भाग 1: ख़ाली फ्लैट
जब रोहित ने नई नौकरी के लिए दिल्ली शिफ्ट होने का फ़ैसला किया, तब उसके मन में हज़ारों सवाल थे — नया शहर, नए लोग, और बिल्कुल अलग-सी ज़िंदगी। लेकिन किस्मत ने जैसे उसका स्वागत करने की ठान रखी थी।
उसे बेहद कम किराए में एक 2BHK फ़्लैट मिल गया — वो भी साउथ दिल्ली जैसी महँगी जगह पर, मेट्रो स्टेशन से सिर्फ़ पाँच मिनट की दूरी पर। मकान मालिक ने बताया कि पहले वहाँ एक बुज़ुर्ग दंपती रहते थे, जो अब अपने बेटे के पास अमेरिका चले गए हैं।
“बस एक बात है,” मकान मालिक ने जाते-जाते बहुत हल्के अंदाज़ में कहा था, “चौथी मंज़िल का एक कमरा बंद रहता है… पुराने सामान रखे हैं वहाँ। और हाँ, दरवाज़ा मत खोलना। चाबी भी नहीं दूँगा।”
रोहित ने मुस्कुरा दिया।
“कोई बात नहीं, अंकल जी। अगर बंद है तो बंद रहने दीजिए। मुझे क्या लेना वहाँ के कबाड़ से?”
फ़्लैट देखकर रोहित संतुष्ट था — कमरे बड़े थे, खिड़कियों से धूप आती थी, और एक शांत-सा माहौल था। बिल्डिंग में ज़्यादातर लोग कामकाजी थे — सुबह निकलते और देर शाम लौटते। रोहित भी दिन भर ऑफिस में रहता और फिर जिम जाकर देर से लौटता।
सब कुछ सामान्य लगने लगा था… सिवाय चौथी मंज़िल की सीढ़ियों के।
वो सीढ़ियाँ कुछ अलग ही थीं। वहाँ हमेशा हल्की नमी की एक गंध रहती — जैसी पुराने, बंद पड़े कुओं या भूले-बिसरे तहख़ानों में होती है। एक अजीब-सी सीलन, जो नथुनों से होकर सीधे दिमाग़ तक पहुँच जाती।
और वहाँ की हवा… कुछ ठंडी थी। नहीं, वैसी ठंड नहीं जैसी एसी या मौसम की हो। ये कोई गहरी ठंड थी — जैसी किसी परछाई के भीतर छुपी हो।
हर बार जब रोहित ऊपर चढ़ता, उसके पैर धीमे हो जाते। सीढ़ियों के पत्थरों में एक अजीब-सी सरसराहट थी। जैसे हर कदम पर कोई पुराने ज़माने की दबी हुई चीख़ उसे पुकार रही हो।
दीवारों की प्लास्टर उतर चुकी थी, और वहाँ पर कुछ-कुछ उभरते निशान थे — जिन्हें देखने पर कभी कोई चेहरा लगता, कभी सिर्फ़ कोई धब्बा।
सबसे अजीब बात ये थी कि — जब भी रोहित चौथी मंज़िल की ओर देखता, उसे एक पल के लिए ऐसा लगता जैसे कोई ऊपर खड़ा होकर उसे देख रहा है। वो कभी साफ़ नज़र नहीं आता — लेकिन उसका होना महसूस होता।
कभी-कभी उसे लगता कि दीवार के कोने से कोई परछाई अंदर खिसक गई। और कभी सीढ़ियों पर एक हल्की सी चूं...चूं... की आवाज़ आती, जैसे कोई बहुत हल्के पैरों से चला हो — मगर हर बार पलटने पर वहाँ कोई नहीं होता।
रोहित ने इन बातों को शुरुआत में नज़रअंदाज़ किया। उसने सोचा — शायद नया माहौल है, मन ग़लतफहमी पैदा कर रहा है। लेकिन फिर भी… हर रात जब वो थके क़दमों से घर लौटता और उन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ता, उसकी चाल धीमी हो जाती।
कभी उसकी साँस तेज़ हो जाती, कभी गले में सूखापन महसूस होता। और अक्सर… ऐसा लगता जैसे किसी ने उसकी गर्दन के पीछे से हल्के से फूंक मारी हो।
वो जानता था — वहाँ कोई नहीं है। फिर भी… कुछ था। कुछ ऐसा जो दिखाई नहीं देता था, लेकिन लगातार उसे देख रहा था।
भाग 2:वो पहली रात
