भाग 1 — वो जो अमावस्या चुराती है
गाँव का नाम था पिसुआ — न तो मानचित्रों में कोई बड़ी जगह, न ही इतिहास की किताबों में कोई ज़िक्र। लेकिन एक चीज़ थी जो इस गाँव को बाकी दुनिया से अलग बनाती थी — यहाँ की अमावस्या की रातें।
हर महीने की एक रात, जब चाँद आसमान से ग़ायब हो जाता, तब गाँव की रफ्तार थम जाती।
जैसे ही सूरज डूबता, पूरा गाँव एक ही जैसे डर में डूब जाता। घर-घर में दरवाज़े बंद कर लिए जाते, लकड़ी की मोटी पट्टियाँ खिड़कियों पर ठोंकी जातीं, और दरवाज़ों पर लाल धागे लपेट दिए जाते — जैसे किसी प्राचीन तंत्र से राक्षस को दूर रखने की कोशिश हो।
बच्चों को जल्दी सुला दिया जाता, लेकिन नींद उनके पास फटकती भी नहीं। क्योंकि सबको पता था — हर अमावस्या की रात, कोई न कोई बच्चा गायब हो जाता है। ये डर कोई नया नहीं था। पीढ़ियों से चला आ रहा था।
बुज़ुर्गों ने कहानियाँ सुनाई थीं —
"हमारे बचपन में भी ये होता था… लेकिन तब कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता था।"
लेकिन सच्चाई सब जानते थे — हर अमावस्या को एक बच्चा गायब होता था।और अगली सुबह, गाँव का कोई बूढ़ा व्यक्ति अचानक 20 साल जवान दिखने लगता। उसके गालों की झुर्रियाँ गायब हो जातीं, आँखों में चमक लौट आती, कमर सीधी हो जाती… और वो खुद कहता,
“भगवान की कृपा है… मैं फिर से जी उठा।”
पर किसी ने कभी ये नहीं पूछा —
"भगवान क्यों हर बार किसी मासूम की ज़िंदगी लेकर ही कृपा करता है?"
गाँव के पुराने हिस्से में एक देवी का मंदिर था, जो अब दशकों से बंद पड़ा था। कहा जाता था, वहाँ कभी एक पुजारी गायब हो गया था अमावस्या की रात… और उसके बाद मंदिर के दरवाज़े खुद-ब-खुद बंद हो गए। लोगों ने मंदिर को बाँध दिया — लोहे की जंजीरों से, कीलें ठोंक कर, और बाहर लिखा:
"इस द्वार को खोलने वाला… अपना जीवन खो देगा।"
गाँव के बच्चे इसे कहानी समझते थे, पर माँ-बाप बच्चों को मंदिर की ओर जाने भी नहीं देते थे।
कुछ बूढ़े-बुज़ुर्ग चुपचाप फुसफुसाते थे:
"ये किसी राक्षस का काम नहीं है… ये तो सौदा करने वाला है… अंधेरे का सौदागर!"
"हर अमावस्या को वो आता है… और किसी की उम्र खरीदता है… मासूमियत के बदले जवानी…"
"ये एक पुराना सौदा है… सौ साल पहले शुरू हुआ था। अब बंद नहीं हो सकता…"
हर अमावस्या की रात… किसी एक घर से एक माँ की चीख़ सुनाई देती थी।
“मेरा बच्चा… मेरा आरव… वो कहाँ चला गया?”
“हम तो साथ ही सो रहे थे… वो बिस्तर से कैसे गायब हो गया?”
“किसी ने खिड़की भी नहीं खोली थी…”
लेकिन गाँव वाले अगले दिन चुप हो जाते। और सरपंच बस इतना कहता:
“भगवान की माया है… जिसको लेना हो, वो ले ही जाता है…”
कभी कोई निशान नहीं मिलता —न कोई दरवाज़ा टूटा होता, न कोई खिड़की खुली, न खून का एक कतरा… पर बच्चा नहीं मिलता।
और सबसे डरावनी बात?
