चतुर्थ अध्याय
कासिम की योजना
[इराक की राजधानी (बगदाद)]
चार ऊँटों को अखाड़े में लाया गया। ऊपर बैठे दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपने मुख को काले नकाब से ढके एक योद्धा ने अखाड़े में प्रवेश किया। ऊँचे कंधे और चौड़ी छाती वाले उस योद्धा ने श्वेत रंग की धोती पहन रखी थी। काली पगड़ी और उससे जुड़े उसके चेहरे को छुपाये नकाब के बीच उसकी चमकीली आँखें उन ऊँटों पर केंद्रित थीं। अपने बायें हाथ में रखे एक बड़े से पात्र में हरे रंग का पदार्थ लिए वो आगे बढ़ा। उस पदार्थ से निकलता हरे रंग का धुआँ चहुं ओर फैलना आरम्भ हो चुका था। उस योद्धा के संकेत पर वहाँ मौजूद बाकि दस सैनिकों ने भी अपने-अपने मुख को वस्त्रों से ढक लिया। सारे सैनिकों का मुख ढका देख उस योद्धा ने अपने हाथ में थमें पात्र को सीधा ऊँटों के ठीक नीचे रख दिया।
उस पदार्थ से निकलने वाला धुआँ जैसे ही ऊँटों की नाक में घुसा, वो स्वयं पर नियंत्रण खोने लगे। नकाबपोश योद्धा ने सारे सैनिकों को ऊँटों को छोड़कर वहाँ से भागने का संकेत दिया। किन्तु भागते-भागते दो सैनिक उन बदहवास हुए ऊँटों के खुरों का आखेट बन गये। एक सैनिक के मस्तक दो ऊँटों ने मिलकर बुरी तरह कुचला, वहीं दूसरे सैनिक की छाती पर चारों ऊँट कई बार दौड़ गये। मुख से रक्त उगलते उस सैनिक का अस्थि पंजर चूर-चूर सा हो गया था। दो ऊँट तो आपस में ही भिड़ गये।
अब अखाड़े में वो योद्धा अकेला उन ऊँटों के सामने खड़ा था। अखाड़े के ऊपर खड़े एक सैनिक ने दो ढालें नीचे गिराईं जिसे उस नकाबपोश योद्धा ने बड़ी चपलता से लपक लिया। ढालों के हाथ में आते ही उस योद्धा ने दोनों ढालों को आपस में लड़ाने के साथ ही बाघ की भाँति गुर्राना आरम्भ किया।
उस गुर्राहट के तीव्र स्वरों ने पदार्थ से मदांध हुए ऊँटों का ध्यान उस योद्धा की ओर टिका दिया। वो उसे कुचलने के इरादे से दौड़ पड़े।
ऊँटों को अपनी ओर दौड़ते हुए स्थिर खड़े उस योद्धा को देख अखाड़े में एक दर्शक ने उसकी जयघोष की, “मुहम्मद बिन कासिम, जिन्दाबाद।” उसके साथ और भी दर्शकों ने उसकी आँखों में दिखती निडरता को देख उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास किया।
पदार्थ से निकला धुआँ अब छँट चुका था, किन्तु वो चारों ऊँट अब भी मद में थे। पर अब कासिम को अपने मुख को ढके रहने की आवश्यकता नहीं थी। उसने अपने मुख पर से ढका वस्त्र हटाया और बस चंद गज दूर रह गये ऊँटों को निकट आता देख अपने हाथ में थमी ढालों पर कसाव बढ़ाया और कई गज ऊँची छलांग लगाकर एक ऊँट के कूबड़ पर पाँव रख दूसरे की ओर उछला और उसके मस्तक पर ढाल का प्रहार कर उसे विचलित करते हुए तीसरे ऊँट की पीठ पर जा बैठा। उस तीसरे ऊँट ने बिन कासिम को अपनी पीठ से गिराने का भरसक प्रयास किया, किन्तु सफल न हो पाया। कासिम ने उसके मुँह पर बंधी रस्सी कुछ यूँ पकड़ी कि वो मदांध ऊँट भी विवश सा हो गया। वहीं विचलित हुए ऊँट के साथ बाकि दो ऊँट भी संभले और कासिम को गिराने के इरादे से तीसरे ऊँट की ओर दौड़े।
चतुर कासिम उछलकर तीसरे ऊँट की पीठ पर खड़ा हुआ और अपने हाथ में थमी एक ढाल नीचे गिराई। जैसे ही बाकी ऊँट तीसरे ऊँट को टक्कर मारने उसके निकट आये, वो उछला और टक्कर मारने वाले एक ऊँट की गर्दन पर झूलते हुए उसे अपने बाहुबल से नीचे बैठा दिया। मदांध हुए दो ऊँट चंद क्षणों तक तीसरे ऊँट से ही उलझते रहे, इतने में ही कासिम ने उस नीचे बैठे ऊँट के मस्तक पर ढाल का प्रहार कर उसे मरणासन्न कर दिया।
रक्त से सनी ढाल लिए कासिम गर्जना करते हुए शेष तीन ऊँटों की ओर मुड़ा। वो अब आपस में उलझना छोड़ वापस कासिम की ओर मुड़कर उसकी ओर दौड़े। इस बार कासिम ने दूसरी ढाल भी गिराते हुए अपनी कमर में छुपे दो खंजर निकाले और दौड़ते हुए बाईं ओर छलांग लगाकर खंजर सीधा एक ऊँट की गर्दन पर चलाई और दूसरे ऊँट की पीठ पर जा बैठा। घायल हुआ एक ऊँट भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा। इससे पहले कोई और ऊँट उस पर वार करता, कासिम ने अपनी सवारी बने ऊँट का सर पकड़कर मोड़ा और खंजर से उसकी गर्दन का आधा अंदरूनी भाग काट डाला। उसे भी तड़पता छोड़ कासिम भूमि पर कूदा ही था कि आखिरी बचे ऊँट ने अपने खुरों से उसकी पीठ पर प्रहार कर उसे कई गज दूर धकेल दिया।
गुर्राता हुआ कासिम तत्काल ही भूमि से उठा। सत्रह वर्षीय युवक कासिम ने अपनी नई नई तराशी गयी दाढ़ी से धूल झाड़ी और हैवानियत भरी नजरों से अपने निकट आते ऊँट को घूरा। ऊँट के निकट आते ही बिन कासिम ने अपने हाथों से खंजर गिराए और उछलकर सीधा उस ऊँट की गर्दन को अपनी काँख में दबोच लिया और उसे झुकाते हुए नीचे बैठा दिया। मदांध हुए उस ऊँट की भी कासिम के बाहुबल के आगे एक न चली। उसे पूरी तरह विवश देख कासिम मुस्कुराया और अखाड़े की भूमि पर गिरा अपना खंजर उठाकर उसकी आधी गर्दन चीर डाली और तब तक अपनी काँख में दबाए रखा जब तक उसके प्राण पखेरू नहीं उड़ गए।
“मुहम्मद बिन कासिम, जिंदाबाद।” अखाड़े में शोर गूंज उठा।
अपने कंधे उचकाते हुए कासिम ने हाथ उठाकर प्रजा का अभिवादन स्वीकार किया। कुछ क्षण उपरान्त अखाड़े में कुछ सैनिक आये। उन्हें देख कासिम ने भूमि पर तड़पते ऊँटों की ओर संकेत करते हुए अपनी दाढ़ी सहलायी और गरजते हुए कहा, “ले जाओ इन जानवरों को और इनका माँस तैयार करवाओ। कासिम के ये शिकार सुल्तान अलहजाज की सालगिरह के जश्न में चार चाँद लगायेंगे।”
“ये तोहफा नाकाफ़ी है, बरखुद्दार।” ये स्वर सुन कासिम की दृष्टि अखाड़े की दक्षिणी द्वार की ओर गयी। रेशमी लिबास, गले में शाही रत्न से बनी मालायें, स्वर्ण जड़ित पगड़ी धारण किये, अपने गले तक लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए एक व्यक्ति कासिम की ओर आने लगा।
उसे देखते ही कासिम दायें घुटने के बल झुका और निकट आते ही उसका दायाँ हाथ चूमकर दृढ़तापूर्वक कहा, “सुल्तान अलहजाज का इस्तेकबाल बुलंद हो।” कहते हुए उसने ऊपर उठकर प्रश्न किया, “अपनी ख्वाहिश जाहिर करें शहंशाह। बंदा जान लड़ा देगा।”
सुल्तान अलहजाज ने भौहें सिकोड़ते हुए कहा, “तुम्हारे उस्ताद और उसके साथियों ने जो सिंध की सरजमीं से नाकामी का बदनुमा दाग हम पर लगाया है, उसे धुलने की ख्वाहिश है हमें, कर पाओगे?”
