भाग 1: नई शुरुआत या नई क़ैद?
रिया, एक स्वतंत्र, निडर और प्रैक्टिकल सोच वाली लड़की थी। दिल्ली की भीड़ और शोर से दूर, उसे एक नई नौकरी मिली — एक निजी स्कूल में, जो हिमाचल के एक सुनसान कस्बे के पास था। रहने के लिए उसे स्कूल की तरफ़ से एक कोठी मिली — बहुत पुरानी, मगर खूबसूरत और रहस्यमयी।
रिया हमेशा से ही थोड़ी अलग थी। उसे चमक-धमक वाली ज़िंदगी की नहीं, बल्कि शांति और किताबों से भरी एक दुनिया की तलाश थी। दिल्ली जैसे शहर में रहकर उसने बहुत कुछ पाया, लेकिन कहीं न कहीं उसका मन हमेशा एकांत की तलाश में भटकता रहा। जब उसे हिमाचल के एक पहाड़ी कस्बे के निजी बोर्डिंग स्कूल में हिंदी की अध्यापिका की नौकरी का प्रस्ताव मिला, तो उसने ज़रा भी समय नहीं गंवाया।
जब वो पहली बार उस जगह पहुँची, तो रास्ते में घने जंगल, ठंडी हवा और धुंध से ढँकी सड़कों ने जैसे उसका स्वागत किया। कस्बा छोटा था, लेकिन उसमें एक अनकहा रहस्य छिपा था — एक ऐसा मौन, जो नज़र नहीं आता, बस महसूस होता है।
स्कूल के प्रिंसिपल ने बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। उन्होंने कहा,
"रिया जी, आपको ठहरने के लिए जो कोठी मिली है, वो बहुत पुरानी है — अंग्रेज़ों के ज़माने की। स्कूल की संपत्ति है, लेकिन अब तक कोई उसमें ज़्यादा दिन टिक नहीं पाया… मतलब, वो बहुत बड़ी है, अकेले रहना थोड़ा… डरावना भी लग सकता है। मगर मजबूत है और बिल्कुल सुरक्षित।"
रिया ने हल्का-सा मुस्कराते हुए कहा,
"डरावना? सर, मैं दिल्ली में रह चुकी हूँ, वहाँ के किराए और ट्रैफिक से डर लगता है, भूत-प्रेत से नहीं।"
प्रिंसिपल हँस दिए, लेकिन उनके चेहरे पर एक क्षणिक चिंता की झलक थी।
जब रिया उस कोठी के पास पहुँची, तो उसकी साँसें थोड़ी धीमी हो गईं। सामने खड़ी कोठी — विष्णुपाल हाउस — एक भारी लकड़ी के फाटक, ऊँची खिड़कियाँ, और बेलों से ढँकी पुरानी दीवारों के साथ मानो किसी पुराने कालखंड में ठहर गई हो।
उसका मन बोला — "ये कोई साधारण मकान नहीं है।"
कोठी का नाम था: "विष्णुपाल हाउस"।
"बस कुछ महीनों की बात है," उसने खुद को समझाया।
लेकिन पहले ही दिन उसे कुछ अजीब लगा।
दरवाज़ा खोलते ही पुरानी लकड़ी की एक धीमी सी चरमराहट हुई — जैसी किसी बूढ़े की साँसें हों। अंदर एक सोंधी मगर थोड़ी सीली महक थी, जैसे बरसों से बंद कमरों में जमी यादें अब फिर से जाग रही हों। उसने अपने बैग्स अंदर रखे और पूरे घर का एक चक्कर लगाया। ऊँची छतें, झूमर जो अब धूल में ढँक चुके थे, और पुरानी पेंटिंग्स — जिनमें लोगों की आँखें कुछ ज़्यादा ही गहराई से देख रही थीं।
रिया ने खुद से कहा, "बस कुछ महीनों की बात है… यहाँ कोई कहानी है, लेकिन मैं उससे नहीं डरती।"
पर शायद… कहानी उसी पल से उसे देख रही थी।
सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त उसने उन्हें गिना — 12 सीढ़ियाँ थीं।
लेकिन हर बार उतरते समय… एक और सीढ़ी जुड़ जाती थी।
13वीं सीढ़ी।
रिया ने जब पहली बार ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ीं, तो उसकी नज़र हर स्टेप पर गई। वो एक आदत थी — किसी नई जगह पर चीज़ें गिनना, नोटिस करना। उसने धीरे-धीरे चढ़ना शुरू किया और साथ-साथ गिनती की।
"एक... दो... तीन..."
