प्रथम अध्याय
ब्राह्मणाबाद की विजय
रण में शवों के ढेर के बीचों बीच तीन-तीन विकराल अश्व और उस पर सवार हुए अरबी हाकिम अपने-अपने हाथों में तलवारें और भाले संभाले तीन सौ गज की दूरी पर पंद्रह अरबी सैनिकों से अकेले लोहा लेते हुए एक वीर की ओर बढ़े चले जा रहे थे।
दो अरबी सैनिकों की गर्दनों को तलवार के एक ही प्रहार से उड़ाते हुए उस वीर योद्धा के शिरस्त्राण पर लगे रक्त के साथ माथे पर लगा चंदन का अमिट तिलक उसके सूर्य समान तेजस्वी मुखमंडल की शोभा बढ़ा रहा था। उस वीर के मुख से लेकर कवच और जूतियों तक का भाग भी अरबियों के रक्त से नहाया हुआ था जो शत्रु में भय का संचार करने को पर्याप्त था। यूँ तो उस वीर को अरबियों ने चहुँ ओर से घेर रखा था किन्तु दसियों योद्धाओं से घिरे हुए हिन्दसेना के उस सिंह को अपने साथियों के रक्त में नहाया देख उस पर प्रहार करते हुए भय के मारे अरबियों के हाथ में ऐसी कंपन उठ रही थी, जो उनके शस्त्रों की शक्ति क्षीण करती जा रही थी।
रक्त में नहाये उस वनराज को अपनी सेना में भय का पर्याय बनते देख तीनों हाकिम दृढ़ निश्चय के साथ उसी की ओर बढ़े चले जा रहे थे मानों उस सिंह के वध के अतिरिक्त उनके जीवन का कोई ओर उद्देश्य ही ना हो। दानवों के समान लम्बे चौड़े दिखने वाले वो तीनों हाकिम मार्ग में आये कई हिन्द सैनिकों को भूमिसत करते हुए तीव्रता से बढ़ते चले जा रहे थे। तीनों के अश्वों के शरीर सामान्य अश्वों से कहीं अधिक बलिष्ठ दिखाई पड़ रहे थे। काले रंग के वो अश्व इतने भयानक थे कि कई बार उन हाकिमों को शत्रुसेना को गिराने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उन अश्वों ने भयानक हिनहिनाहट के साथ अपने खुरों से ही हिन्दसेना के कई रणबांकुरों को कुचल डाला।
“फंस गये ये हमारी योजना में।” सौ गज दूर खड़े हाथों में दो तलवारें संभाले एक नव युवक ने उन तीनों हाकिमों को घूरकर देखा।
वहीं उसके निकट खड़ा एक योद्धा अपनी दो तलवारों से अरब सैनिकों की छाती फाड़ता हुआ उसकी ओर मुड़ा, “महाराज ‘नागभट्ट’ के प्राण संकट में डालकर तुमने उचित नहीं किया, ‘रावल’। यदि तुम सफल नहीं हुए तो हिन्दसेना की एकता सदैव के लिए खण्डित होकर रह जायेगी।”
उस नवयुवक ने अरबियों के रक्त में नहाऐ दसियों शत्रु सैनिकों पर अकेले हावी होते हुए हिन्दसेना के महावीर महाराज नागभट्ट की ओर गर्व से देखा और तलवारों पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए उस योद्धा की ओर देख मुस्कुराया, “हिन्दसेना की अखण्डता का सबसे बड़ा स्तम्भ विश्वास है। और यही विश्वास महाराज नागभट्ट की सबसे बड़ी शक्ति है जिसे मैं खण्डित नहीं होने दूँगा।”
हाथों में मानों भारी तलवारों को बांस की छड़ी की भाँति घुमाते हुए भीमकाय शरीर के स्वामी रावल कहे जाने वाले उस नव युवक ने सिंघनाद करते हुए दौड़ लगा दी।
उसके पीछे विचलित खड़ा वो योद्धा रावल को अविश्वास भरी दृष्टि से दौड़ता हुआ देखता रहा। तभी एक अन्य वीर का हाथ कंधे पर आया। उस योद्धा ने घूमकर देखा तो लाल पगड़ी पहने, घनी दाढ़ी और मूँछ वाले लौह कवच और नारंगी वस्त्र धारण किये एक वीर को अपने समक्ष पाया। उस वीर के कंधों से बहती रक्त की चंद धाराएँ उसके हाथों तक पहुँच गयी थी, और अब भी वो पूर्ण बल से अपनी तलवार को थामकर अपने सूर्य समान तेजस्वी मुखमंडल पर मुस्कान लिए हुए था।
“आप इतने विचलित क्यों हैं महाराज ‘मानमोरी’?” उस वीर ने रावल पर अविश्वास जताने वाले उस योद्धा अर्थात महाराज मानमोरी से प्रश्न किया।
