तृतीय अध्याय
कालभोजादित्य रावल
कुछ दिनों की यात्रा के उपरान्त कालभोज (बप्पा रावल) नागदा ग्राम की सीमा पर आया। भीलों के कारवां के साथ चलते हुए अकस्मात ही उसने अपने अश्व की धुरा खींच उसे रोककर बाकि भीलों से कहा, “आप लोग चलिए मैं आता हूँ।”
भीलों ने गाँव के भीतर प्रवेश किया। वहीं कालभोज ने अपना अश्व दूसरी दिशा में मोड़ लिया। कुछ कोस दूर चल वो एक नदी के पास रुका। अपने अश्व से उतरकर वो तट पर पहुँचा और अपने सर पर रखा शिरस्त्राण उठाए उसके भीतर देखा। उसके भीतर चंदन की एक डिबिया यूँ गुदी हुई थी मानों वो उसी का भाग हो। उसे किसी स्मृति चिन्ह की भाँति देख कालभोज मुस्कुराया, और उसे नीचे रख अपने मुख पर जल के छींटे मारे। हाथ से मुख को पोछते हुए उसके नेत्रों को देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों साबरमती की शीतलता से अपने अंदर के ज्वालामुखी की आँच धीमी करने का प्रयास कर रहा हो। जल में हाथ फेरते हुए अपने प्रतिबिंब को देख अकस्मात ही उसके नेत्र आश्चर्य से फैल गये। उसके प्रतिबिंब के स्थान पर राजसी वस्त्रों में एक अनन्य तेजस्वी पुरुष मुस्कुराते हुए कालभोज को निहार रहे थे। वो मुख देख उसके मुख पर मुस्कान सी आ गयी, ऐसा लगा जैसे उसने वो मुख पहले भी कभी देखा हो। किन्तु कुछ क्षणों उपरान्त ही प्रतिबिंब में दिख रहे उस पुरुष का शरीर रक्तरंजित सा दिखने लगा, और शीघ्र ही उस पुरुष की छाया नदी में ही घुलते हुए जल के छोटे से भाग को रक्त से लाल कर गयी।
कंधे पर एक हाथ पड़ते ही अकस्मात ही तट पर बैठे कालभोज की मानों चेतना लौट आयी। उसने पलटकर देखा तो एक नवयुवक को अपने समक्ष खड़ा पाया, “राजकुमार ‘सुबर्मन’ आप?”
आयु में वो कालभोज से कुछ वर्ष बड़ा प्रतीत हो रहा था। वस्त्र तो साधारण ही थे किन्तु मुखमंडल से किसी राजकुटुंब का ही जान पड़ रहा था। वो कालभोज के निकट आकर बैठा और जल की ओर देखते हुए बोला, “प्रतीत होता है अतीत के घावों को जल में प्रतिबिंब के रूप में देख रहे थे। अब प्रश्न ये है कि साबरमती की ये शीतलता तुम्हारी पीड़ा कम कर रही है, या तुम्हारे हृदय की अग्नि इस पर भी हावी हो रही है?”
कालभोज उसकी ओर देख मुस्कुराया, “आपका चातुर्य वास्तव में प्रशंसनीय है, कुमार।” श्वास भरते हुए उसने नदी की ओर देखा, “किन्तु जब तक मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल जाते, तब तक कदाचित इस धारा की शीतलता में भी वो सामर्थ्य नहीं जो मेरे मन की इस अग्नि को शांत कर सके।”
कुछ क्षणों तक विचलित हुए कालभोज को देखने के उपरान्त सुबर्मन ने झेंपते हुए कहा, “वैसे तुम मुझे कुमार कहना बंद करोगे? यहाँ न कोई राजकुमार है, ना कोई दास। हम सब हरित ऋषि के शिष्य हैं।” कहते हुए उसने अपने हाथ में थमे बांस के सरकंडे से तट की मिट्टी को खोदते हुए कहा, “स्मरण है न, बाल्यकाल में यूँ तट से खोद-खोद कर मिट्टी निकालना और उस गीली मिट्टी से महल बनाना हमारा प्रिय खेल हुआ करता था?”
कालभोज मुस्कुराया, “स्मरण तो है। बाल्यावस्था में जब कोई अतीत हृदय विदारक या विभत्स दृश्य स्वप्न में पीड़ा देता था। तब ये विचार कर ही मैं कुछ समय सुख की नींद सो लेता था कि अगले दिन प्रातः काल स्नान के समय हमें ये मिट्टी के महल बनाने को मिलेंगे।”
“जो की हम तीनों की मित्रता का प्रतीक रहे हैं, क्यों?”
सुबर्मन के कथन का संकेत समझ कालभोज ने पीछे की ओर देखा। वृक्ष के पत्तों की सरसराहट सुन उसने मुस्कुराते हुए कहा, “मेरी रुष्टता तुम्हारे पिता से है ‘देवा’, तुमसे नहीं।”
उसका कथन सुन वृक्ष के पीछे छिपा एक बालक निकलकर सामने आया। श्वेत वस्त्र और पगड़ी पहने शरीर से गेहुएँ रंग का वो बालक कालभोज की ही आयु का प्रतीत हो रहा था, किन्तु कद काठी में उससे कम ही था। धीरे-धीरे अपने मन में शंका का भाव लिये वो सुबर्मन के निकट बैठ गया।
मुस्कुराते हुए कालभोज ने हाथ बढ़ाकर सुबर्मन से सरकंडा माँगने का संकेत किया मानों उसे ज्ञात हो कि वो अपनी काँख में क्या छिपाकर लाया है। सुबर्मन ने एक सरकंडा उसके हाथ में रखते हुए अपनी बगल में छिपाकर रखे हुए दो सरकंडे और निकाले और एक देवा के हाथ में दिया।
यह देख कालभोज चकित रह गया, “तो आप पहले से योजना..। वास्तव में दाद देनी पड़ेगी आपकी तीक्ष्ण बुद्धि की।” “वैसे मैंने ये नहीं सोचा था कि मेरे स्थान पर तुम ही इसकी पहल कर दोगे।”
देवा ने सरकंडे को तट की मिट्टी की ओर लक्ष्य कर कहा, “तो प्रतियोगिता आरम्भ करें?”
कालभोज भी मुस्कुराते हुए पालथी मारकर बैठा और गीली मिट्टी की ओर लक्ष्य कर बोला, “कुछ सुनहरी स्मृतियाँ को पुनर्जीवित करने का इससे उत्तम अवसर प्राप्त नहीं हो सकता।”
उसके इतना कहते ही तीनों एक साथ भूमि पर सरकंडे मारकर मिट्टी खोदने लगे। पहली मिट्टी का ढेर लेकर तीनों ने बारी-बारी से समानांतर दिशा में अपने-अपने महल की नींव रखी। फिर धीरे-धीरे वो मिट्टी खोदकर लाते गये और अपने-अपने महल बनाते गए। सर्वप्रथम कालभोज ने अपना महल बनाकर हाथ उठाया। सुबर्मन और देवा ने भी एक साथ ही महल का आखिरी ढाँचा बनाया।
“दो क्षण का विलंब हो गया अन्यथा इस बार तुम पराजित होने वाले थे, कालभोज।” खीजते हुए देवा पीछे हटा।
“इतने वर्षों में तो तुम सफल हुए नहीं, तो आज क्या तुम्हारा जन्मदिवस है जो मैं तुम्हें विजय का उपहार दूँगा।” कालभोज ने तंज कसते हुए कहा।
देवा झेंप गया। वहीं सुबर्मन मुस्कुराता रहा। कालभोज ने उसकी ओर आश्चर्य भाव से देखा, “पहले कभी पराजित होने के उपरान्त आपको इतना प्रसन्न नहीं देखा।” “मन में कुछ प्रश्न थे जिसके उत्तर चाहिए थे, सो मिल गये।”
सुबर्मन को मुस्कुराता देख कालभोज विचारमग्न सा हो गया, “तो क्या ये किसी प्रकार का परीक्षण था?”