लकड़ी की सीढ़ियाँ हल्के से चरमराती थीं, जैसे हर कदम पर घर कोई पुराना राज साँसों में भर रहा हो।
"बारह।"
ठीक बारह सीढ़ियाँ थीं, और ऊपर एक लंबा, अंधेरा गलियारा।
उसने सिर हिलाया और मुस्कराई — "ठीक है।"
लेकिन जब वो नीचे आई, हाथ में पानी की बोतल लेने के लिए, तो कुछ अलग लगा।
एक कदम अतिरिक्त। एक अजीब-सा दबाव पैर में। एक अजीब-सी लंबाई।
उसने झुककर देखा… तेरहवीं सीढ़ी?
"ये अभी तो नहीं थी…" उसने सोचते हुए गिनती दोहराई।
"एक... दो... तीन... बारह... तेरह?"
उसका माथा सिकुड़ गया।
"शायद मैंने गलत गिना होगा," उसने खुद को समझाया।
लेकिन अगले दिन… फिर वही।
ऊपर चढ़ते वक्त — बारह।
नीचे उतरते वक्त — तेरह।
और सबसे अजीब बात — तेरहवीं सीढ़ी हर बार थोड़ी गीली लगती थी… और ठंडी। जैसे किसी ने अभी-अभी उस पर कदम रखा हो।
उसकी सांसें धीमी हो गईं। वो सीढ़ियों को ध्यान से देखने लगी।
तेरहवीं सीढ़ी थोड़ी ज़्यादा घिसी हुई थी। और उस पर कुछ गहरे निशान थे — जैसे नाखूनों से खुरचा गया हो।
उसने डरते हुए वहां हाथ लगाया — और एक पल को लगा, जैसे लकड़ी ने साँस ली हो।
वो तुरंत पीछे हटी।
अब वो जानती थी — ये कोई साधारण सीढ़ियाँ नहीं थीं।
भाग 2: पहला डर
दूसरी रात थी। पहाड़ों की सर्द हवाएँ बाहर दरख़्तों को हिला रही थीं। रिया खिड़की के पास लेटी थी, किताब उसके सीने पर रखी थी और नींद की परतें उसकी पलकों पर उतर रही थीं।
अचानक, एक हल्की-सी क्लिक की आवाज़ से उसकी नींद टूटी — जैसे किसी ने धीरे से लकड़ी के दरवाज़े को धक्का दिया हो।
उसने तुरंत उठकर कमरे की बत्ती जलाई। दीवार पर लगी घड़ी ने 2:03 का समय दिखाया।
वो कुछ देर बैठी रही, कानों को सतर्क रखते हुए।
और तभी…
ठक… ठक… ठक…
बहुत हल्के, मगर लगातार — जैसे कोई नंगे पैर लकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हो।
हर ठक की आवाज़, जैसे उसके दिल की धड़कन के साथ मेल खा रही थी। एक ठंडक उसकी रीढ़ से नीचे सरक गई।
उसने धीमे से रज़ाई हटाई और चुपचाप कमरे से बाहर निकली। सीढ़ियों की ओर देखा — आधा अंधेरा, आधा चाँद की रौशनी से धुंधलाया हुआ।
कोई नहीं था।
पर हवा में कुछ था — जैसे किसी की उपस्थिति बस आँखों की परिधि से बाहर खड़ी हो।
रिया ने कंपकंपाते हाथों से मोबाइल निकाला और टॉर्च ऑन की।
उसने सीढ़ियाँ गिननी शुरू की — एक-एक कदम पर ठहरकर।
"एक… दो… तीन…"
धड़कनें बढ़ रही थीं।
"नौ… दस… ग्यारह… बारह…"
और फिर… उसका पैर एक और स्टेप पर पड़ा।
"तेरह।"
तेरहवीं सीढ़ी।
आज फिर वही थी।