कासिम ने मुस्कुराते हुए साँस भरी और कहा, “ये जिम्मेदारी देते वक्त आपकी आँखों में वो भरोसा नहीं दिख रहा, सुल्तान। बिना भरोसे के मैं कोई फतह हासिल नहीं कर सकता।”
सुल्तान ने अपनी मुट्ठियाँ भींची और कासिम की आँखों में देखते हुए कहा, “जानते हो सिंध के उस बादशाह दाहिर ने हमें तीन महीने का वक्त दिया है कि हम अपनी फौज पूरे सिंधुदेश से हटा लें, वर्ना वो अपने फौजी दस्ते को लेकर बगदाद में आ धमेकगा।” भौहें सिकोड़ते हुए अलहजाज ने आगे कहा, “और तो सुनने में ये भी आ रहा है कि हमारे दो हाकिमों को मारकर हिंदसेना के कालभोजादित्य रावल नाम के उस जाँबाज ने तुम्हारे उस्ताद अल्लाउद्दीन बठैल को ऐसा डरा दिया, कि उसने लडे बिना ही हथियार डाल दिये। जरा सोचो अगर हमने इस पर भी, उस दाहिर को जवाब नहीं भेजा तो हमारी फौज पर इसका क्या असर पड़ेगा? मिट्टी में मिल जाएगी हमारी साख।”
कुछ क्षण मौन रहकर विचार करने के उपरान्त कासिम ने कहा, “सुना है उस्ताद बहुत जल्द बगदाद पहुँचने वाले हैं। मुझे एक बार उनसे गुफ्तगू करने की इजाजत दीजिए, सुल्तान। वादा है हमारा, बहुत जल्द आपके सारे सवालों के जवाब हाजिर होंगे।”
“ये मुमकिन नहीं है, कासिम। नये खलीफा का फरमान है कि हारे हुए बुजदिल हाकिम को बगदाद में घुसने न दिया जाये।”
“आप उसकी फिक्र मत कीजिए, बस मुझे इजाजत दीजिए। खलीफा को मैं मना लूँगा।”
अलहजाज ने कासिम के कंधे पकड़ छाती फुलाकर कहा, “तुम हमारे सबसे बहादुर और वफादार जंगजू माने जाते हो, कासिम, और पारस के कई किलों पर फतह हासिल कर तुमने अपनी काबिलियत साबित भी की है। इसलिए तुम पर भरोसा न करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता।”
कासिम ने मुस्कुराते हुए सर हिलाया और अखाड़े से चला गया।
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लगभग सत्रह दिन की यात्रा के उपरान्त अरबी हाकिम अलाउद्दीन बुठैल अपनी सेना के साथ बगदाद के निकट पहुँचा था। अपने मुख पर निराशा का भाव लिये अलाउद्दीन मुख्य द्वार के निकट पहुँचा किन्तु वहाँ खड़े दोनों दरबानों ने अपने भाले सामने कर उसे आगे जाने से रोक दिया।
यह देख अलाउद्दीन की भौहें तन गईं, “ये क्या गुस्ताखी है?” वो दरबान पर बरस पड़ा।
“माफ करें हुजूर, पर नए खलीफा ‘अल वालिद बिन अब्दुल मालिक’ के जारी किये फरमान को मद्दे नजर रखते हुए, हम आपको अंदर आने की इजाजत नहीं दे सकते।”
दरबान के मुख से अपने लिए अपमानजनक शब्द सुन अलाउद्दीन की भौहें सिकुड़ी। पैर के नाखून से लेकर सर तक क्रोध से भभक रहा था, पर खलीफा के फरमान के आगे वो क्या कर सकता था। वो पलटकर लौटने को हुआ, किन्तु तभी उसे एक आवाज सुनाई दी, “खुदा हाफिज, उस्ताद।”
अलाउद्दीन ने पलटकर देखा, उसका शागिर्द मुहम्मद बिन कासिम दस सैनिकों के लश्कर के साथ मुख्य द्वार की ओर चला आ रहा था। अलाउद्दीन उसकी ओर देख मुस्कुराया। कासिम ने दरबान को एक पत्र थमाते हुए कहा, “पिछला फरमान रद्द कर दिया गया है। हमारे उस्ताद को अंदर आने से कोई नहीं रोक सकता।”
पत्र में लिखा फरमान पढ़ वो दरबान सर हिलाते हुए पीछे हट गया। शीघ्र ही अलाउद्दीन और कासिम एक-दूसरे के निकट आ खड़े हुए। दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में चंद क्षणों तक देखा।
अलाउद्दीन ने कासिम के कंधे छूकर उसकी मुख पर उभरती हुई हल्की दाढ़ी की ओर नजर डाली, “तो तुम भी जवान हो गये, हम्म?”
“पाँच साल हो गये, उस्ताद।” कासिम अपने उस्ताद के गले लग गया। अलाउद्दीन ने उसकी पीठ थपथपाई, “सुना है सत्रह साल की उम्र में ही पारस के किलों पर फतह पाकर धाक जमा ली है तुमने अपनी ?”
कासिम ने पीछे हटकर अपना सर ऊँचा कर अपने उस्ताद की आँखों में देखते हुए मुस्कुराया। अलाउद्दीन ने अपनी छाती चौड़ी कर उसे निहारा, “फक्र है हमें तुम पर।” कहते हुए उसकी आँखें शर्म से झुक गईं, “पर अफसोस कि हमने सुल्तान का सिर शर्म से झुका दिया।”
साँस भरते हुए कासिम ने क्षणभर अलाउद्दीन की ओर देखा, “आप हमारे साथ चलिए। कुछ बातें अकेले में करेंगे तो बेहतर होगा।”
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रात्रि का समय था। कासिम और अलाउद्दीन अपने कक्ष में बैठे वार्ता कर रहे थे। अलाउद्दीन के मुख से कालभोज के पराक्रम का वर्णन सुन कासिम भी चकित रह गया।
“अल्ताफ जैसे ताकतवर और खतरनाक घोड़े को शमशीर के एक हमले में नेस्तनाबूद कर दिया? हाकिम निजाम के घोड़े को दो पल में काबू कर लिया। साथ ही निजाम और शहबाज जैसे आला जंगजूओं को शमशीर के एक ही हमले में शहादत दे दी?” कासिम की आँखें हैरानी से बड़ी होने लगीं, “मुझे अब भी यकीन नहीं होता, उस्ताद।”
“और अभी उसकी उम्र केवल पंद्रह साल की है। सोचो वो आगे क्या करेगा।” अलाउद्दीन विचलित था, “इतना ही नहीं इस वक्त हिन्दसेना की तादाद लाखों में हैं। सुनने में ये भी आया है कि जल्द ही चालुक्यों का राजा भी अपनी फौज सहित हिंदसेना का हिस्सा बन सकता है। ऐसे में उनकी तादाद और बढ़ जायेगी। अगर वो उसे लेकर बगदाद पर चढ़ आए तो हमें तबाह होने से कोई नहीं रोक सकता।
यह सुनकर कासिम भी चिंतित होकर बैठ गया। तभी किसी ने कक्ष का द्वार खटखटाया। झल्लाते हुए कासिम ने उठकर दरवाजा खोला और सामने खड़े सैनिक पर बरस पड़ा, “कहा था न जब तक मसला जरूरी न हो दखल न देना।”
“मसला बहुत संगीन है हुजूर, वर्ना मैं दखल न देता।” उस सैनिक ने सहमते हुए कहा।
कासिम ने अपने क्रोध को नियंत्रित किया और श्वास भरते हुए बोला, “बोलो क्या हुआ?”
