गुहिल वीर भी मौन हो गया, मानों वो उसकी बोली सुनने का ही इच्छुक हो। किन्तु शीघ्र ही उसने अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए अपनी इंद्रियों को नियंत्रित किया।

वहीं वो कन्या बोलती रही, “हमने कोई वचन नहीं तोड़ा। भोजकश की राजकुमारी 'चारुमित्रा' हमारी बालसखी रही हैं, और ये गजदल केवल मेरे यानि राजकुमारी मृणालिनी के अधिकार में है। और मित्रता के इसी अधिकार से हम इस सेना की सहायता करने आये थे। तो निसन्देह हमारे ज्येष्ठ भ्राता महाराज मानमोरी की ओर से दिया गया कोई वचन भंग नहीं हुआ, उन्हें तो इस युद्ध के प्रसंग का कोई ज्ञान भी नहीं है।”

नागादित्य के मुख पर भीनी मुस्कान आ गयी, “यदि आप यहाँ मेवाड़ का ध्वज लिये बिना स्वतंत्र रूप से लाखों का दल भी लाई आयी होतीं तो अवश्य कोई वचन भंग नहीं हुआ होता। किन्तु मेवाड़ का ध्वज मेवाड़ नरेश मानमोरी के आदेश का ही प्रतीक है। आप इस सत्य को माने या ना माने किन्तु वचन भंग तो हुआ है, क्योंकि आप मेवाड़ी सेना ही साथ लायी हैं।” कहते हुए उसने तलवार को म्यान में वापस रखा और माथे पर से स्वेद पोछते हुए पीछे की ओर पलटा।

राजकुमारी मृणालिनी मौन हुई उसे जाते देखती रही, मानों उसे अपनी भूल का भान हो गया हो क्योंकि तर्क तो नागादित्य ने उचित ही दिया था। उसके मुख पर हताशा का भाव छाया और पीछे की ओर मुड़ चली।

रणभूमि से बाहर आते हुए नागादित्य शीघ्र ही निकट खड़े जयसिम्हा की ओर बढ़ा, “कैसा रहा पहला अनुभव ?” “आपके पराक्रम के विषय में जैसा सुना था, उससे कहीं बढ़कर पाया। किन्तु पर्वत की ऊँचाइयों से ये अवश्य देखा कि आप उस कन्या पर प्रहार करने में बार-बार हिचक रहे थे। इसमें कोई विशेष बाधा थी क्या?”

नागादित्य पहले तो झेंप गया, फिर बिना कुछ कहे सिम्हा के सर पर हाथ फेरता हुआ आगे बढ़ गया। 

******

अर्धरात्रि में अपने शिविर में करवटें लेती मृणालिनी के नेत्रों के समक्ष बार-बार वही दृश्य आ रहा था जब नागादित्य ने उसे भूमि पर गिराकर पराजय स्वीकार करने को विवश कर दिया था।

“वचन तो भंग हुआ है।” उस गुहिल वीर के वो कड़वे बोल मानों मृणालिनी की निद्रा में सबसे बड़ी बाधा बन गये थे। झल्लाहट में वो अपने शिविर से बाहर की ओर निकली और चंद्रमा की ओर दृष्टि उठाकर देखा। बाहर और भी कई रक्षक पहरा दे रहे थे, किन्तु मृणालिनी उनसे बिना कुछ कहे आगे बढ़ती रही। कुछ सैनिकों के उठने पर उसने उन्हें बैठने का संकेत देते हुए आदेश दिया, “कोई मेरे पीछे नहीं आयेगा। मुझे एकांत चाहिए, मैं बस निकट की नदी तट पर ही जा रही हूँ।” उसका आदेश मान वो सैनिक भूमि पर बैठ गए।

रात्रि के अंधकार में चंद्र के प्रकाश को माध्यम बनाकर वन मार्ग से होते हुए राजकुमारी मृणालिनी नदी के निकट आकर घुटनों के बल बैठी और अपने मुख पर जल के कुछ छींटे मारे। जल की धारा में अपना प्रतिबिंब देखते हुए पुनः वो कटाक्षमय स्वर उसके मन मस्तिष्क में घूम गया, “तुम परमारों के वचन का कोई मोल ही नहीं होता।” अकस्मात ही जल में उसे नागादित्य का प्रतिबिंब दिखाई देने लगा। उसने नेत्र बंद कर भौहें सिकोड़ीं और क्रोध में मुठ्ठियाँ भींचते हुए अपने नेत्र पुनः खोले तो उसे जल में ही एक सिंहनी का प्रतिबिंब दिखाई दिया जो कदाचित रात्रि के अंधकार में उस पर झपटने की फिराक में ही थी।