और इस बार, वो सीढ़ी कुछ अलग लग रही थी — उस पर नमी-सी थी, और जैसे हाल ही में कोई भारी चीज़ उस पर रखी हो।
रिया वहीं बैठ गई, फर्श से पीठ टिकाई और खुद को दिलासा देने की कोशिश की — "शायद मैं ज्यादा सोच रही हूँ… शायद कोई जानवर रहा होगा… या हवा।"
पर कहीं भीतर, उसे पता था — कोई था।
सुबह होते ही वो सीधे बाहर निकली और सामने वाले छोटे मकान में रहने वाले वृद्ध पड़ोसी मिस्टर शर्मा के पास पहुँची।
वो चाय की चुस्की ले रहे थे और अख़बार पढ़ रहे थे।
रिया ने थोड़ी झिझक के साथ पूछा,
"शर्मा अंकल… क्या उस कोठी में पहले कोई और भी रहा है?"
शर्मा जी ने चश्मा नीचे किया, और कुछ पल उसे चुपचाप देखा।
फिर बोले,
"हाँ बेटा… बहुत लोग आए… लेकिन कोई ज़्यादा दिन ठहर नहीं पाया।"
रिया ने आगे पूछा,
"कोई खास वजह?"
उन्होंने एक लंबा साँस लिया और धीरे से कहा:
"वो कोठी… बड़ी सुंदर है, पर उसमें कुछ है।
कहते हैं, वहाँ एक 'तेरहवीं सीढ़ी' है — जो किसी को चैन से जीने नहीं देती।
जिसने उसे गिन लिया, उसका जीवन बदल गया… हमेशा के लिए।"
रिया का दिल बैठ गया।
उसने देखा — शर्मा जी अब अख़बार नहीं पढ़ रहे थे, बल्कि कोठी की ओर देख रहे थे। उनकी आँखों में कुछ था — डर, अफ़सोस… या फिर कोई भूली हुई याद।
भाग 3: पीछे छूटे निशान
रिया ने खुद को बार-बार यही समझाया,
"यह सब बस संयोग है। मेरा दिमाग़ थका हुआ है, और इस पुरानी कोठी की खामोशी ही मुझे डराने लगी है।"
उसने ध्यान स्कूल के काम में लगा दिया। सुबह जल्दी उठना, बच्चों को पढ़ाना, स्टाफ मीटिंग्स, और कभी-कभी पहाड़ी सैर — उसने कोशिश की कि खुद को व्यस्त रखे। लेकिन रातें… रातें अब वैसी नहीं रहीं।
शुरुआत दरवाज़ों से हुई।
कमरे का दरवाज़ा — जो उसने बंद करके सोया था — सुबह खुला मिलता।
उसने सोचा,
"शायद लॉक सही से नहीं हुआ होगा।"
फिर एक रात, जब वो आधी नींद में थी, उसे लगा किसी ने दरवाज़े के पीछे खड़े होकर धीरे से हँसने की आवाज़ निकाली — फीकी, बेमन की हँसी — जैसे कोई जान-बूझकर उसे सुनाना चाहता हो।
दूसरी रात, सीढ़ियों के पास से आती एक लड़की की धीमी गुनगुनाहट ने उसे जगा दिया।
"लाली लाली ढोलक बजा…
छैयां छैयां पायल सजा…"
उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई।
उसने तेजी से खिड़की बंद की, कमरे की बत्तियाँ जलाईं, लेकिन कुछ नहीं मिला।
अब हर रात एक नई आवाज़… एक नई आहट… एक नई परछाई।
वो इस सोच में उलझ गई —
"क्या ये मेरे साथ ही हो रहा है? या इस घर में कुछ ऐसा है जो जाग चुका है?"