“दुश्मनों का एक जासूस पकड़ा गया है। वो हमारी फौज के साथ बगदाद तक आ गया था।”
उस सैनिक की सूचना सुन कासिम ने पलभर को कुछ सोचा फिर उस सैनिक की पीठ थपथपाई, “चलो कोई तो अच्छी खबर सुनाई। मुझे वो जिंदा चाहिए।”
“उसे कैदखाने में बंद रखा है, हुजूर।” सैनिक की बात सुन कासिम ने कुछ क्षण विचार कर कहा, “उसे उसी मैदान में ले आओ, जहाँ हम जंग की तालिम लेते हैं। इतना ही नहीं हमारे सभी हाकिम, सिपहसालार और आला फौजी दस्ता वहीं होने चाहिए। हमारी ख्वाहिश पूरे हजरीन के सामने उसकी खाल उधेड़ने की है।” “जो हुक्म, हुजूर।” वो सैनिक वहाँ से निकल गया।
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शीघ्र ही हिन्दसेना के गुप्तचर को बेड़ियों में जकड़कर लाया गया। दर्शक बनकर लगभग एक हजार से भी अधिक योद्धा मैदान में खड़े थे। साथ ही सारे सिपहसालार और हाकिम मैदान पर घेरा बनाये हुए थे। तभी अखाड़े का द्वार खुला और बेड़ियों में जकड़े एक घायल युवक को अंदर धकेलकर उसे घुटनों के बल बिठाया गया। कासिम चलकर उसके निकट आया। उसने तलवार उसकी गर्दन पर लगाकर उसे ध्यान से देखा। उसकी बिना मूँछ की हल्की दाढ़ी और माथे पर पसीना देख कासिम मुस्कुराया, “क्या उम्र है तुम्हारी?”
“अठारह साल हुजूर।” उस युवक ने सहमते हुए कहा, “मेरा यकीन कीजिए, हुजूर। अल्लाह की कसम, मेरा नाम नसीर अली है, और मैं कोई जासूस नहीं हूँ। मैं अरब सेना का एक वफादार सिपाही था, हूँ और रहूँगा।”
“अच्छा?” कासिम ने कुछ क्षण उसे शांति से देखा, फिर अपनी कटार निकाले घुटनों के बल बैठे उसकी आँखों में देखा, “बड़े ताज्जुब की बात है कि इतनी कम उम्र में तुमने जासूसी के इतने हुनर सीख लिये।”
“मैं जासूस नहीं हूँ हुजर, मेरा यकीन कीजिये। मैं तीन दिन पहले ही अरब फौज में भर्ती हुआ हूँ।” कहते हुए उस जासूस की आँखों में डर के मारे आँसू आ गये।
कासिम भी सोच में पड़ गया। उसने गरजते हुए प्रश्न किया, “किसने पकड़ा है इस जासूस को ?” यह सुनकर एक अरब सैनिक छाती चौड़ी करते हुए आगे आया और सर झुकाते हुए कहा, “हाकिम मुहम्मद बिन कासिम का इस्तेकबाल बुलंद हो। इसे मैंने पकड़ा है, हुजूर।”
कासिम ने उस सैनिक की ओर ध्यान से देखा, हल्की घनी दाढ़ी और बिना मूँछ वाला वो सैनिक भी युवा ही लग रहा था, “तुम्हारी उम्र भी तो कुछ इसके जैसी ही लगती है।”
“जी हुजूर, तीन दिन पहले फौज में नई भर्ती हुई थी। मैं उसी फौजी दस्ते का हिस्सा हूँ।” उस सैनिक ने दृढ़ होकर कहा।
कासिम उसके निकट गया और उसकी आँखों में ध्यान से देखा। उसे दृढ़ और पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़ा देख कासिम ने कहा, “अंदाज पसंद आया तुम्हारा। तुम असल में हमारी फौज के काबिल हो।” उसकी नजर घायल जासूस नसीर की ओर मुड़ी, “शायद ये कमजर्फ जासूस इस भर्ती की खबर का ही फायदा उठाना चाहता है। क्या सच में हिंदुस्तानियों के जासूस ऐसे बुजदिल होते हैं?” उसने अपने सैनिक से सवाल किया, “ये बताओ, ये पकड़ा कैसे गया?” कहते हुए कासिम ने कटार से उस जासूस के गाल पर चीरा लगाया।
नसीर दर्द से चीख पड़ा। वहीं उस अरबी सैनिक ने कहना आरम्भ किया, “आज सुबह से ही मैं इसे हमारे फौजी खेमे में देख रहा हूँ। ये बहुत अकेले-अकेले में रहता था। मैंने सोचा नया-नया है इसलिए शायद बात करने में हिचक रहा है। तो मैं इसकी हिम्मत बढ़ाने आज शाम को इसके कमरे में गया।” कहते हुए उसने एक जनेऊ निकालकर दिखाया, “इसके सामान में मुझे ये मिला।”
वह जनेऊ देखते ही कासिम भड़क गया। क्रोध में उसने नसीर के दायें कंधे में कटार घुसा दी और उसके बाल पकड़ उसकी आँखों में देखा, “बहुत अजीज है न तुम्हें अपना मजहब, जो उसकी निशानी यहाँ तक लेकर आ गये?”
“खुदा कसम मैं नहीं जानता हुजूर कि ये नापाक चीज मेरे सामान में कैसे आयी? मेरा यकीन कीजिये।”
घायल नसीर की विनती सुन कासिम भी सोच में पड़ गया कि कहीं वो सच तो नहीं बोल रहा। मन में शंका लिए वो उस अरबी सैनिक की ओर मुड़ा जिसने वो जनेऊ दिखाया था, “तो तुम भी तीन दिन पहले बगदाद की फौज का हिस्सा बने थे? कहाँ से आये हो?”
“बगदाद के जुनूबी में कई कस्बे हैं, हुजूर। मैं तुर्रानी नाम के कस्बे से आया हूँ।”
“वालिद का नाम?” “शादाब अली, वो बगदाद की फौज का हिस्सा थे।”
“ओहदा क्या था उनका?”
“आम फौजी थे, हुजूर।” कहते हुए वो सैनिक थोड़ा भावुक सा हुआ फिर दृढ़ होकर बोला, “जबसे सिंध से उनकी शहादत की खबर आयी है, तबसे मेरा जर्रा जर्रा बगदाद की फौज का हिस्सा बनकर दुश्मनों को हलाल करने को फड़क रहा है, हुजूर। इसलिए इस जासूस को देख मैं आपे से बाहर हो गया।”
उसका उत्साह देख कासिम उसके निकट आकर मुस्कुराया और उसके कंधे थपथपाते हुए कहा, “ये मौका जल्द मिलेगा तुम्हें। नाम क्या है तुम्हारा ?” कासिम के मुख भाव से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि उसे अपने उस सैनिक पे पूरा विश्वास हो गया था।
“याकूब अली, हुजूर।” संतुष्ट होकर कासिम घायल नसीर की ओर पलटा और याकूब से सवाल किया, “आज सुबह से पहले तुमने कभी इसे हमारे फौजी दस्ते में नहीं देखा, है न?”