घायल बाघिन की भाँति क्रोध से भरे नेत्र लिए राजकुमारी मृणालिनी उस सिंहनी की ओर पलटी और सीधा उसके नेत्रों में देखा। मृणालिनी के नेत्रों की ज्वाला की धधक का प्रतिबिंब उस सिंहनी के नेत्रों में भी दिखाई पड़ने लगा। उसके क्रोध के संताप का आभास पाकर वो सिंहनी भी दबे पाँव पीछे हटी और मृणालिनी को उठते हुए देख झाड़ियों से होकर वन के भीतर भाग चली।

सिंहनी को भयभीत कर मानों मृणालिनी के मुख पर आत्मविश्वास का तेज प्रखर हो गया। चंद्रदेव को क्षणभर निहार उसने मन ही मन कुछ निश्चय किया और अपनी सेना के पड़ाव की ओर लौट चली। शीघ्र ही उसने अपने शिविर में प्रवेश किया, मध्यरात्रि में ही कवच के साथ शिरस्त्राण धारण किया और म्यान में तलवार रख बाहर आयी।

अपनी राजकुमारी को यूँ इस प्रकार युद्ध के वस्त्रों में बाहर आया देख शिविर के बाहर बैठे सैनिक भी सजग हो गये। उन्हें विचलित देख मृणालिनी ने उन्हें आश्वस्त किया, “मैं शत्रु के शिविर में जा रही हूँ। कोई मेरे पीछे न आये।”

उनमें से एक ने आगे हो कर कुछ कहने का प्रयास किया, किन्तु मृणालिनी ने हाथ उठाकर उसे वहीं ठहर जाने का संकेत देते हुए कहा, “यदि किसी ने भी मेरे इस आदेश की अवेहलना की तो मैं स्वयं उसे दण्डित करुँगी।”

वो योद्धा पीछे हटा और अगले ही क्षण राजकुमारी मृणालिनी ने अपने अश्व को साधा और उसकी धुरा खींच अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ीं।

“आप इतनी रात गये भी जगे हुए हैं, महामहिम?” मध्यरात्रि में नागादित्य को अग्नि के निकट बैठे देख सिम्हा ने प्रश्न किया।

“भले ही भोजकश नरेश भूरिश्रवा ने संधि पत्र पर हस्ताक्षर किया हो, किन्तु परमारों की सैन्य टुकड़ी विश्वास के योग्य नहीं है। इसलिए आज मेरा जागरण अनिवार्य है।” कहते वो अंगीठी ठीक करता हुआ बोला, “कुछ समय पूर्व आपको मैंने एक कार्य दिया था, स्मरण है?”

“निसन्देह। इस समय हमारी आधी सेना निद्रा में है। और आधे प्रहर के बाद उन्हें उठाना है, और अभी जागरण कर रहे योद्धाओं को विश्राम का निर्देश देना है। हो जाएगा।” सिम्हा ने दृढ़तापूर्वक कहा।

नागादित्य मुस्कुराया, “आप हठी तो हैं किन्तु अनुशासन को भी उतना ही महत्व देते हैं। आपका ये गुण प्रशंसनीय है। भोजकश में सैन्य चौकियों का निर्माण करने में अब भी कुछ दिवस का समय लगेगा। तो थोड़े-थोड़े समय पर सभी का विश्राम करना उचित रहेगा।” 

“आदेश का पालन होगा।” सिम्हा अभी वहाँ से जाता इससे पूर्व दौड़ता हुए एक रक्षक योद्धा ने नागादित्य के समक्ष आकर शीश झुकाया, “राजकुमारी मृणालिनी अकेले ही शस्त्र धारण कर अपने अश्व को हमारे पड़ाव की ओर ही दौड़ाये चली आ रही हैं, महामहिम।”

“इतनी रात गये?” नागादित्य ने क्षणभर विचार किया फिर अपने योद्धाओं को आदेश दिया, “सभी को जगाकर सावधान करो, ये परमारों का कोई छल भी हो सकता है।” उसने शीघ्रता से शिविर में जाकर कवच और तलवार धारण किया, और तत्काल शिविर के बाहर आकर एकत्र हुए सैनिकों को आदेश दिया, “सब साथ रहो और एक-दूसरे का रक्षण करना। और जब तक मैं आदेश न दूँ राजकुमारी पर कोई आक्रमण नहीं करेगा।”

“और मेरे लिए क्या आदेश है?” वहाँ खड़े सिम्हा ने प्रश्न किया।

“शत्रु कहीं भी हो सकता है। इसलिए आपका यहाँ शिविर में रहना सुरक्षित नहीं।” कहते हुए नागादित्य ने सैनिकों को आदेश दिया, “ध्यान रहे सैनिकों, राजकुमार को सुरक्षा घेरे में रखते हुए आगे बढ़ो। कटार तो क्या एक सुई भी उन तक नहीं पहुँचनी चाहिए।”

******

शीघ्र ही पड़ाव से बाहर निकलते नागादित्य और उसके दल की भेंट राजकुमारी मृणालिनी से हो गयी। यह देख मृणालिनी ने अपने अश्व की धुरा खींची और उसे रोकते हुए नागादित्य पर कटाक्ष किया, “अद्भुत, एक राजकुमारी के सशस्त्र आने की सूचना मिलने पर इतनी विकराल सेना?”

