कहते हैं, इतिहास कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं होता। कुछ कहानियाँ दीवारों में कैद रह जाती हैं । और कुछ आत्माएँ… अधूरी रहकर भी अमर हो जाती हैं।
"काला पानी" — एक ऐसा नाम, जिसे सुनते ही आज भी दिल सिहर उठता है। कभी यह स्थान स्वतंत्रता सेनानियों की यातना का प्रतीक था, और आज यह इतिहास का एक मूक स्मारक बन चुका है। पर कुछ स्मारक केवल देखने के लिए नहीं होते — कुछ के पास अब भी कहने को बहुत कुछ होता है।
आरव राघव, 28 वर्षीय लेखक, इतिहास और रहस्य की कहानियों को खोजकर लिखता था। उसने अपने लेखन से काफी पहचान बना ली थी, लेकिन अब वो एक ऐसी कहानी की तलाश में था जो केवल पन्नों में दर्ज न हो — जो कहीं बंद हो, छिपी हो, दबा दी गई हो, और जिसे दुनिया जानती ही न हो। इसी खोज ने उसे अंडमान की ओर खींचा — उस स्थान की ओर, जिसे कभी 'काला पानी' कहा जाता था।
सेल्युलर जेल — एक विशाल पत्थर की इमारत, जहाँ एक-एक ईंट आज़ादी की कीमत पर रखी गई थी। जेल अब म्यूज़ियम बन चुका था, जहाँ हज़ारों पर्यटक आते हैं, फोटोज़ लेते हैं, और आगे बढ़ जाते हैं। पर आरव वहाँ सिर्फ देखने नहीं, महसूस करने गया था। उसके पास एक पुराना नक्शा था — 1890 का — जिसमें जेल के उस हिस्से का ज़िक्र था जो अब किसी रिकॉर्ड में नहीं मिलता।
तीसरे दिन, जेल की सबसे पुरानी गली के अंत में उसे एक जंग लगा हुआ दरवाज़ा दिखा, जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था — “यहाँ प्रवेश निषेध है – सरकारी आदेश।” आरव का मन जैसे उसी पल ठहर गया। गाइड ने फौरन उसे रोका, “सर, उधर मत जाइए। वो हिस्सा... ठीक नहीं है।” जब आरव ने वजह पूछी, गाइड ने बस इतना कहा — “जिसने भी उस कोने में कदम रखा है, या तो बीमार पड़ा है या अजीब हरकतें करने लगा है। वहाँ कोई आत्मा है... जो जागती नहीं, जगाई जाती है।”
रात को आरव होटल लौट आया, लेकिन नींद गायब थी। खिड़की से आती नम हवा में उसे अजीब-सी सरसराहट महसूस हो रही थी — जैसे कोई बार-बार कह रहा हो, “आओ…”। और उसने निश्चय कर लिया। आधी रात के करीब, वह अकेला जेल की ओर निकल पड़ा। गार्ड सो रहे थे। वह पिछली दीवार के एक टूटे हिस्से से अंदर घुसा और सीधे उस गली की ओर बढ़ गया।
जब उसने ताले को छुआ, तो उसे यह अजीब लगा कि कोई कुंजी न होने के बावजूद वह खुद-ब-खुद टूट गया। दरवाज़ा चरचराता हुआ खुला और एक सड़ी हुई, ठंडी हवा बाहर निकली — जैसे अंदर किसी ने साँस रोक रखी थी और अब पहली बार बाहर आया हो।
अंदर गहरा अंधेरा था। उसकी टॉर्च की रौशनी में दिखाई दिया — दीवारों पर किसी अज्ञात भाषा में मंत्र उकेरे गए थे। बीच में एक पुराना चटाई जैसा आसन पड़ा था, जिसके चारों ओर राख बिखरी थी। वहाँ एक थाली भी थी, जिसमें काली, सूखी हुई वस्तु जमा थी — शायद खून। दीवार पर एक नाम खुदा था — “रघुपति शरण, 1910”
आरव काँप गया। उसे याद आया — रघुपति शरण नाम का एक क्रांतिकारी जिसे अंग्रेज़ों ने ‘पागल तांत्रिक’ घोषित कर जेल में जिंदा चुनवा दिया था। उस पर आरोप था कि वो जेल में विद्रोह के लिए मंत्र और साधना का प्रयोग कर रहा था। उसके बारे में बहुत कम जानकारी थी — जैसे इतिहास ने खुद उसे मिटा देना चाहा हो।
जैसे ही आरव ने थाली को छुआ, टॉर्च बुझ गई। चारों ओर अंधेरा, ठंडी हवा, और उसके कानों में एक धीमी, गहरी आवाज़ गूंजने लगी — “मुझे अधूरा छोड़ा गया… मेरी साधना को कलंक कहा गया… पर मैं अधूरा नहीं रहूँगा…” आरव ने महसूस किया कि कोई उसके बहुत पास खड़ा है। उसकी साँसें उसकी गर्दन पर महसूस हो रही थीं।
धीरे-धीरे दीवार पर एक छाया उभरने लगी — एक लंबा, दुबला इंसान, जटाधारी, आँखों से जलती आग। वह कोई भूत नहीं था — वह विद्या, क्रोध और अपमान का मिश्रण था। "तू लेखक है… मेरी कहानी लिखेगा… वरना अगला नाम तेरी दीवार पर होगा।” आरव के हाथ काँपने लगे। उसने डायरी खोली और जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसके हाथों से खुद लिखवा रही थी।
शब्द बनते चले गए: "मुझे झूठा साबित किया गया… मेरी साधना को समझा ही नहीं गया… मैं आज़ादी नहीं चाहता था, मैं आत्म-ज्ञान चाहता था… और मेरी विद्या पूरी होगी… तेरे शब्दों से…”
जब लेखन समाप्त हुआ, कमरे की हवा अचानक शांत हो गई। हल्की रौशनी फर्श पर उतरने लगी — सुबह हो चुकी थी। आरव को होश तब आया, जब वह जेल के मुख्य अहाते में पाया गया। गार्ड्स और गाइड ने घेर लिया। उन्होंने पूछा, “आप कहाँ थे?” आरव ने जवाब दिया — “कोठरी नंबर 9 में।”
गाइड एकदम चौंक गया। “पर सर, वो कोठरी तो 1911 में ही सील कर दी गई थी… उसका नंबर रिकॉर्ड से हटा दिया गया है…”
कई महीने बाद, दिल्ली में आरव की नई किताब "काला पानी का रहस्य" प्रकाशित हुई। किताब इतनी सजीव थी कि पाठकों को लगा जैसे वे खुद जेल के अंधेरों में खड़े हैं। एक पत्रकार ने आरव से पूछा — “आपने इतनी प्रामाणिक जानकारी कहाँ से प्राप्त की?” आरव मुस्कराया और बोला — “मैंने नहीं लिखी… मुझे लिखवाई गई।”