“तुमने सदैव की ही भाँति आज की इस प्रतियोगिता में विजय के लिए पूरे मन से प्रयास किया।” कहते हुए वो देवा की ओर मुड़ा, “अब ये सिद्ध हो चुका है कि रावल के हृदय में तुम्हारे लिए कोई कड़वाहट नहीं है।”
कुछ क्षण विचारकर रावल ने साबरमती की ओर दृष्टि उठाकर देखा, “फिर भी अपने प्रश्नों का उत्तर पाये बिना मेरा मन शांत नहीं होने वाला।”
सुबर्मन ने निकट आकर उसे समझाने का प्रयास किया, “मैं समझता हूँ पिछले एक मास में जो अतीत के सत्य सामने आये हैं, वो सहन करना किसी के लिए भी सरल नहीं है। किन्तु देवी तारा की अस्थियों को अब और प्रतीक्षा करवाना उचित नहीं।”
कुछ क्षण साबरमती की ओर देख अपने मन को शांत कर कालभोज ने सहमति जताई, “उचित कहा आपने। इस समय मेरे प्रश्नों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उस देवी को अंतिम सम्मान देना है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन निस्वार्थ भाव से मुझे समर्पित कर दिया।”
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एक मास पूर्व (नागदा ग्राम)
भीलों का सरदार बलेऊ पचास भीलों और परिवार की स्त्रियों के साथ महाकाली की आरती में संलग्न था। तभी दौड़ता हुआ एक भील वहाँ आया और एक, दूसरे भील को सूचित किया, “गुहिलवंशियों का दल आक्रमण करने वाला है। उनके पास भले ही केवल तीन सौ सिपाही हैं, पर हमारी सेना दो पहाड़ों के उस पार अभ्यास में लीन है। वो इतनी शीघ्रता से यहाँ नहीं पहुँच पायेगी।”
दूसरे भील ने उसे समझाते हुए कहा, “महाकाली के पूजन में व्यवधान उत्पन्न करना अत्यंत अमंगलकारी हो सकता है। ये पूजन तो रोका नहीं जा सकता। संकट का संकेत देने के लिए धुंध उठाओ, बाकि देवी माँ की इच्छा।”
उस भील ने सहमति में सिर हिलाया और दूसरे भीलों के साथ लकड़ियाँ इकठ्ठी करने लगा। शीघ्र ही लकड़ियों के गठ्ठर इकठ्ठी करके उन्हें आग लगा दी गयी। उससे उठता हुआ धुंध आकाश में फैलते हुए कई मील दूर तक दिखने लगा।
ऊँची-ऊँची चट्टानों पर शस्त्राभ्यास करते भीलों की दृष्टि शीघ्र ही उस धुंध पर पड़ी। उनके साथ अभ्यास करते कालभोज ने तत्काल ही अपने शस्त्रों को विराम दिया और ऊँची चोटी पर चढ़कर खड़ा हो गया। शीघ्र ही देवा भी उसके निकट आकर खड़ा हो गया।
तलवार पर अपनी पकड़ मजबूत कर कालभोज ने चोटी से नीचे की ओर देखा, ढलान से उतरना सरल नहीं था। फिर सामने के ऊँचे पर्वत की ओर देखकर देवा से कहा, “काली पूजन का समय है ये, पूजन सम्पन्न होने से पूर्व भील शस्त्र नहीं उठायेंगे। सेना समय पर पहुँच पायेगी या नहीं कहना कठिन है, फिर भी तुम उन्हें लेकर जाओ देवा।”
सहमति जताते हुए देवा सेना एकत्र करने के उद्देश्य से चोटी से नीचे उतरा। कालभोज अभी विचारों में ही था तभी सुबर्मन भी धनुष बाणों का एक जोड़ा लिए उसके साथ चोटी पर आ खड़ा हुआ। उसने एक धनुष और बाणों से भरे तुरीण को कालभोज को देते हुए कंधे उचकाये, “तैयार हो जाओ।”
कालभोज ने तुरीण को कंधे पर टाँगा और पहाड़ी के नीचे की ढलान की ओर देखा, “आपको ये संकट मोल ले लेने की आवश्यकता नहीं है, राजकुमार सुबर्मन।”
सुबर्मन ने मुस्कुराते हुए धनुष पर पकड़ मजबूत की और एंठ दिखाते हुए कहा, “मत भूलो, परमारों की ये विशिष्ट कला मैंने ही तुम्हें सिखाई है।” कहते हुए सुबर्मन ने अपना एक पाँव बढ़ाया और एक लम्बी रस्सी से बंधा बाण कालभोज के हाथ में दिया और स्वयं भी वैसा ही एक बाण निकालकर उससे जुड़ी रस्सी को अपनी कमर पर बांध कालभोज को संकेत दिया। तत्पश्चात उसने ढलान के नीचे कई ऊँचे-ऊंचे टीलों को ध्यान से देखा, कदाचित वो उस टीले को खोज रहा था जहाँ से छलांग लगाना श्रेयस्कर हो।
कालभोज ने भी अपने बाण से जुड़ी रस्सी के भाग को अपनी कमर पर बांधा और सहमति का संकेत दिया। दोनों ने क्षणभर को पहाड़ी से नीचे की ढलान की ओर देखा, फिर अगले ही क्षण दौड़ पड़े। संकरीले मार्ग पर सैकड़ों गज नीचे दौड़ते हुए सुबर्मन को शीघ्र ही कुछ दूरी पर ऐसा टीला मिल ही गया जहाँ से छलांग लगाकर सफलता प्राप्त हो सकती थी। गति का बहाव कम न हो इसलिए टीले के निकट पहुँचते ही उसने एक पाँव टीले पर रख छलांग लगाते हुए रस्सी वाला बाण सामने वाले पर्वत की ओर चलाया। वो बाण सीधा सामने वाले पर्वत के दो सौ गज ऊँचाई पर जा धंसा और उससे लटकते हुए सुबर्मन शीघ्र ही उस पर्वत पर पहुँच गया।
कुछ क्षणों तक दौड़ते हुए कालभोज को भी अपने समक्ष एक ऐसा टीला दिख ही गया, तत्काल ही उसने छलांग लगाई और रस्सी वाला बाण चलाता हुआ सामने वाले पर्वत पर चढ़ आया। रस्सी के सहारे थोड़ी ऊँचाई पर लटक रहे सुबर्मन ने नीचे देखते हुए कहा, “पूरे पाँच गज नीचे हो, भोज।”
कालभोज ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस कुछ समय और, इस विद्या में आपको अवश्य पछाड़ दूँगा।”
“हाँ, क्यों नहीं? देखते हैं तुम कितनी ऊँचाई तक बाण मार सकते हो।” मुस्कुराते हुए सुबर्मन ने दूसरे पहाड़ की ढलान पर गड़े उस बाण को खींचकर निकाला और बिना एक और क्षण गँवाये वही बाण और ऊँचाई पर चलाकर शीघ्र से शीघ्र उस पर्वत पर चढ़ने का प्रयास करने लगा। कालभोज ने भी बिल्कुल वैसा ही किया। इस बार कालभोज का बाण सुबर्मन से बस एक अंगुल नीचे था। उसके सहारे चढ़ते हुए कालभोज ने गर्व से सुबर्मन की ओर देखते हुए कहा, “आपसे पाँच गज नीचे से बाण छोड़ा था मैंने।”
“हाँ, हाँ, ठीक है।” सुबर्मन झेंप गया, “चढ़ाई करते रहो, विलंब हो रहा है।”
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इधर गुहिलवंशी दल के तीन सौ अश्वारोहियों ने काली पूजन करते पचास भीलों को चहुं ओर से घेर लिया। सभी के मुख भूरे वस्त्रों से ढके हुए थे, और सर पर उसी वस्त्र से जुड़ी पगड़ी भी बंधी हुई थी। सभी के शरीर पर भारी लौह कवच चढ़ा हुआ था और किसी के पास शस्त्रों की कमी नहीं थी। रक्षा को खड़े कुछ भीलों ने तलवारें खींच निकाली और उन सैनिकों के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। एक अश्वारोही ने आगे बढ़ने का प्रयास किया, किन्तु सबसे आगे खड़े योद्धा ने उसका हाथ पकड़ लिया जिसे देखते ही उस अश्वारोही ने अपनी दृष्टि झुका ली।
“यहाँ पर स्त्रियाँ और बालक भी हैं। पहले इनका पूजन समाप्त होने दो।” कदाचित वही योद्धा उनका नायक था जिसके एक आदेश पर सारे के सारे अश्व चार-चार कदम पीछे हट गये।
अपने योद्धाओं को पीछे हटने का आदेश देकर उस योद्धा ने अपने मुख पर ढके वस्त्र को हटाया। कान तक को छूती रौबीली मूँछ, ललाट पर तिलक, ऊँची कद काठी और मुख पर ऐसा तेज मानों स्वयं किसी चंदन के सरोवर में स्नान करके आये हों। सर पर भूरी पगड़ी और छाती पर भारी लौह कवच उनके प्रताप के सूचक थे, वहीं कंधे पर टंगे धनुष और बाण उनके शस्त्रों का ज्ञान प्रदर्शित कर रहे थे। महाकाली की आरती करते हुए बलेऊ को देख उनकी सख्त भुजाओं पर उभरती नसें और सिकुड़ती भौहें उनके क्रोध को स्पष्ट दर्शा रहीं थी, किन्तु पूजन में संलग्न किसी व्यक्ति पर प्रहार का अधर्म करना उन्हें भी स्वीकार नहीं था।
शीघ्र ही भीलों का पूजन समाप्त हुआ और पचास भील योद्धाओं के घेरे से निकलकर सरदार बलेऊ शत्रु के नायक निकट आये, “वर्षों के उपरान्त आपको देख आनंद मिला, महामहिम ‘शिवादित्य’। बस ग्लानि इस बात की है आप अब तक अपने अंदर धधकती प्रतिशोध की अग्नि को शांत न कर पाये। किन्तु इस प्रकार पूजन करते हुए रक्षणहीन मनुष्यों की घेराबंदी करना गुहिलवंशियों को शोभा नहीं देता।”
बलेऊ के वचन सुन शिवादित्य की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं, “और तुमने जो छल से हमारे भाई ‘नागादित्य’ की हत्या की वो बड़ा शोभनीय कार्य था, है न बलेऊ ?”