“कभी नहीं, हुजूर। इतना ही नहीं मैंने इसकी खबर करने से पहले कई फौजियों से गुफ्तगू की, उन्होंने भी आज से पहले इसे कभी नहीं देखा।” याकूब ने पूरे विश्वास से कहा।
कासिम ने नसीर के निकट आकर उसके कंधे में धँसी कटार निकाली, “बेशक ये सिंध से आये फौजी दस्ते के साथ ही हमारे खेमे में शामिल हो गया होगा। ये सोचकर कि किसी को पता नहीं चलेगा।” क्रोध में कासिम ने इस बार सीधा उसके दायें हाथ की दो उँगली काट दी। दर्द से चीखता वो जासूस नसीर भूमि पर लेट गया।
कासिम ने ठहाके लगाते हुए कटार सीधा उसके दायें पंजे में धंसाकर उसके हाथ को जमीन से सटा दिया, और एक और छुरी निकालकर उसके नाखून उखाड़ने शुरू किया। भूमि पर गिरे नसीर ने दर्द से तड़पते हुए पैर लहराकर रोना शुरू कर दिया।
कासिम ने ठहाके लगाते हुए पूरी भीड़ से कहा, “ये देखो, ये है हिन्दुस्तानी मुखबिरों की असलियत। जरा सा भी दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाते।” हँसते हुए वो उस जासूस के निकट आया, “सोचा नहीं था तुम इतने बुजदिल होंगे। हँसी आती है तुम हिंदुस्तानियों पर।”
इतना कहकर कासिम ने याकूब को आदेश दिया, “मशाल लेकर आओ।”
सर झुकाते हुए याकूब दौड़ता हुए गया और जल्द ही मशाल लेकर लौटा। वो मशाल लेकर कासिम ने जनेऊ हाथ में लेकर उसे नसीर को दिखाते हुए कहा, “लगता है तुम्हारे मजहब में इस डोरी की बड़ी खासियत है।” कहते हुए कासिम ने जनेऊ में आग लगा दी। वहीं बदहवास नसीर दर्द से कराहता हुआ जमीन पर लेटा रहा, मानों उसे कोई पड़ी ही न हो। वहीं जनेऊ को जलते देखते हुए न जाने क्यों याकूब की भौहें तन गईं, वो मुट्ठियाँ भींचे मौन खड़ा रहा। कासिम ने जनेऊ को जलाया और नसीर के बाल पकड़ एक बार फिर उसके गले पर छुरी रख उससे सवाल किया, “अब बता, और कितने जासूस शामिल हैं हमारी सेना में?”
दर्द से कराहता हुआ नसीर कुछ क्षण मौन रहा। अगले ही क्षण जैसे ही उसने कासिम का ध्यान दूसरी ओर बंटा देखा, उसने तत्काल ही अपने हाथ में धँसी कटार निकाली और कासिम पर आक्रमण किया। घायल होने के कारण नसीर के प्रहार में बल नहीं था। लक्ष्य तो गले की ओर था किन्तु उसका हाथ कंधे तक ही पहुँच पाया।
अचानक से कंधे पर हुए घाव से कासिम सकपका कर पीछे हटा। उस जासूस ने पुनः आक्रमण करने का प्रयास किया, किन्तु इस बार अपने आपको बचाते हुए कासिम पीछे हटा और अगले ही क्षण अपने हाथ में थमी छुरी उसकी गर्दन पर चला दी।
नसीर के हाथ से कटार गिरी और वो भूमि पर गिरकर तड़पने लगा।
“रंग दिखा ही दिया बदजात ने।” कहते हुए उसने याकूब को इशारा किया, “ले जाकर फेंक दो इसकी लाश किसी नदी नाले में।”
“जो हुक्म हुजूर।” कहते हुए याकूब ने उस जासूस की लाश को उठाया और अखाड़े से बाहर ले गया।
अखाड़े से बाहर आकर याकूब ने उस लाश को अपने अश्व पर लादा और मुख्य द्वार तक आया, “हाकिम मुहम्मद बिन कासिम का हुक्म है कि इस जासूस को नदी में बहा दिया जाये। मैं इसे वहीं लेकर जा रहा हूँ।”
“अरे पर नगर के अंदर भी तो कई तालाब हैं।” दरबान ने कहा।
याकूब ने एंठते हुए कहा, “तो मियां आप क्या चाहते हो? इस बदजात जासूस की लाश से हम अपने बगदाद की सरजमीं को नापाक कर लें?”
दरबान ने कुछ पल सोचा फिर एक ओर हट गया। याकूब आगे बढ़ता गया।
इधर रात्रि में कासिम और अलाउद्दीन साथ बैठकर सुल्तान अलहजाज की सालगिरह की दावत का आनंद ले रहे थे। तभी एक सैनिक दौड़ता हुआ वहाँ आया और कासिम के सामने झुका।
उसे विचलित देख कासिम ने झेंपते हुए कहा, “अब क्या हो गया जो जश्न में दखल देने चले आये?”
“एक आदमी और औरत रो रोकर आपसे मिलने की गुजारिश कर रहे हैं, हुजूर।” कहते हुए वो सैनिक थोड़ा हिचकिचाया, “उनका कहना है कि वो उस नसीर अली के अम्मी अब्बू हैं।”
यह सुनकर कासिम और अलाउद्दीन दोनों ही हक्के बक्के रह गये। वो अपना खाना छोड़ बाहर आये, जहाँ एक पत्थर पर बैठे एक दंपति फूट-फूट कर रो रहे थे। कासिम को वहाँ आता देख वो बूढ़ा आदमी दौड़ता हुआ वहाँ आया, “ये आपने क्या किया, हुजूर? क्या खता हो गयी थी हमसे?”
कासिम ने उसका कंधा पकड़ कर कहा, “आप हमारे साथ आईये।” साथ में उसने अलाउद्दीन को भी इशारा किया।
शीघ्र ही कासिम और अलाउद्दीन उस दंपति को एकांत में ले गये।
“आपको पूरा यकीन है कि जिस नसीर अली को हमने हलाल किया वो आपका बेटा था?”
“वो हमारी एकलौती औलाद था, हुजूर। तीन दिन पहले ही आपकी फौज में भरती हुआ था।” नसीर की अम्मी ने रोते हुए कहा।
“कौन से कस्बे से आये हो?”
“हम जुनूबी के तुर्रानी कस्बे से हैं, हुजूर।”
यह सुनकर कासिम ने अपना सर पीट लिया, उस क्षण को याकूब का चेहरा उसकी नजरों के सामने दौड़ गया, “एक दिन में उस कमजर्फ ने सबकुछ पता कर लिया था।” गुस्से में जहरीले नाग की भाँति फुंफकारते हुए कासिम ने अपने नेत्र बंद किये और झल्लाते हुए अपने सामने की दीवार पर मुक्का मारा, “बेवकूफ बना गया वो नामाकूल हमें। यकीनन वो डोरी उसी की थी, और वही था हिन्दुस्तानी मुखबिर।”
“इससे पहले वो गुम हो जाये, हमें उसकी खोज करनी होगी।” अलाउद्दीन भी क्रोधित था।
“रुकिये उस्ताद।” कासिम ने अलाउद्दीन का कंधा पकड़ उसे रोका और उसके निकट आया, “ये बात हमारी फौज में नहीं फैलनी चाहिए।”
अलाउद्दीन ने नसीर के अम्मी अब्बू की ओर देख सवाल किया, “ये कैसे मुमकिन है?