मानमोरी ने हाकिमों की ओर दौड़ते हुए रावल की ओर संकेत करते हुए कहा, “भले ही इसी अवस्था में इसका शरीर इतना बलिष्ठ हो गया हो, किन्तु पंद्रह वर्ष का बालक है वो, महाराज ‘दाहिर’। यूँ भूमि पर दौड़ता हुआ भला ऐसे भयानक हाकिमों और उसके गज समान बलवान अश्वों का सामना वो कैसे करेगा?” साँस भरते हुए मानमोरी ने आगे कहा, “समझ नहीं आता क्या सोचकर आपने और कन्नौज नरेश नागभट्ट ने इसे इस उत्तरदायित्व के लिए चुन लिया।” उसने दसियों अरबों से अकेले युद्ध करते नागभट्ट की ओर संकेत करते हुए कहा, “देखिए उस ओर। वो तीनों हाकिम यदि एक बार दसियों शत्रुओं से घिरे महाराज नागभट्ट तक पहुँच गए ..।”
“मौन हो जाईये, मेवाड़ नरेश।” महाराज दाहिर क्रोध में किसी चोट खाये अजगर की भाँति फुँफकार पड़े, “अपनी सेना और अपने योद्धाओं में अविश्वास फैलाना बंद कीजिये।” उन्होंने दौड़ते हुए रावल की ओर गर्व से देखते हुए कहा, “जिस वीर योद्धा को इतने विश्वास के साथ ‘हरित ऋषि’ ने हमारी सेना में भेजा है उसकी शक्ति और सामर्थ्य पर संदेह करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। और हमें पूर्ण विश्वास है कि गुहिलवंशी शिवादित्य को परास्त करने वाला ‘कालभोजादित्य रावल’ अवश्य ही इन तीनों दानवों पर काल बनकर टूटेगा।”
महाराज दाहिर के कटु वचन सुन मेवाड़ नरेश मानमोरी का मस्तक से लेकर नाखून तक जल गया। किन्तु वह समय क्रोध प्रदर्शित करने का नहीं था इसलिये उन्होंने लहू का घूँट पीना ही उचित समझा और मौन रह गये।
वहीं दौड़ते हुए कालभोज पर दृष्टि पड़ते ही तीसरे हाकिम ने अपना अश्व उसकी ओर मोड़ा और उसके बालक समान मुख को अहंकार भरी दृष्टि से देख अपने अश्व की पीठ थपथापाते हुए कहा, “कुचल दे इसे अल्ताफ।”
किन्तु अपने अश्व को संकेत देने से पहले वो हाकिम उस पंद्रह वर्षीय सिंह के नेत्रों में समाई ज्वाला का ताप नापना भूल गया, जो उसके अस्तित्व को भस्म करने को आतुर होकर अपनी लपटें फैलाए उसकी ओर बढ़ी चली आ रही थी। अपने स्वामी का संकेत मिलते ही अल्ताफ नाम का वो अश्व जोर से हिनहिनाता हुआ कालभोज की ओर दौड़ा, किन्तु इससे पूर्व वो उसे कुचलने के लिए अपने खुर उठाता, वो गुहिलवंशी घायल नरव्याघ्र की भाँति गर्जना करता हुआ कई गज ऊपर उछला और अल्ताफ नाम के उस अश्व की गर्दन पर अपनी मनों भारी तलवार का वार करते हुए उसका मस्तक काटकर भूमि पर गिरा दिया। शरीर से रक्त का फव्वारा छोड़ते हुए अल्ताफ का तड़पता हुआ शरीर इतना बलिष्ठ था कि उस पर सवार हुआ हाकिम खुद को संभाल नहीं पाया।
भौंचक्का हुआ वो हाकिम अपने शस्त्रों समेत भूमि पर गिरा ही था कि रावल बिना एक और क्षण विलंब किये उसकी छाती पर चढ़ आया। उस हाकिम ने अपने शस्त्रों को संभालकर प्रहार करने का विचार मन में लाया ही था कि विद्युत समान गतिमान कालभोज की तलवार उसके कंधे पर चली। रक्त के छींटों से अपने प्रतिद्वंदी को अलंकृत करता हुआ उस हाकिम का मुंड रुंड से अलग होकर दस गज दूर जा गिरा।
“हर हर महादेव।” सिंध नरेश दाहिर ने तलवार ऊँची करते हुए जयघोष किया।
“हर हर महादेव।” कन्नौज नरेश नागभट्ट भी रुद्र समान गर्जना करते हुए अपने दल के साथ अरबियों पर टूट पड़े और उन्हें मेमनों की भाँति काटने लगे।
वहीं रावल के शस्त्रों की प्यास अभी बुझी नहीं थी। हाथ में रक्त रंजित तलवार थामे वीर कालभोज शेष दोनों हाकिमों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल हो चुका था। एक हाकिम उसकी ओर बढ़ने लगा, किन्तु दूसरे ने उसे रोकते हुए कहा, “देखा नहीं इसने शहबाज और उसके घोड़े का क्या हश्र किया? बेवकूफी मत करो बिरादर ‘निजाम’, वापस मुड़ चलो। वर्ना हम मारे गये तो सेना के पाँव उखड़ जायेंगे। जंग के इस मैदान में हमारी फौज की तादाद अब भी ज्यादा है, तो खुद को खतरे में डालने का कोई मतलब नहीं।”