हर बार एक बूढ़ा आदमी या औरत — जो कभी-कभी बमुश्किल चल पाते थे — अमावस्या के बाद सीधा खड़ा हो जाता, मुस्कुराने लगता और कहता, "मैं फिर से जवान हो गया हूँ।"
गाँव की फिज़ा में एक रहस्यमयी चुप्पी होती है। दिन में सब सामान्य लगता है — बच्चे खेलते हैं, औरतें कुएँ से पानी भरती हैं, खेतों में हल चलता है… पर जैसे ही अमावस्या पास आती है, सबकी आँखों में एक अनकहा डर उभर आता है।
और फिर… जब चाँद गायब हो जाता है…
तो कोई और भी आ जाता है… जो सौदा करता है… मासूमियत के बदले जवानी का सौदा…
भाग 2 — सिया का डर
उस रात पिसुआ गाँव के सारे दरवाज़े बंद हो चुके थे।
पर सिया की आँखें खुली थीं — जैसे कोई अनहोनी दरवाज़े पर दस्तक देने वाली हो। वो चुपचाप बैठी थी, अपने सात साल के भाई आरव को छाती से चिपकाए हुए। कमरे में सिर्फ एक पुराना तेल का दीया जल रहा था, जिसकी लौ कभी-कभी काँपती, जैसे किसी अनदेखी साँस की परछाई से डर रही हो।
सिया की माँ को पिछले महीने लकवा मार गया था। शरीर तो जीवित था, लेकिन आँखों में सिर्फ एक डर बैठा हुआ था — जैसे वो सब जानती हो, पर बोल नहीं सकती। रात के उस डरावने सन्नाटे में, माँ की आँखें दीवार की एक ही जगह पर अटकी थीं — जैसे वहाँ कुछ दिखाई दे रहा हो जिसे और कोई नहीं देख पा रहा।
आरव ने धीमे से फुसफुसाया, “दीदी… किसी के चलने की आवाज़ आ रही है।”
सिया का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने खिड़की की ओर देखा — वहाँ कोई परछाईं हिल रही थी। उसने चुपचाप उठकर दरवाज़ा भीतर से फिर से कसकर बंद किया, लकड़ी का पट्टा खींचा और आरव को गोदी में ले लिया।
“डर मत, मैं हूँ ना,” उसने धीरे से कहा।
और तभी…
खिड़की के पुराने कपड़े के परदे में से एक दरार बनी — बहुत पतली सी। उस दरार से झाँका एक चेहरा — न इंसानी… न जानवरों जैसा।
उसकी आँखें आग जैसी लाल थीं, और चेहरा काले धुएँ से बना हुआ लगता था — जैसे धुंआ ठोस हो गया हो। और उसकी मुस्कान… वो मुस्कान इंसानों वाली नहीं थी।
वो मुड़ती जा रही थी, फैलती जा रही थी — जैसे वो मुँह खा जाना चाहता हो। सिया चीख़ना चाहती थी — पर आवाज़ गले में अटक गई। वो भागकर खिड़की के पास गई, कपड़ा कसकर बाँधा, खिड़की की साँकल चढ़ाई।
फिर पलटी…
आरव बिस्तर पर नहीं था।
“आरव!! आरव!!”
उसने कमरे को छान मारा। पलंग के नीचे देखा, अलमारी में झाँका, रसोई तक दौड़ी गई —
कहीं नहीं था। दरवाज़ा अंदर से बंद था। खिड़की पूरी तरह से बंद थी। माँ अब भी उसी दीवार को देख रही थी — उसकी आँखों से एक आँसू टपक रहा था। सिया की साँसे तेज़ हो गईं। उसकी छाती जैसे फटने को आई थी।
"ये कैसे हो सकता है?"
"वो मेरे साथ ही था… उसने खुद कहा था कि बाहर कोई है… और अब… वो कहाँ गया?"
उस रात खिड़की के बाहर की हवा अजीब थी। वो सिसकती नहीं थी, वो कुछ फुसफुसा रही थी।
“सौदा पूरा हुआ…”
“अब अगला इंतज़ार करेगा…”
सिया उस रात टूटी नहीं। वो अंदर से उबल रही थी। उसकी मुठ्ठियाँ भींच गईं। उसने माँ के काँपते चेहरे को देखा, और धीरे से कहा:
“इस बार अमावस्या का सौदा नहीं होगा…”
“अगर कोई अंधेरे में बच्चों को चुराता है… तो मैं अंधेरे को ही जला दूँगी…”
भाग 3 — गाँव का सच
सिया चीख़ती रही।
"आरव कहाँ है? कोई मेरी मदद क्यों नहीं कर रहा?"
लेकिन चारों तरफ़ जैसे एक सुनियोजित चुप्पी थी। लोग खिड़कियों की दरार से झाँकते तो थे, लेकिन कोई बाहर नहीं निकला। दरवाज़ों के पीछे से घुटी-घुटी आवाज़ें आ रही थीं, जैसे सब कुछ जानते थे — लेकिन फिर भी चुप थे। आख़िरकार गाँव का सबसे पुराना आदमी — बूढ़ा मोहन — सामने आया। उसकी आँखें पत्थर सी निर्जीव थीं, जैसे जीवन ने भीतर की आत्मा चूस ली हो। वो लाठी टेकते हुए धीरे से बोला:
“हर अमावस्या को ऐसा ही होता है, बिटिया…”
“हमने भी अपने बच्चे खोए हैं…”
सिया ने उसका कॉलर पकड़ लिया, “तो फिर चुप क्यों हो तुम लोग? क्यों सहते हो ये सब?”