“आप हमारे सबसे भरोसे वाले फौजी टुकड़ी को लेकर जाईये और पता कीजिये कि याकूब नाम से घूमने वाला वो बदजात कहाँ है। बाकि मुझपर छोड़ दीजिये? याद रहे उन्हें ले जाने से पहले हिदायत देना मत भूलें कि ये राज किसी के सामने खुलना नहीं चाहिए।”
सहमति जताते हुए अलाउद्दीन वहाँ से चला गया। कासिम मुड़कर नसीर के परिवार के निकट आया, “हमें आपके चिराग की मौत का बहुत अफसोस है। मानता हूँ बहुत बड़ी चूक हुई है हमसे, पर बगदाद की फौज का हम पर से भरोसा न टूटे इसके लिए बहुत जरूरी है कि ये बात बाहर न आये। इसलिये हमारी आप दोनों से दरख्वास्त है कि आप लोग मक्का की ओर हज के लिये रवाना हो जायें।”
“पर हुजूर, अब इस उम्र में हम कैसे और कहाँ जायेंगे? अपनी औलाद को तो खो ही चुके हैं, अब सरजमीं से बेदखल करने का जुल्म न करें, हुजूर।” नसीर के अब्बू ने विनती की। कासिम की भवें तन गयीं, “हुक्म मिला है तो उसकि तामिल करना सीखो।”
“गुस्ताखी माफ, हुजूर। बहुत बड़ी चूक हो गयी।” नसीर के अब्बू ने डरते हुए कहा।
कासिम का स्वर थोड़ा शांत हुआ, “जंग में हजारों सिपाही कुर्बान होते हैं, तो समझ लो तुम भी बगदाद के लिए अपनी सरजमीं की कुर्बानी दे रहे हो। रही बात तुम्हारे खर्चे और जाने के इंतजामात की तो वो हम पर छोड़ दो। तुम्हारे इंतकाल तक का सारा खर्च हम खुद उठाएंगे। जाओ।”
दोनों सर झुकाकर वहाँ से चले गये।
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इधर याकूब नसीर के शव को लेकर घने जंगलों में आया। उसने चारों ओर दृष्टि घुमाकर देखा, किसी को अपने पीछे न आते देख उसने शव को नीचे उतारा, और अपने अश्व की पीठ पर टंगे बड़े से थैले में छिपी कुल्हाड़ी निकाली और जमीन खोदना आरम्भ किया।
कुछ समय तक लगातार खुदाई करने के उपरान्त याकूब ने नसीर के शव की ओर देखा, “क्षमा करना बालक। कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं थी तुमसे। जानता था यहाँ से बचकर कितना भी भाग लूँ, कहीं न कहीं पकड़ा ही जाऊँगा । तो क्यों न इन अरबियों को एक उत्तम पाठ पढ़ाने के साथ-साथ कुछ विशेष सूचनायें भी साथ लेता चलूँ।”
इतना कहकर उसने नसीर के शरीर को चादर ओढ़ाई और भूमि में खुदे गड्ढे में डाल दिया। उसने अभी मिट्टी डालना आरम्भ ही किया था कि एक तीर सीधा उसके कंधे में आ धंसा। कराहते हुए याकूब पीछे पलटा।
अपने उस्ताद अलाउद्दीन के साथ हाथ में कमान लिए कासिम उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था। याकूब को अनुमान हो चुका था कि उसका भेद खुल चुका है। मुस्कुराते हुए वो उन दोनों के निकट आया, “तो आखिर तुम सबको पता चल ही गया?”
“बड़े बेगैरत हो हिन्दुस्तानी, राज खुलने पर भी फक्र से सीना ताने खड़े हो?”
याकूब बिना कुछ कहे मौन खड़ा मुस्कुराता रहा। तभी दस सैनिकों ने भाला लिए उसे चहुं ओर से घेर लिया।
“तुम्हें सच में लगता है तुम मुझसे कोई राज उगलवा लोगे?” याकूब अब भी सीना ताने हुए था।
कासिम चलकर उसके निकट आया और उसकी आँखों में ध्यान से देखा, “तेरी आँखों में तो अब भी कोई खौफ नहीं है। दाद देनी पड़ेगी।” कासिम ने उसके बाल पकड़कर खींचे, “बड़ी सख्त खाल लगता है। तू कुछ उगले या ना उगले, पर याद रहे जितना दर्द हमारे उस सिपाही ने बर्दाश्त किया है तुझ पर उससे सौ गुना जुल्म किये जायेंगे।”
“तुमने तो अपने ही हाथों से अपने एक सिपाही को खत्म कर दिया। मैं तो एक नौसिखिया हूँ, कुछ महीनों पहले ही गुप्तचर दल का भाग बना था। कभी सोचा है और कितने जासूस होंगे तुम्हारी फौज में, क्या पता वो मुझसे कहीं ज्यादा काबिल हों?” याकूब ने हँसते हुए कहा।
अलाउद्दीन और कासिम दोनों ही चकित रह गये। पर कासिम को शत्रु के सामने भयभीत दिखना स्वीकार नहीं था। उसने याकूब के बाल छोड़ उसे पीछे धकेला, “तू उसकी फिक्र न कर। तेरे जैसे हर जासूस को ढूँढकर निकालेंगे, और तेरी तरह मारने से पहले उन्हें जहन्नुम का दीदार जरूर कराएंगे।”
हँसते हुए याकूब भूमि से उठा, “सुर्जन नाम है मेरा। और एक क्षत्रिय सैनिक को भी गुलामी की जंजीरों में बांध ले तुममें वो जोर नहीं, मुहम्मद बिन कासिम।”
गर्जना करते हुए सुर्जन ने स्वयं को घेरे हुए एक सैनिक को चौंकाते हुए उसका भाला छीना और एक ही क्षण में उसका कण्ठ भेद डाला। अकस्मात ही उसका बढ़ा हुआ साहस देख कासिम भी आश्चर्य में पड़ गया।
“कैद कर लो इसे।” कासिम गुर्राया।
कासिम के आदेश पर उसके बचे हुए नौ सैनिक भालों से घेरा बनाने लगे। सुर्जन बिना भय के उन सब पर प्रहार करने लगा। अरबी सैनिक उसके कंधे और हाथ पर घाव कर उसे गिराने के प्रयास में थे। वहीं सुर्जन ने दो और अरबी सैनिकों की छाती और कण्ठ पर गंभीर घाव किये। अपने सैनिकों को हताहत होता देख कासिम खुद आगे बढ़ा और सुर्जन का भाला पकड़ लिया। अवसर देख सुर्जन ने बिना एक क्षण गँवायें कासिम की कमर से लटक रहे खंजर को लपका और उस पर प्रहार करने का प्रयास किया। बचते हुए कासिम ने उस खंजर को पकड़ा और सुर्जन की गर्दन अपनी काँख में दबा ली, “अब बता तुझे मेरे कहर से कौन बचायेगा? तू शिकस्त खा गया नामाकूल।”
स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करता सुर्जन अब भी हँस रहा था, “तूने अपने ही एक फौजी को इतना तड़पाया कि वो बगावत पे उतरकर तुझ पर ही हमला करने को झपट पड़ा। इतना ही काफी है मेरी जीत का डंका बजाने के लिए। अब तू ये सोच कि जब तेरे सैनिकों को इसकी भनक लग़ेगी तो उनमें से कौन-कौन बागी हो जायेगा। और क्या पता आग में घी डालने के लिए हमारे कितने गुप्तचर तेरी टोली में मौजूद होंगे?”
