Shri Bappa Raval - 1 in Hindi Biography by Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - Ep 1 - तथ्यात्मक विश्लेषण

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श्री बप्पा रावल - Ep 1 - तथ्यात्मक विश्लेषण

तथ्यात्मक विश्लेषण 
वैसे तो जिन पात्रों की मैं कथा सुनाने जा रहा हूँ। उनके विषय में बहुत ही कम पुस्तकें पढ़ने को मिलती हैं, जिसके कारण कई इतिहासकार इन्हें लेकर अलग-अलग कथाऐं कहते हैं। एकलिंग महातम्य के साथ-साथ कुमम्भलगढ़, आबू, कीर्ति स्तम्भ और रणकपुर के शिलालेखों में तो बप्पा रावल का उल्लेख मिलता ही है, बाकि इंटरनेट और यू ट्यूब के कई चैनलों पर इन पात्रों की जानकारी भी मिल जायेगी, जहाँ हर कोई अलग-अलग तरीके से बप्पा रावल और उनसे जुड़े पात्रों की कथा सुनाता है। 

जहाँ तक सिंध के इतिहास की बात है तो उसकी व्याख्या मुख्यतः तेरहवीं सदी में लिखी चचनामा और उन्नीसवीं सदी के अंत में लिखी गयी तारीखे मासूमी जैसी पुस्तकों में मिलेगी जिसमें बहुत से ऐसे तथ्य एक-दूसरे से भिन्न है, किन्तु विश्वसनीय प्रतीत होते हैं। 

शुरुआत बप्पा रावल के पूर्वजों से करते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार मेवाड़ के शासन की स्थापना सन 145 ई में प्रभु श्रीराम की पीढ़ी के सूर्यवंशी राजा कणक सेन ने की थी, जो उत्तर की पहाड़ियों से सौराष्ट्र आये और परमार वंश के एक राजा को पराजित कर बीरनगर को अपनी राजधानी बनाया। कहते हैं आगे चलकर इसी वंश के एक राजा ने माँडोर के राजा को पराजित कर राणा की उपाधि प्राप्त की, जो असल में माँडोर के राजा की ही उपाधि थी, जो उसने स्वयं ही उस सूर्यवंश के राजा को समर्पित की। 

अगली चार सदियों तक इस वंश की व्याख्या कहीं नहीं मिलती। सीधा 524 ई में मेवाड़ के राणा और परमार वंश की एक राजकुमारी के संगम से जन्में गोहा नाम के राजकुमार के रूप में मिलती है। उस समय मेवाड़ के राणा युद्ध में पराजित हुए और उनकी पत्नी महाकाली के मन्दिर जाने के कारण उस आक्रमण से सुरक्षित रह गयीं। अपने पुत्र गोहा को भीलों के संरक्षण में कमलावती नाम की एक स्त्री को सौंप उन्होंने भी प्राण त्याग दिए। कमलावती ने गोहा को अपने पुत्र समान प्रेम दिया और एक दिन गोहा ने पुनः अपने पित़ा का राज्य मेवाड़ शत्रुओं से वापस जीत लिया और और इदार नगर के राणा गुहिलादित्य की उपाधि प्राप्त की। वहीं से गुहिलवंश की स्थापना हुयी, और इसी वंश में बप्पा रावल के पिता नागादित्य का भी जन्म हुआ। 