उसके कटाक्ष के अनुरूप नागादित्य ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “इसे अपनी वीरता का बखान न समझिए, राजकुमारी। बात बस इतनी सी है कि निसन्देह आप और आपकी सेना इन वनों को हमसे अधिक जानते होंगे। परमार योद्धा अब विश्वास योग्य तो रहे नहीं, जाने कौन से वृक्षों के पीछे कितने सैनिक छिपे हों और वो कब आक्रमण कर दें।”

यह कटाक्ष सुनकर मृणालिनी के नख से लेकर मस्तक तक जल उठा। भौहें सिकोड़ती हुई अश्व से उतरकर वो नागादित्य के निकट आयी, “जिस गजसेना के साथ मैंने युद्ध में भाग लिया वो मेरी निजी सेना थी, और मेवाड़ की राजकुमारी होने के नाते मेरे पास पूरा अधिकार था कि मैं अपनी मातृभूमि के ध्वज को अपने साथ ला सकूँ। और आज रात्रि मैं अपनी उस सेना को ये आदेश देकर आयी कि वो मेरी सुरक्षा के लिए मेरे पीछे न आयें, जो कि वो नहीं आए और इससे ये सिद्ध होता है कि वो गजसेना केवल मेरे अधिकृत थी। इसलिए मेरे ज्येष्ठ भ्राता महाराज मानमोरी का दिया वचन भंग नहीं हुआ। और मैं इसी तथ्य से आपका परिचय करवाने आयी हूँ।” 

मुस्कुराते हुए नागादित्य ने पीछे की ओर संकेत कर कहा, “तो आपके पीछे ये कौन लोग चले आ रहे हैं?”

पीछे मुड़कर देखने पर मृणालिनी के नेत्र आश्चर्य से फैल गये। मेवाड़ के सैकड़ों योद्धा सशस्त्र होकर चले आ रहे थे। मृणालिनी को ऐसा भान हुआ मानों उसके हृदय में एक शूल धंस आया हो, वो सर उठाकर नागादित्य की ओर देखने का साहस नहीं कर पा रही थी। चोट खाई नागिन की भाँति फुंफकारती हुयी मृणालिनी अपने योद्धाओं की ओर पलटी और उस योद्धा को घूरा, जो मेवाड़ी दल का नेतृत्व कर रहा था, “क्या आदेश दिया था मैंने तुम्हें?” मृणालिनी की मुट्ठी तलवार पर कसती चली जा रही थी।

उस योद्धा ने आगे आकर सर झुकाया और लज्जित स्वर में कहा, “क्षमा करें राजकुमारी, पर सेना को ये भय था कि यदि आपको कुछ हो गया, और महाराज को ज्ञात हो गया कि हम सबने आपको यूँ शत्रु के शिविर में अकेला जाने दिया, तो हमारे परिवार सुरक्षित नहीं रहेंगे। इसलिए हमें आना पड़ा।”

मृणालिनी ने क्षणभर को उन्हें घूरा फिर नागादित्य के समक्ष घूम लज्जा से अपने नेत्र झुकाते हुए कुछ कहने का प्रयास करने लगी। एक स्वाभिमानी नारी को यूँ अपने समक्ष लज्जित खड़ा देख नागादित्य ने उसे सांत्वना देने का प्रयास किया, “ये स्पष्ट है कि आपकी नियत में कभी कोई खोट नहीं थी। ये सेना आपकी कभी थी ही नहीं, केवल प्रतिबिंब बनकर आपके रक्षण के लिए आयी थी और आपकी मित्रता के कर्तव्यनिर्वहन में आपका समर्थन कर रही थी। आप एक वीरांगना हैं राजकुमारी, जो नारी समाज की प्रेरणा का स्त्रोत बनने का सामर्थ्य रखती हैं, और ऐसी वीरवर कन्या का यूँ सर झुकाए खड़ा रहना शोभा नहीं देता।”

उस क्षण को मानों अपमान की अग्नि में धधकती मृणालिनी के कर्णों को वो शीतलता प्राप्त हुई जिसका प्रभाव उसके हृदय तक गया। जैसे मानों उसकी प्रबल इच्छा रही हो कि कोई ऐसा आए और उससे ऐसे मधुर वचन कह दे जो उसके हृदय में उठ रहे शूलों के संताप की धार कम कर अपमान की अग्नि को ठंडा कर दे। श्वास भरती हुई मृणालिनी घुटनों के बल झुकी, और अपना शिरस्त्राण उतारकर नागादित्य के चरणों में रखा। फिर अपनी तलवार निकालकर वीर गुहिल को समर्पित करते हुए कहा, “ये आपकी उदारता है वीरवर, जो आपने मेरा सम्मान रखने के लिए शीतलता के वो वचन कहे जिसने मेरे हृदय की कड़वाहट को नष्ट कर दिया। किन्तु ये सत्य है कि मेवाड़ की सेना मेरी सहायता के लिए आयी तो महाराज मानमोरी का दिया वचन भंग हुआ है।”