सुर्जन की गर्दन पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए कासिम ने अपने सैनिकों की ओर देखा जिन पर वो सबसे अधिक विश्वास करता था। सातों सैनिक संशय की दृष्टि से एक-दूसरे को देख रहे थे। उनका ये व्यवहार देख कासिम का ध्यान कुछ क्षण के लिए बँटा । इतने में ही सुर्जन ने उसके हाथ में थमी कटार छीनकर उस पर आक्रमण करना चाहा। किन्तु समय रहते कासिम संभल गया और एक ओर हटकर उसके वार से बचते हुए अपने जूते में छिपी एक छुरी निकाली और अगले ही पल सुर्जन की गर्दन पर चला दी।
गले से रक्त के फव्वारे छोड़ता सुर्जन भूमि पर गिर पड़ा। अपनी आखिरी साँस लेते वक्त उसके मुख पर विजय का उन्माद देख कासिम की भौहें तनी हुई थीं।
अलाउद्दीन उसके निकट आया और व्यथित स्वर में कहा, “हमें जल्द से जल्द अपनी सेना में छिपे जासूसों का पता लगाना होगा, कासिम।”
कासिम ने दृढ़ होकर कहा, “हमारी फौज में कोई जासूस नहीं है, उस्ताद। यकीन मानिए, ये इकलौता था, जिसे पहले से ही पकड़े जाने का अंदाजा था। नसीर को मरवाने के पीछे इसका यही तो मकसद था। ताकि ये हमारी फौज में गलतफहमियाँ पैदा करके उनमें फूट डलवा सके।”
“तुम्हें पूरा यकीन है ?” अलाउद्दीन ने संशय जताया। “बिल्कुल।” उसने बचे हुए सात सैनिकों की ओर देख कठोर स्वर में बोला, “एक-दूसरे को शक की नजर से देखना बंद करो। ये बदजात हिन्दुस्तानी यही चाहता था।”
“जी हुजूर।” सैनिकों ने सहमति जताई।
कासिम ने उन्हें जाने का इशारा किया। उन सैनिकों के जाने के कुछ क्षण उपरान्त अलाउद्दीन ने सवाल किया, “अब आगे क्या करना है ?”
कासिम ने सुर्जन के शव को घूरते हुए कहा, “एक बात तो माननी पड़ेगी, उस्ताद। गजब की तैयारी के साथ आया था ये कमबख्त। हमारे तौर तरीके, बोलने का अंदाज, सब मालूम था इसे। यहाँ तक कि एक ही दिन में इसने एक ऐसे फौजी को भी, खोज निकाला जिसे अपने मकसद के लिये ये अपना शिकार बना सके। वाकई तारीफ के काबिल था ये शख्स।”
सुर्जन के शव को घूरते हुए कासिम ने कुछ क्षण और सोचा, “इस जासूस ने एक काम तो सही किया। सिंध को हराने की तरकीब सुझा दी।”
“वो कैसे?” अलाउद्दीन ने आश्चर्य में भरकर पूछा।
“बस देखते जाईये, उस्ताद।” मुस्कुराते हुए कासिम जंगल से बाहर की ओर निकला।
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अपने शाही तख्त पर बैठा सुल्तान अलहजाज अपने गले में पड़े जेवर पर हाथ फेरते हुए अपने नीचे के तख्त पर बैठे चार हाकिमों को घूरे जा रहा था, “हमारे सब्र का बांध टूट रहा है, कहाँ है मुहम्मद बिन कासिम?”
उनमें से एक हाकिम ने अपने तख्त से उठकर कहा, “आप अब भी उस बड़बोले पर भरोसा कर रहे है। आपको सच में लगता है कि जिस सिंध पर पिछले सत्तर सालों में फतह नहीं पा सके, वो कासिम उसे जीतने की तरकीब एक दिन में ले आयेगा?”
“तुम तो खामोश ही रहो, ‘रहमत अली’। ये भूल मत जाना कि जिन फारसियों के आगे तुम अपनी बुजदिली दिखाकर डरकर भाग आये थे, मुहम्मद बिन कासिम ने ही वहाँ फतह का परचम लहराया है।”
सुल्तान का कटाक्ष सुन रहमत अली नाम का वो हाकिम खामोश होकर तख्त पर वापस बैठ गया और भौहें सिकोड़े कासिम की प्रतीक्षा करने लगा।
“सुल्तान का इस्तेकबाल बुलंद हो।” दरबार में कदम रखते ही कासिम सुल्तान अलहजाज के करीब आया और उनके दायें हाथ को अपनी आँखों से लगाया।
सुल्तान ने उसे उम्मीद भरी नजरों से देखा, “हमें जवाब का इंतजार है, कासिम।”
कासिम ने मुस्कुराते हुए दृढ़ होकर कहा, “मैं आपके सारे सवालों के जवाब लेकर आया हूँ, सुल्तान। और मेरी पहली दरख्वास्त ये है कि आप सिंध के सुल्तान की बात मानकर अपनी सारी चौकियों की फौज वापस बुला लें।”
यह सुनकर अलहजाज की भौहें तन गयीं, “तुम चाहते हो हम उस नामाकूल की धमकी के आगे शिकस्त कबूल कर लें ?” हाकिम रहमत अली ने उठकर हँसते हुए कासिम की ओर देख ताना मारा, “और आप मुझे बुजदिल कह रहे थे, सुल्तान?” कासिम ने घूरकर रहमत अली की ओर देख, फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ सुल्तान की ओर मुड़ा, “अपनी तरकीब यहाँ दरबार में सबके सामने जाहिर करना मुनासिब नहीं, सुल्तान। अगर आपको कासिम की वफादारी पर यकीन है तो हमारी दरख्वास्त है कि आप हमारे साथ आयें।”
सुल्तान ने पहले तो भौहें सिकोड़ीं, फिर खुद पर काबू कर कासिम को सहमति का संकेत दिया।
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शीघ्र ही अलहजाज और कासिम एक खुले मैदान में आये जहाँ लगभग पंद्रह हजार अरबी सैनिक उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे।
“ये सब यहाँ किसलिए आये हैं?” अलहजाज उन सैनिकों को देख आश्चर्य में था।
“ये वो फौज है आलमपनाह जो सिंध पर फतह हासिल करेगी।”
अलहजाज की भौहें तन गयीं, “हम यहाँ मजाक करने नहीं आये, कासिम। जिस सिंध को एक लाख की फौज नहीं जीत पायी, उन्हें ये मुट्ठीभर सिपाही जीतेंगे?”