शिवादित्य का कटाक्ष सुन बलेऊ मौन हो गया। तत्पश्चात शिवादित्य ने चहुं ओर दृष्टि घुमाकर देखा फिर वापस भील सरदार की ओर मुड़े, “भले ही वर्षों पूर्व तुमने जो भी छल किया हो, किन्तु हम गुहिल योद्धा शत्रु की विवशता का लाभ उठाने वालों में से नहीं है। वर्षों तक तुम्हें दण्ड देने के इस अवसर की प्रतीक्षा की है हमने, इसलिए यदि अपनी सेना की रक्षा करना चाहते हो, तो हमारी द्वन्द की चुनौती स्वीकार करो। अन्यथा स्त्रियों और बालकों के अतिरिक्त तुम्हारे भील दल में उपस्थित कोई भी पुरुष जीवित नहीं बचेगा।”
बलेऊ ने क्षणभर को पीछे की ओर दृष्टि घुमाकर भीलों को शस्त्र नीचे करने का संकेत दिया। फिर वो वापस शिवादित्य की ओर मुड़ा, “मुझे ज्ञात है आज तक भारतवर्ष का कोई भी योद्धा आपको द्वन्द में परास्त नहीं कर सका है, महामहिम। किन्तु मैं भी अपनी सेना की ओट में छिपकर नहीं बैठूंगा।” बलेऊ ने सहमति जताते हुए अपने साथी भील को शस्त्र लाने का संकेत दिया।
शीघ्र ही बलेऊ ने हाथों में तलवार और ढाल संभाली और शिवादित्य को चुनौती देते हुए कहा, “यदि मेरे रक्त से आपके हृदय की अग्नि बुझ जाये, तो प्रयास करके देख लीजिये।”
बलेऊ को घूरते हुए शिवादित्य अपने अश्व से उतरे और अपने प्रतिद्वंदी को बिना कवच के देख अपना भी कवच उतारकर ढाल और तलवार संभाली, “अपने प्राणों के रक्षण का चिंतन करो, सरदार बलेऊ। मेरे भीतर की ज्वाला तो तुम्हारे रक्त में नहाकर शांत हो ही जाएगी।”
“जैसी आपकी इच्छा।” तलवार पर अपनी पकड़ मजबूत कर बलेऊ दौड़ पड़ा।
गर्जना करते हुए शिवादित्य भी बलेऊ की ओर दौड़े और भूमि पर घुटनों के बल घिसटते हुए आगे बढ़े और उसकी तलवार का प्रहार रोकते हुए ढाल से उसकी छाती पर वार कर उसे चार पग पीछे धकेल दिया। बलेऊ ने संभलते हुए अपनी ढाल संभाली और विद्युत की गति से चलती शिवादित्य की तलवार को बड़ी कठिनाई से अपनी ढाल पर रोका और अपने भुजबल पर विश्वास रख कंधे से शिवादित्य की छाती पर टक्कर मारी। तीन गज पीछे हटे शिवादित्य भी आश्चर्य में पड़ गये। आत्मविश्वास से भरे बलेऊ ने आक्रमक होने का प्रयास किया, किन्तु इस बार शिवादित्य ने उसे हावी होने का अवसर नहीं दिया। अपनी छाती की ओर बढ़ती बलेऊ की तलवार को रोकने के स्थान पर वो किनारे हटकर बचे और अपनी तलवार की मुट्ठी का प्रहार सीधा बलेऊ के मस्तक पर किया।
बलेऊ अभी उस वार से संभलता इससे पूर्व ही शिवादित्य ने ढाल से उसके मुख पर एक और प्रहार कर उसका संतुलन ही बिगाड़ दिया। नाक से बहते हुए रक्त के झरने को संभाल बलेऊ तलवार पर अपनी पकड़ मजबूत करता तब तक शिवादित्य ने अपनी भारी तलवार के वार से उसे निशस्त्र किया और ढाल से उसकी छाती पर भीषण वार कर उसे भूमि पर गिरा दिया।
अगले ही क्षण शिवादित्य ने बलेऊ की छाती पर अपना पाँव रख उसे भूमि से सटाया और अपनी तलवार संभाले गर्जना की, “तुमने तो हमारे भाई के साथ छल किया, किन्तु हम तुम्हें वीरगति का सम्मान दे रहे हैं। स्वीकार करो, भीलराज बलेऊ।”
अपनी मृत्यु को सुनिश्चित मान बलेऊ ने अपने मन को दृढ़ किया और शिवादित्य की तलवार को अपने कण्ठ की ओर बढ़ते हुए देख भी पलक न झपकाई। किन्तु कदाचित उसके जीवन का अंतिम क्षण अभी दूर था, विद्युत गति से आते एक बाण ने शिवादित्य की तलवार को उसके साथ से छुड़ाकर बलेऊ के काल को टाल दिया।
आश्चर्यभाव से शिवादित्य ने उस बाण चलाने वाले की ओर देखा। सौ गज से भी अधिक दूरी पर पर्वत की चोटी पर खड़े कालभोज को देख उनके मुख पर क्रोध कम और जिज्ञासा अधिक दिखाई दे रही थी, “इतनी दूरी से छोड़े गये बाण में इतना बल, अद्भुत।”
बलेऊ को छोड़ शिवादित्य दूर हटे और कालभोज और सुबर्मन की ओर ही देखने लगे जो पहाड़ की ढलान पर दौड़ते हुए बड़ी तीव्रता से उसकी ओर चले आ रहे थे। उन्होंने अपने शस्त्रों को विराम दिया और पीछे हटकर कौतुहलवश उन दोनों योद्धाओं की प्रतीक्षा करने लगे।
शीघ्र ही कालभोज और सुबर्मन पूजा स्थल तक आ पहुँचे। उनके वहाँ आते ही शिवादित्य ने प्रश्न किया, “तुम दोनों में से ये बाण किसने चलाया?”
गर्व से सीना ताने कालभोज आगे आया, “भीलराज की रक्षा करना कर्तव्य है हमारा।”
शिवादित्य ने उसका मुख ध्यान से देखा, “मुख से तो जाना पहचाना सा लगता है।” वो विचारमग्न सा हो गया, “किन्तु पंद्रह वर्ष की आयु में ऐसा भीमकाय शरीर? ये सम्भव नहीं लगता।”
अपने विचारों को विराम देकर शिवादित्य ने कहा, “दो योद्धाओं के द्वन्द में विघ्न डालकर तुमने उचित नहीं किया, बालक।”
कालभोज ने धनुष को माथे से लगाया और उसे नमन कर एक भील के हाथ में सौंपा। तत्पश्चात उसने म्यान से तलवार खींच निकाली और चुनौतीपूर्ण स्वर में कहा, “मेरा मन्तव्य तो भीलराज का रक्षण था। किन्तु यदि आपकी इच्छा हो तो मैं आपके द्वन्द की क्षुदा मिटाने को सज हूँ, वीरवर।”
क्षणभर विचारकर शिवादित्य मुस्कुराये, “क्यों नहीं?”
अपनी तलवार नचाते हुए वो आगे बढ़े। तभी बलेऊ उनके मार्ग में आ खड़ा हुआ, “वैमनस्य में इतने अंधे न हो जाईए, महावीर। क्या एक बालक के रक्त में स्नान आप समग्र भारतवर्ष में अपनी ख्याति को कलंकित करना चाहते हैं ?”
शिवादित्य बलेऊ की ओर देख मुस्कुराये, “मुझे अनुमान है कि ये बालक कौन है। कदाचित ये रक्त के परीक्षण का समय है।”
मौन हुआ बलेऊ पीछे हट गया, कदाचित वो शिवादित्य का संकेत समझ चुका था। अपनी तलवार संभाले शिवादित्य पुनः कालभोज की ओर मुड़ा, “तैयार हो बालक ?”