अपने नेत्र उठाए उसने नागादित्य की आँखों से आँख मिलाते हुए कहा, “यदि वास्तव में अपनी इस शत्रु का सम्मान रखना चाहते हैं, तो इस वचन को भंग करने के दण्डस्वरूप मुझे मृत्यु का दान देकर इस अवांछित पीड़ा से मुक्त कीजिए।”

दोनों कुछ क्षणों के लिए एक-दूसरे के नेत्रों में खो से गये। उस मृगनयनी के रूप लावण्य को यूँ इतने निकट से देख नागादित्य भी कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध सा रह गया।

उसने नेत्र बंद किये और अपनी कामुक भावना को नियंत्रित करते हुए राजकुमारी के समानांतर बायें घुटने के बल झुकते हुए उसकी तलवार पर हाथ रख कहा, “यदि दण्ड ही आपके हृदय को शांत कर सकता है, देवी। तो मैं दण्ड स्वरूप आपकी ये तलवार रख लेता हूँ, क्योंकि परमारों का तो नहीं पता किन्तु हम गुहिलवंशियों के लिए नारी पूजा के योग्य है, हत्या के नहीं।”

“ये हत्या नहीं, दान है। मुक्ति का दान। और मैं एक याचक की भाँति ये दान माँगने आयी हूँ।”

मुस्कुराते हुए नागादित्य ने क्षणभर को मृणालिनी के नेत्रों में देखा, दोनों पुनः एक-दूसरे को निहारने लगे। और इस बार मृणालिनी के मुख को देखकर भी ऐसा ही प्रतीत हुआ कि वो भी नागादित्य पर मोहित हुई जा रही है। उस गुहिल वीर ने अपनी चेतना संभाली और मृणालिनी की तलवार लेकर ऊपर उठा, “इस राजसी तलवार का समर्पण ही आपका दण्ड है राजकुमारी, जो कि पूरा हुआ। अब आप ससम्मान जा सकती हैं।”

“कदापि नहीं। मुझे ये दण्ड स्वीकार नहीं। मेरी मृत्यु उसी क्षण हो गयी थी जिस क्षण परमारों का वचन टूटने का तथ्य सिद्ध हो गया था। इसलिए या तो मुझे प्राणदण्ड दीजिए, अन्यथा जीवनपर्यन्त मुझे अपनी सेविका के रूप में स्वीकार कीजिए।”

मृणालिनी के ये शब्द सुन नागादित्य और उसके दल के साथ-साथ समस्त मेवाड़ी योद्धा भी अवाक् रह गये। नागादित्य को देख ऐसा प्रतीत हुआ मानों उसकी जिह्वा को लकवा मार गया हो। वो कुछ क्षण मृणालिनी को ही निहारता रहा। कुछ क्षण विचार कर वो मृणालिनी के निकट आया, “एक क्षत्राणि का यूँ दासत्व का आग्रह करना शोभा नहीं देता, देवी। मैं इस दुष्कृत्य का विचार भी मन में नहीं ला सकता।”

मृणालिनी भी भूमि से उठी और हाथ जोड़कर गर्व से कहा, “यदि दासी नहीं बना सकते, तो क्या आप मुझे अपनी भार्या के रूप में स्वीकार कर सकते हैं ?”

परमार राजकुमारी का वो आग्रह सुन नागादित्य के पसीने छूट गये। वो कुछ क्षण स्तब्ध खड़ा रहा, क्योंकि सत्य तो ये भी था कि वो स्वयं भी मृणालिनी के रूप से आकर्षित था। किन्तु क्या केवल रूप लावण्य के आधार पर जीवन संगिनीं का चुनाव उचित था। मन में यही विचार लिये उसने मृणालिनी से प्रश्न किया, “मेवाड़ की राजकुमारी का अपने शत्रु चालुक्यों के एक साधारण से सामंत से विवाह करना कहाँ तक तर्कसंगत है, देवी? क्या ये मेवाड़ नरेश के लिए अपमान की बात नहीं होगी?”

“वर का चयन एक कन्या का व्यक्तिगत चुनाव है, और मैं अपना चुनाव कर चुकी हूँ। इस पर किसी भी मनुष्य के मान और अपमान का प्रश्न ही नहीं उठता।”

“इस प्रकार के विवाह का आधार प्रेम होना चाहिए, राजकुमारी। हृदय में धधक रहा अपमान का घाव नहीं।” श्वास भरते हुए मृणालिनी ने प्रश्न किया, “तो क्या आप मुझे अस्वीकार कर रहे हैं?”