“यकीनन जहाँपनाह, आप एक बार को हमारी तरकीब तो सुन लीजिये।” कासिम ने विनती की।
सुल्तान ने उसे कहने का संकेत दिया। कासिम ने इशारा करके सिपाहियों के दल से पंद्रह लोगों को आगे बुलाया। उन्हें और सुल्तान को लेकर कासिम एक निकट पड़ी मेज के पास गया जहाँ भारतवर्षं का मानचित्र बना हुआ था। उस मानचित्र को संकेत करते हुए कासिम ने कहा, “फौजें बहुत कुर्बान कर लीं, आलमपनाह। अब वक्त है कि हिंदुस्तानियों की जड़ें अंदर से ही खोदीं जायें।”
“हम सुन रहे हैं।” सुल्तान अलहजाज का ध्यान मानचित्र की ओर था।
“तो शुरुआत करते हैं सिंध से। आपको याद होगा सुल्तान कि लगभग सालों पहले सिंधियों से हमारी दुश्मनी क्यों शुरू हुई थी।”
“उसकी तो एक नहीं कई वजह है। बात तब शुरू हुई जब देबल के बंदरगाह पर हमारे सौदागरों पर सिंधियों ने हमले शुरू कर दिए थे। बाद में मालूम हुआ कि उन सौदागरों की हिफाजत करने वाले अरबी फौजियों ने ही वहाँ की आवाम की कई औरतों की इज्जत पर हमला किया था। और वो हमला सिंधियों ने अपने कुनबे की हिफाजत के लिए किया था। उसके बाद समुद्री लुटेरों ने सिंघल से हमारे लिए भेजे गए कई जहाज लूटे और सिंध के बादशाह ने हमारी धमकी के बावजूद हमारी कोई मदद नहीं की। दुश्मनी की शुरुआत तो हो चुकी थी और सिंध को जीतने से हिंदुस्तान को जीतने का रास्ता भी खुल जाता, इसलिए पीछे हटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। मामला तब संगीन हुआ जब खिलाफत से गद्दारी करने वाले मोहम्मद बिन हरिस अलाफी और माविया बिन हारिस अलाफी को उस दाहिर सेन ने पनाह दी, और हमारी धमकी के बावजूद उन गुनहगारों को हमारे हवाले नहीं किया।” अलहजाज ने तन कर कहा।
“जी आलमपनाह। तो फिलहाल सिंध के सियासी किस्से की बात करते हैं। सिंध के सुल्तान साहसी राय के इंतकाल के बाद उसके बेऔलाद होने की वजह से उसका मंत्री एक कश्मीरी ब्राह्मण चच उसके तख्त पर बैठा और साहसी राय की बेवा सोहन्दी को अपनी बेगम बनाकर अपनी हुकूमत शुरू की।
पर उस चच ने लोहाणों, गुर्जरों और जाट कुनबों को बेइज्जत कर सारे आला दर्जे के ओहदों से हटा दिया। आवाम में खटास बढ़ी फिर भी चच ने अपनी सल्तनत कमजोर नहीं होने दी और चालीस साल तक हुकूमत की।”
कासिम ने कहना जारी रखा, “चच की मौत के बाद उसके भाई राय चंदर ने तख्त संभाला और बौद्ध धर्म को अपनी सल्तनत का मजहब बना दिया। इस पर वहाँ का ब्राह्मण कुनबा भी भड़क गया। और यही वजह थी कि वो केवल आठ साल तक राज कर पाया।”
“आठ सालों बाद चच के बेटे राय दाहिर सेन ने सत्ता संभाली और अपने वालिद चच और चाचा चंदर के सारे गैरवाजिब फैसलों को पलट दिया। फिर से सिंध में हिन्दू मजहब काबिज हुआ और सारे कुनबों को काबिलियत देखकर ओहदे दिए जाने लगे और इससे सिंध की सरजमीं और मजबूत होती गयी। साथ में सभी मजहबों को बराबर की इज्जत बख्शी जाने लगी।”
“तुम्हारा इशारा किस ओर है कासिम ?” अलहजाज को अब भी कासिम की बातें समझ नहीं आईं।
“बताता हूँ, आलमपनाह। पहले इन सिपाहियों की ओर देखिये।” कासिम ने सामने खड़े पंद्रह हजार सिपाहियों की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये सारे सिपाही अब हिंदुस्तान की सरजमीं की ओर निकलने वाले हैं। डेढ़ सौ अलग-अलग दस्तों में बँटकर ये सौ-सौ की टुकड़ी समुद्र के रास्ते हिंदुस्तान के कोने कोने में जायेंगे और सौदागर बनकर हिंदुस्तानियों में घुल मिलकर उनका रहन-सहन, बोलने का ढंग सब कुछ सीखेंगे।”
अलहजाज मौन होकर बड़ी रुचि से कासिम की बात सुनते रहा। उसे स्वयं पर विश्वास करता देख कासिम ने दोगुने उत्साह से आगे कहना आरम्भ किया, “तीन सालों तक हिंदुस्तान के कोने कोने में रहकर उनका रंग ढंग सीखने के बाद ये सारे के सारे धीरे-धीरे करके सिंध में आयेंगे। इनमें से कुछ सिंध की फौज में भर्ती होंगे, कुछ लोहार बनकर हमारे दुश्मन की फौज के हथियार कमजोर करेंगे। कुछ सौदागर बनकर अनाज में मिलावट करेंगे। और ऐसे ही हम सिंध की नींव को हिलाना शुरू करेंगे।”
“तुम्हारी तरकीब लम्बा वक्त लेने वाली है और कारगर भी लग रही है। पर ये सब बस कहने में आसान लग रहा है। तुम्हें सच में लगता है ये सब करते वक्त किसी को इन पर शक नहीं होगा?” अलहजाज ने संदेह जताया।
“शुरुआत में तो नहीं होगा, जहाँपनाह। हिंदुस्तानियों का एक उसूल है कि वो मेहमान को खुदा का दर्जा देते हैं। इसलिए अलग-अलग रियासतों में गये मुट्ठी भर सौदागरों का मकसद कोई न जान पायेगा।”
इसके बाद कासिम ने आगे आये हुए पंद्रह खास सिपाहियों की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये पंद्रह तालुकदार ही हमारी कामयाबी की चाभी हैं, आलमपनाह।”
अलहजाज ने उनकी ओर आश्चर्य से देखा, “पर तालुकदार का काम तो आवाम और कब्जे में की गयी सल्तनत से महसूल इक्कठा करना है। ये हथियार लिए क्या कर रहे हैं?”
“यही तालुकदार तोहफों के साथ सिंध के सुल्तान के पास जायेंगे और उन्हें ये पैगाम देंगे कि हम सिंध की सरजमीं से अपने सारे खेमे हटाने को तैयार हैं।”
कासिम की बात सुन अलहजाज ने भौहें सिकोड़ीं, फिर भी उन्होंने कासिम को आगे कहने का संकेत किया।
“दाहिरसेन तक फौज हटाने का पैगाम पहुँचाने के बाद ये लौटने के बजाए सिंध में ही छिप जायेंगे और तीन सालों बाद जब हमारे पंद्रह हजार सिपाही कामयाब होकर अपना भेष और रंग ढंग बदले सिंध आना चाहेंगे। तो यही लोग समुद्र के रास्ते धीरे-धीरे उनकी वहाँ पहुँचने में मदद करेंगे। और यही लोग हमारे सिपाहियों को सिंध की आवाम में कुछ ऐसा घोलेंगे कि उनका आगे का रास्ता बहुत आसान हो जायेगा।”
सुल्तान अलहजाज के चेहरे पर अब भी असंतुष्टि का भाव था। कासिम ने मुस्कुराते हुए उसे आश्वस्त किया, “फिक्र मत करिए सुल्तान। इस काम के लिए देबल में हमारा एक और मददगार मौजूद है।”
“क्या? कौन है वो?” अलहजाज को थोड़ा आश्चर्य हुआ।
“मैंने आपको सिंध का सियासी किस्सा इसीलिए सुनाया था, आलमपनाह। ताकि आप हमारी तरकीब को पूरी तरह समझ सकें। दाहिर सेन के चाचा राजा राज चंदर ने सत्ता में आकर अपनी हुकूमत में बौद्ध धर्म का ओहदा बाकि सबसे ऊँचा कर दिया था, पर दाहिर ने तख्त पर बैठते ही वापस सबको बराबरी पर ला दिया। यही बात कई बौद्धों को बर्दाश्त नहीं हुई। उनमें से ही एक है देबल के किले का सूबेदार ज्ञानबुद्ध और उसका कुनबा। जो मन ही मन दाहिरसेन से नफरत करते हैं। पर अपने सूबेदार के ओहदे को बचाये रखने के लिए ज्ञानबुद्ध दाहिरसेन की खुशामद करता रहता है।”