एक हफ़्ते बाद, एक लंबा और थकाऊ दिन बीता था। दफ़्तर से निकलते-निकलते रात के 1 बज चुके थे। दिल्ली की सड़कों पर भी अब सन्नाटा था — सिर्फ़ स्ट्रीट लाइट्स और उनके नीचे उड़ती कुछ परछाइयाँ।
रोहित थका हुआ था, आँखें बोझिल। लेकिन जैसे ही वो अपनी बिल्डिंग के अंदर दाख़िल हुआ, एक अजीब-सी बेचैनी उसके भीतर उठने लगी — जानी-पहचानी सी बेचैनी, जो पिछले कुछ दिनों से अनदेखा करने की कोशिश कर रहा था।
वो सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
जैसे ही उसके कदम तीसरी मंज़िल पार कर चौथी की ओर बढ़े —
"ठक… ठक… ठक…"
कानों में कोई धीमी, भारी आवाज़ गूंजने लगी।
जैसे कोई ऊपर टहल रहा हो… भारी बूट्स पहनकर। आवाज़ धीमी थी, लेकिन हर कदम के साथ दीवारें काँपती सी लग रही थीं।
रोहित ठिठक गया। उसका गला सूखने लगा।
"ऊपर तो कोई है ही नहीं…"
"चौथी मंज़िल तो बंद है… फिर ये कौन?"
उसने धीरे से ऊपर नज़र उठाई —
और देखा — चौथी मंज़िल का वो दरवाज़ा… आधा खुला था।
एकदम धीमे, अस्थिर ढंग से — जैसे किसी ने अभी-अभी अंदर झाँककर देखा हो और फिर भाग खड़ा हुआ हो।
“क्या ये… खुला कैसे?” रोहित ने खुद से पूछा, लेकिन आवाज़ बस गले में अटककर रह गई।
वो डरते-डरते एक-एक सीढ़ी चढ़ा। आँखें दरवाज़े पर टिकी थीं। दिल की धड़कन इतनी तेज़ थी कि सीने के अंदर गूंज रही थी।
और तभी…
चर्र्रर्र…
दरवाज़ा धीरे-धीरे अपने आप बंद होने लगा।
धप्प!
दरवाज़ा बंद होते ही अचानक पूरे फ़्लोर पर एक अजीब-सी ख़ामोशी छा गई। इतनी गहरी चुप्पी कि रोहित को अपनी साँसें भी तेज़ लगने लगीं।
उसने खुद को समझाया — "ये हवा होगी… पुराना दरवाज़ा है… झोंका आया होगा।"
लेकिन उसका शरीर — उसकी रीढ़ — कुछ और कह रही थी।
उस रात जब वो बिस्तर पर लेटा, नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। पर थकावट के मारे आँखें बंद हो ही गईं।
और तभी…
फुसफुसाहट। बहुत हल्की, लेकिन बहुत पास से। जैसे कोई कान के ठीक पास कुछ कह रहा हो।
“देख रहा है…”
“वो… देख रहा है…”
रोहित ने एक झटके में आँखें खोलीं।
उसका दिल बेकाबू होकर धड़कने लगा। उसने तेज़ी से इधर-उधर नज़र दौड़ाई।
कमरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा वो छोड़कर सोया था। कोई नहीं था।
लेकिन हवा में कुछ बदल चुका था।
कमरे की दीवारें उसे और क़रीब महसूस हो रही थीं, जैसे सिमटकर उसे जकड़ना चाहती हों। खिड़की बंद थी, पंखा चलता हुआ — फिर भी पसीने से उसकी टी-शर्ट चिपक रही थी।
वो बिस्तर पर सीधा बैठ गया, गला सूख चुका था।
उसकी आँखें दरवाज़े की तरफ़ थीं — जो हल्का सा हिल रहा था।
जैसे किसी ने अभी-अभी वहाँ से देखा हो… और फिर छुप गया हो।
भाग 3:इतिहास की दरारें
अगली सुबह रोहित की आँखें लाल थीं। नींद आधी-अधूरी थी और दिमाग़ में रात की फुसफुसाहट अब भी घूम रही थी।
उसने सोचा — ये जो कुछ भी है, मैं जानकर ही रहूँगा।
नाश्ता छोड़ा, और सीधे सोसाइटी के सिक्योरिटी गार्ड के पास पहुँचा। वो गेट के पास अकेला बैठा अख़बार पढ़ रहा था, और चाय की चुस्कियों के बीच किसी पुरानी फ़िल्म का गाना गुनगुना रहा था।
रोहित सीधा उसके पास जाकर बैठ गया।
“भाईसाहब,” उसने धीरे से कहा, “ऊपर चौथी मंज़िल का फ्लैट किसका है?”