कालभोज ने भी एक हाथ में ढाल संभाली और अपनी तलवार पर कसाव बढ़ाकर कंधे उचकाते हुए आगे बढ़ा। मुस्कुराते हुए शिवादित्य कालभोज के पैरों की ओर दृष्टि जमाये हुए थे। उसके दायें पाँव को आगे की ओर बढ़ते देख शिवादित्य को अनुमान हो गया कि कालभोज यदि उसके दायें कंधे पर वार करेगा तो उस प्रहार में अधिक बल होगा। उस क्षणिक अनुमान के अनुसार ही उन्होंने अपनी ढाल संभाली, किन्तु कालभोज का प्रहार आशा के विपरीत था। दायें पाँव को भूमि से सटाकर उसने शिवादित्य के बाएँ कंधे की ओर वार किया। शिवादित्य ने बड़ी कठिनाई से उस प्रहार को ढाल पर रोका। किन्तु उन्हें चंद पग पीछे हट जाना पड़ा।
कालभोज ने ढाल से उनकी छाती पर वार कर उन्हें दो पग और पीछे हटाया। किन्तु संभलते हुए शिवादित्य ने उसका दांव उल्टा और ढाल से उसके मस्तक पर प्रहार कर उसे विचलित किया और अगले ही क्षण उसकी छाती पर पैर से प्रहार कर उसे पाँच गज दूर फेंक दिया।
भूमि पर गिरे कालभोज को कुछ क्षणों के लिए चक्कर सा आ गया।
“दायें पाँव को भूमि पर टिकाकर बाईं दिशा में इतने बल से तलवार का वार करने का तुम्हारा पराक्रम अद्भुत था, बालक। संसार में गिने चुने ही ऐसे योद्धा आयें हैं जो कहीं भी पाँव टिकाकर किसी भी दिशा में तलवार घुमायें, उनके प्रहार में कोई दुर्बलता नहीं आती। इस आयु में इस विद्या में ऐसा पराक्रम वास्तव में प्रशंसनीय है।”
कालभोज ने भूमि से उठकर अपने शस्त्र संभाले और मुख पर लगी मिट्टी पोंछते हुए कहा, “यदि परीक्षा योग्यता की होती तो ये एक मैत्रीपूर्ण अभ्यास होता। किन्तु युद्ध में तो केवल शत्रु के सामर्थ्य का ताप देखा जाता है।”
शिवादित्य ने भी मुस्कुराते हुए तलवार संभाली, “तो शत्रु मानकर ही प्रहार करो बालक, आ जाओ।” सिंघनाद करते हुए कालभोज शिवादित्य की ओर दौड़ा। इस बार दोनों तलवारों के टकराव ने चिंगारी के साथ भयंकर स्वर उत्पन्न किया। कालभोज द्वारा शिवादित्य को कड़ी टक्कर देते देख भीलों का उत्साह कहीं अधिक बढ़ गया। शीघ्र ही देवा के साथ भीलों की बीस सहस्त्र की सेना भी पूजा स्थल के बाहर एकत्र हो गई।
कालभोज और शिवादित्य का भयानक द्वन्द समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अकस्मात ही शिवादित्य बायें घुटने के बल घिसटते हुए कालभोज के निकट गये और कोहनी से उसके उदर पर वार कर उसे थोड़ा विचलित कर उसकी दायीं कलाई को पकड़कर नस को जोर से दबाया। कोई सामान्य योद्धा होता तो पीड़ा के मारे तलवार छोड़ देता, किन्तु कालभोज उस भयानक पीड़ा के उपरान्त भी उस तलवार को जकड़े रहा। उसकी सहनशक्ति देख शिवादित्य हतप्रभ रह गये। किन्तु उसकी पीड़ा का लाभ उठाकर शिवादित्य ने तलवार का प्रहार कर अंततः क्षणभर को शिथिल हुए उसके हाथ से तलवार छुड़ा ही दी। किन्तु इतने में कालभोज ने भी बायें हाथ में थमी ढाल से शिवादित्य के दायें हाथ पर प्रहार कर उनकी भी तलवार छुड़ा दी। कुपित शिवादित्य ने उसकी छाती पर ढाल का प्रहार कर उसे चार गज पीछे धकेल दिया। वो भौहें सिकोड़े कालभोज की ओर देखने लगे जिसकी ढाल अब भी उसके हाथ में थमी थी। कदाचित जीवन में प्रथम बार शिवादित्य के अहम को चोट लगी थी, किन्तु कुछ ही क्षणों में वो अहम का भाव गर्व में परिवर्तित हो गया।
वो अपने अश्व के निकट गये और भाला उठाये कालभोज को चुनौती देते हुए कहा, “खड्ग युद्ध में तो तुम भारतवर्ष के श्रेष्ठ योद्धाओं में से हो, बालक। आशा है भल्लयुद्ध में भी कुछ ऐसा ही प्रदर्शन करोगे।”
बलेऊ ने एक भाला कालभोज की ओर उछाला। कालभोज ने उसे थामकर नचाते हुए कंधे उचकाये, “प्रतीत होता है इस द्वन्द को लेकर बहुत आशायें हैं आपकी। चिंतित मत होइये, मैं आपको निराश नहीं करूँगा।”
दोनों योद्धा घायल वनराज की भाँति गर्जना करते हुए एक दूसरे की ओर दौड़ पड़े। भल्ल से भल्ल टकराये और ढाल से ढाल। वहाँ खड़े भील बालक उत्साह के मारे तालियाँ पीटने लगे। कभी कालभोज हावी होकर शिवादित्य को झुका देता कभी शिवादित्य उसे लगातार प्रहारों से कई गज दूर पीछे हटा देते। दोनों की शस्त्र चलाने की गति और चपलता देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों सैकड़ों वर्षों से ऐसा द्वन्द किसी ने न देखा हो। दोनों के शरीर पर कई स्थान पर घाव हो चुके थे। कंधे, भुजा और जांघ से टपकता रक्त भूमि पर गिरकर सूखने लगा था।
फिर भी प्रहरों तक द्वन्द चलता रहा। उनका द्वन्द देख बलेऊ भी विचलित हुआ जा रहा था। किन्तु अंततः सूर्यास्त से ठीक कुछ क्षणों पूर्व ही कालभोज शिवादित्य का भाला छुड़ाने में सफल रहा, और अगले ही क्षण अपना भाला उनके कण्ठ पर टिका दिया, “अपनी उँगली तक हिलाने का साहस न करिएगा।”
शिवादित्य के प्राणों पर बनती देख बलेऊ ने आकर कालभोज का भाला पकड़ लिया और उसे पीछे हटाया, “मूर्खता मत करो, कालभोज। ये तुम्हारे तात हैं।”
बलेऊ के शब्द सुन कालभोज हतप्रभ रह गया। उसने क्षणभर को विचलित भाव से बलेऊ की ओर देखा फिर उसकी दृष्टि शिवादित्य की ओर मुड़ी। भूमि से उठते शिवादित्य की मुस्कुराहट का रहस्य उसकी समझ नहीं आ रहा था। वो क्षणभर मौन होकर चहुँ ओर देखने लगा जहाँ समस्त भील योद्धा उसकी जय-जयकार कर रहे थे।
सुबर्मन और देवा भी दौड़ते हुए आये और कालभोज को अपने कंधों पर उठा लिया। जयघोष के शोर में बलेऊ के वो शब्द अब भी कालभोज के कानों में गूंज रहे थे जिन्हें कदाचित शिवादित्य और उसके अतिरिक्त किसी ने नहीं सुना था।
वहीं शिवादित्य ने भी अपने योद्धाओं को कालभोज को सम्मान देने का संकेत दिया।
“महाबली कालभोज की जय हो।” शिवादित्य के अश्वारोही दल से भी हुंकार उठी, “महाबली कालभोज की जय हो।”
तत्पश्चात शिवादित्य ने अश्वारोही दल को अश्वों से नीचे उतरने का संकेत दिया। कालभोज ने भी अपने मित्रों को उसे नीचे उतारने का संकेत दिया।
शिवादित्य ने छाती चौड़ी कर गरजते स्वर में कहा, “आज तक भारतवर्ष में ऐसे किसी वीर से सामना न हुआ जो मुझे द्वन्द में परास्त कर सके। तुम अद्भुत हो बालक, वास्तव में अद्भुत हो।”
वीर कालभोज के जयकारे से समस्त पूजन स्थल गूंज उठा। सुबर्मन और देवा आगे आये और अपने मित्र के कंधे पर हाथ रखा।
“इस विजय पर विशेष सम्मान तो बनता है।” देवा ने गर्व से कालभोज की ओर देखा।
वहीं सुबर्मन ने शिवादित्य की ओर देखते हुए कटाक्षमय स्वर में कहा, “वैसे मैं तो कहता हूँ ये सम्मान भी उसी के हाथों से मिलना चाहिए, जिसने पराजय का स्वाद चखा हो।”
किन्तु शिवादित्य ने सुबर्मन के कटाक्ष का बुरा नहीं माना, अपितु वहाँ स्थापित महाकाली की प्रतिमा के निकट जाकर मूर्ति के हाथ में थमे फरसे से अपने दायें अंगूठे पर चीरा लगाया और कालभोज के निकट आकर उसके माथे पर तिलक लगाते हुए कहा, “सुना था मैंने हरित ऋषि की भविष्यवाणी के विषय में। कदाचित उसके सत्य सिद्ध होने का आरम्भ है ये।” उसने कालभोज के कंधे पकड़ गर्व से उसके नेत्रों में देखा, “मेरा आशीर्वाद है कि तुम भरतखण्ड के सर्वश्रेष्ठ नायक बनो। इसलिए मैं गुहिलवंशी शिवादित्य तुम्हें महानायक अर्थात ‘रावल’ की उपाधि से सम्मानित करता हूँ।” कहते हुए शिवादित्य अपने अश्वारोहियों की ओर मुड़ा, “कालभोजादित्य रावल की।”
“जय हो।” शिवादित्य के अश्वारोहियों की गर्जना सुन बलेऊ ने भी भीलों को समर्थन करने का संकेत दिया। भीलों ने भी कालभोजादित्य रावल के जयघोष की हुंकार भरी।
मन में कई प्रश्न लिए कालभोज शिवादित्य के निकट आया, “आपके दिए इस सम्मान का मैं आभारी हूँ, वीरवर। वैसे तो एक माता की भाँति मुझे देवी तारा ने पाला है, किन्तु न जाने क्यों आप कुछ परिचित से जान पड़ते हैं।”
शिवादित्य मुस्कुराया। वहीं कालभोज बलेऊ की ओर मुड़ा, “आप कुछ कह रहे थे, भीलराज?”