निजाम ने ढाल और तलवार पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए दो सैनिकों के सर एक ही प्रहार में उतारते हुए रावल को अपनी ओर आता देख अपनी छाती चौड़ी की और दंभ भरकर बोला, “तुम बुजदिल हो ‘अलाउद्दीन’, शहबाज ने इस लड़के को कमतर आँका इसलिए मारा गया। पर मैं ऐसे जंगजू से लोहा लेने का मौका नहीं गँवाने वाला। हिन्दसेना के इस जाँबाज का सर उतारकर जब मैं ‘सुल्तान अलहजाज’ के पास जाऊँगा तो देखना वो खुश होकर मुझे सिंध का किला ही तोहफे में दे देंगे।”
अपने अश्व की धुरा खींच निजाम नाम का वो हाकिम रावल की ओर बढ़ा। कद में रावल से दो पग ऊँचा, पाषाण समान भुजाओं में भारी तलवार थामे निजाम ने रावल को अपना ग्रास मानकर उसकी ओर अपने उस भयानक अश्व को दौड़ा दिया। वहीं अरबियों के रक्त में नहाया कालभोज उसकी ओर दौड़ता चला गया। उसके नेत्रों की ज्वाला को दूर से ही देख हाकिम अलाउद्दीन के पसीने छूट गये।
रावल को तीनों हाकिमों के नजदीक देख सिंध नरेश दाहिर मुस्कुराये, “योजना सफल हुई। अब इन बाकि बचे दोनों हाकिमों को भी रावल के प्रकोप से कोई नहीं बचा सकता।” उन्होंने तत्काल ही बिगुल बजा दिया। फलस्वरूप, हिन्दसेना की एक टुकड़ी तीस अरबियों से अकेले युद्ध करते कन्नौज नरेश नागभट्ट की सहायता को दौड़ पड़ी।
रावल को ज्ञात था कि अब समय गँवाना उचित नहीं, क्योंकि यदि दोनों हाकिम वापस अपनी सेनाओं की विशाल टुकड़ी के भीतर चले जाते तो युद्ध पुनः बराबरी का हो जाता। उसे शीघ्र से शीघ्र दोनों हाकिमों को पराजित कर अरब सेना के पाँव उखाड़ने थे। एक हाकिम तो स्वयं दौड़ा उसकी ओर चला आ रहा था, किन्तु एक अब भी दूर खड़ा उस पर दृष्टि जमाए हुए था। मानों वो दूसरा हाकिम अलाउद्दीन, कालभोज और निजाम के टकराव के परिणाम की प्रतीक्षा में हो, और उसी अनुसार भागने या लड़ते रहने का निर्णय ले। रावल दौड़ता गया और उछला। और अपनी कमर में बंधी कटार निकालकर निजाम के माथे पर चोटकर उसे विचलित कर दिया और क्षणभर में ही उसकी छाती पर लात मारकर उसे उसके अश्व से गिरा दिया। उसने तत्काल ही बिना एक क्षण गँवायें निजाम के बलिष्ठ अश्व की पीठ पर छलांग लगाकर उसे साधा और अलाउद्दीन की ओर बढ़ चला।
रावल को ऐसे भयानक अश्व को इतनी सरलता से साधते हुए देख अलाउद्दीन आश्चर्य में पड़ गया। वो ये विचारकर भी सकपका गया कि निजाम को मारे बिना रावल उसकी ओर क्यों आ रहा है। वहीं निजाम भी तत्काल ही भूमि से उठा और एक भागते हुए अश्व को साधकर रावल के पीछे दौड़ा।
अलाउद्दीन भय के मारे काँप तो रहा था किन्तुु यदि एक बालक से डरकर भागता तो उसकी सेना का मनोबल गिर सकता था इसलिये उसने अपने अश्व पर बैठे हुए ही अपने सैनिकों को संकेत दिया। इससे पूर्व रावल अलाउद्दीन तक पहुँचता सैकड़ों अरबी सैनिक उसकी सुरक्षा के लिए सामने आ खड़े हुए।
“बड़े लाजवाब जंगजू हो बच्चे, पर भेड़ियों के झुण्ड में आने की भूल कर दी।” हाकिम अलाउद्दीन के चेहरे पर मुस्कान छा गयी।