मोहन ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। सिर्फ एक लंबी साँस ली, और बैठ गया।
“सौ साल पहले, इस गाँव में एक विद्वान तांत्रिक आया था,” मोहन बोला, “नाम था ऋत्विक। उसने सौदागर को रोकने की कोशिश की… गाँववालों को समझाया, लड़ने को कहा।”
“फिर क्या हुआ?” सिया ने जल्दी से पूछा।
“उसे ही अगली अमावस्या को निगल लिया गया… और उसके बाद, जो भी सवाल पूछता है… वो भी खो जाता है।”
“अब हम सिर्फ इंतज़ार करते हैं — और डरते हैं।”
तभी एक बूढ़ी औरत आई — चेहरे पर हज़ारों झुर्रियाँ, लेकिन आँखें तेज़ थीं।
"तुम नहीं जानती, बच्ची…" उसने फुसफुसाते हुए कहा,
"'अंधेरे का सौदागर' सिर्फ राक्षस नहीं है… वो नियम है।"
"नियम?" सिया हैरान हुई।
"हाँ," वो बोली, "हर सौ साल बाद वो जागता है… और अगले सौ सालों के लिए हर अमावस्या को एक सौदा तय करता है।"
“हर बार एक बच्चा लेता है… और बदले में किसी को जवानी देता है। वो सौदा हमसे नहीं, हमारे पूर्वजों से हुआ था… जब गाँव पर अकाल पड़ा था।”
सिया को गाँव की पुरानी शिला पर खुदा हुआ श्लोक याद आया, जिसे अब कोई पढ़ता भी नहीं था।
“जहाँ रौशनी मरे और अंधेरा जन्मे, वहाँ एक सौदागर राज करेगा।
मासूमियत बिकेगी, और बुढ़ापा फिर से जी उठेगा।”
उसने पूछा, “तो क्या यह सब एक क़ीमत है — जो हमने खुद तय की थी?”
सुदेश ने सिर झुका लिया।
“हमें लगा था, यह सौदा सिर्फ एक बार का होगा… पर सौदागर हमेशा और माँगता है।”
सिया की आँखों में अब आँसू नहीं थे, सिर्फ आग थी।
उसने गुस्से में कहा:
“तुम सबने हार मान ली होगी… पर मैं नहीं मानूंगी!”
“मैं अंधेरे की दुनिया में जाऊँगी… और अपने भाई को वापस लाऊँगी!”
मोहन काँपता हुआ बोला, “बिटिया, वहाँ जाना मौत को बुलाना है…”
“तो आने दो मौत को…”
सिया की आवाज़ अब काँप नहीं रही थी — वो कसम जैसी लग रही थी।
सुदेश ने धीरे से कहा:
“अगर तुझे सच में सौदागर की दुनिया में जाना है… तो पुराने मंदिर के पास जो सूखा कुआँ है, वहाँ जा।”
“पर याद रखना — उस दरवाज़े से जो गया है… लौट कर कभी इंसान नहीं रहा…”
सिया मुड़ी — और बिना पलटे, अंधेरे में गायब हो गई।
भाग ४ – सौदागर की दुनिया
पिसुआ गाँव की पूर्वी सीमा पर एक वीरान इलाक़ा था — सूखे पेड़ों और उखड़े हुए पत्थरों से घिरा हुआ। वहाँ एक पुराना, गहरा कुआँ था — जो अब पानी नहीं देता था, बल्कि डर और कहानियाँ उगलता था।गाँव में कहा जाता था कि यह कुआँ अब सिर्फ़ "अंधेरे का रास्ता" है।
किसी ने इसे भरने की कोशिश की थी, किसी ने पत्थरों से ढँकने की। लेकिन हर बार — अगली अमावस्या से पहले — वो खुद-ब-खुद खुल जाता था। उस रात, अमावस्या फिर लौट आई थी।
सिया चुपचाप घर से निकली। माँ की बेबस आँखों और आरव की खाली जगह ने उसे लोहे जैसा बना दिया था।उसने घुटनों तक अपनी चुनरी बाँधी, माचिस की एक डिब्बी जेब में रखी — और अकेली उस कुएं की ओर निकल गई, जहाँ आज तक कोई लड़की अकेली नहीं गई थी। कुएं के पास हवा थमी हुई थी।
बिलकुल शून्य।
ना कोई झींगुर की आवाज़, ना कोई पत्ता हिलता था। सिया ने कुएं के पास बैठकर अपनी आँखें बंद कीं। कुछ नहीं बोला। बस इंतज़ार किया। घड़ी ने जैसे ही रात के १२ बजाए, कुआँ हल्के-हल्के कांपने लगा। उसमें से हवा नहीं, धुआँ उठने लगा। एक ठंडी, चुभती हुई भाप, जो साँसों को जला रही थी।
और फिर — कुएं के भीतर से एक साया उठा।
पहले उसकी आँखें दिखीं — लंबवत, जैसे साँप की। फिर उसकी काली आकृति। शरीर नहीं था, बस आकार। वो हवा में तैरता हुआ ऊपर आया… और कुछ इंच सिया से दूर रुक गया। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकला, लेकिन सिया के कानों में वो आवाज़ गूँज गई —
“मुझे मेरा भाई वापस चाहिए!”