अपनी दृष्टि झुकाये बलेऊ कालभोज के निकट आया उसके कंधे पर हाथ रख कहा, “बिछड़े परिवार से मिलने का समय आ गया है, पुत्र। इससे अधिक कुछ भी कहने का सामर्थ्य नहीं है मुझमें।” इतना कहकर भीलराज पीछे हट गये।
भीलराज के शब्दों से विचलित हुए कालभोज ने चहुँ ओर दृष्टि घुमाकर देखा। उसे उदविघ्न देख शिवादित्य उसके निकट आया और भीलराज पर कटाक्ष करते हुए कहा, “क्या हुआ बलेऊ? जब सत्य कहने का समय आया तो कायरों की भाँति मौन धारण कर लिया?”
शिवादित्य का कटाक्ष सुन कालभोज की भी मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं, “आप कुछ कहते क्यों नहीं, भीलराज ? इन वीरवर के आरोपों का उत्तर दीजिये।”
किन्तु बलेऊ दृष्टि झुकाए निरुत्तर खड़ा रहा। शिवादित्य ने उसे कटाक्षमय दृष्टि से देखा, “जिसने अपने ही हाथों से तुम्हारे जन्मदाता को तुमसे छीना हो, वो भी छल से। भला वो किस मुख से तुमसे दृष्टि मिलायेगा ?” शिवादित्य ने कटाक्ष के बाण चलाने जारी रखे।
यह सुन कालभोज जड़ सा हो गया। उसने आश्चर्य भाव से मौन खड़े बलेऊ की ओर देखा। अकस्मात ही उसके नेत्रों के समक्ष एक विभत्स दृश्य तैर गया।
रक्त में नहाया हुआ एक योद्धा तलवार संभाले एक कुटीर के निकट आया। एक स्त्री के साथ खड़ा एक तीन वर्षीय बालक आश्चर्य से अपने नेत्र फैलाये उस योद्धा की ओर देखने लगा। वहीं मुस्कुराते हुए उस योद्धा ने उस बालक के निकट आकर प्रेम से उसके मस्तक पर हाथ फेरा। उसके हाथों पर लगे रक्त ने बालक के मुख भी लाल कर दिया। तभी अकस्मात ही आकाश से एक साथ कई बाण बरसे और उस योद्धा की पीठ और कंधे में आ धँसे। वो योद्धा कुछ क्षण के लिए विचलित हुआ फिर पुनः मुस्कुराते हुए उस बालक की ओर देखते हुए सामने खड़ी उस स्त्री को कठोर स्वर में आदेश दिया, “निकल जाओ, शीघ्र करो।”
उस वीर के अंतिम शब्दों का स्मरण कर कालभोज के नेत्र अकस्मात ही खुल गये। अपने नेत्रों में अनेकों प्रश्न लिए वो बलेऊ की ओर मुड़ा, “मुझे तो ये कहा गया था कि अमरनाथ यात्रा से लौटते समय सहस्त्रों लुटेरों ने हमारे कारवां पर आक्रमण किया था।”
“वो लुटेरों के भेष में भील ही थे पुत्र। और उनकी अगुवाई करने वाला कोई और नहीं यही भीलराज बलेऊ था।” शिवादित्य ने मौन खड़े बलेऊ पर कटाक्ष करते हुए कहा।
इस रहस्य के प्रकट होने पर सुबर्मन और देवा भी हतप्रभ होकर एक-दूसरे को देखने लगे। वहीं अपने नेत्र झुकाये बलेऊ अब भी मौन खड़ा था। उदविघ्न हुआ कालभोज बलेऊ के निकट गया, “आप पर इतने आरोप लग रहे हैं, और आप अब भी मौन खड़े हैं। उत्तर दीजिए, भीलराज।”
बलेऊ ने हाथ जोड़कर कहा, “मुझे क्षमा करो, कालभोज। मैं वचन से बंधा हूँ। सत्य प्रकट करने की अनुमति नहीं है मुझे।” “वचन, किसने वचन लिया आपसे और क्यों?”
बलेऊ ने पुनः मौन धारण कर लिया। अपने नेत्र बंद कर कालभोज ने अपने दाँत पीसे और विचलित हुआ इधर-उधर देखने लगा। फिर उसने पुनः प्रयास किया, “पहेलियाँ मत बुझाइये भीलराज, मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर चाहिए।”
तभी दौड़ता हुआ एक भील कालभोज के निकट आया, “भोज, देवी तारा..।”
उदविघ्न कालभोज ने उस भील के मुख भाव देखे, “तुम इतने विचलित क्यों हो, क्या हो गया?”
“देवी तारा को एक भयानक विषधर ने डस लिया है। अर्धअचेत अवस्था में वो केवल आपका ही नाम पुकार रही हैं।”
यह सुनकर कालभोज के पैरों तले जमीन खिसक गयी। मन में बिना कोई दूसरा विचार लिए वो दौड़ पड़ा। देवा, सुबर्मन, बलेऊ के साथ शिवादित्य भी उसके पीछे दौड़े।
कुटीर में पहुँच कालभोज की दृष्टि शय्या पर लेटी स्त्री पर पड़ी। कालभोज को देख अब तक पीड़ा से कराहती सादे केसरिया वस्त्र धारण किये देवी तारा के मुख पर मुस्कान आ गयी। उनके निकट बैठे दो वैध उनका हाथ पकड़ नाड़ी जाँचने का प्रयास कर रहे थे। दोनों वैद्यों ने निराशाजनक भाव से एक दूसरे को संकेत किया।
उनके मुख के भाव देख कालभोज के हाथ काँपने से लगे,
“आप मुझे किसी अनिष्ट का आभास करा रहे हैं, वैद्य महोदय।” उनमें से एक वैद्य उठकर कालभोज के निकट गया, “विष इतना घातक था कि शरीर के कई भाग में रक्त के थक्के जम गये हैं। क्षमा करें, किन्तु देवी तारा के पास अधिक समय शेष नहीं है।”
वैद्य का कथन सुन स्तब्ध हुए कालभोज ने मौन धारण कर लिया। वो चंद पग पीछे हटा और कुटीर के द्वार पर हाथ रख अपना मुख घुमा लिया। जिस माता ने बाल्यकाल से उसका पालन पोषण किया उन्हें अंतिम श्वास भरता देखना वास्तव में बहुत कठिन प्रतीत हो रहा था।
“भो..भोज।” माता की वो पुकार सुन नेत्रों में नमी लिये कालभोज उनकी ओर मुड़ने पर विवश सा हो गया। उसने किसी प्रकार साहस जुटाया और देवी तारा के निकट जाकर उनकी शय्या पर बैठे उनका हाथ अपने हाथ में लिया।
“बस.. यूँ ही कुछ क्षण बैठे रहो, पुत्र।” देवी तारा ने उससे विनय पूर्वक कहा।
कालभोज ने बिना कुछ कहे सहमति में सिर हिलाया। तभी दो हाथों ने देवी तारा के चरण स्पर्श किये। अपने समक्ष खड़े योद्धा को देख वो स्तब्ध रह गयीं, “महामहिम शिवादित्य आप?”