कालभोज को सैनिकों से घिरता हुआ देख कन्नौजनरेश नागभट्ट ने तत्काल ही बिगुल को एक दूसरी धुन में बजाया। रावल के चहुं ओर सैकड़ों सैनिकों ने घेरा बनाना आरम्भ कर दिया था, किन्तु फिर भी वो अलाउद्दीन के कटाक्ष का उत्तर दिए बिना मुस्कुराता रहा। निजाम भी अपने अश्व पर आरूढ़ हुआ उस घेरे के निकट आ रहा था और दो सहस्त्र से भी अधिक का अरब सैन्यदल भी अपने साथ ला रहा था। तभी रण में स्थापित ऊँचे-ऊँचे टीलों से तीरों की वर्षा आरम्भ हुई। टीलों पर वृक्ष के पत्तों से स्वयं को ढके हुए सहस्त्रों भील योद्धा उठ खड़े हुए। अलाउद्दीन और निजाम, दोनों ही हाकिम पर्वत के टीलों से कूद-कूद कर दौड़ते सहस्त्रों योद्धाओं को देख आश्चर्य में पड़ गये। श्वेत वस्त्र और पगड़ी पहने वो सहस्त्रों भील कदाचित नागभट्ट के बिगुल बजाने की ही प्रतीक्षा में थे जो अरबियों पर काल बनकर टूटने को तैयार थे।
अरबियों की सेना बिखरने लगी और रावल का अलाउद्दीन तक पहुँचने का मार्ग साफ होने लगा। अपनी सेना की दुर्दशा देख हाकिम निजाम भी किसी चोट खाए नाग की भाँति फुँफकारता हुआ रावल के पीछे चला आ रहा था। निजाम के अश्वों का स्वर सुन मुस्कुराते हुए कालभोज कूदकर अपने अश्व पर खड़ा हुआ और पलटकर छलांग मारते हुए निजाम के अश्व के निकट पहुँचा।
स्तब्ध हुए निजाम ने अभी अपनी तलवार उठाई ही थी कि रावल की रक्तरंजित खड्ग उसके कण्ठ के पार हो गयी। कालभोज उस हाकिम को उसके अश्व से घसीटकर भूमि पर ले आया। भूमि पर गिरा निजाम रावल को देख छटपटाते हुए हाथ पाँव मारने लगा। अपनी तलवार उसकी कण्ठ से निकाल उसे तड़पता छोड़ रावल अलाउद्दीन की ओर मुड़ा।
“हर हर महादेव।” माथे से लेकर छाती तक रक्त में नहाया रावल रुद्रावतार वीरभद्र सा भयावह प्रतीत हो रहा था।
अलाउद्दीन का पूरा चेहरा पसीने से भीग गया। वो अपना अश्व मोड़कर भागने की ताक में था, किन्तु इतने में ही रावल दौड़ता हुआ उसके निकट आया और छलांग लगाकर उसकी छाती पर पंजा मार उसे भूमि पर ला पटका।
उसे भयभीत देख रावल ने उसे उठाकर एक पत्थर के सहारे बैठाया और अपनी खड्ग उसके कण्ठ पर टिकाई, “लालसा बहुत बड़ा दुर्गुण हैं, वीर। तुमने हमारी सबसे बड़ी शक्ति महाराज नागभट्ट को एक छोटी सैन्य टुकड़ी के साथ लड़ते देखा और लालच में अपनी पूरी शक्ति वहीं लगा दी, ये सोचकर कि उनका वध करके तुम हिन्दसेना को जीत लोगे, हम्म?”
अलाउद्दीन बिना एक शब्द कहे भय के मारे कालभोजादित्य रावल के मुखमंडल को देखता रहा। भगवा रंग की धोती और वस्त्र के ऊपर लौह कवच धारण किये, माथे पर चंदन का त्रिपुण्ड तिलक लगाये और हाकिम निजाम और शाहबाज के रक्त से नहाये कालभोजदित्य रावल ने अपनी खड़ाऊँ उसकी छाती पर टिकाई, और अपनी आँखों से ज्वाला बरसाते हुए गर्जना की, “देखो अपनी सेना की ओर। बिना नेतृत्व के बिखर चुके हैं और मेमनों की भाँति कट रहे हैं। हम तुम जैसे निशस्त्र और भयभीत प्राणी का वध तो नहीं करेंगे, किन्तु अब चुनाव तुम्हारा है। या तो तुम यूँ ही अपनी सेना को कटते देखते रहो, या पराजय स्वीकार लो।”
अलाउद्दीन ने सहमति में सिर हिलाया और हाथ ऊपर कर भूमि से उठा। वो तत्काल ही अपने अश्व के निकट गया और उसपर चढ़कर श्वेत ध्वज लहराते हुए घोषणा की, “शिकस्त कबूल करो।”
“हर हर महादेव।” अरबियों के पीछे हटने पर हिन्दसेना के सभी वीरों ने उद्घोष किया।
अपनी सेना को पीछे हटने का संकेत देने के बाद अलाउद्दीन ने रावल की ओर देखा। कालभोज ने उसे नीचे उतरने का संकेत किया। हाकिम अलाउद्दीन नीचे आया और रावल के संकेत पर घुटनों के बल बैठकर सर झुका लिया।