उसका स्वर तेज़ नहीं था, लेकिन हर शब्द उसके भीतर की आग में डूबा हुआ था। साया कुछ पल चुप रहा। फिर एक लंबी, गहरी मुस्कान जैसी लहर उसके चारों ओर फैल गई।
“सौदा करोगी?”
सिया की साँसें थम गईं।
“क्या चाहिए तुम्हें?” उसने पूछा।
अब उसकी आवाज़ में काँप नहीं थी। डर अब उसकी हड्डियों से उतरकर उस सवाल में समा गया था। साया धीरे-धीरे उसके चारों तरफ़ घूमने लगा — जैसे उसकी आत्मा को तौल रहा हो।
फिर उसने कहा —
“तेरी मासूमियत…”
“तेरी आत्मा की चमक…”
“तेरी उम्र की सबसे खूबसूरत रात।”
“दे दे — और ले जा जो तुझे चाहिए…”
सिया के चेहरे पर एक पल को खामोशी छा गई। फिर उसने धीरे से सिर हिला दिया।
"हाँ।"
और उसी पल… एक ठंडक उसकी आँखों पर पड़ी — जैसे बर्फ़ की परत उसकी पलकों पर जम गई हो। उसके सामने की दुनिया काली हो गई। चारों ओर सिर्फ़ अँधेरा था — गाढ़ा, जीता-जागता अँधेरा।उसे ऐसा लगा जैसे उसका शरीर ऊपर से नीचे तक किसी धुएँ में बदल गया हो। सोच भी रही थी, मगर सोच पर भी किसी और का क़ब्ज़ा था। उसकी साँसें गिनती में बदल चुकी थीं। और समय... अब उलटा बह रहा था।
वो अब सौदागर की दुनिया में थी।
भाग ५ – मौतों का बाज़ार
सिया की आँखें जब खुलीं, तो उसके आसपास की दुनिया पहले जैसी नहीं थी। ज़मीन काली थी — राख जैसी, लेकिन जिंदा। आसमान पर कोई तारा नहीं था, न कोई चाँद, न कोई रोशनी — सिर्फ़ एक ठहरती हुई घुटन, जो हर साँस के साथ उसकी आत्मा में उतरती जा रही थी। वो जिस जगह पर थी, वो एक बाज़ार था — लेकिन ऐसा बाज़ार जो कोई इंसान कभी नहीं देखना चाहता। चारों ओर तंबुओं की कतारें थीं — काले, चिथड़ों जैसे परदे जिन पर अजीब प्रतीक उकेरे हुए थे।
हर तंबू से आती थी एक अजीब-सी बड़बड़ाहट — जैसे हज़ारों आत्माएँ एक साथ सौदेबाज़ी कर रही हों। जैसे ही सिया ने एक क़दम आगे बढ़ाया, ज़मीन पर एक फूटा हुआ दर्पण दिखा —
उसने झुककर देखा…
… और वो जो चेहरा उसमें था, वो उसका नहीं था।
वो चेहरा थका हुआ था, सूखा, आँखों के नीचे काले घेरे थे — जैसे किसी ने उसकी मासूमियत निचोड़ ली हो।
“यहाँ उम्रें बिकती हैं…”
एक आवाज़ उसके कान में फुसफुसाई। सिया ने पलटकर देखा — वहाँ एक बूढ़ा आदमी खड़ा था, कांपता हुआ, लेकिन उसकी आँखों में उम्मीद थी।उसने अपने काँपते हाथों से एक सिक्का निकाला — और पास के एक तंबू की ओर बढ़ा।तंबू के भीतर एक धुंधली आकृति थी, जो उसे देख रही थी। बूढ़ा उसके सामने झुका — और कहा:
“मेरी रीढ़ सीधी कर दो… मेरी आँखों की धुंध छीन लो… और मेरे दिल को फिर से धड़कने दो।”
उसने अपनी यादें सौंप दीं।फिर — चमत्कार हुआ। उसकी कमर सीधी हो गई, चेहरे की झुर्रियाँ गायब हो गईं… वो फिर से तीस साल का लगने लगा। लेकिन उसकी आँखों में अब कोई जीवन नहीं था।
उसने अपनी ज़िंदगी पाई… पर आत्मा खो दी।
सिया का दिल काँप उठा।
हर तरफ़ यही दृश्य था —कोई अपनी पत्नी की यादें दे रहा था…कोई अपने बच्चों के चेहरे भूल जाने का सौदा कर रहा था…
कोई कह रहा था — “मेरी सारी कविताएँ ले लो, बस एक रात की जवानी दे दो…”
सिया इस भयावह सौदेबाज़ी के बीच खड़ी थी — जब एक अचानक ज़ोर से झोंका आया — और हवा में राख का तूफ़ान उठने लगा।