गार्ड ने अख़बार नीचे रखा, और कुछ पल रोहित की आँखों में झाँकता रहा। फिर एक लंबा साँस लिया, जेब से एक पुरानी सिगरेट निकाली, और उसे सुलगाने लगा।
“आपने पूछ ही लिया साहब…” उसने बिना आँखें मिलाए कहा।
“मत पूछिए… वो कमरा कहानी नहीं, एक सज़ा है।”
रोहित चुपचाप सुनता रहा।
“चार साल पहले वहाँ एक परिवार था। पति-पत्नी और उनकी आठ साल की बेटी — परी। बेहद प्यारी बच्ची थी। लेकिन उसे एक अजीब बीमारी थी…”
“नींद में चलने की?” रोहित ने पूछा।
गार्ड ने सिर हिलाया।
“हाँ, और वो भी ऐसी कि एक रात… वो सीधे बालकनी तक पहुँच गई। और…”
उसने एक उँगली हवा में सीधी खड़ी कर दी, फिर नीचे गिरा दी —
“गिरी। सीधा चौथे से नीचे। आवाज़ तक नहीं आई।”
रोहित का गला सूख गया।
“मर… गई?”
गार्ड ने धीरे से सिर झुकाया।
“हड्डियाँ टूटने का भी वक़्त नहीं मिला… एक सेकेंड।”
कुछ पल दोनों चुप रहे।
फिर रोहित ने पूछा, “और पति-पत्नी?”
गार्ड की आँखों में एक भय-सा उतर आया।
“उन्होंने कुछ दिनों तक ख़ुद को संभालने की कोशिश की। लेकिन फिर… एक रात वो दोनों उस कमरे में घुसे। अंदर से दरवाज़ा बंद किया। और... कभी बाहर नहीं निकले।”
“पुलिस आई… दरवाज़ा तोड़ा गया… अंदर का नज़ारा…” वो रुक गया, फिर बमुश्किल बोल पाया —
“…दोनों की लाशें दीवार पर उल्टी चिपकी थीं। जैसे किसी ने ज़मीन की जगह उन्हें छत बना दी हो।”
“आँखें खुली थीं… और चेहरों पर… मुस्कान नहीं… डर भी नहीं… कुछ और था… जैसे उन्होंने कुछ ऐसा देख लिया हो जो इंसानों को नहीं देखना चाहिए।”
अब तक रोहित के रोंगटे खड़े हो चुके थे।
गार्ड ने सिगरेट का लंबा कश खींचा और कहा —
“तब से वो कमरा बंद है। कुछ कहते हैं, लड़की लौट आई है… नींद में चलती है… दरवाज़े तक… फिर लौट जाती है। और कभी-कभी…”
उसने रोहित की तरफ़ देखा।
“…किसी और को चला ले जाती है।”
भाग 4:दरवाज़ा फिर खुला
अब रोहित का दिमाग़ गड़बड़ाने लगा था।
गार्ड की बातों ने उसके भीतर कोई बीज बो दिया था, जो हर रात डर बनकर पनपता।
उसे समझ नहीं आता — यह सब कल्पना है या कुछ… बहुत वास्तविक?