“मैं भला ऐसी धृष्टता कैसे कर सकता हूँ?” नागादित्य मुस्कुराया, “किन्तु यदि आपके नेत्रों में मैंने अपने लिए प्रेम का भाव देखा होता, तो इस सम्बन्ध का सुख अनन्य होता।”

राजकुमारी ने अपनी दृष्टि झुकाते हुए कहा, “मैं नहीं जानती कि आपके लिए प्रेम की परिभाषा क्या है? किन्तु एक क्षत्राणि का यूँ स्वयं का अस्तित्व समर्पण करने में भी यदि आपको कोई खोट दिखाई देती है, तो मेरे पास आपके इस तर्क का कोई उत्तर नहीं है। आगे का निर्णय आपके हाथ में है।”

“अब मान भी जाईए, महामहिम।” सैनिकों के घेरे से बाहर निकल सिम्हा नागादित्य के निकट आया, “भले ही मैं एक बालक हूँ, किन्तु गुरुदेव कहते हैं कि प्रेम एक ऐसा तत्व है जिसका आभास कोई भी कर सकता है, और उसका प्रदर्शन भी किसी भी प्रकार से कर सकता है। यहाँ तक की एक शिशु भी बड़ा होते हुए माता पिता के प्रेम का आभास करता है। जिसका उसके चरित्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।”

“तर्क तो आपने उत्तम दिया है, राजकुमार।” नागादित्य ने सिम्हा के मस्तक पर हाथ फेरा।

“तो विलंब किस बात का है?” जयसिम्हा मृणालिनी की ओर मुड़ा, “आगे बढ़कर अपने कर्तव्य का पालन कीजिए। राजकुमारी का मान रखना आपका कर्तव्य है।”

सिम्हा के आगे वो गुहिल वीर भी निरुत्तर सा हो गया। कुछ क्षणों को वो सकपकाया हुआ मौन होकर खड़ा रहा। उसने चंद और क्षण मृणालिनी की ओर देखा और आगे बढ़कर उसका दोनों हाथ अपने हाथों में लिया, “तो क्या आपको इस चालुक्य सामंत की गृहस्वामिनी बनना स्वीकार है, राजकुमारी ?”

“युद्ध देखने आया था, साथ में प्रेम सौन्दर्य का एक प्रसंग भी देखने को मिल गया, अद्भुत।” जयसिम्हा प्रसन्नता से उछलने लगा।

नागादित्य और मृणालिनी, दोनों के मुख पर मुस्कान खिल गयी। किन्तु मेवाड़ी वीरों का मुख भय से पीला पड़ा हुआ था, ये सोचकर कि राजा मानमोरी इस पराजय और उसके प्रसंग से उत्पन्न हुई इस घटना का दण्ड कहीं उन्हें ही ना दें दें।
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चित्तौड़गढ़
उस सैनिक के कण्ठ को फाड़कर राजसभा की भूमि को रक्तरंजित करती मानमोरी की तलवार के उस वार ने समग्र सभाजनों को स्तब्ध कर दिया। मेवाड़ नरेश के तलवार वापस खींचते ही उस सैनिक के हाथ से संदेशपत्र गिरा और वो तड़पता हुआ भूशायी हुआ। मानमोरी के क्रोध से जलते हुए नेत्र देख समग्र सभाजन एक-दूसरे को भयभीत होकर निहारने लगी। किसी का साहस ही नहीं हुआ कि मानमोरी से कुछ कह सके।

क्रोधित मानमोरी ने भौहें सिकोड़ते हुए पीछे की ओर खड़े अपने वृद्ध मंत्री की ओर देखा, “महामंत्री 'जलसंघ', जला दो मृणालिनी का भेजा हुआ ये संदेशपत्र। और मेरी ओर से उसे संदेश भिजवाओ कि यदि उसने उस गुहिल से विवाह करने का दुस्साहस किया तो उसके साथ उसके होने वाले जीवनसाथी का भी अंत मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा।”

जलसंघ ने पहले भयभीत संभापतियों की ओर देखा फिर मानमोरी के निकट आकर कहा, “क्रोध में विवेक मत खोइए, महाराज। महामंत्री होने के नाते न सही, अपना काकाश्री होने के नाते एक बार एकांत में मेरी बात सुन लीजिए। मैंने आपका कभी अहित नहीं चाहा है।” कहते हुए जलसंघ ने सभा से बाहर चलने को कहा।

मानमोरी ने अपने क्रोध की अग्नि को शांत करने का प्रयास किया और अपने काका जलसंघ का मान रखते हुए उनके पीछे राजसभा से बाहर की ओर निकले। शीघ्र ही वो दोनों एक शयन कक्ष में पहुँचे।

मानमोरी का क्रोध अब भी शांत नहीं हुआ था, कक्ष में प्रवेश करते ही वो जलसंघ की ओर पलटे, “अब ये मत कहिएगा कि आप मृणालिनी के वर चुनाव से सहमत हैं।” “हाँ, मैं सहमत हूँ क्योंकि इसमें मेवाड़ और परमारों का ही लाभ है।”

मानमोरी ने भौहें सिकोड़ते हुए प्रश्न किया, “कहना क्या चाहते हैं आप?”