“हम आपके बहुत आभारी हैं, देवी। हमारे वंश के चिराग को सुरक्षित रखकर आपने हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है। आप वास्तव में हमारे लिए पूजनीय हैं।”
शिवादित्य के विनम्रता भरे शब्द सुन विचलित हुई देवी तारा कालभोज की ओर मुड़ी, “स्मरण रखना पुत्र, भीलराज ने बहुत बार संकटों से तुम्हारी रक्षा की है।” कालभोज ने आश्चर्यभाव से देवी तारा की ओर देखा,
“इसका अर्थ है कि आप भी सत्य से परिचित थीं ?”
देवी तारा विचलित सी हो गई। कोई उत्तर न सूझने पर उन्होंने कालभोज का हाथ थामकर उसके नेत्रों में आशा भाव से देखा, जैसे उनके पास कालभोज के इस प्रश्न का उत्तर ही ना हो, बस वो विश्वास बनाये रखने की आशा कर रही हों। उस क्षण अपने मन के सारे प्रश्नों और व्यथा को दरकिनार कर देवी तारा का हाथ थामे कालभोज ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा, “आप स्वयं को कष्ट न दें, माता।” अपने मन को दृढ़ कर उसने विश्वास के साथ कहा, “अगर आपके हृदय को शांति मिले तो मैं वचन देता हूँ कि मैं भीलराज बलेऊ पर शस्त्र नहीं उठाऊँगा।”
देवी तारा ने कालभोज के माथे पर हाथ फेरा और मुख पर मुस्कान लिए अपने नेत्र बंद कर लिये। अपनी पालक माता की नाड़ी धीमी पड़ती देख कालभोज के नेत्रों में नमी आ गयी। शीघ्र ही देवी तारा का शरीर स्थिर हो गया। सुबर्मन ने कालभोज के निकट आकर उसे सांत्वना देने का प्रयास किया। किन्तु देवी तारा के शिथिल हुए शरीर को देख कालभोज ने कक्ष में उपस्थित अन्य जनों को संबोधित करते हुए कहा, “मैं कुछ समय माता के साथ एकांत चाहता हूँ। अंत्येष्टि के समय से पूर्व इस कक्ष में कोई न आये।”
उसका संकेत समझ शीघ्र ही बाकि सब लोग उस कक्ष से जाने लगे। उन सभी के जाने के उपरान्त कालभोज ने कुटीर के रोशनदान से बाहर की ओर देखा। रात्रि का अंधकार छाने को था। वो कुछ समय डूबते हुए सूर्य की लालिमा को निहारते हुए नम आँखों से अंधकारमय रात्रि को चंद्रमा की रोशनी से प्रकाशित होने की प्रतीक्षा करता रहा। कुछ समय उपरान्त चंद्रमा की शीतलता के सानिध्य को अपने कष्ट को हरने का माध्यम बनाकर कालभोज ने अपने अश्रु पोंछ मन को सुदृढ़ किया। कुछ क्षण विचार कर भोज ने कक्ष में रखे एक दीये में रखा चंदन लिया। वो देवी तारा के चरणों के निकट आया और उनके तलवों पर चंदन का लेप लगाया।
तत्पश्चात उसने आधी अंगुल से भी छोटी डिबिया में देवी तारा के चरणों में लगे चंदन का कुछ अंश लिया और उठकर कक्ष में रखे अपने शिरस्त्राण के निकट आया। उसने एक छोटी सी कील ली और चंदन से अलंकृत उस आधे अंगुल से भी छोटी डिबिया को उस शिरस्त्राण के भीतर ठोक कर जोड़ दिया, “तलवार, भाला, चक्रविद्या और तीरंदाजी, इन सभी विद्याओं में दक्ष सिद्ध होने पर आपने मुझे ये जो शिरस्त्राण भेंट दिया था, उसे आपके चरणों में लगे चंदन का स्मृति चिन्ह बनाकर मैं जीवन के हर संग्राम में अपने मस्तक पर धारण करूँगा।” मन में ये विचार लिये कालभोज ने देवी तारा के नेत्रों की ओर देखा, “मुझे विश्वास है, कि आप जैसी यशोदा माँ का आशीर्वाद मुझे जीवन के किसी भी युद्ध में पराजित नहीं होने देगा।”
कुछ क्षणों तक उस शिरस्त्राण को निहारने के उपरान्त कालभोज ने उसे किनारे रख अपनी माता का मुख निहारते हुए उनके चरण पकड़कर शय्या के नीचे बैठ गया, “आपके चरणों के सानिध्य में ये अंतिम रात्रि है माता। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आज रात्रि की ये साधना जीवन पर्यंत मुझे आने वाली हर रात्रि के दुस्वप्न से दूर रखेगी।” अपने मस्तक को देवी तारा के चरणों से सटाये कालभोज ने अपने नेत्र बंद कर लिये। कुछ ही घड़ियों में अपने सारे कष्ट भूल कालभोज चैन की निद्रा लेने लगा।
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ब्रह्ममूहृत आरम्भ होने को था। सुबर्मन ने कुटीर का द्वार खटखटाया, “स्नान का समय हो गया है, भोज।” कालभोज की निद्रा टूटी। वो अपनी माता के चरणों की ओर दृष्टि डाल मुस्कुराया और उठकर श्वास भरते हुए पुनः देवी तारा के चरणों पर मत्था टेक वचन दिया, “महादेव की भक्ति का आरम्भ मैंने आपकी ही प्रेरणा से किया था, माता। मेरी प्रार्थना है कि आप पर उनकी अनुकंपा बनी रहे और आपको उन्हीं के चरणों में स्थान प्राप्त हो।” इतना कहकर कालभोज पलटा और कुटीर के द्वार पर निकट आकर उसे खोल दिया।
सुबर्मन ने उसे स्थिर देख प्रश्न किया, “प्रस्थान करें?” सहमति में सर हिलाते हुए कालभोज कुटीर से बाहर आया और सुबर्मन के साथ चल पड़ा।
शीघ्र ही देवी तारा की अर्थी सजाई गयी। उसे कंधा देने कालभोज, सुबर्मन और शिवादित्य आगे आये। वहीं बलेऊ एक ओर दृष्टि झुकाये खड़ा था। कालभोज उसके निकट गया, “बहुत से प्रश्नों के उत्तर चाहिए मुझे आपसे। किन्तु ये समय वैमनस्य का नहीं है। मैं नहीं चाहता माता की अंतिम यात्रा में कोई बाधा आये।” कहते हुए उसने बलेऊ को आगे बढ़ने का संकेत दिया, “शरणदाता का भी कुछ अधिकार तो होता ही है।”
संकोच में बलेऊ चलकर अर्थी के चौथे सिरे की ओर आया। कुछ ही क्षणों में शिवादित्य, कालभोज, सुबर्मन और बलेऊ ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया और शमशान की ओर बढ़े।
शमशान पहुँचकर कालभोज ने विधिपूर्वक देवी तारा को मुखाग्नि दी। धीरे-धीरे एक-एक करके लोग वहाँ से जाने लगे, किन्तु कालभोज वहीं स्थिर खड़ा रहा।
धीरे-धीरे चिता की अग्नि ठण्डी पड़ने लगी। कालभोज को एकांत में खड़ा देख शिवादित्य उसके निकट आकर खड़े हो गये। कालभोज ने मुड़कर उनकी ओर देखा, “मेरे गुरुदेव श्री हरित ऋषि कहते हैं कि हृदय की बात यदि जिह्वा पर न आये तो कटार बनकर मन पर घाव करने लग जाती हैं।”
शिवादित्य मुस्कुराये, “कहने को तो बहुत कुछ है, किन्तु समय अनुकूल नहीं जान पड़ता।”
“जब एक कष्ट जीवन में अंधकार को आवाहन दे, तो स्वयं से हुआ परिचय ही कदाचित प्रकाश का मार्ग दिखा सकता है।”
कालभोज की दृढ़ता देख श्वास भरते हुए शिवादित्य ने कहना आरम्भ किया, “हम गुहिलवंशी हैं, पुत्र। आज से लगभग एक डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज 'महाराज गौहादित्य' ने मेवाड़ के दक्षिणी भाग को अपना शासन क्षेत्र बनाया और तबसे सौ वर्षों से भी अधिक समय तक वहाँ गुहिलवंशियों का शासन चलता रहा। किन्तु लगभग तीस वर्ष पूर्व उत्तरी मेवाड़ पर शासन करने वाले परमारों ने हमारे राज्य पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।” कहते हुए शिवादित्य का गला रुँध सा गया, “मुझे स्मरण है कि अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये हमारे पिता महाराज वीरादित्य ने एड़ी चोटी का जोर लगाया, किन्तु रण में उनके वीरगति के प्राप्त होने के उपरान्त परमारों ने हमारे राजपरिवार को हमारी भूमि से निष्काषित कर दिया।”