अब बात आती है धारणाओं की। जैसे कुछ कहते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ई में सिंध को जीत लिया और बप्पा रावल का जन्म ही 713 ई में हुआ जो थोड़ा अटपटा सा लगता है क्योंकि अधिकतर इतिहासकारों के अनुसार बप्पा ने 753 ई में जीवन से सन्यास ले लिया और महादेव की भक्ति में लीन हो गये। किन्तु सोलह वर्षों तक तो वो अरबों को खदेड़ने में ही लगे रहे, तो ये कुछ उचित नहीं लगता। बप्पा की स्वर्ण मुद्रा (65.7 रत्ती) अजमेर से मिली। सिक्के में माला के नीचे श्री बोप्प अंकित है (माना जाता है कि ये सिक्का 733 ई में बना, इसका अर्थ ये तो नहीं कि वो उसी समय सिंहासन पर बैठे थे ), बाईं ओर त्रिशूल, दाहिनी ओर वेदी पर शिवलिंग तथा उसकी ओर मुँह किए नंदी अंकित हैं। जिस ओर दण्डवत करते उस पुरुष की आकृति भी सिक्के पर निर्मित है। सिक्के में गऊ और दूध पीता बछड़ा भी अंकित किया गया है। ये बप्पा की धार्मिक प्रतिबद्धता और शैव मठ की ओर झुकाव का परिचायक है। एकलिंग महात्म्य के अनुसार बप्पा रावल 723 के आसपास में सिंहासन पर बैठे थे। वहीं कर्नल जेम्स टॉड (1782-1835) Tod’s annals of Rajasthan में ये व्याख्या की है कि पहले इस्लामिक आक्रमण के दौरान मेवाड़ पर सूर्यवंशी राणाओं का ही शासन था। जो कि ये सिद्ध करता है कि तब तक कालभोजादित्य रावल ने परमार वंश के राजा मोरी से चित्तौड़ का किला जीत लिया था और 713 ई में मुहम्मद बिन कासिम का सामना भी किया था। 

इसलिए बप्पा और कासिम का एक समयावधि का होना अधिक तर्कसंगत लगता है और इस तथ्य से जुड़ी कई लोक कथाओं का भी अक्सर जिक्र किया जाता है। कि बीस वर्ष की आयु में बप्पा ने मेवाड़ की गद्दी पर अधिकार किया फिर कासिम द्वारा सिंध में नियुक्त किए सुल्तान सलीम और उसके बारह हाकिमों को हराया। 

बप्पा रावल के मेवाड़ की गद्दी पर अधिकार करने की भी दो कथाऐं हैं। पहली ये है कि मानमोरी ने अपने भांजे कालभोज को अधिक योग्य मान स्वयं ही उसे गद्दी पर बिठा दिया, दूसरी ये कि बीस वर्ष की आयु में कालभोज ने परमारों का नाश करके मेवाड़ का शासन संभाला। कई कथाओं में पर कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जिससे अनेकों इतिहासकार सहमत हैं। जैसे भीलों द्वारा कालभोज के पिता नागादित्य की हत्या और उसकी माता की भी मृत्यु। भीलों के संरक्षण में ही एक विधवा ब्राह्मणी तारा (जो राजा गोहा का रक्षण करने वाली कमलावती के वंश की है ) द्वारा कालभोज का पालन पोषण करना। एक गाय द्वारा हरित ऋषि और कालभोज की भेंट का प्रसंग उत्पन्न होना। पंद्रह वर्ष की आयु में कालभोज का ब्राह्मणाबाद की विजय के लिए युद्ध करना भी एक लोक कथा का भाग है, और साथ में देवी तारा की सर्पदंश द्वारा मृत्यु भी। उसका महादेव का परम भक्त होना और हरित ऋषि द्वारा उसे एकलिंग के दीवान नाम से सम्मानित करना। बलेऊ नाम के भील द्वारा काल्भोज का राज्याभिषेक। पल्लवों और चालुक्यों की शत्रुता। देबल के सामंत बौद्ध धर्मी ज्ञानबुद्ध और अन्य कई बौद्धों और सिंध के सामंतों का मुहम्मद बिन कासिम से हुए युद्ध में दाहिरसेन के साथ छल करना। देबल में स्थित मन्दिर के प्रति गोया ब्राह्मणों की भविष्यवाणी और उसके प्रति सिंधियों का अंधविश्वास। सिंध के अंतिम युद्ध में राजा दाहिर के हाथी का अनियंत्रित होकर रणभूमि से भागने के कारण सिन्धी सेना का मनोबल टूटना। कासिम का सिंध में राजा दाहिर को पराजित करके उनकी पुत्री सूर्यदेवी और प्रीमल देवी को अपने सुल्तान अलहजाज और खलीफा के लिए बंदी बनाना। बप्पा रावल का अरबों पर विजय प्राप्त कर वहाँ अपनी सैन्य चौकियाँ स्थापित करना, जिसके कारण आज भी एक नगर रावलपिंडी के नाम से जाना जाता है। इन सब बातों से बहुत से इतिहासकार भी सहमत हैं, और इन तथ्यों को लोक कथाओं का समर्थन तो है ही। यहाँ तक की कुछ लेखकों ने राणा सांगा की जीवनी में भी उनके पूर्वज बप्पा रावल का जिक्र किया है, और ये भी कहा है कि उन्होंने अनियंत्रित हुए क्षत्रिय समाज के अनेकों योद्धाओं को क्षत्रिय धर्म का पालन करना सिखाया, जैसे पीठ पीछे प्रहार ना करना, निशस्त्र पर वार ना करना और ना जाने ऐसे कितनी नीतियाँ अपनाईं जिससे भारतवर्ष का समग्र क्षत्रिय समाज एकजुट हुआ। 