“आप मृणालिनी को जानते हैं, उसके कहे वचन कभी अधूरे नहीं जाते। यदि उसने कह दिया है तो वो नागादित्य के अतिरिक्त और किसी से विवाह नहीं करेगी, इसलिए स्थिति की विकटता को समझो। ये एक अवसर है, शत्रु को अपना प्रमुख शस्त्र बनाने का। अब मेरी बात ध्यान से सुनिये।”

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कुछ दिवस पश्चात
चित्तौड़ के राजदरबार में उपस्थित गुहिल नागादित्य और राजकुमारी मृणालिनी सभी के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। मेवाड़ नरेश मानमोरी अपनी तलवार पर हाथ फिराते हुए उन पर नजरें गड़ाए हुए थे, वहीं नागादित्य भी निडर होकर सीधा परमारराज के नेत्रों में देखे जा रहा था।

लहू का घूँट पीते हुए राजा मानमोरी ने अपने मुख पर बनावटी मुस्कुराहट लायी और अपनी बहन मृणालिनी की ओर देखा, “तो तुम्हें पूर्ण विश्वास है कि तुम गुहिल वीर नागादित्य को ही वर के रूप में स्वीकार करना चाहती हो?”

मृणालिनी ने गर्वित भाव से अपने भ्राता को प्रणाम करते हुए कहा, “यदि इस संबध को ज्येष्ठ का आशीर्वाद प्राप्त हो जाए, तो मेरा जीवन सुख से भर जाएगा।”

मानमोरी ने किसी प्रकार अपनी झल्लाहट को नियंत्रित किया और सिंहासन से उतरकर चलते हुए नागादित्य के निकट आया, “मेरी इस गुहिल वीर से कोई निजी शत्रुता नहीं है। किन्तु यदि बहन का पति मुझसे या मेरे राज्य के विरुद्द युद्ध करेगा, तो मेरे हाथ तो बंध जाएंगे न। क्योंकि बहन का सुहाग उजाड़ने का पाप तो मैं नहीं कर सकता। ये तो बड़ा अन्याय होगा।”

यह सुन नागादित्य ने प्रश्न उठाया, “किन्तु आपने तो वचन दिया था कि सिंध की समस्या सुलझने तक आप चालुक्यों से युद्ध नहीं करेंगे।”

“निसंदेह, हम अपना वचन निभाएंगे। हमने सिंध के देबल, अलोर, ब्राह्मणाबाद जैसे नगरों में अपनी सैन्य चौकियाँ स्थापित की हैं, जिसकी सहायता के बल पर अभी कुछ दिवस पूर्व ही सिंध नरेश दाहिर ने एक अरब सेनापति को अपनी भूमि से खदेड़ा है। तो एक तरह तो सिंध की समस्या सुलझ ही चुकी है। फिर भी हमारा बादामी या महिष्कपुर के किसी भी राज्य पर आक्रमण का कोई मन्तव्य नहीं, किन्तु यदि चालुक्यों ने आक्रमण किया तो? हमें सावधानी तो बरतनी ही होगी।”

“मेवाड़ की इस भूमि में चालुक्यराज को कोई रुचि नहीं महाराज मानमोरी। उनकी ओर से तो आप निश्चिंत ही रहें।” नागादित्य ने विश्वास से भरकर कहा।

मानमोरी मुस्कुराये, “चलो मान ली आपकी ये बात कि चालुक्य हम पर आक्रमण नहीं करेंगे। किन्तु क्या ये उचित होगा कि मेवाड़ की राजकुमारी चालुक्यों के एक साधारण से सामंत से विवाह करे जिसके पास कहने को स्वयं की एक पग भूमि भी नहीं है?”

नागादित्य ने कुछ क्षण मानमोरी को घूरा, फिर अपने क्रोध को नियंत्रित कर प्रश्न किया, “मैं आपकी मंशा स्पष्ट शब्दों में सुनना चाहूँगा, महाराज।”

“अगर आपकी यही इच्छा है, तो सुनिए। मैं बस आपको भूमि का एक छोटा सा टुकड़ा लौटाना चाहता हूँ जिस पर पहले से ही आपके ही पूर्वजों का अधिकार है। नागदा, आपके पूर्वजों की भूमि। मेरी इच्छा है कि आप मेरी बहन से विवाह कर वहाँ जाकर सुख से शासन करिए, नागदा नरेश नागादित्य बनकर।”

मानमोरी के वचन सुन नागादित्य मुस्कुराया, “तो आप एक प्रकार से मुझे अपने आधीन करने की बात कर रहे हैं?”

“ये आप क्या कह रहे हैं, वीर? मैं तो बस अपने जमाता को वो भेंट दे रहा हूँ जिस पर उसका अधिकार है। उपकार का कोई भाव नहीं है मेरे मन में।” मानमोरी ने नागादित्य के कंधे पर हाथ रख कहा, “चालुक्यों को तो उनकी मातृभूमि वापस मिल गयी, क्या आपका हृदय कभी अपनी मातृभूमि की पावन माटी को प्रणाम करने को नहीं मचलाता?”