आख़िरकार, एक रात उसने तय कर लिया।
"अब सबूत चाहिए… ये डर सिर्फ अहसास नहीं रह सकता।"
उसने मोबाइल कैमरा स्टैंड पर रखा और सीढ़ियों की सीध में सेट कर दिया।
रिकॉर्डिंग ऑन की।
लाइट्स बंद कीं और वापस अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
रात फिर वही आवाज़ें आईं।
ठक… ठक… ठक…
कुछ सरसराहट… और एक बार फिर, वो गुनगुनाहट।
सुबह रिया ने कंपकंपाते हाथों से फोन उठाया और वीडियो चेक किया।
पहले कुछ मिनटों तक सिर्फ खाली सीढ़ियाँ दिखाई दीं। हवा में हल्की हरकतें, और कभी-कभी अंधेरे में झपकती रोशनी।
फिर...
एक परछाई सीढ़ियों के पास उभरी।
धीरे-धीरे वो आकृति साफ़ होने लगी।
एक औरत।
सफ़ेद साड़ी, उल्टे पैर, और गले में झूलती एक रस्सी।
उसका चेहरा दिख नहीं रहा था, बाल आगे लटक रहे थे… और फिर उसने सिर उठाया।
रिया का दिल धक् से रुक गया।
उसकी आँखें सीधी कैमरे में देख रही थीं।
और फिर… वो सीढ़ियों पर बैठ गई — तेरहवीं सीढ़ी पर।
रिया की चीख़ उसके गले में ही अटक गई। उसने मोबाइल गिरा दिया।
कुछ मिनट बाद उसने साहस बटोरकर पड़ोसियों को बुलाया और फिर पुलिस को भी।
पुलिस आई, घर की तलाशी ली, वीडियो भी देखा — लेकिन…
"मैम, यहाँ कुछ नहीं है," इंस्पेक्टर ने कहा।
"वीडियो कहाँ है?" रिया ने हड़बड़ाते हुए पूछा।
"आपका फोन तो खाली है… इसमें तो कोई वीडियो नहीं है। शायद आपने रिकॉर्ड नहीं किया होगा।"
रिया चिल्लाई — "कैसे नहीं! मैंने खुद देखा है! वो औरत थी… रस्सी थी… वो… उल्टे पैर…"
पुलिसवाले एक-दूसरे को देखने लगे।
इंस्पेक्टर ने एक ठंडी साँस लेकर कहा,
"मैम, वहाँ कुछ नहीं है। आपका वहम होगा। ये पुरानी जगहें दिमाग़ से खेलती हैं। कुछ दिन आराम कीजिए…"
रिया को पहली बार लगा — अब बात उसके वहम से आगे निकल चुकी है।
अब कोठी उसे नहीं, बल्कि वो कोठी को देख रही थी।
रिया अब टूट रही थी। धीरे-धीरे, चुपचाप, बिना किसी को बताए — उसका मन और शरीर दोनों थकने लगे थे।
कभी जो चंचल और जिंदादिल थी, अब वो चुप रहने लगी थी। स्कूल में बच्चे भी अब उससे डरने लगे थे। एक दिन, एक नन्ही छात्रा ने मासूमियत से पूछा —
"मैम… आपकी आँखों के नीचे काले धब्बे क्यों हैं?"
दूसरे ने धीमे से कहा,
"आप तो हमेशा कुछ सोचती रहती हैं… आपको हमारी बात सुनाई नहीं देती।"
रिया मुस्कराने की कोशिश करती… लेकिन उसकी आँखों में अब सिर्फ़ डर था।
हर रात अब एक परीक्षा बन गई थी।
उस रात भी, थकी हुई रिया बिस्तर पर गिर पड़ी थी। आँखें बंद होते ही वो अजीब सपना देखने लगी —
एक रस्सी से झूलती परछाई, जो उसके नाम से पुकार रही थी…
"रिया… रिया… तुझे बुला रही हूँ…"
अचानक — धड़ाक!