अरब सेना का समर्पण सुनिश्चित करने के उपरान्त रावल ने महाराज दाहिर की ओर संकेत किया और एक ओर हट गया। अपने साथ खड़े मेवाड़ नरेश मानमोरी के कंधे पर हाथ रख महाराज दाहिर ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, “मन में एक बार किसी के लिए कड़वाहट उत्पन्न होना आरम्भ हो जाये, तो वहीं से हमारी स्वयं की सद्भावना भी पतन की ओर चल पड़ती है और हमारा आत्मविश्वास भी नष्ट होने लगता है, मेवाड़ नरेश। इसलिए मेरा सुझाव है कि आप किसी की ओर से भी मन मैला न करें।” उन्होंने रावल की ओर संकेत करते हुए कहा, “यदि आज भी मेवाड़ की पवित्र माटी में जन्में इस रणबांकुरे का शौर्य देख आपकी छाती गर्व से न फूले, तो कदाचित आप स्वयं को ही ठगने का प्रयास कर रहे हैं।”
मेवाड़ नरेश मानमोरी ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, “आप उचित कह रहे हैं, सिंध नरेश। ईश्वर करे हमारे बहनोई स्वर्गीय ‘नागादित्य’ के इस सुपुत्र कालभोजादित्य रावल की कीर्ति समग्र भारत वर्ष में फैले।”
कहना कठिन था कि महाराज मानमोरी के ये शब्द उनके हृदय से निकले थे या औपचारिकता मात्र थे। किन्तुु फिर भी वो सिंध नरेश के साथ हाकिम अलाउद्दीन की ओर बढ़ते रहे।
वहीं रावल दूर हटकर खड़ा हो गया जहाँ कन्नौजनरेश महाराज नागभट्ट ने उसके निकट आकर उसकी पीठ थपथापते हुए कहा, “अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया, बालक। महाऋषि हरित के विश्वास को सत्य सिद्ध कर दिखाया तुमने।”
“इस अवसर के लिए मैं आप सभी राजाओं का बहुत आभारी हूँ, महामहिम। बस महादेव की कृपा बनी रहे, और क्या चाहिए जीवन में।” रावल हल्के से मुस्कुरा दिया।
नागभट्ट ने मुस्कुराते हुए एक ओर खड़े भीलों की ओर देखा। भीलों के झुण्ड में कालभोज एक विशिष्ट भील को थोड़े क्रोध में घूर रहा था। वहीं अँधेड़ उम्र का वो भील रावल से नजरें चुराते हुए भूमि पर दृष्टि गड़ाए हुए था। महाराज नागभट्ट ने क्षणभर रावल की ओर देखा फिर चलकर उस भील योद्धा के निकट आये और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसके कान में धीरे से कहा, “जिस दिन उसने तुम्हारे हृदय पर छपे ग्लानि के इस घाव को देख लिया, उस दिन सारा वैमनस्य भूल वो स्वयं तुम्हें आलिंगन देगा, सरदार ‘बलेऊ ’।”
“जय भवानी।” भील जाति के सरदार बलेऊ ने मुस्कुराते हुए सर हिलाया। कन्नौजनरेश नागभट्ट उसकी पीठ थपथपाकर आगे बढ़ गये। वहीं कालभोज ने कुछ क्षणों तक भीलराज को घूरने के उपरान्त मुँह फेर लिया। बलेऊ भी अपना सर झुकाकर विनम्रता पूर्वक पीछे हट गया।
सिंध नरेश दाहिर उस हाकिम अलाउद्दीन के निकट आये जो पहले से ही भयभीत भूमि पर अपना मस्तक झुकाए बैठा हुआ था। राजा दाहिर उसकी ओर देख मुस्कुराये, “भरत खण्ड की ओर दृष्टि उठाने वाले हर आक्रांता के मुख पर मैं यही भय देखना चाहता हूँ।” श्वास भरते हुए सिंध नरेश ने गर्व से भरकर कहा, “आज हिंदसेना के केवल तीसरे भाग ने ब्राह्मणाबाद को स्वतंत्र करा लिया, और कल पूरा सिंध स्वराज के वर का आलिंगन करेगा। हाकिम अलाउद्दीन बुठैल, जाओ और हमारी ओर से अपने सुल्तान अलहजाज को चेतावनी दो, कि वो सिंध के बचे हुए भू-भाग से अपनी सैन्य चौकियाँ हटा लें, चाहें वो सीसम हो, नेरुन, या फिर देबल की सीमाएँ। यदि तीन माह के भीतर सारी अरब सेना सिंध छोड़कर नहीं गयी, तो हिन्दसेना के सेनानियों की अगली दावत बगदाद में होगी वो भी पूर्ण अधिकार से। सन्देशा पहुँचा दो।”
अलाउद्दीन ने सहमति में सिर हिलाया और वहाँ से उठकर अपने सैन्यदल के पास लौट गया। रावल को देखकर दाहिर का गर्व से फुला सीना देख मानमोरी के कलेजे पर मानों सांप लोट रहा था। सिंध नरेश पुनः रावल के निकट गये और उससे प्रश्न किया, “तुम अब तक यहीं खड़े हो। हरित ऋषि तुम्हारी प्रतीक्षा में होंगे न?”