यूँ तो मानमोरी के वो शब्द कपट से भरे थे किन्तु नागादित्य के हृदय को चीरने का कार्य कर रहे थे। वो मौन खड़ा रहा, वहीं मृणालिनी का हाथ भी उसके कंधे पर आया, “आपका हर निर्णय मुझे स्वीकार होगा, आर्य। किन्तु यदि अपनी मातृभूमि को वापस पाकर हम सबके सम्बन्ध में मधुरता बनी रहे, तो प्रयास अवश्य करना चाहिए।”

“सत्य कहा तुमने मृणालिनी।” मेवाड़ नरेश ने समर्थन करते हुए कहा, “किन्तु यदि आप हमारा ये प्रस्ताव अस्वीकार करते हैं। तो फिर आप मृणालिनी को लेकर शत्रु के राज्य में जा सकते हैं, मैं फिर कभी अपनी इस बहन का मुख नहीं देखूँगा।”

मानमोरी के वचन सुन राजकुमारी मृणालिनी नागादित्य को आशा भरी दृष्टि से देखने लगी। नागादित्य को संकोच में देख मानमोरी ने पुनः प्रयास किया, “मैं तुम्हें कोई लालच या दान नहीं दे रहा हूँ, वीर गुहिल। अपितु मुझे तुम्हारी आवश्यकता है। क्योंकि नागदा में भीलों का आतंक आये दिन बढ़ता जा रहा है, वहाँ की प्रजा भी उनसे त्रस्त है। मेरे पिछले दो प्रतिनिधि वहाँ गये और कुछ ही वर्षों के भीतर मारे गये। इसलिये मुझे किसी सशक्त योद्धा की आवश्यकता है, जो उन भीलों को समाप्त कर वहाँ की प्रजा का रक्षण कर सके। 

श्वास भरते हुए नागादित्य ने कुछ क्षण विचार किया, फिर मेवाड़ नरेश की ओर देखा, “मुझे समय चाहिए। अभी मुझे बादामी लौटना होगा।”

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“तुम्हें समझ नहीं आता, पराजित होने के उपरान्त उस कन्या ने तुम्हें छला है।” झल्लाते हुए शिवादित्य ने नदी के निकट वृक्ष के ठीक नीचे वाले पत्थर पर बैठे अपने अनुज नागादित्य को फटकारते हुए कहा, “ये दोनों भाई बहनों की मिलीभगत है, हम गुहिलवंशियों को महिष्कपुर से दूर करके चालुक्यों को जीतने का षड्यन्त्र है ये।”

अपने ज्येष्ठ के कटु वचनों के प्रतिउत्तर में नागादित्य ने मौन रहना ही उचित समझा। उसने आशा भरी दृष्टि से नदी के निकट बैठे चालुक्यराज की ओर देखा। वो भी नागादित्य के इस संबध से प्रसन्न दिखाई नहीं दे रहे थे। उनकी कोई प्रतिक्रिया ना पाकर नागादित्य ने अपनी बात रखने का प्रयास किया, “वो कन्या केवल मुझसे आस लगाए बैठी है, ज्येष्ठ।”

“तो फिर यदि वो तुमसे प्रेम ही करती है और उसके मन में कोई छल नहीं है, तो कहो न उससे कि अपने परिवार को छोड़कर तुम्हारे साथ महिष्कपुर आ जाये। तुम्हें इस प्रकार मेवाड़ आने को विवश क्यों कर रही है?” शिवादित्य का क्रोध शांत होने का नाम नहीं ले रहा था।

“क्योंकि मेरे इस एक निर्णय से उसके और उसके भ्राता महाराज मानमोरी के रक्त संबध की रक्षा होगी। और ये उचित तो नहीं कि संसार में हर प्रकार के बलिदान नारी ही दे।” नागादित्य ने तर्क दिया।

शिवादित्य ने भौहें सिकोड़ते हुए कहा, “तो जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो हमारे पास क्यों आये हो ? जाओ जाकर बन जाओ परमारों के जमाता।”

नागादित्य ने हताशा भरी दृष्टि से चालुक्यराज की ओर देखा जो अभी भौहें सिकोड़े मौन बैठे थे, “आप भी तो कुछ कहिए, महाराज। मुझे इस धर्मसंकट का कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा।”

चालुक्यराज उसकी ओर मुड़े, फिर पुनः मुँह फेर लिया। यह देख नागादित्य उनके समक्ष घुटनों के बल झुका और हाथ जोड़ते हुए कहा, “आप केवल महाराज नहीं, हमारे अन्नदाता भी हैं नरेश। होगा वही जो आप चाहेंगे।”

“ये किस प्रकार की मूर्खता है?” पीछे से आया हुआ गरजता हुआ स्वर सुन वो तीनों उसी ओर मुड़े। क्रोधित हुए गुरु विक्रमादित्य उन सबके मध्य आ खड़े हुए और चालुक्यराज और शिवादित्य को फटकार लगाई, “तुम लोग एक कन्या के विषय में बिना जाने इतनी अनुचित बातें कैसे बना सकते हो?”