वहीं सिंध की बात करें, तो काम्हा, बाजवा, मोखा, रासल, हब्शी शुज्जा, और सिंध के युद्ध में जिन छह अरबी हाकिमों का जिक्र किया गया है, उन सबके साक्ष्य एतिहासिक पुस्तकों में हैं। और साथ ही सिंध के युद्ध में माविया बिन हारिस अलाफ़ी और मुहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी का महाराज दाहिरसेन का साथ देना कहीं से भी मनगढ़ंत नहीं है, अपितु इसके साक्ष्य चचनामाह के साथ तारीखे मासूमी जैसी प्राचीन किताबों में भी मिलते हैं, जहाँ इस बारे में अलग-अलग राय रखी गयी है। साथ ही उन मंजनीकों (trebuchet) का जिक्र भी चचनामाह में मिलता है जहाँ स्पष्ट लिखा हुआ है कि एक मंजनीक के संचालन के लिए लगभग पांच सौ से दो हजार लोगों की जरूरत पड़ती थी। हालाँकि इतिहासिक रिकॉर्ड को देखें तो मंजनीक को बारहवीं सदी के यूरोप में पहली बार इस्तेमाल किया गया। 

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष ये निकलता है कि इस कथा को नाटकीय रूपांतरण देने के लिये कल्पनाओं का प्रयोग अवश्य हुआ है, किन्तु आधारित ये ऐतिहासिक तथ्यों पर ही हैं। 

ये कथा दो खण्डों में विभाजित है।
कालभोजादित्य रावल : हरित ऋषि के कृपा पात्र नागदा ग्राम के वीर कालभोज की जीवनयात्रा जिसने अपने शौर्य और प्रजा के विश्वास के बल पर परमारवंश के शासक मानमोरी को पराजित कर मेवाड़ पर अधिकार किया। 

महाराणा बप्पा रावल : मेवाड़ के राणा बप्पा रावल की उपाधि से सम्मानित होने के उपरान्त सिंध को पुनः जीतकर पहले अरबों को बलूचिस्तान तक खदेड़ा। फिर कई वर्षों के उपरान्त जब अरबी आक्रान्ताओं ने पुनः भारत में अपने पाँव पसारने का प्रयास किया, तो कैसे बप्पा रावल ने हिन्द सेना की एक विशाल टुकड़ी लेकर सोलह वर्षों तक अल्हकम बिन अलहावा से होकर खुरासंग से होते हुए अपनी विजय पताका फहराई। 

एतिहासिक तथ्यों के आधार पर चालुक्यवंश के राजाओं की सूचि कुछ इस प्रकार है। 
पुल्केशी द्वितीय-(609-642) 
आदित्यवर्मन-(643-645) 
अभिनव आदित्य—(645-646) 
चंद्रादित्य-(646-649) 
विजया-भातारिका-(650-655) 
विक्रमादित्य प्रथम–(655-680) 
विनयादित्य-(680-696) 
विजयादित्य-(696-733) 
विक्रमादित्य द्वितीय-(733-746) 
कीर्तिवर्मन द्वितीय-(746-753) 

* * * * *

अनुक्रम 
1. ब्राह्मणाबाद की विजय 
2. सिन्धी गुप्तचर दल 
3. कालभोजादित्य रावल 
4. कासिम की योजना 
5. महाशिवरात्रि उत्सव 
6. कांचीपुरम का युद्ध 
7. भोजकश में प्रेम पड़ाव 
8. भीलों की समस्या 
9. निष्कासन 
10. मित्रघात 
11. हरित ऋषि से भेंट 
12. सिंधु नदी की रक्त गंगा 
13. मेवाड़ विजय.....

To be continued..