“फिर आगे क्या हुआ?” कालभोज की जिज्ञासा बढ़ने लगी थी।
शिवादित्य मुस्कुराये, “मेरी आयु ग्यारह वर्ष की थी और मेरा भाई नागादित्य नौ वर्ष का था। जब हमने पिताश्री की वीरगति का समाचार सुना तो हम दोनों भाई क्रोधित होकर तलवार उठाये शत्रु पर आक्रमण करने को सज हो गये थे। हम हठी बालकों को मूर्छित करके ही वहाँ से निकालना पड़ा। फिर महिष्कपुर बादामी में चालुक्यों ने हमें शरण दी और महाराज विक्रमादित्य के संरक्षण में हमारा पालन पोषण हुआ।”
शिवादित्य ने कहना जारी रखा, “किन्तु महाराज विक्रमादित्य भी अपने पुत्र कुमार विनयादित्य के साथ कंदराओं में भटक रहे थे। उनकी राजधानी बादामी पर पल्लवों का शासन था। किन्तु उन्होंने संघर्ष नहीं छोड़ा, और उसी दौरान हम उन्हें मिले। हमने पहले एक नगर को जीता और अपनी सेना बढ़ाते रहे। महाराज विक्रमादित्य का जीवन वाकई प्रेरणा का एक अपार स्त्रोत था।”
“ऐसा प्रतीत होता है ये कथा मैंने सुनी हुई है।” कुछ क्षण विचार कर कालभोज ने कहा, “यदि मेरा अनुमान उचित है तो कुछ वर्षों के संघर्ष के उपरान्त आपने और पिताश्री ने महाराज विक्रमादित्य के साथ मिलकर एक महासेना का निर्माण किया और पल्लवों से अपनी मातृभूमि बादामी को पुनः जीत लिया।”
“निसंदेह।” शिवादित्य मुस्कुराये, “तुम्हारे पिता ने तुम्हें बाल्यावस्था में ये कथा सुनाई होगी। आश्चर्य की बात है कि तीन वर्ष की आयु में सुनी हुई कथा तुम्हें अब भी स्मरण है।”
“कदाचित पिताश्री की कुछ ही स्मृतियाँ हैं मेरे पास। उनके जाने के उपरान्त तो कोई मुझे मेरी पहचान स्मरण कराने भी न आया।” कहते हुए कालभोज का मन भारी हो गया।
शिवादित्य ने कालभोज के कंधे पर हाथ रख उसे समझाने का प्रयास किया, “मुझे तुम्हारे जीवित होने का ज्ञान नहीं था, पुत्र। भ्रांतियाँ यही फैलाई गई थीं कि भीलों ने तुम्हारी भी हत्या कर दी है। क्योंकि तुम्हारा शव कभी देखा नहीं, इसलिए कदाचित मैंने कभी आशा नहीं छोड़ी। किन्तु ये कल्पना नहीं की थी कि जिन भीलों ने तुम्हारे पिता की छल से हत्या की वहीं तुम्हें संरक्षण देंगे।”
यह सुनकर क्षणभर के लिए कालभोज का गला भी रुँध गया, “इन प्रश्नों के उत्तर तो केवल भीलराज बलेऊ ही दे सकते हैं। न जाने वो कौन से वचन की चादर ओढ़े बैठे हैं।” श्वास भरते हुए कालभोज ने प्रश्न किया, “आपका भी तो मन करता होगा कि आप अपनी मातृभूमि को वापस जीतने का प्रयास करें?”
“सत्य कहूँ तो जिस दिन से हमें हमारी भूमि से निष्काषित किया गया था उस दिन से मेरे मन में बस यही एक इच्छा थी। पर परमारों ने हमें धर्मपूर्वक युद्ध में पराजित किया था, इसलिए कुछ वर्षों के उपरान्त समझ आया कि केवल निजी शत्रुता के लिए युद्ध करना उचित नहीं। किन्तु बादामी को जीतने के उपरान्त जब मेवाड़ ने चालुक्यों की भूमि पर आक्रमण किया तो उस युद्ध में हमने परमारराज मानमोरी को परास्त कर घुटनों के बल झुकाकर अपने प्रतिशोध के संताप को शांत कर लिया। और उसके उपरान्त तो परमारों का हमसे सम्बन्ध जुड़ गया, तो हमने स्वयं पर नियंत्रण रखना ही उचित समझा।
“हाँ, परमारराज मानमोरी हमारे मामाश्री हैं। मेरी उनसे अधिक भेंट नहीं हुई किन्तु ये अवश्य कहूँगा कि मेवाड़ की प्रजा उनके राज में सुखी तो नहीं है।”
कालभोज के सर पर हाथ फेरते हुए शिवादित्य मुस्कुराये, “तुम्हारा वो मामा बहुत बड़ा छलिया है, पुत्र कालभोज। अभी तुम्हें उसके चरित्र का ज्ञान नहीं है। मुझे तुम्हारे अस्तित्व का ज्ञान नहीं हुआ, इसके पीछे अवश्य उसी का हाथ होगा। कभी-कभी मेरी भी इच्छा करती है कि मैं चालुक्यराज विजयादित्य से सहायता लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई कर दूँ। किन्तु इस समय विदेशी आक्रान्ताओं का संकट अधिक विचारणीय है।”
“विदेशी आक्रांता? आप किनकी बात कर रहे हैं?” कालभोज ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।
“अरब देशों से आ रहे उन शैतानों की। उन्होंने पारस के कई नगर जीतकर वहाँ भयानक नरसंहार मचाया। अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाकर वो भारतवर्ष की ओर दृष्टि जमाए हुए है। और देखा जाये तो भारत का कोई भी राज्य अकेला उनका सामना नहीं कर सकता। वो सिंधुदेश के कई नगरों को जीत चुके हैं। सुना है उनसे युद्ध करने को सिंध नरेश महाराज दाहिरसेन हिन्दसेना की एक विशाल टुकड़ी एकत्र कर रहे हैं, मेवाड़ी सेना भी उसका भाग है। और मेवाड़ की सेना इस समय भारतवर्ष की सर्वशक्तिशाली सेना है जिनकी सहायता के बिना इस युद्ध में विजयी होना सम्भव नहीं। इसलिए मैं समझता हूँ कि मेवाड़ पर आक्रमण करके उसे व्यर्थ के युद्ध में धकेलना राष्ट्र और अपनी संस्कृति से द्रोह करने के समान है।”
शिवादित्य ने कहना जारी रखा, “अरबियों का सिंध के कई नगरों को जीतकर वहाँ के मन्दिरों को तोड़ना, निसंकोच होकर गौहत्या करना, नगर की स्त्रियों को उठा लेना। ये सारी घटनायें बढ़ती ही जा रही हैं। इसलिए हमें किसी भी मूल्य पर उन्हें आगे बढ़ने से रोकना होगा, अन्यथा हमारी संस्कृति ही संकट में पड़ जायेगी।”
यह सुनकर कालभोज की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गयीं, अपनी भौहें ताने उसने अपनी माता की राख होती हुई चिता की ओर देखा, “मैं अभी और इसी समय महाराज मानमोरी के पास जाकर उनसे युद्ध में सम्मिलित होने की आज्ञा माँगूँगा। महादेव की सौगंध, यदि अवसर मिला तो मैं उन अरबियों को दिखाऊँगा कि एक शिवभक्त के क्रोध का संताप उनकी क्या दुर्दशा कर सकता है।”
“तो समझ लो अवसर स्वयं ही तुम्हारे पास चलकर आया है, पुत्र।”
शिवादित्य और कालभोज उस स्वर की दिशा की ओर मुड़े। देवी तारा की चिता के निकट आये हरित ऋषि अपने शिष्य की ओर देख मुस्कुराये। शिवादित्य और कालभोज दोनों ने ही उनके चरण स्पर्श किये।
“तो क्या आप कालभोज को युद्ध में भेजने को सज हैं, ऋषिवर?” शिवादित्य ने अचरच भाव से प्रश्न किया।
हरित ऋषि ने एक क्षण अपने शिष्य की ओर देख पूर्ण विश्वास से कहा, “समय हो गया है कि समग्र भारतवर्ष को वीर कालभोजादित्य रावल के सामर्थ्य का परिचय प्राप्त हो। और सामर्थ्य का ये प्रदर्शन ही भविष्य में अनेकों वीरों को इस महारथी के समर्थन में खड़ा करेगा।”
कालभोज ने थोड़े अचरच भाव से अपने गुरु की ओर देखा। वहीं शिवादित्य ने अपने भतीजे की पीठ थपथपाई, “जब हरित ऋषि को विश्वास है तो प्रश्न उठाने वाला मैं कौन? वैसे भी इससे परास्त होने के उपरान्त मन में एक विश्वास सा बन गया है कि पुत्र कालभोज सफल होकर ही लौटेगा।”
“तो क्या आप इस अभियान में हमारे साथ नहीं आयेंगे?” कालभोज ने शिवादित्य से प्रश्न किया।
हरित ऋषि ने भी यही प्रश्न उठाया, “मेरे मन में भी यही प्रश्न है, वीर शिवादित्य। क्या आप और आपके तीन सौ योद्धा इस युद्ध का भाग नहीं बन सकते?”