अगले कुछ दिन वो जान-बूझकर नज़रें चुराता रहा — चौथी मंज़िल से, उस दरवाज़े से, उन सीढ़ियों से। लेकिन जैसे ही रातें गहरातीं, वो डर धीरे-धीरे छत से रिसने लगता।
और फिर… एक रात।
दफ़्तर से लौटते हुए वो बिल्डिंग में दाख़िल हुआ। मोबाइल में ईयरफोन लगाए, जैसे ध्यान बाँटना चाहता हो। लेकिन तभी…
“ठक… ठक… ठक…”
फिर वही आवाज़।
धीमी, भारी, और इस बार… ज़्यादा क़रीब।
उसके कानों से ईयरफोन अपने-आप गिर पड़े। बदन में एक तेज़ झुरझुरी दौड़ गई।
लेकिन इस बार उसने तय कर लिया — अब डरकर नहीं भागेगा।
उसने अपने फ़ोन का कैमरा ऑन किया। फ़्लैशलाइट जलती नहीं थी, लेकिन स्क्रीन पर हर चीज़ दिख रही थी।
धीरे-धीरे वो सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
एक-एक कदम के साथ दिल की धड़कन और तेज़ होती गई।
जैसे ही वो चौथी मंज़िल पर पहुँचा —
दरवाज़ा फिर खुला था। लेकिन इस बार, थोड़ा नहीं… काफी खुला।
और दरवाज़े के भीतर… कोई था।
कोई देख रहा था उसे।
फ़ोन के कैमरे की स्क्रीन पर दो चमकती लाल आँखें दिखाई दीं। आँखें, जिनमें कोई पुतलियाँ नहीं थीं — बस चमक… गहरी और नफ़रत से भरी।
नीचे एक चेहरा था — लेकिन चेहरा नहीं… धुएँ और स्याही से बना कोई आकार, जो इंसान की तरह खड़ा था लेकिन इंसान नहीं था।
उससे पहले कि रोहित कुछ सोच पाता —
CLIK
फोन का स्क्रीन ब्लैंक हो गया। कैमरा बंद।
बिना कुछ देखे, बिना कुछ कहे — रोहित का शरीर सुन्न हो गया।
जैसे ही होश लौटा, वो उल्टे क़दमों भागा — तेज़, बेकाबू — और सीधे अपने कमरे में घुसकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
अंदर साँसें उखड़ रही थीं। दिल ऐसे धड़क रहा था जैसे बाहर निकल आएगा। उसने दरवाज़े की कुंडी लगाई, कुर्सी खींचकर दरवाज़े के सामने रख दी।
लेकिन फिर… बाहर से आहट आई।
हल्के क़दमों की।
धीरे से कोई दरवाज़े के पास आकर रुका।
कोई आवाज़ नहीं।
कुछ पल की शांति… और फिर —
एक फुसफुसाहट। एकदम कान के पास जैसी…
"नींद में चलोगे...?"
भाग 5: साया अंदर आ गया
अब रोहित दिन में भी डरने लगा था।
सुबह की रोशनी भी उसके लिए सुकून नहीं ला पा रही थी। दीवारों के कोने, बाथरूम का शीशा, बंद खिड़की का काँच — हर जगह उसे लगता, जैसे कोई और है। कोई जो उसकी हर हरकत को देख रहा है।
कभी-कभी वो आईने में खुद को देखता और ठिठक जाता।
आईने में दिखने वाला चेहरा वही था — लेकिन उसकी आँखों में कुछ और था।
एक परछाई, एक मुस्कान, जो उसके चेहरे से मेल नहीं खाती थी।
कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता, जैसे उसके चेहरे के पीछे… कोई और चेहरा छुपा है — जो धीरे-धीरे बाहर आने की कोशिश कर रहा है।
फिर एक रात…
वो बेहद थका हुआ था। बिस्तर पर गिरते ही नींद आ गई। लेकिन यह नींद, वैसी नहीं थी — जैसी थकान से आती है।
ये एक खींचती हुई नींद थी — जैसे कोई गहरी काली नदी उसे अपने अंदर बहा रही हो।
और फिर…
बिस्तर हिलने लगा।
धीरे-धीरे। पहले जैसे ज़मीन काँपी हो। फिर अचानक एक झटका।
रोहित की आँख खुली।
और उसने जो देखा — उसकी साँस रुक गई।
उसका अपना शरीर — धीरे-धीरे बिस्तर से उतर रहा था।
लेकिन वो खुद तो बिस्तर पर था!