कमरे की खिड़की तेज़ हवा से खुद-ब-खुद खुल गई।
हल्की चाँदनी कमरे में बिखर गई, लेकिन वो ठंडी हवा जो अंदर आई — वो सामान्य नहीं थी। उसमें एक गंध थी — सड़ी लकड़ी, पुरानी चूने की दीवार, और… मृत्यु।
रिया ने आँखें खोलीं।
और तभी…
उसके कान के बिलकुल पास किसी ने फुसफुसाया —
"तेरा समय पूरा हुआ…
तेरहवीं सीढ़ी अब तुझे भी बुला रही है…"
वो चीख़ी — एक तेज़, असहाय चीख़ — लेकिन आवाज़ दीवारों में ही घुल गई।
वो बिस्तर से कूदकर भागी, कमरे का दरवाज़ा खोलने की कोशिश की —
मगर दरवाज़ा… बंद था। अंदर से बंद। और अब वो खुल नहीं रहा था।
उसने पूरी ताक़त लगाई।
धक्का दिया, चिल्लाई —
"खुल जा… खुल जा… कोई है क्या बाहर!"
पर हर तरफ़ सन्नाटा।
और फिर… वो गिर गई — ज़ोर से।
ज़मीन पर घुटनों के बल। उसकी साँसें टूटने लगीं, आँखें डबडबा गईं।
कमरे में अंधेरा गहराने लगा।
और तभी… नीचे से वो आवाज़ फिर आई:
ठक… ठक… ठक…
धीरे… भारी… स्थिर कदमों की आवाज़…
जैसे कोई सीढ़ियाँ चढ़ रहा हो।
रिया की आँखें फटी रह गईं।
उसकी छाती तेज़ी से ऊपर-नीचे होने लगी।
हर ठक… उसके दिल के अंदर एक चोट जैसी लगती।
वो जानती थी — अब कुछ आ रहा है। और वो उसके लिए ही आ रहा है।
रिया अब लगभग टूट चुकी थी — शरीर थका हुआ था, नींद गायब हो चुकी थी, और आत्मा… जैसे कोई रोज़ उससे एक-एक कतरा खींच रहा था।
वो जानती थी, अब उसे उस कोठी का सच जानना होगा।
एक शाम, बिजली चली गई। मोमबत्ती की टिमटिमाती लौ में उसने पहली बार उस कोठी की पुरानी लाइब्रेरी का दरवाज़ा खोला — जहाँ आज तक उसने कदम नहीं रखा था।
दरवाज़ा चीं... की धीमी आवाज़ के साथ खुला, और भीतर से एक भरी हुई सन्नाटा उसकी ओर बढ़ा — जैसे किताबें भी कई वर्षों से चुपचाप इंतज़ार कर रही हों।
कमरे में घुटी हुई धूल थी। पुराने फर्नीचर, झाड़झंखाड़ में उलझे कागज़, और बीच में रखी एक टूटी मेज़ — और उसी मेज़ के कोने में, एक चीज़ चमक रही थी।
एक लाल रंग की पुरानी, चमड़े की जिल्द वाली डायरी।
उस पर सफेद अक्षरों में हल्के से लिखा था —
"विष्णुपाल हाउस — 1972"
रिया ने कांपते हाथों से वह डायरी खोली। पहले पन्ने पर उभरे थे कुछ धुंधले शब्द — जैसे खुद वक़्त ने उन्हें मिटाने की कोशिश की हो।
पर लिखावट साफ़ थी —
"मेरा नाम अद्या था।"
उसका दिल धड़क उठा।
उसने पढ़ना जारी रखा:
*"मैं इस कोठी में 1972 में आई थी, अपने पति के साथ।
बाहर से सब कुछ सुंदर था, लेकिन भीतर…
वो आदमी शैतान था।
मुझे तेरहवीं सीढ़ी से धक्का दे दिया गया — और मैं वहीं मर गई।
पर मरने के बाद भी मैं वहीं रह गई…
एक अधूरी आत्मा बनकर, उसी सीढ़ी से बंधी हुई।
जब तक कोई मेरी बात नहीं सुनेगा…
जब तक कोई मुझे दोषमुक्त नहीं कहेगा…
मैं मुक्त नहीं हो पाऊँगी।"
रिया की उंगलियाँ थरथराने लगीं।
अब सब साफ था — वो औरत जो सीढ़ियों पर दिखती है… वो अद्या है। वो डराने नहीं, मदद माँगने आई थी।
उसने तुरंत डायरी अपने कमरे में ले जाकर रखी। पूरी रात वह सोचती रही — क्या वाकई वह उसे आज़ाद कर सकती है? कैसे?