बाजार की हर आवाज़ थम गई। तंबू हिलने लगे। धरती काँपने लगी।
और फिर… वो आया।
सौदागर।
सिया के सामने एक छाया बनी — पहले धुँधली… फिर गाढ़ी होती गई… और फिर एक रूप में बदल गई, जिसे देख सिया की साँसें थम गईं।
छह आँखें।
तीन जबड़े — ऊपर-नीचे और एक गर्दन के किनारे पर।
हड्डियों से बना शरीर — जो चलता नहीं, बल्कि बहता था।
उसकी गर्दन पर एक प्राचीन घड़ी लटक रही थी — जिसकी सुई उलटी दिशा में चल रही थी…
सिया ने उसकी ओर देखा। सौदागर की सभी आँखें उसकी ओर टिक गईं। उसकी गर्दन के तीसरे जबड़े से एक धीमी आवाज़ निकली —
“स्वागत है, सिया…”
“ये है मौतों का बाज़ार। यहाँ हर चीज़ बिकाऊ है।”
“पर याद रख… जो एक बार बेच दिया — वो वापस नहीं आता।”
सिया ने अपनी मुठ्ठियाँ भींच लीं।
“मुझे मेरे भाई को वापस चाहिए…”
सौदागर मुस्कराया — उसकी तीनों मुस्कानें एक साथ फैलीं।
“हर चीज़ की क़ीमत है… और तेरे पास बेचने को बहुत कुछ है, लड़की।”
सिया जानती थी — आगे जो होने वाला है, वो अब उसकी आत्मा की परीक्षा होगी।
और अगर वो डगमगाई…
तो आरव हमेशा के लिए खो जाएगा।
भाग ६ – आरव की क़ीमत
सिया अब बाज़ार के केंद्र में थी — जहाँ समय ठहरा हुआ नहीं, उलटा बह रहा था। वहाँ, एक नीले-काले अंधेरे के बीचोंबीच, एक विशाल शीशे का पिंजरा रखा था — उसकी दीवारें चमकती थीं, पर उनकी पारदर्शिता से अधिक डरावना था उनका जन्महीन सन्नाटा। सिया ने पिंजरे की ओर देखा… और उसकी चीख़ रुक गई।
आरव।
उसका छोटा भाई — उसका साया, उसकी पूरी दुनिया — वहाँ भीतर, आँखें बंद किए, जैसे किसी नींद में हो जो नींद नहीं, बंधन थी। उसके शरीर के चारों ओर हज़ारों महीन धागे थे — काले, टेढ़े-मेढ़े, जैसे कोई मकड़ी ने जाल बुना हो। हर साँस पर वो धागे कसते जा रहे थे। हर साँस… उसकी ज़िंदगी को छोटा कर रही थी। सिया पिंजरे की ओर भागी।
"आरव!! मैं यहाँ हूँ!! मैं तुझे लेने आई हूँ!!"
लेकिन उसकी आवाज़ शीशे से टकराकर लौट आई। तभी सौदागर पीछे से उभरा —
उसकी घड़ी की उलटी सुई अब और तेज़ी से घूम रही थी।
“उसे बचाना है?” वो फुफकारा।
“तो फिर सौदा कर…”
सिया पलटी। “क्या चाहिए?”
“तेरी यादें।”
सिया कुछ क्षण चुप रह गई।
“कैसी यादें?”
सौदागर ने हाथ बढ़ाया — उसकी उंगलियाँ धुएँ से बनी थीं, और उनमें आकृतियाँ उभरने लगीं —
एक बच्ची अपने भाई को पहली बार गोद में उठा रही थी। एक माँ की गोदी में सिर रखकर सुनाई गई लोरी। पिता की अंगुली पकड़कर स्कूल जाते हुए आरव की मुस्कुराहट। बरसात में दोनों का भीगना, और फिर एक रज़ाई में सिमट कर हँसना…
“इन सबकी कीमत पर…” सौदागर धीमे से बोला,
“तेरा भाई तुझे वापस मिलेगा। ज़िंदा… साँस लेता हुआ… पर तुझसे अनजान।”
“और तू उससे?”
“तू जानती होगी कि कोई था… पर वो कैसा था, क्या था — ये सब भुला चुकी होगी।”
“तेरे जीवन की वो सभी गर्मियाँ — गायब।”
सिया का दिल काँप उठा।
वो जानती थी — यादें ही तो उसका अस्तित्व थीं।
वो ही तो "वो" थी।
पर… आरव।
वो मरने के लिए बहुत छोटा था। उसने माँ की वो आँखें देखी थीं — जो कह तो कुछ नहीं सकती थीं, पर हर बार एक ही सवाल पूछती थीं:
"क्या तू उसे वापस नहीं लाएगी?"