हाँ — उसकी चेतना जागी हुई थी… लेकिन उसका शरीर… अपने-आप चल रहा था।
क़ब्ज़े में था।
उसका शरीर पैरों पर खड़ा हुआ, गर्दन अजीब ढंग से झुकी हुई, आँखें अधखुली… और चाल — बिल्कुल वैसी जैसे कोई नींद में चलता है — लेकिन जानबूझकर।
"रुको! नहीं!" — रोहित ने चिल्लाया।
लेकिन आवाज़ सिर्फ़ उसके दिमाग़ में गूँजी।
मुँह तो उसके शरीर के साथ बाहर निकल गया था।
वो अब एक क़ैदी बन गया था — अपनी ही आत्मा का, अपनी ही आँखों से सब देखता हुआ।
उसका शरीर अब दरवाज़े की ओर बढ़ रहा था।
दरवाज़ा खुल गया, बिना चाबी के।
सीढ़ियाँ उतरने की जगह… ऊपर चढ़ीं।
चौथी मंज़िल की तरफ़।
हर सीढ़ी पर पैर रखते हुए, जैसे वो किसी और की चाल में ढलता जा रहा था।
और फिर…
वो दरवाज़ा।
वो ही दरवाज़ा, जो अब बिल्कुल खुला था।
लेकिन उसके अंदर — अंधेरा नहीं था।
वो अंधेरा ‘ज़िंदा’ था।
एक चिपचिपा, साँस लेता अंधकार — जो रोहित को देख रहा था।
वहीं से आवाज़ आई —
“अब तुम्हारी बारी है…”
रोहित का शरीर उस अंधेरे के अंदर दाख़िल हुआ।
और उसी पल…
दरवाज़ा बंद हो गया।
धप्प!
सब कुछ शांत हो गया।
लेकिन शांत… उतना नहीं जितना बाहर से दिखता है।
भाग 6: एक महीना बाद…
एक महीना बीत चुका है।
उस रात के बाद, रोहित कभी नहीं देखा गया।
मकान मालिक ने पुलिस को सूचना दी — लेकिन दरवाज़ा अंदर से बंद था, और फ्लैट एकदम वैसा ही जैसे छोड़ा गया था। कोई तोड़-फोड़ नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कुछ भी असामान्य नहीं।
सिर्फ़ एक चीज़ बदली थी — रोहित का मोबाइल फ़ोन, जिसका कैमरा ऑन था… और स्क्रीन पर कोई चेहरा रिकॉर्ड हो रहा था — धुँधला, लाल आँखों वाला चेहरा।
लेकिन पुलिस ने इसे "मिसिंग केस" कहकर फाइल बंद कर दी।
अब…
वही फ़्लैट दोबारा किराए पर लगाया जा चुका है।
"बहुत airy है, furnished है, और लोकेशन तो जान ही रहे हो — मेट्रो बस पास में ही है!"
मकान मालिक मुस्कुराता हुआ नए किरायेदार को फ़्लैट दिखा रहा था।
नया लड़का कॉलेज का छात्र था। जोश में था। एकदम बिंदास।
“और हाँ,” मकान मालिक ने फिर उसी पुराने लहजे में कहा —
“ऊपर चौथी मंज़िल का एक कमरा है… बस वो बंद रहता है। पुराने सामान हैं। उसमें मत जाना। चाबी भी नहीं दूँगा।”
लड़का हँस पड़ा —
“ठीक है अंकल! मुझे क्या लेना किसी कबाड़ से?”
कुछ देर बाद, जब वो अकेला फ्लैट में सामान रख रहा था — उसने सीढ़ियों पर क़दम रखे।
धीरे-धीरे वो ऊपर की ओर बढ़ा। बिना किसी कारण — बस ऐसे ही, जैसे कुछ खींच रहा हो।
चौथी मंज़िल पर पहुँचते ही…
उसका पैर रुक गया।
दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला था।
बहुत हल्का — जैसे किसी ने अभी-अभी झाँका हो।
वो ठिठक गया। उसके कानों में हल्की-सी हवा सरसराई।
और फिर — अंदर से वही आवाज़…
फुसफुसाते हुए, बेहद पास से, लगभग उसकी आत्मा को छूती हुई…
“अब तुम्हारी बारी है…”