अगली रात — जैसे ही घड़ी ने 2:00 बजे की घंटी बजाई — रिया ने साहस जुटाया।
उसने अपने कमरे की सारी बत्तियाँ बुझा दीं।
मोमबत्ती जलाई, और डायरी को हाथ में लेकर सीढ़ियों के पास आकर खड़ी हो गई।
अंधेरा — घना, साँय-साँय करता हुआ — पूरे घर में भर गया था।
लेकिन रिया डरी नहीं। उसने ज़ोर से पढ़ना शुरू किया:
"तेरा नाम अद्या है…
तू निर्दोष थी…
तेरे साथ अन्याय हुआ…
मैं तेरी कहानी सुन चुकी हूँ…
अब मैं तुझे आज़ाद करती हूँ।"
उसके शब्द हवा में तैरने लगे — जैसे पुरानी दीवारों ने उन्हें सोख लिया हो।
और फिर…
एक तेज़ चीख़ गूंजी — इतनी तीव्र, इतनी पीड़ादायक कि मोमबत्ती की लौ फड़फड़ा कर बुझ गई।
घर की सारी लाइटें फटाक से बंद हो गईं।
एक पल को, जैसे सब कुछ थम गया।
अंधकार।
सन्नाटा।
और फिर… शून्यता।
रिया वहीं बैठ गई, उसकी साँसें तेज़ थीं, पर अब उनमें डर से ज़्यादा… करुणा थी।
उसे पहली बार लगा — शायद, उसने किसी को मुक्ति दी है।
लेकिन… क्या वाकई?
या कोई और कहानी अब शुरू होने जा रही थी?
भाग 6: आत्मा की मुक्ति या छल?
रिया को लगा कि सब खत्म हो गया।
उस रात के बाद, कोठी एकदम शांत थी।
ना कोई आहट… ना कोई फुसफुसाहट… और ना ही सीढ़ियों पर ठक-ठक की आवाज़ें।
जैसे बरसों से जो आत्मा वहाँ बसी थी — उसे मुक्ति मिल गई हो।
रिया ने चैन की साँस ली। सुबह उसने पहली बार सूरज की रौशनी को मुस्कराते हुए देखा।
"शायद… मैंने सचमुच किसी की आत्मा को आज़ादी दी है," उसने खुद से कहा।
लेकिन…
कोठियाँ कभी इतनी आसानी से छोड़ती नहीं।
अगली रात — जब वो सोने ही जा रही थी — तो एक बार फिर हवा ने झोंका मारा।
कमरे की मोमबत्ती फड़फड़ाई, और बाहर से एक धीमी गूंज आई…
"रिया… अब मेरी बारी है…"
रिया का दिल जैसे रुक गया।
उसने सोचा — "नहीं… ये नहीं हो सकता…"
वो कमरे से बाहर निकली, सीढ़ियों की ओर देखा।
पहले हल्की-सी धुंध फैली हुई थी — जैसे घर के अंदर कोहरा घुस आया हो।
और फिर उसकी नज़र पड़ी — सीढ़ियाँ दोबारा तेरह हो गई थीं।
रिया ने झपकते हुए गिना —
"1… 2… 3… 13!"