सिया की आँखें भर आईं। उसने सिर झुकाया — और कहा,
“ले जाओ मेरी यादें… लेकिन मेरा भाई मुझे दो।”
सौदागर ने एक काली कलम निकाली — उसने हवा में एक चक्र बनाया, और फिर बोला,
“क़ीमत स्वीकार की गई है। अब तेरी यादें… मेरी संपत्ति हैं।”
सिया की आँखें बंद हो गईं। एक पल के लिए जैसे हर रंग, हर स्पर्श, हर हँसी उससे खिंचती चली गई। वो खड़ी रही — लेकिन अब उसके भीतर का संसार खोखला हो चुका था।
तभी…
पिंजरा टूटा।
आरव बाहर आया — आँखें खुली थीं, साँसें चल रही थीं।
वो भागकर सिया की ओर आया, और चिल्लाया — “दीदी!!”
सिया मुस्कुराई।
पर… वो मुस्कान खाली थी।
उसने आरव को देखा… पर पहचान नहीं सकी।
“कौन…?” वो धीमे से फुसफुसाई।
आरव के चेहरे पर दर्द था — और डर।
“मैं आरव हूँ… तेरा भाई…”
सिया कुछ पल उसे देखती रही।
फिर बोली — “अंदर चलें? यहाँ बहुत अंधेरा है…”
आरव की आँखों से आँसू बह निकले। दीदी मिल गई थी… पर अब दीदी वैसी नहीं रही।
पीछे… सौदागर हँस रहा था।
उसकी तीनों जबड़ों से एक साथ निकली आवाज़ गूँजी —
“मासूमियत के बदले ज़िंदगी… और अब, अगले सौदे की बारी है…”
भाग 7 — उलटा सौदा
सौदागर अब शांत था।
उसकी तीनों आँखें नीची थीं, मानो किसी थके हुए शिकारी की तरह जो अपने जाल में फँसी आत्मा को देख रहा हो। उसने अपनी गर्दन के किनारे लगी उलटी घड़ी को धीरे-से घुमाया —
वक़्त की सुई उलटी दिशा में तेज़ चलने लगी।
“जा सकती है, सिया,” उसने कहा, “तेरा भाई तुझे सौंप दिया। लेकिन याद रख…”
“अगली अमावस्या को तू लौटेगी — खुद एक सौदा बनकर।”
“तब तुझसे वही माँगा जाएगा… जो बचा नहीं है।”
सिया की आँखें गहरी हो चुकी थीं। लेकिन वहाँ आँसू नहीं थे — सिर्फ़ एक सन्नाटा, जो बहुत कुछ कह रहा था। वो धीरे-धीरे मुड़ी। आरव का हाथ थामा। मगर तभी — उसकी नज़र गई उस घड़ी पर।
वो घड़ी… जो उलटा चलती थी।
जो समय को चूसती थी… और यादों की दिशा तय करती थी।
जिसमें हर सौदा दर्ज था।
उसने सौदागर की गर्दन की ओर देखा — और वही पल… उसकी पहली लड़ाई बन गया।
जब सौदागर पीछे मुड़ा, तब सिया ने चुपचाप अपने स्कार्फ के नीचे से एक चमकती धातु की पिन निकाली — वो पिन जो उसकी माँ ने किसी समय बालों में लगाया था… जो शायद उसके पास आख़िरी याद के रूप में रह गई थी।
उसने उस पिन से उस घड़ी की जंजीर को चुपचाप काटा।
CLICK.
घड़ी सौदागर की गर्दन से अलग हो गई। सौदागर चौंका।
“क्या किया तूने?!” उसकी तीनों जबड़े एक साथ चीख़ उठे।
लेकिन तब तक सिया ने घड़ी थाम ली थी — और सुई को सीधे दिशा में घुमा दिया।
टिक… टिक… टिक…
समय अब वापस बहने लगा। बाज़ार की हवा बदल गई। तंबुओं से आवाज़ें आने लगीं — लेकिन अब गिड़गिड़ाहट नहीं थी, बल्कि कुछ लौटने का एहसास था।कुछ बूढ़े लोग काँपते हुए अपने सीने पर हाथ रखकर बोले,
“मुझे मेरी बेटी का नाम याद आ रहा है…”
“मेरी यादें लौट रही हैं…”
सौदागर अब छटपटा रहा था — उसकी हड्डियाँ दरकने लगीं।
“तू नियम तोड़ रही है!” वो गरजा।
“नियम कभी अंधेरे ने नहीं बनाए… बस तुमने सबको ये यक़ीन दिला दिया कि वो तोड़े नहीं जा सकते।”
सिया की आवाज़ अब थरथरा नहीं रही थी। वो अब सौदागर से नहीं, नियति से बात कर रही थी।
उसने घड़ी की सुई पूरी तरह से घुमा दी।
CLICK.