रावल ने मुस्कुराते हुए कहा, “निसंदेह महामहिम, किन्तु गुरुदेव से भेंट करने से पूर्व मैं अपने महागुरु से भेंट करने का इच्छुक हूँ। उनकी कृपा के बिना तो मेरा जीवन ही अधूरा है।”
“अवश्य, अवश्य।” महाराज दाहिर यूँ मुस्कुराये मानों उसका संकेत समझ गये हों, “इस रणभूमि से पूर्व दिशा की ओर नाक की सीध में जाना। दो कोस की दूरी तय कर तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाओगे।”
मुस्कुराते हुए रावल अपने वस्त्रों और मुख पर लगा रक्त पोंछे बिना ही अश्व पर आरूढ़ हुआ और अपने गंतव्य की ओर बढ़ चला।
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निर्धारित दूरी तय कर अपने लक्ष्य तक पहुँचकर जब कालभोज ने सामने का दृश्य देखा, तो अभी तक मुख पर लगे शत्रु के रक्त का स्पर्श पा रहे उसके नेत्रों को शीतलता की वो अनुभूति हुई जैसे उसके युद्ध की सारी थकान मानों मिट सी गयी हो। वो अश्व से उतरा और अपने समक्ष स्थापित शिवलिंग की ओर देखा। श्रद्धा से उसके दोनों हाथ जुड़ गये और मुख से फूट पड़ा, “ॐ नमः शिवाय।”
उसके शब्द सुन शिवलिंग का पूजन कर रहे पुजारियों की दृष्टि उस पर पड़ी। रक्त में नहाये कालभोजादित्य रावल ने तत्काल ही अपनी खड़ग निकाल उसे अपने माथे से लगाया और उसे सामने रख दायें घुटने के बल बैठ महादेव के समक्ष अपना सर श्रद्धा से झुका लिया।
एक पुजारी ने निकट आकर उसकी ओर गर्व से देखा, “रणभेरी तुम्हारी प्रशंसा में गूंज रही है। प्रतीत होता है महाकाल की कृपा से आज शत्रुओं पर प्रलय बनकर टूटे हो, रावल?”
रावल ने बिना कोई उत्तर दिए उस पुजारी की ओर मुस्कुराते हुए देखा और सहमति में सिर हिलाया। पुजारी ने मुस्कुराकर अपने शिष्यों को संकेत दिया।
उस पुजारी के तीन शिष्य उसके निकट आये और कालभोज को दुग्ध स्नान कराया, जिससे उसके शरीर पर सना शत्रु का मैला रक्त मिटने लगा। शीघ्र ही स्वयं को स्वच्छ कर रावल ने नारंगी धोती और जनेऊ धारण कर कंधे पर भगवा अंग वस्त्र रखा। फिर मुख्य पुजारी के निकट आकर अपने हाथ जोड़े और शिवलिंग की ओर संकेत करते हुए कहा, “अब यदि आपको आपत्ति न हो, तो मैं अपने आराध्य के साथ एकांत चाहूँगा।”
मुख्य पुजारी ने मुस्कुराते हुए पुनः उसके मस्तक को चंदन द्वारा त्रिपुण्ड तिलक से अलंकृत किया और उसके कंधे पर हाथ रख बोले, “मातृभूमि और धर्म की रक्षा के पहले अभियान की सफलता पर बधाई हो, कालभोजादित्य रावल।”
रावल ने पुजारी को प्रणाम किया। पुजारी जी प्रेम से उसके सर पर आशीष से भरा हाथ रख आगे बढ़े और अपने शिष्यों को भी रावल को एकांत में छोड़ने का संकेत दिया।
उनके जाने के उपरान्त रावल शिवलिंग के निकट आया और सर्वप्रथम दूध से रुद्र का अभिषेक किया। फिर पुष्प अर्पण कर पालथी मारकर ध्यान में बैठा और “ॐ नमः शिवाय” का जाप आरम्भ किया।
एक घड़ी तक ध्यान लगाकर जाप करने के उपरान्त रावल ने उठकर शिवलिंग के ऊपरी भाग अर्थात मस्तक पर बने त्रिपुण्ड तिलक पर चंदन का टीका लगाया और एक टांग पर खड़े होकर शिवलिंग को नमन किया। अगले ही क्षण उसने भूमि में गड़ा एक त्रिशूल निकाला और शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करते हुए नृत्य आरम्भ किया।
एक घड़ी में कई बार स्त्रोत का जाप करते हुए रावल ने अपना पूजन समाप्त किया और पुनः महादेव के समक्ष समाधि लगाकर बैठ गया। नेत्र बंद करके ध्यान मग्न होने के उपरान्त भी उसके मुख पर शिकन दिखाई दे रही थी।
“क्या आज महादेव का सानिध्य भी तुम्हारे तपते मन को शांत नहीं कर पा रहा?”
वो स्वर सुन रावल अपनी आँखें खोल पीछे मुड़ा। भगवा वस्त्र धारण किये, रेशम के समान चमकती लम्बी जटा और दाढ़ी वाले एक अनन्य तेजस्वी ब्राह्मण देव उसकी ओर गंभीर भाव से देख रहे थे। रावल उठकर उनके निकट गया और उनके चरण स्पर्श किये, “प्रणाम गुरुदेव।”
चंद्रमा की शीतलता बरसाती उनकी आँखों की ओर दृष्टि डाल मानों रावल के मन के कष्ट दूर से होने लगे। उसने अपने गुरु को प्रणाम कर विनम्रता पूर्वक कहा, “भीलों को आपातकाल के लिए पर्वतों में छुपाया गया था। किन्तु..।”
“और तुम उनकी सहायता के बिना ही ये युद्ध जीतना चाहते थे, है न ?” गुरुदेव मुस्कुराये, “सरदार बलेऊ को इस युद्ध में भाग लेने का आमंत्रण कन्नौज नरेश नागभट्ट ने दिया था, तो इस उदविघ्नता का कारण क्या है ?”