“ये सम्भव नहीं है, ऋषिवर। मेरी निष्ठा आज भी महाराज विक्रमादित्य के पौत्र चालुक्यराज विजयादित्य के प्रति ही है। हिन्दसेना में सम्मिलित होने के लिए चालुक्यराज स्वयं अपनी इच्छा से आगे आये थे किन्तु महाराज मानमोरी के हठ के आगे उन्हें पीछे हटना पड़ा। इसलिए मैं उनके शत्रु के कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध नहीं कर सकता।” कहते हुए कालभोज की ओर मुड़े, “वैसे भी, मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस युद्ध में मेरा भतीजा कालभोज मेरी कमी का आभास नहीं होने देगा।”
“जैसी आपकी इच्छा, वीर शिवादित्य। हिन्दसेना ब्राह्मणाबाद की रक्षा के लिए प्रस्थान कर रही है। इस युद्ध की समाप्ति के उपरान्त हमारा प्रयास रहेगा कि मेवाड़ नरेश और चालुक्यराज की शत्रुता समाप्त करके हिन्दसेना को और सशक्त बनाया जाये।” हरित ऋषि ने आश्वासन देते हुए कालभोज से प्रश्न किया, “तुम सज हो पुत्र?”
कालभोज ने पहले अपने गुरु के चरण स्पर्श किये फिर अपने तात के। शिवादित्य ने अपने भतीजे के सर पर हाथ फेरते हुए गर्व से आशीर्वाद दिया, “ईश्वर करे द्वार पर खड़ा ये युद्ध तुम्हें समग्र भरतखण्ड में विख्यात करे।”
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[वर्तमान]
ब्राह्मणाबाद के युद्ध में विजय प्राप्त कर कालभोज ने विधिपूर्वक देवी तारा की अस्थियों को कलश सहित विसर्जित किया। तत्पश्चात संध्या को वो अपने कुटीर लौट आया। कुछ समय तक वो कुटीर में ही मौन होकर बैठा अपनी माता की स्मृतियों की कल्पना करने का प्रयास करता रहा। अकस्मात ही उसे कुछ सूझा और वो कुटीर के बाहर निकल पड़ा। लोगों को यही लगा कि वो यूँ ही पदयात्रा पर निकला है, किन्तु उसके मुखभाव से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि उसे भलीभाँति ज्ञात था कि वो कहाँ जा रहा है। शीघ्र ही वो भीलों के शस्त्रागार में गया और वहाँ से बड़ी सी हथौड़ी और छीनी लेकर निकला।
कुछ समय चलने के उपरान्त वो नागदा ग्राम की सीमा पर स्थित एक छोटी सी चट्टान के निकट पहुँचा। उसने चट्टान को ध्यान से देखा, फिर कुछ समय तक आँकलन करने के उपरान्त उसके निकट चढ़कर छीनी को चट्टान से सटाया और हथौड़े से मारना आरम्भ किया।
शीघ्र ही कालभोज की खोज में सुबर्मन और देवा भी वहाँ आ पहुँचे।
“ये कर क्या रहे हो तुम?” सुबर्मन ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।
कालभोज पीछे मुड़कर मुस्कुराया, “समय आने पर ज्ञात हो जायेगा, भ्राताश्री।”
“क्या मतलब..? एक क्षण, इतने वर्षों में पहले तो तुमने मुझे कभी भ्राता नहीं कहा ?” सुबर्मन को थोड़ा आश्चर्य हुआ।
कालभोज ने हथौड़ा मारना जारी रखा, “अब सम्बन्धों का स्मरण करा ही दिया गया है तो आपको भी ज्ञात ही होगा कि मैं आपकी बुआश्री का ही पुत्र हूँ। अब आपने ही कहा था मुझे राजकुमार मत बुलाओ, तो भ्राता ही सही।”
“हाँ, तर्क में बल तो है। किन्तु ये बताओ, ये सूर्यास्त होते ही इस चट्टान को क्यों फोड़ने लगे ?” सुबर्मन ने प्रश्न किया।
कालभोज मुस्कुराया, “समय आने पर ज्ञात हो जायेगा, भ्राता श्री। संयम रखिए।”
“कोई कलाकृति प्रतीत हो रही है।” देवा ने अनुमान लगाया, “कहो तो बाकि भीलों को तुम्हारी सहायता के लिए बुलाऊँ।”
“नहीं।” कालभोज पीछे पलटा, “ये कार्य मैं अकेले करूँगा।"
“किन्तु मेरे पिताश्री का कहना था कि तुम्हें शीघ्र ही मेवाड़ की सेना में एक उच्च पद प्राप्त होगा। तुम्हारे और भी कई दायित्व होंगे।” सुबर्मन ने तर्क दिया।
मुस्कुराते हुए कालभोज नीचे आया, “कदाचित कुछ वर्षों का समय लगेगा। किन्तु अपनी माता को समर्पित इस कलाकृति के निर्माण का दायित्व केवल मेरा है।”
सुबर्मन चलकर उस चट्टान के निकट आया और उन दरारों पर हाथ फेरा जो कालभोज ने बनाई थी, “जैसी तुम्हारी इच्छा।” वो पलटकर कालभोज की ओर देख मुस्कुराया, “वैसे सत्य कहूँ तो मुझे अनुमान है कि तुम क्या बना रहे हो।”
कालभोज मुस्कुराया, सुबर्मन और देवा वहाँ से प्रस्थान कर गए।
ब्रह्ममुहूर्त का समय आरम्भ होने को था। कालभोज ने शिल्प का कार्य रोकते हुए विचार किया, “अब विश्राम का कार्य तो रात्रि में ही होगा।”
वो पर्वत से नीचे आया और अकस्मात ही अपने सामने के वृक्षों की ओर देख कंधे उचकाये, “बड़ी अद्भुत विद्या थी सिन्धी गुप्तचरों की। एक प्रयास करने में हानि ही क्या है ?” कई वृक्ष समानांतर दिशा में ही थे। यह देख उसने छीनी हथौड़ी नीचे रखी और अपनी भुजाएँ फड़काते हुए अपने सामने के वृक्ष पर छलांग लगाई और एक चपल वानर की भाँति कुछ ही क्षणों में उस पर चढ़ आया।
वृक्ष के ऊपर से उसने नीचे की ओर देखा, उसकी चढ़ाई में केवल पत्ते ही नहीं एक छोटी सी डाल भी टूटकर भूमि पर गिरी पड़ी थी।
“बहुत परिश्रम करना पड़ेगा।” मन में ये विचार लिये कालभोज ने उस वृक्ष पर खड़े होकर सामने के वृक्ष की ओर देखा और अगले ही क्षण छलांग लगाये उस वृक्ष तक पहुँचा और उसकी डाल पर लटक गया। उस डाल के द्वारा वृक्ष पर चढ़ उसने नीचे की ओर देखा । एक क्या पत्तों का पूरा झुण्ड ही उस वृक्ष से झड़े जा रहा था । वृक्ष पर खड़ा विचलित कालभोज बस एक ही बात सोचे जा रहा था, “न जाने कितने वर्षों के अभ्यास में परिपक्व हुए होंगे सिंधुदेश के वो वीर ?”
To be continued..