“किन्तु गुरुदेव....।”

गुरु विक्रमादित्य ने हस्तक्षेप का प्रयास करते शिवादित्य को हाथ उठाकर मौन रहने का संकेत दिया, “गुप्तचरों की कमी नहीं है मेरे पास। मुझे भलीभाँति ज्ञात है कि भोजकश में राजकुमारी मृणालिनी और नागादित्य के मध्य क्या स्थिति उत्पन्न हुई, और किस प्रकार उस वीरांगना ने अपनी तलवार नागादित्य को समर्पित की।” वो वहीं खड़े नागदित्य की ओर मुड़े, “तुम इतने मूर्ख नहीं हो नागादित्य कि किसी नारी के चरित्र को परख न पाओ। इसलिए मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हें उस कन्या पर पूर्ण विश्वास है?” 

नागादित्य ने निसंकोच होकर सहमति में सिर हिलाया, “मृणालिनी पर तो मुझे विश्वास है, गुरुदेव। किन्तु मेवाड़ नरेश पर विश्वास करना कठिन प्रतीत हो रहा है।”

इस पर गुरु विक्रमादित्य ने कठोर स्वर में दृढ़ होकर कहा, “किसी कन्या को जीवन ज्योत की आशा दिखाकर तुम उसे त्याग नहीं सकते, वत्स। तुम्हें उस कन्या से विवाह करना ही चाहिए, ये तुम्हारा नैतिक कर्तव्य है। और रही बात मानमोरी की, तो आगे यदि वो चालुक्यों के विरुद्ध कोई षड्यन्त्र रचेगा तो उसे ध्वस्त करने का मार्ग तुम्हें स्वयं निकालना होगा।”

नागादित्य अपने गुरु विक्रमादित्य के निकट आया और उनका हाथ पकड़ आश्वासन दिया, “आप निश्चिंत रहिए, गुरुदेव। मैं वचन देता हूँ, संसार की कोई भी सेना यदि चालुक्यों के विरुद्ध खड़ी होगी तो इस जीवन में मेरा समर्थन चालुक्यों की ओर ही होगा। चालुक्यों के विरुद्ध मैं कभी शस्त्र नहीं उठाऊँगा।”

उसका ये वचन सुन चालुक्यराज भी उठकर आगे आये और अंततः अपना मौन भंग किया, “क्षमा करना मित्र, जो क्षणभर के लिए व्यर्थ ही तुम पर संदेह कर बैठा।” कहते हुए वो शिवादित्य की ओर मुड़े, “अब तुम भी अपने अनुज को क्षमा करके उसके नए जीवन को स्वीकार करने का प्रयास करो, शिवा।”

मुट्ठियाँ भींचे अपना क्रोध नियंत्रित करते हुए शिवादित्य अपने अनुज के निकट आया, “तुम्हारा हृदय बहुत बड़ा है, नाग। किन्तु मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं जो विवाह समारोह में तुम्हें अपने पूर्वजों के हत्यारों से सम्बन्ध जोड़ते हुए देखूँ और मौन रह जाऊँ। मेरी तलवार म्यान से निकल जाएगी, अनुज। इसलिए आगे की यात्रा तुम्हें अकेले ही करनी होगी।”

इतना कहकर नागादित्य ने गुरु विक्रमादित्य और चालुक्यराज को प्रणाम किया और वहाँ से प्रस्थान कर गया। अपने ज्येष्ठ को यूँ स्वयं से दूर जाता देख नागादित्य भी विचलित हो उठा। ऐसे में गुरु विक्रमादित्य ने उसे ढाढ़स बँधाया, “चिंता मत करो, रक्त सम्बन्ध से कोई अधिक दिन तक दूरी बनाए नहीं रख सकता। तुम मेवाड़ जाकर अपना कर्तव्य निभाओ। एक न एक दिन वो तुम्हारे पास लौटकर अवश्य आयेगा।”

नागादित्य ने सहमति में सिर हिलाया। वहीं चालुक्यराज ने उसे सावधान करते हुए कहा, “स्मरण रहे, नागदा में भीलों का बहुत आतंक है। वहाँ शासन संभालना सरल कार्य नहीं होने वाला। अब तक मेवाड़ नरेश के दो प्रतिनिधि वहाँ शासन करने गये, किन्तु कोई जीवित नहीं बचा।”

नागादित्य मुस्कुराया, “हाँ, ये तो मुझे ज्ञात है, महाराज। इसीलिए मेवाड़ नरेश ने मुझे वहाँ का शासक बनाकर भेजा है, अपना शस्त्र बनाकर। किन्तु आप चिंता न करें, मेरी तलवार की धार अभी मंद नहीं पड़ी है।”


To be continued..