रावल ने विचलित स्वर में कहा, “मैं उन्हें क्षमा नहीं कर सकता, गुरुदेव। जब भी उस बलेऊ का मुख मेरी दृष्टि के समक्ष आता है, ऐसा..” कहते हुए उसकी मुट्ठियाँ भिंच गयीं, “ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई बैरी हृदय पर कटाक्ष के असीमित बाण चला रहा हो।” उसकी आँखें क्षण भर को बंद हुई और उनके समक्ष अतीत का एक दृश्य तैयार हो गया।
मुख पर आवरण धारण किये कुछ लोग तलवार थामें एक योद्धा पर बाण पर बाण चलाये जा रहे थे। वो योद्धा घायल होकर कालभोज के समक्ष घुटनों के बल झुका और अपने रक्तरंजित हाथ से उसके मस्तक पर गर्व से हाथ फेरा। रक्त में नहाये वो नेत्र कदाचित बड़ी आशा से कालभोज को निहार रहे थे।
अगले ही क्षण गुरुदेव का हाथ कंधे पर पड़ते ही रावल के नेत्र खुल गये। मौन हुए कालभोज के विचलित मुखमंडल को देख उसके गुरु ने उससे प्रश्न किया, “प्रतिशोध बड़ा या राष्ट्रहित?”
रावल के नेत्र लज्जा से झुक गये, “क्षमा कीजिए, गुरुदेव। जानता हूँ भीलों की योग्यता हमारे लिए बहुत उपयोगी है, उसके उपरान्त भी मैंने..।”
“कोई बात नहीं, रावल। किन्तु जब भी रण में जाओ, इन दो शब्दों के अंतर को सदैव स्मरण रखना। अन्यथा एक अधर्म समस्त जीवन की कीर्ति को धूमिल करने को पर्याप्त होता है।”
रावल ने सहमति में सिर हिलाया। गुरुदेव ने उसकी पीठ थपथपाई, “महल की ओर चलो। कल हमें नागदा लौटना है, जहाँ तुम्हारी माता की अस्थियाँ प्रतीक्षा में हैं।”
माता का स्मरण कर कालभोज के नेत्रों में नमी सी आ गयी। उसने गुरु के चरण स्पर्श किये और भारी मन से वहाँ से प्रस्थान कर गया। उसे जाता देख वो ब्राह्मण देव वहीं खड़े रहे। तभी सिंध नरेश दाहिर के साथ कन्नौज नरेश नागभट्ट वहाँ प्रस्तुत हुए। साथ में भील सरदार बलेऊ भी खड़े थे। तीनों ने उस ब्राह्मण को आदर पूर्वक प्रणाम किया, “महाऋषि ‘हरित’ को हमारा कोटि-कोटि प्रणाम।”
हरित ऋषि ने हाथ उठाकर आशीर्वाद का संकेत दिया, “विजय की बधाई हो। अदम्य साहस का परिचय दिया है आपके योद्धाओं ने।”
महाराज दाहिर ने विनम्र भाव से कहा, “इसका सबसे बड़ा श्रेय तो आपको जाता है, मुनिवर। आपने ही तो न जाने कितने वर्षों के श्रम से रावल जैसे अद्भुत योद्धा को तैयार किया है।”
“निसंदेह, हम सभी आपके आभारी हैं।” नागभट्ट ने भी उनका समर्थन किया।
“मनुष्य का सामर्थ्य उसके आत्मबल से जन्म लेता है। इसलिए सत्य कहूँ तो मैं भी रावल जैसा शिष्य पाकर स्वयं को भाग्यवान समझता हूँ, जो मुझे ऐसे उच्च कोटि के सामर्थ्य को निखारने का अवसर प्राप्त हुआ।” कहते हुए उनकी दृष्टि भीलराज बलेऊ की ओर मुड़ी, “किन्तु उसकी शिक्षा तब तक पूर्ण नहीं होगी, जब तक वो अपने वैमनस्य को नियंत्रित कर हृदय को क्षमा दान देने जितना सामर्थ्यवान ना बना ले। वो भी सत्य को जाने बिना।”
भील सरदार बलेऊ मुस्कुराये, कदाचित वो महर्षि हरित के संकेत को समझ गये थे।
तत्पश्चात हरित ऋषि महाराज दाहिर की ओर बढ़े, “ब्राह्मणाबाद तो अरबियों के अधिकार से मुक्त हुआ। अब आगे की क्या योजना है, महाराज?”