साँस भरते हुए कासिम ने सिंध के मानचित्र पर हाथ फेरते हुए कहा, “सच कहूँ तो उस्ताद अलाउद्दीन और उनके साथियों की सिंध में चौकियाँ बनाने में इसी ज्ञानबुद्ध ने मदद की। जमीन के रास्ते तो हमारी फौज की बड़ी-बड़ी टुकड़ियाँ गयीं ही थीं पर देबल के बंदरगाह में भी ऐसे कई खुफिया रास्ते हैं जहाँ ज्ञानबुद्ध ने सिंध की फौज हटाकर अपने वफादार सिपाहियों को तैनात किया हुआ है। जहाँ से पहले भी हमारा फौजी दस्ता भेष बदले सिंध में घुसकर अपने खेमे बना चुका है। दाहिर सेन इसकी सच्चाई न जानते हुए अब भी इस पर भरोसा करता है, और अब देबल का यही सूबेदार ज्ञानबुद्ध हमारी कामयाबी की पहली सीढ़ी बनेगा।”
“जब पूरे सिंध की नींव अंदर से कमजोर हो जायेगी तब हम उसके सीने पर वार करेंगे।” अपने चेहरे पर हैवानियत भरी मुस्कुराहट लिए कासिम ने हरे रंग का झण्डा सिंध के मानचित्र में गाड़ दिया, “आप बस अपनी फौज तैयार रखियेगा, जहाँपनाह।”
सुल्तान अलहजाज के चेहरे पर मुस्कान छा गई, “तरकीब तो बड़ी वाजिब है तुम्हारी, मुहम्मद बिन कासिम। पर ये याद रहे कि सिंध से अपने सारे खेमे हटाकर हम अपने गुरूर से समझौता कर रहे हैं। चार महीने से हमने सिंध के दर उल हुकूमत अलोर की घेराबंदी कर रखी है, उसे छोड़कर वापस आना बहुत मुश्किल है।”
“उन चार महीनों में हमारे उन साठ हजार सिपाहियों ने कई बार अलोर के किले पर फतह हासिल करने की कोशिश की है। पर हर बार नुकसान हमारा ही ज्यादा हुआ। अब तक बीस हजार सिपाही शहीद हो चुके हैं पर हम अलोर के किले के दरवाजे तक पहुँच भी नहीं पाये। उस किले की रखवाली दाहिरसेन का बेटा जयशाह करता है जो एक बहुत ही काबिल सिपहसालार है। सुना है उसने किले में ही कई गाये भी पालीं हैं और छोटी मोटी फसलें भी उगा रखी हैं जिससे उस किले में रसद की कभी कमी नहीं पड़ेगी। और ऐसे किले को जीतना लगभग नामुमकिन है। हमें उन्हें अंदर से ही खोखला करना होगा। इसलिए मुझ पर भरोसा करके देखिए, आलमपनाह। ज़बान देता हूँ, अगले पाँच सालों में पूरा सिंध हमारा होगा।”
“पाँच साल? चलो मान लिया। पर तुम ये भूल रहे हो कि सिन्धुराज की सबसे बड़ी ताकत मेवाड़ी फ़ौज है, जिसकी तादाद एक लाख से ज्यादा है। मुझे तो अब भी नहीं लगता कि उस फ़ौज के रहते उन पर फतह हासिल की जा सकती है।”
“आपने सही फ़रमाया, हुजुर। मेवाड़ी फ़ौज के रहते हम सिंध पे फतह हासिल नहीं कर सकते।”
“तो तुमने उसके लिए भी तरकीब सोच रखी है ?” “बेशक हुजुर, बेशक।”
कासिम के मुख पर छायी दृढ़ता देख अल्हजाज ने उसके कंधे थपथपाये, “तो फिर अब बाकी के सवाल पाँच साल बाद होंगे।”
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शाम को कासिम ने मस्जिद में नमाज पढ़ी और वहाँ से होकर शाही महल के दरबार में पहुँचा। पूरे दरबार में शांति और शाही लिबास में पगड़ी पहने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता एक उम्रदराज व्यक्ति तख्त पर बैठे कासिम को आते देख गुस्से में दाँत पीस रहा था।
शीघ्र ही मुहम्मद बिन कासिम ने वहाँ आकर उसे सलाम किया, “उम्मयद के खलीफा अल वालिद बिन अब्दुल मलिक का इस्तेकबाल बुलंद हो।”
“ये बताओ कासिम हमारा ओहदा क्या है?” भारी आवाज में खलीफा ने उससे सवाल किया।
“खिलाफत के उसूल को मद्दे नजर रखते हुए खलीफा का मशवरा लिये बिना बगदाद के सुल्तान कोई फैसला नहीं कर सकते। तो देखा जाये तो आपका ओहदा सुल्तान से कहीं ज्यादा है।”
अल वालिद ने भौहें सिकोड़ीं, “फिर भी हम ये क्या सुन रहे हैं कि सुल्तान अलहजाज ने हमारी मंजूरी लिये बिना सिंध से फौज को हटाने का फैसला किया है?”
“तो खबर आप तक पहुँच ही गयी?” साँस भरते हुए कासिम ने कहा, “मैं इसी बात पर आपसे मशवरा लेने आया हूँ, हुजूर। सुल्तान ने अभी तक कोई फरमान जारी नहीं किया है।”
तख्त से उतरकर खलीफा कासिम के करीब आये, “तुम एक जंगजू हो, कासिम। तुम्हारी जिंदगी का केवल एक ही मकसद होना चाहिए। अपने मजहब और रियासत की हिफाजत करने के साथ-साथ सल्तनत की सरहद को बढ़ाने में मदद करना। ताकि हमारी हुकूमत के आगे कोई सर उठाने की जुर्रत न करे, और तुम सुल्तान को सिंध से फौज हटाने का मशवरा दे आये? ताकि हिमालय और इंदु सागर के घेरे में जमी हिंदुस्तान कही जाने वाली उस सरजमीं को ये पैगाम जाये कि हम उनसे डर गये ? तुमसे ये उम्मीद नहीं थी, कासिम।”
“माना आप और आपके चचरे भाई सुल्तान अलहजाज के बीच बहुत तल्खी चल रही है पर आप तो मुझे बचपन से जानते हैं, हुजूर। क्या आपको सच में लगता है मैं अरब सल्तनत की शान पर इतना बड़ा धब्बा लगने दूँगा?”
कासिम की बात सुन खलीफा ने उसे आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा, “तुम कहना क्या चाहते हो?”
“यही कि अगले कुछ सालों में सिंध हमारा होगा।” कहते हुए कासिम ने अपनी योजना समझानी शुरू की।
उसकी कुटिल योजना जान खलीफा की आँखें भी आश्चर्य से बड़ी हो गयीं, “बहुत खूब मुहम्मद बिन कासिम। गलती हुई हमसे जो बचपन से तुम्हें जानने के बावजूद हमने तुम पर शक किया। सुल्तान को हमारा पैगाम दो कि हमें उनकी ये मुहिम मंजूर है। अब सिंध पर फतह हासिल करके ही लौटना, कासिम । उसके बाद पूरे हिंदुस्तान पर कब्जा करने की हमारी मुहिम शुरू होगी। हम ये साबित करेंगे कि जिस सरजमीं को सिकंदर जैसे बड़े-बड़े सूरमा न जीत पाए, वहाँ अरबी जाबांजों ने अपनी कामयाबी का झण्डा लहरा दिया।”
कासिम घुटनों के बल झुका और खलीफा के हाथ चूमे, “शुक्रिया जनाब, इस मुहिम के लिये बंदा जान लड़ा देगा।”
“हमारी एक और माँग है, कासिम।”
“फरमाइए, हुजुर।”
“दाहिरसेन ने खिलाफत की शान में गुस्ताखी की है। इस बेइज्जती के बदले, उसकी तीनों बेटियां, यानि सिंध की शहजादियाँ हमें हमारे क़दमों में चाहिए। ला पाओगे ?”
कासिम ने खलीफा की आँखों में आँखें डालकर पूरे विश्वास से कहा, “वादा करता हूँ, फतह के बाद उन्हें कोई हाथ तक नहीं लगाएगा। वो सीधा आपकी खिदमत में पेश की जायेंगी।”
To be continued..