तेरहवीं सीढ़ी पर कोई बैठा था… वही आकृति… वही औरत।
लेकिन अब वो पहले जैसी नहीं थी।
उसका चेहरा पूरी तरह सड़ चुका था। आँखों से गाढ़ा खून टपक रहा था। बाल बिखरे हुए थे, जैसे साँप की लटें। और उसके होठों पर… एक भयावह मुस्कान थी।
रिया ने काँपती आवाज़ में पूछा —
"अद्या… तुम अब मुक्त हो गईं थीं न…?"
और तभी…
वो औरत खड़ी हुई — उसकी चाल टेढ़ी-मेढ़ी थी, जैसे हड्डियाँ टूटी हों, और आवाज़… वो इंसानी नहीं थी।
"मैं अद्या नहीं हूँ…"
"मैं वो हूँ… जो तेरहवीं सीढ़ी पर मरने वाली आत्माओं को खा जाती है…"
"अद्या बस मेरा पहला शिकार थी… अब तू मेरी होगी…"
रिया का खून जैसे जम गया।
वो उल्टे पाँव भागी — लड़खड़ाई, गिरते-गिरते दरवाज़े तक पहुँची — और तेजी से कमरे में घुसकर खुद को भीतर से बंद कर लिया।
उसके काँपते हाथों से कुंडी गिर गई, दरवाज़ा हिल रहा था —
बाहर से कोई उसे खटखटा रहा था… या नाखून रगड़ रहा था।
खर्र… खर्र… खर्र…
और रिया को पहली बार एहसास हुआ —
वो जिसे उसने मुक्त किया, वो आत्मा नहीं…
एक राक्षसी भूख थी… जो अब उसे भी निगलना चाहती थी।
भाग 7: आखिरी संघर्ष
रिया अब डर के साथ जीते-जी मर चुकी थी।
लेकिन उस रात, जब दरवाज़े के बाहर किसी अदृश्य चीज़ के पंजे खरोंच रहे थे,
जब उसकी साँसें अंदर ही अंदर गूंज रही थीं,
उसने एक निर्णय लिया —
या तो वो इस कोठी से भागेगी… या इस भयानक साया से लड़ेगी।
वो उठी, सीधे मंदिर के छोटे से कोने में गई।
वहाँ रखी एक तांबे की गंगाजल की शीशी को हाथ में लिया, और पूरे शरीर पर छिड़क लिया।
उसने दरवाज़े पर तुलसी की माला टांगी।
दीवार पर सिंदूर से "ॐ" लिखा।
फिर, कांपते हाथों से उसने हनुमान चालीसा की किताब खोली —
आवाज़ काँप रही थी, लेकिन शब्दों में विश्वास था।
"जय हनुमान ज्ञान गुण सागर…"
हर मंत्र के साथ जैसे घर में कोई कंपन गूंजने लगा।
कमरे की दीवारें हिलने लगीं, खिड़की खुद-ब-खुद बंद हो गई, और दरवाज़े के पीछे जो था — वो अब गुर्राने लगा।
लेकिन रिया नहीं रुकी।
उसने पूरी चालीसा गायी — जोर से, डरे बिना।
फिर जब सन्नाटा छा गया —
रिया ने गहरी सांस ली और सीढ़ियों की ओर बढ़ी।
पर जो उसने वहाँ देखा…
वो डर से परे था — वो असल मायावी खेल की शुरुआत थी।
अब सीढ़ियाँ वैसी नहीं थीं।
उसने गिनना शुरू किया —
"1…2…3…"
और उसकी आवाज़ धीमी होती चली गई।
अब वहाँ 14 सीढ़ियाँ थीं।
ना 12… ना 13… अब एक नई, और भी गहरी, और भी शापित सीढ़ी जुड़ चुकी थी।
और उस आखिरी सीढ़ी पर… एक बच्चा खड़ा था।
लगभग 6 साल का, सिर झुका हुआ… सफेद कपड़ों में…
