वो आवाज़ फिर आई।
धीमी, गहरी, और डरावनी।
खर्र... खर्र... खर्र...
जैसे कोई नाखूनों से पुरानी लकड़ी को कुरेद रहा हो।
हर रात।
ठीक 2 बजकर 19 मिनट पर।
रोहन अभी-अभी दिल्ली से नैनीताल आया था — बेरोज़गारी की चोट, टूटा हुआ रिश्ता, और मन का भारीपन उसके चेहरे पर साफ़ झलकता था। उसे कुछ दिन एकांत चाहिए था — सोचने के लिए, खुद को दोबारा जोड़ने के लिए।
"वैली पाइंस मोटेल" — एक पुराना, सीलन से भरा, वीरान-सा दिखने वाला मोटेल — यही उसे सबसे सस्ता और शांत लगा।
कमरा नंबर 18।
कमरे की दीवारें पीली पड़ चुकी थीं, छत से पपड़ी गिर रही थी, और खिड़की के शीशे पर धूल की एक परत जमी थी। लेकिन सस्ता था, और बस यही चाहिए था रोहन को।
मोटेल का केयरटेकर — एक बूढ़ा आदमी, झुकी हुई कमर, सिलाए हुए होंठों जैसा चेहरा, और एक आँख में सफ़ेदी — चाबी देते समय बोला,
"कमरा 19 को हाथ मत लगाना। न खटखटाना, न झाँकना। बस 18 में रहना। समझा?"
रोहन हँसा।
"क्या वहाँ कोई भूत रहता है?"
बूढ़े की आँखें सिकुड़ गईं।
"तू मज़ाक समझ रहा है। पर खरोंच जब तेरी आत्मा में लगेगी न, तब हँसी बंद हो जाएगी।"
रोहन ने हँसी में बात टाल दी।
पहली रात, कुछ नहीं हुआ।
दूसरी रात...
खर्र... खर्र... खर्र...
ठीक उसी दीवार से जो कमरा 19 से लगी थी।
शुरुआत में रोहन को लगा कोई चूहा होगा। फिर ख्याल आया — शायद लकड़ी की पुरानी दीवारें हैं, खुद-ब-खुद आवाज़ कर रही होंगी।
लेकिन आवाज़ रुकी नहीं।
हर रात, एक ही समय पर। 2:19 पर।
तीसरी रात रोहन झुंझलाया। उसने दीवार पर हाथ मारा, ज़ोर से चिल्लाया, "कौन है वहाँ? क्या प्रॉब्लम है तुम्हें?"
कोई जवाब नहीं आया।
बस...
खर्र... खर्र... खर्र...
इस बार थोड़ी तेज़। थोड़ी नज़दीक।
चौथी रात, वो दीवार से कान लगाकर सुनने लगा।
इस बार, खरोंच के साथ कुछ और भी सुनाई दिया।
एक औरत की धीमी साँसें।
जैसे कोई कमरे में चल रहा हो। कभी रुकता, कभी चलता। फर्श पर हल्के से नाखून खींचता। एकदम नियमबद्ध। एक ही लय में।
और फिर...
ठक। ठक। ठक।
दीवार पर किसी ने ठीक उसके कान के सामने खटखटाया।
रोहन की रूह काँप उठी। वो पीछे हटा, साँसें तेज़ हो गईं।
पर उसने खुद को सम्हाला। "ये सब मेरे दिमाग का वहम है।"
लेकिन अब, उसके सपनों में भी वही आवाज़ आने लगी थी।
उसे एक लड़की दिखती थी — बिखरे बाल, फटे होंठ, और आँखों से टपकता खून।
वो कहती थी:
"मैं अंदर हूँ... मुझे निकालो..."