“सम्पूर्ण सिंध की स्वतंत्रता, यही एकमात्र लक्ष्य है हमारा। हमने उस अरबी हाकिम को चेतावनी दी है कि तीन माह में वो पूरे सिंध से अपनी सारी सैनिक टुकड़ी हटा दे। अन्यथा हम अरबियों की हर एक चौकी को ध्वस्त कर देंगे और फिर बगदाद पर चढ़ाई करने आगे बढ़ेंगे।” दाहिर ने छाती फुलाकर गर्व से कहा।
“अब भी सिंध में जो शत्रु की सैनिक टुकड़ी है उनकी संख्या एक लाख से भी ऊपर है। तीन माह के समय में शत्रु और शक्तिशाली होकर पुनः सिंध पर हावी हो सकता है। और हम ये भी जानते हैं कि ये अरबी छल से आक्रमण करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। फिर भी आपको लगता है आप ब्राह्मणाबाद में सुरक्षित हैं?” हरित ऋषि ने प्रश्न उठाया।
कुछ क्षण विचार कर राजा दाहिर ने कहा, “कदाचित आप उचित कह रहे हैं, ऋषिवर। किन्तु वचन के मोल का क्या? अब अगले तीन मास शत्रु के पहल किये बिना हम उस पर आक्रमण नहीं कर सकते।”
श्वास भरते हुए हरित ऋषि ने प्रश्न किया, “तो फिर अपने विशिष्ट गुप्तचरों की टोली को सशक्त कीजिए, महाराज। और इतना भी पर्याप्त नहीं है। अब यदि अगला आक्रमण हुआ तो अरब सेना कम से कम दोगुना सैन्य दल लेकर आएगी, हिन्दसेना की शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता है।”
“तो आपका क्या सुझाव है, ऋषिवर?” नागभट्ट ने प्रश्न किया।
“वचन तोड़कर प्रजा की दृष्टि में गिरना तो उचित नहीं होगा।” हरित ऋषि ने सामने की ओर दृष्टि घुमाई मानों किसी की प्रतीक्षा में हों, “मेवाड़ नरेश कहाँ रह गये?”
कोई उत्तर न सूझने पर महाराज दाहिर ने श्वास भरकर नागभट्ट की ओर देखा। नागभट्ट ने उनके कंधे पर हाथ रख ढाँढस बँधाने का प्रयास करते हुए हरित ऋषि की ओर मुड़े, “वो मेवाड़ नरेश..।”
“उस मूर्ख और विलासी मानमोरी के लिए आप दोनों को कोई स्पष्टता देने की आवश्यकता नहीं है। मुझे भलीभाँति ज्ञात है कि मेवाड़ की गद्दी पर कुंडली मारकर बैठा वो नराधम ‘परमारवंश’ पर कितना बड़ा कलंक है।”
“किन्तु ये भी सत्य है ऋषिवर, कि इस समय भारत वर्ष की सबसे शक्तिशाली सेना मेवाड़ की ही है। राजा मानमोरी की शक्ति के बिना हिंदसेना का बल आधा हो जायेगा।” दाहिर ने तर्क दिया।
“हिन्दसेना की शक्ति अब भी पर्याप्त नहीं है, महाराज। ब्राह्मणाबाद को तो हमने जीत लिया, किन्तु अब भी हमें मेवाड़ जैसे ही एक और शक्तिशाली राज्य के समर्थन की आवश्यकता है।”
यह सुनकर नागभट्ट ने अनुमान लगाने का प्रयास किया, “कहीं आप चालुक्य वंश से..।”
“आपने उचित अनुमान लगाया कन्नौजनरेश। मैं दक्षिण में चालुक्य वंश के शासक बादामी नरेश विजयादित्य की ही बात कर रहा हूँ।” हरित ऋषि ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
“किन्तु परमार और चालुक्य वंश में जो वर्षों की शत्रुता है, उसका क्या? क्या आपको वास्तव में लगता है मानमोरी या विजयादित्य में से कोई भी इस संधि के लिए तैयार होगा?” नागभट्ट ने शंका जताई।
हरित ऋषि ने मुस्कुराते हुए नागभट्ट की ओर देखा, “आप सूर्यवंशी प्रतिहारियों से भी मेवाड़ के सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं थे, महाराज नागभट्ट। किन्तु विदेशी आक्रान्ताओं से राष्ट्र की रक्षा के लिए आपने और मेवाड़ नरेश ने आपस की कड़वाहट मिटाकर महाराज दाहिर की सहायता करने का निश्चय किया।”
हरित ऋषि ने आगे कहा, “हमें ज्ञात है चालुक्यों और परमारों में शत्रुता की ज्वाला कुछ वर्षों से कहीं अधिक भड़की हुई है। किन्तु यदि विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्ति पानी है तो प्रयास तो करना ही होगा।”
“तो योजना क्या है ?” दाहिर ने प्रश्न किया।
हरित ऋषि शिवलिंग की ओर मुड़े और गंभीर स्वर में कहा, “अभी कोई विशेष योजना तो नहीं बनाई। महाराज विजयादित्य और मेवाड़ नरेश के मध्य शत्रुता का आरम्भ मेवाड़ के महायोद्धा ‘नागादित्य’ के कारण हुआ था। अब पिता के कंधों का भार पुत्र को ही उठाना होगा।”
To be continued..