समय थम गया। घड़ी फटने लगी — उसकी सुई ग़ायब हो गई, चक्र टूट गया।
हर सौदा — टूट गया।
बाज़ार की छत गिरी।
तंबू उड़ गए।
हर उस आत्मा को, जिसने कभी अपनी यादें, प्यार, उम्र या मासूमियत बेची थी —
वो सब लौट आया। सौदागर अब एक काली राख में बदल रहा था — उसकी आँखें बुझ गईं, और उसकी तीनों मुस्कानें पिघल गईं।
“ये… ये तेरा खेल नहीं था…” उसकी आख़िरी फुसफुसाहट थी।
सिया ने घड़ी को ज़मीन पर फेंका — और पैर से कुचल दिया।
“अब ये खेल ही नहीं रहेगा।”
आरव ने उसका हाथ थामा — उसकी मासूम आँखों में एक नई चमक थी।
सिया मुस्कुराई — इस बार, सच्ची मुस्कान थी। पर जैसे ही वो मुड़ी, और दोनों ने मौतों के बाज़ार से बाहर कदम रखा —पीछे से एक धीमी आवाज़ आई…
“हर घड़ी का एक टुकड़ा… कहीं न कहीं बच ही जाता है…”
“क्योंकि अंधेरा कभी पूरी तरह मरता नहीं…”
भाग 8 — सौदागर का अंत
अमावस्या फिर लौट आई थी। लेकिन इस बार न गाँव में तंत्र बाँधे गए, न खिड़कियाँ बंद की गईं, न लोग काँपते हुए भगवान को पुकार रहे थे।
सिर्फ एक लौ थी — सिया की भीतर जलती लौ।
आरव अब ठीक था। वो सिया को पहचानता नहीं था, लेकिन हर रात उसकी हथेली थामे सोता — जैसे दिल जानता हो कि जो सामने है, वही उसकी असली रक्षा है। लेकिन सिया जानती थी —
घड़ी का एक टुकड़ा बचा है।सौदागर की छाया अब भी समय के किनारे मंडरा रही है।
और अगर उसने खुद जाकर उसे पूरी तरह खत्म न किया… तो यह शांति सिर्फ़ एक झूठा विराम होगी।
उसने फिर वही सूखा कुआँ चुना — जो अब भी एक रास्ता था… अंधेरे की दुनिया की ओर।
वो अकेली नहीं थी — इस बार, उसके साथ थी उसकी आग, उसका घाव, और उसकी हिम्मत।
जैसे ही घड़ी ने फिर बारह बजाए — कुआँ गहराने लगा… और वो काली दुनिया फिर जाग उठी।
पर इस बार… सब कुछ बदला हुआ था। तंबू झूल रहे थे, लेकिन उनमें कोई खरीददार नहीं था।
बूढ़े खड़े थे, पर अब वो चुप नहीं — उदास थे। और बीच में… फिर से सौदागर खड़ा था — अधजली हड्डियों में, चेहरा झुलसा हुआ, आँखें बुझी-बुझी… लेकिन अब भी ज़िंदा। सिया सामने आई।
“आ गई तू,” सौदागर की आवाज़ धुँधली थी।
“अपने हिस्से का सौदा पूरा करने।”
सिया ने जेब से वही टूटी घड़ी निकाली — लेकिन अब उसमें एक नया पुर्ज़ा जुड़ा था।
“अब कोई सौदा नहीं होगा।” वो बोली।
“क्योंकि तेरे सारे नियम टूट चुके हैं।”
“मैंने समय पलट दिया है… अब तू ही अपने सौदों में क़ैद रहेगा।”
सौदागर थरथराया।
“तेरे जैसे ही कई आए… पर सब खो गए।”
“तेरे जैसा कोई नहीं आया,” सिया की आवाज़ अब किसी स्त्री की नहीं, विचार की बन चुकी थी।
“क्योंकि मैंने अपना सब कुछ खोकर… दूसरों का सब कुछ बचाया है।”
सिया ने घड़ी की सुई को पूरा उल्टा घुमाया।
टिक… टिक… टिक… — फिर चुभन। फिर चीख। फिर उजाला।
एक भयानक तूफ़ान उठा। सौदागर के पीछे की दीवारें फटने लगीं। बाज़ार बिखरने लगा।
जिन-जिनकी आत्माएँ कभी यहाँ क़ैद हुई थीं — अब उभरने लगीं।
बूढ़े लोगों के चेहरे फिर से उम्र से भरने लगे — पर अब शांति के साथ, न कि लालच के साथ। सौदागर अब घुटनों पर था। उसके जबड़ों से धुआँ निकल रहा था।
उसने सिया की ओर देखा — अब कोई नफ़रत नहीं थी, बस एक हार थी।
“अगर मैं मर गया…” वो बुदबुदाया,
“तो तू मेरी जगह लेगी…”
सिया ने उसकी ओर देखा।
“मरने दो तुझे,” उसने धीरे से कहा।
“क्योंकि अब यह दुनिया किसी ‘सौदागर’ की नहीं होगी… यह अब अपने डर को जानती है, और डर से लड़ना सीख गई है।”
CLICK.
