दिल्ली यूनिवर्सिटी के आर्ट्स फैकल्टी में वो दिसंबर की ठंडी सुबह थी। हवा में हल्की धुंध थी, और कैंपस की कॉफी की खुशबू दूर तक जा रही थी। पेड़ों की शाखाओं पर ओस की बूंदें टिकी हुई थीं, और गलियों में सुबह की नमी अब भी सांस ले रही थी।
विवान, कंप्यूटर साइंस में सेकंड ईयर का छात्र, लाइब्रेरी के सामने से गुजर रहा था, जब उसकी नजर पड़ी उस लड़की पर — कव्या।
कव्या राजनीति विज्ञान की छात्रा थी। वह एक कोने में बैठकर ‘Indian Constitution’ पढ़ रही थी, और कभी-कभी आंखें उठाकर आसमान की ओर देखती थी — जैसे कोई सवाल भीतर चल रहा हो। उसके गले में बंधा स्कार्फ़ और कंधे पर टंगा बैग उसके सादगी भरे व्यक्तित्व को और निखार रहा था। पास रखी कॉफी कप से उठती भाप और उसके चेहरे पर फैलती सुबह की धूप — दोनों में एक अनकहा आकर्षण था।
तभी हवा में एक हलका झोंका आया, और कव्या की किताब नीचे गिर गई।
विवान ने आगे बढ़कर किताब उठाई, और मुस्कराते हुए कहा:
“शायद किताबें भी चाहती हैं कोई उन्हें पढ़े, नहीं तो खुद ही नीचे आ जाती हैं।”
कव्या ने मुस्कान दी —
“या फिर कोई उन्हें उठाए… शायद जवाब वहीं से मिले।”
यही उनकी पहली मुलाकात थी। एक किताब ने दो दिलों को जोड़ने की शुरुआत की थी।
उस दिन के बाद, विवान ने अक्सर कव्या को लाइब्रेरी में देखा। एक बार उसने साथ कॉफी पीने का न्योता दिया। कव्या ने सहजता से स्वीकार किया।
धीरे-धीरे दोस्ती बढ़ने लगी। दोनों की रुचियाँ अलग थीं —विवान टेक्नोलॉजी और स्टार्टअप्स में रुचि रखता था,जबकि कव्या सामाजिक सुधार, प्रशासन और संविधान को लेकर जुनूनी थी।
पर दिल की भाषा एक जैसी थी — सादगी, इमानदारी और गहराई। कॉलेज की गलियों में साथ घूमना, सरसरी बहसें, और एक-दूसरे की आँखों में उतर जाना — अब आदत बन चुकी थी।
एक शाम, जब वे दोनों रेनबो पार्क में बैठकर चुपचाप किताब पढ़ रहे थे, कव्या ने अचानक पूछा:
“विवान, अगर मुझे कभी किसी मोड़ पर छोड़ना पड़े, तो क्या तुम समझोगे?”
विवान ने आंखों में देख कर कहा —
“अगर तुम्हारी उड़ान मेरी हथेली से ऊंची है, तो मैं नीचे रहना पसंद करूंगा। साथ नहीं, तो भी तुम्हारा साया रहूंगा।”
कव्या के होठों से सिर्फ एक शब्द निकला —
“पागल…”
उसी दिन, उन दोनों ने अपने प्यार को शब्द नहीं दिए, पर उनके बीच अब सिर्फ दोस्ती नहीं रही थी।
कॉलेज का आखिरी साल चल रहा था। जहां बाकी दोस्त प्लेसमेंट की तैयारी में थे, वहीं कव्या ने I.A.S की कोचिंग शुरू कर दी थी।कव्या का सपना था — समाज के लिए कुछ बड़ा करना।
और विवान का सपना था — कव्या का सपना पूरा होते देखना।
विवान को बेंगलुरु की एक टॉप IT कंपनी से ऑफर मिल गया था। पैकेज अच्छा था, करियर के लिए स्वप्न जैसी जॉब। पर उसने वो ऑफर इंकार कर दिया।
“तेरे बिना हर काम अधूरा लगेगा,” उसने मुस्कराकर कहा।
“जब तक तू अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचेगी, मैं किसी मंज़िल का हक़दार नहीं हूं।”
कव्या उसकी आँखों में देखती रही — उसमें ऐसा प्रेम था, जो सहारा नहीं बनता, पर परों को खुलने देता है।
I.A.S का पहला अटेम्प्ट — असफल।
कव्या टूट गई।
“शायद मैं इस काबिल नहीं हूं…”
वो रोते हुए बोली।
विवान ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया —
“सपने कभी खत्म नहीं होते, बस रास्ते बदलते हैं। मैं हूँ ना, चल फिर से कोशिश करते हैं।”
लेकिन घरवालों का दबाव बढ़ने लगा। रिश्तेदार ताने मारने लगे —
“लड़की है, इतनी पढ़ाई क्या करेगी? शादी कर लो अब…”
कव्या की मां बीमार रहने लगीं। पिता की तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल हो गया।
वो मानसिक रूप से थकने लगी थी।
इसी बीच विवान को सिंगापुर से ऑफर मिला — 28 लाख पैकेज, वीसा, गाड़ी, सब कुछ।
उसने कव्या से कहा —
“मेरे साथ चलो। वहां शांति से तैयारी कर सकोगी। मैं सब मैनेज कर लूंगा।”
पर कव्या चुप रही। कुछ मिनटों के बाद बोली —
“अगर मैं तुम्हारे सहारे मंज़िल तक पहुंची, तो क्या मेरी जीत मेरी होगी?”