लेकिन उसके कपड़े खून से सने थे।
उसके हाथ में एक टेडी बियर था — जिसका सिर आधा फटा हुआ था।
रिया वहीं जड़ हो गई।
बच्चे ने धीरे-धीरे सिर उठाया…
और मुस्कराया।
"माँ… चलो ना, खेलते हैं…"
रिया की रूह काँप उठी।
"नहीं… नहीं… मैं कभी माँ नहीं बनी…"
उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, हाथ काँपने लगे।
पर बच्चा अब सीढ़ी से उतरने लगा… धीरे-धीरे…
हर कदम के साथ वो बच्चा कम और कुछ अन्य अधिक लगता जा रहा था —
चेहरा गहरा होता गया, आँखें अब कोयले सी काली थीं।
"माँ… तुमने मुझे छोड़ा था… अब मैं नहीं छोड़ूँगा…"
रिया ज़ोर से चीखी।
उसका दिमाग़ अब वास्तविकता और भ्रम के बीच टूट रहा था।
वो पीछे हटती गई… और फिर, दौड़ पड़ी — मंदिर की ओर, जहाँ आखिरी उम्मीद बची थी।
रिया अब जान चुकी थी —
यह आत्मा नहीं… यह प्यास है। यह भूत नहीं… यह भूख है।
तेरहवीं सीढ़ी महज़ एक नंबर नहीं — एक दरवाज़ा है, जो एक बार खुल जाए, तो पीछे लौटना नामुमकिन होता है।
उस रात — जब वह बच्चा, जो शायद बच्चा नहीं था, उसके सामने आकर खड़ा हो गया…
जब सीढ़ियाँ दीवारों तक चढ़ने लगीं…
जब उसकी सांसें जकड़ने लगीं, और उसकी आँखें लाल खून से भर गईं…
उसने फैसला कर लिया — अब अंत होगा। किसी का भी… चाहे उसका ही क्यों न हो।
रिया ने मंदिर के पास रखा मिट्टी का तेल उठाया।
धीरे-धीरे हर कमरे में छिड़का।
तेरहवीं… नहीं, अब चौदहवीं सीढ़ी तक भी।
और आखिरी बार, सीढ़ियों के सामने खड़े होकर कहा:
"अब तुझे मैं ही खा जाऊँगी…"
उसने माचिस जलाई —
और कोठी धधक उठी।
शोलों ने जैसे हर छाया को जलाना शुरू कर दिया।
एक-एक कमरा चीख़ उठा।
सीढ़ियाँ टूटती रहीं, लकड़ी सड़ती रही… और अंत में, सब राख हो गया।
अगले दिन की खबरें:
"हिमाचल के पुराने स्कूल परिसर में स्थित 'विष्णुपाल हाउस' में आग लगने की खबर।
एक महिला शिक्षिका रिया वर्मा गंभीर मानसिक स्थिति में मिलीं।
अंदर कोई शव, आत्मा, या असामान्य संरचना नहीं मिली — यहाँ तक कि… वहां सिर्फ 12 सीढ़ियाँ थीं।"
आज: एक बंद मानसिक अस्पताल का कमरा
रिया अब एक सफेद कम्बल में लिपटी, कोने में बैठती है।
डॉक्टर कहते हैं — वो किसी तेरहवीं सीढ़ी का ज़िक्र करती रहती है।
कहती है,
"जब मैं आँखें बंद करती हूँ…
वो सीढ़ी फिर से उग आती है।
और वो बच्चा… अब भी मुझे माँ कहता है।
वो मुझसे अब तुम्हारा नाम पूछता है।"
कभी-कभी वो मुस्कराती है, और धीरे से फुसफुसाती:
**"तेरहवीं सीढ़ी अब भी मेरी गिनती में आती है…
और अगली बार…
तुम बनोगे उसका शिकार।"