पाँचवीं रात, रोहन ने तय कर लिया कि उसे सच्चाई जाननी है।
उसने कमरे के बाहर जाकर कमरा नंबर 19 का दरवाज़ा देखा।
लोहे का दरवाज़ा, जंग लगा हुआ, और उस पर पुराने ज़माने का ताला।
लेकिन अजीब बात ये थी — ताले के ऊपर, अंदर से किसी ने खून से कुछ लिखा था।
सिर्फ़ दो शब्द:
"मत खोलो।"
रोहन अब उलझन में था। डर और जिज्ञासा — दोनों एक साथ उसे जकड़ चुके थे।
उस रात, 2:19 पर, वो दरवाज़े के पास खड़ा रहा।
और फिर...
दरवाज़ा खुद-ब-खुद हिलने लगा।
खर्र... खर्र... खर्र...
जैसे कोई अंदर से दरवाज़े को नाखूनों से कुरेद रहा हो।
अचानक एक तीव्र चीख आई — इतनी तेज़, इतनी दर्दभरी कि रोहन के घुटने कांप उठे।
और फिर सब शांत।
सुबह होते ही वो बूढ़े के पास गया।
"कौन है उस कमरे में? मुझे बताओ! वरना पुलिस को बुलाऊँगा!"
बूढ़ा हँसा — एक थकी हुई, टूटी हँसी।
"तू पूछ रहा है कौन है? कोई नहीं... अब कोई नहीं... सिर्फ़ वो जो छोड़ा गया था... अकेला... भूखा... और प्यासा... लेकिन ज़िंदा।"
"क्या मतलब?"
"तीन साल पहले, एक जोड़ा यहाँ आया था। प्रेमी-प्रेमिका। लेकिन लड़के ने किसी बात पर लड़की को कमरे में बंद कर दिया। ज़िंदा। ताला लगाया और भाग गया। किसी को कुछ नहीं बताया। जब बदबू फैलने लगी, तब पता चला। लेकिन तब तक... बहुत देर हो चुकी थी। लड़की की लाश नहीं मिली। बस खून... दीवारों पर... छत पर... हर जगह।"
रोहन की साँसें बंद होने लगीं।
"उसके बाद से... जो भी 19 के पास गया, या अंदर झाँका... वो या तो पागल हुआ, या फिर कभी नहीं लौटा। अब तू जान।"
छठी रात, रोहन ने शराब पी। और हिम्मत करके कमरे के बाहर फिर गया।
इस बार ताला खुला हुआ था।
दरवाज़ा धीमे से खुद-ब-खुद खुला...
भीतर अंधेरा था। एक भारी, सड़ी हुई दुर्गंध। जैसे किसी जानवर की लाश सालों से बंद हो।
वो अंदर गया।
कमरे की दीवारें खून से रंगी थीं। छत पर नाखूनों से बने निशान। और फर्श पर एक पुराना आईना — टूटा हुआ।
जैसे ही रोहन ने आईने में झाँका, एक चेहरा झलक गया।
वही लड़की।
उसके पीछे।
उसने पलटकर देखा — कुछ नहीं था।
लेकिन आईने में — वो औरत अब भी खड़ी थी।
धीरे-धीरे मुस्कुराती हुई, उसकी ओर बढ़ती हुई।
“मैंने कहा था ना... निकालो मुझे... अब मैं बाहर आ गई हूँ...”
आईना चटकने लगा।
रोहन चीखा। भागा। दरवाज़ा बंद।
उसने खटखटाया, चिल्लाया, चीखा।
"बचाओ! कोई है क्या?!"
आईना अब चूर-चूर हो चुका था।
उसमें से एक काली छाया निकली।
लंबे नाखून, उलझे बाल, चेहरा जला हुआ — उसने रोहन की गर्दन पकड़ी।
"अब तेरी बारी है। तू नहीं निकालेगा... तू रहेगा... और मैं बाहर..."
अगली सुबह, कमरा 19 फिर से बंद था।
ताला जड़ा हुआ।
कोई आवाज़ नहीं। कोई रोहन नहीं।
केयरटेकर ने कुछ नहीं कहा।
बस कमरे के बाहर लिखा हुआ था —
"मत खोलो।"
लेकिन अब... वो खरोंच कमरा 18 से नहीं आ रही।
अब वो कमरा 20 की दीवार से सुनाई दे रही है।
खर्र... खर्र... खर्र...