“तुम्हारा प्यार मुझे उड़ना सिखाता है… लेकिन मुझे अपने दम पर उड़ना है, विवान।”
विवान के चेहरे पर दर्द उभरा, लेकिन उसने मुस्कराकर कहा —
“फिर उड़… मैं हवा बनकर पीछे रहूंगा।”
दिल्ली हाट के कोने में बैठे दोनों देर रात तक बातें करते रहे।
कव्या ने कहा —
“कल मैं देहरादून जा रही हूं, अकेले तैयारी के लिए। कुछ रिश्ते अगर जड़ बन जाएं, तो उड़ानों की ऊंचाई घट जाती है।”
विवान ने उसका हाथ थामा, पर छोड़ दिया।
"अगर तू अपनी मंज़िल तक न पहुंची, तो ये इश्क़ हार जाएगा — और मैं वो इश्क़ नहीं चाहता जो मंज़िल रोक दे।”
कव्या की आँखों से आँसू गिर रहे थे, लेकिन उस रात किसी का दिल नहीं टूटा, बल्कि एक नया विश्वास पैदा हुआ।
विवान ने अपनी खुद की टेक कंपनी शुरू कर ली थी — “Vivara Tech”.सब कुछ अच्छा था — पैसे, स्टेटस, टीम। पर उसके कमरे की दीवार पर अब भी कव्या की वो फोटो लगी थी — जिसमें वो किताब लेकर मुस्कराती थी।
हर साल, 4 जुलाई को — जिस दिन वो अलग हुए थे — वो चुपचाप इंडिया गेट की उसी चाय की दुकान पर जाता था।
एक सुबह, अखबार की हेडलाइन थी:
“कव्या अग्रवाल बनीं देश की सबसे युवा महिला जिलाधिकारी, समाज सुधार का चेहरा”
विवान का दिल ज़ोर से धड़का।उसने बिना कुछ सोचे फ्लाइट बुक की — सीधे देहरादून के लिए।
कव्या ऑफिस से बाहर निकली तो सामने विवान खड़ा था।
उसने चुपचाप देखा —
"तुम...?"
"बस एक वादा निभाने आया हूँ — चाय पिलानी थी ना…"
कव्या ने साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछी।
"तुम अब भी वही हो?"
विवान बोला —
"मैं बदल गया हूँ… अब और गहरा हो गया हूँ। पर अंदर अब भी तू है।"
कव्या बोली —
“क्या अब हम साथ…?”
विवान ने धीमे से कहा —
“अब तू इतनी ऊँचाई पर है, कि मैं रोकने वाला कोई नहीं।
पर मैं वहीं खड़ा हूँ — जहां तूने छोड़ा था, गर्व के साथ।”
दोनों मुस्कराए।
बिछड़ना अब अफसोस नहीं, बल्कि उपलब्धि था।
“प्यार साथ चलने का नाम नहीं है,कभी-कभी प्यार पीछे रहकर दुआ देने का नाम होता है।
कभी-कभी प्रेम किसी को पकड़ने में नहीं, उसे उड़ने देने में होता है।”
विवान और कव्या की कहानी सिर्फ एक प्रेम कथा नहीं है —यह एक ऐसी मिसाल है, जो हर प्रेमी को यह सिखाएगी किसच्चा प्रेम ना तो साथ रहने की जिद करता है, और ना ही खो जाने का डर रखता है।जहाँ त्याग बिना दुख के होता है,आत्मसम्मान को प्रेम में भी जिंदा रखा जाता है,और विश्वास वक्त के हर इम्तहान में अडिग खड़ा रहता है —वहीं पहुंचती है इश्क़ की आख़िरी मंज़िल।