सिया ने घड़ी का केंद्र घुमाया… और घड़ी फट गई। एक विस्फोट सा उजाला फैला।
सौदागर चीखा… फिर गायब हो गया। बाज़ार धूल में मिल गया।
अंधेरा — जो सदियों से सौदे करता था — अब ख़ामोश था।
सिया अब एक सफेद शून्य में खड़ी थी।
ना ऊपर, ना नीचे — सिर्फ़ शांति।
ना सौदागर, ना घड़ी — बस ख़ामोशी।
तभी एक हल्की-सी आहट आई —
“तू अब लौट सकती है… लेकिन तू वैसी नहीं रही।”
“तू अब कोई साधारण लड़की नहीं… तू अंधेरे को जान चुकी है।”
“अब तू सौदागर की वारिस नहीं… तू उसका अंत है।”
और फिर सिया की आँखें खुलीं — वो अपने घर में थी। आरव सामने बैठा हुआ मुस्कुरा रहा था। माँ की आँखों में पहली बार शांति थी। और सिया की हथेलियों में… एक टूटे हुए समय की राख थी — जो अब कभी किसी की ज़िंदगी नहीं चुराएगी।
भाग 9 — सिया की चुप्पी
गाँव अब बदल चुका था।
अमावस्या की रातें अब डर नहीं लातीं। दरवाज़ों पर तंत्र नहीं बाँधे जाते, खिड़कियों पर लकड़ी की पट्टियाँ नहीं ठोंकी जातीं। बच्चे अब खुलकर हँसते हैं, बूढ़े अब खुद से डरकर नहीं, उम्र से थककर सोते हैं।
पर एक घर है… जहाँ अब भी सन्नाटा साँस लेता है।
सिया… वही है, और फिर भी कुछ और हो गई है। वो दिन भर घर में रहती है, धीरे-धीरे चलती है, खिड़की के पास बैठकर बाहर निहारती रहती है — जैसे कुछ ढूँढ रही हो… या शायद कुछ याद करने की कोशिश। पर अब वो नहीं बोलती।
कभी-कभी माँ पूछती है —
“क्या सोच रही है, बिटिया?”
लेकिन सिया बस एक फीकी मुस्कान देती है।
आरव अब बड़ा हो रहा है। वो सब कुछ भूल चुका है — सौदागर, अंधेरा, और वो बाज़ार जहाँ उसकी साँसें गिनी जा रही थीं। पर हर अमावस्या की रात… कुछ अजीब होता है।
सिया की आँखें अचानक चमकने लगती हैं — जैसे उनमें अँधेरा टपकने लगता हो।
उसका शरीर काँपता नहीं, पर उसकी परछाईं हिलती है। जैसे कोई और भी है वहाँ… उसके भीतर। और फिर… वो फुसफुसाती है — इतनी धीमी आवाज़ में कि हवा भी ठहर जाए:
“मैं सौदागर नहीं बनी…”
“…पर उसकी छाया ज़रूर हूँ।”
एक दिन गाँव के बाहर एक लड़की आई। थकी हुई, काँपती हुई… उसकी आँखों में वही डर था — जो सिया की आँखों में कभी था।
“मेरा भाई कल रात से ग़ायब है,” वो बोली।
“कोई कहता है, ये बस भ्रम है… पर मुझे यकीन है — कुछ है जो बच्चों को खींच रहा है।”
लोगों ने उसकी बात हँसी में उड़ाई।
“अब तो कुछ नहीं होता बेटी… वो सब तो बीत गया…”
पर सिया खिड़की के पीछे से देख रही थी। उसकी उंगलियाँ कस गईं।
रात को, जब सब सो गए, वो बाहर निकली — बिना आवाज़ किए, नंगे पाँव… और उस लड़की के पास आकर बैठ गई।
लड़की काँप गई।
“आप कौन हैं?” उसने पूछा।
सिया ने कोई जवाब नहीं दिया। बस उसकी आँखों में देखा — और धीमे से कहा:
“अगर तुझे अपना भाई चाहिए…”
“…तो तुझे एक सौदा करना होगा।”
अंत… लेकिन वास्तव में एक नई शुरुआत।
कहते हैं, सौदागर कभी मरता नहीं। वो बस किसी नए नाम, नए चेहरे, या नई नीयत के साथ लौट आता है। सिया ने सौदागर को हराया — पर उसकी छाया… उसके भीतर कुछ छोड़ गई थी।
अब, हर अमावस्या की रात… जब चाँद नहीं दिखता — और हवाओं में फिर से वो पुरानी फुसफुसाहट तैरती है…
गाँव की किसी खिड़की से एक जोड़ी आँखें चुपचाप सब देखती हैं।
और एक धीमी, डरावनी बुदबुदाहट गूंजती है:
“अब तुम तय करो… सौदा करोगे… या कीमत चुकाओगे?”