Yah mai kar Lunghi - 3 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | यह मैं कर लूँगी - भाग 3

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यह मैं कर लूँगी - भाग 3

(भाग 3)

एक दूसरे को शांतवना देते कुछ देर हम लोग सोफे पर बैठे रहे। उसके बाद वह उठी, आंसू सूख चुके थे पर उनका नमक चेहरे पर चिपका रह गया था इसलिए उसने अपना चेहरा धोया फिर तौलिए से पोंछने लगी। तब मैंने उठते हुए कहा कि- अच्छा चलूं!' तो उसने रुँधे गले से कहा, रुक जाइए... खाना बनाती हूँ।'

और मुझे भी लगा कि होटल में जाकर खाने से तो अच्छा है, मैं यहीं खा लूं। दूसरी बात यह कि इससे यह भी खा लेगी, अन्यथा हो सकता है, भूखी रह जाए। क्योंकि दुख में भूख-प्यास नहीं लगती।

खाना बनाने वह किचन में निकल गई तब थोड़ी देर में मैं भी उठा और वॉशरूम में चला गया। फ्रेश होने के बाद मैंने भी अच्छे से हाथ-मुंह में धोया और तौलिए से पोंछकर फिर से सोफे पर आ बैठा। टेबल पर पत्रिका पड़ी थी। मैं उसे पलटने लगा। हालांकि उसका एक-एक अक्षर मेरा पढ़ा हुआ था। लेकिन मैं फिर से उसे इसलिए देखने लगा कि इन शब्दों के मार्फ़त ही मैं उस तक पहुंचा था। अगर यह नहीं होते तो मैं यहां तक नहीं आ पाता और न उसे ढांढस बंधा पाता।

यह कितना भयानक था...कि एक परित्यक्ता लड़की जिससे उसका लड़का भी छिन गया, इस महा अजय शत्रु संसार से जूझने के लिए अकेली रह जाती...! हो सकता है वह हतोत्साहित होकर जीवन समाप्त कर लेती या फिर विक्षिप्त हो जाती अथवा एंजाइटी की शिकार होकर धीरे-धीरे मौत के मुंह में चली जाती।

खाना लाकर उसने टेबल पर लगा दिया तो मैंने कहा, आओ तुम भी खा लो। इस पर वह बोली, भूख नहीं है।' मैंने कहा, नहीं, ऐसा नहीं करते...!' उसने कहा, ठीक है, खा लूंगी, आप खाइए, बाद में...!' मैंने कहा, नहीं, अभी...' और यह कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ लिया तथा उसे खींचकर अपने बगल में बिठा लिया। जब उसने कहा कि- और प्लेट ले आती हूं।' तो मैंने, कहा नहीं मेरे साथ ही खाओ!' ऐसा कहकर मैंने पहला ग्रास तोड़ा और उसके मुंह में दे दिया।

आंखें भर आईं। फिर उसने बमुश्किल चबाया, बमुश्किल गटका और फिर सिसकते हुए कहने लगी, जब भूख नहीं होती, शुभ भी ऐसे ही जिद करता, और फिर अपने हाथ से मेरे मुंह में ठूंस देता...'

आंसू मैंने हाथ बढ़ा उंगलियों की पोरों से पोंछ दिए और दिलासा देते हुए कहा कि- जब वह पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, देख लेना एक दिन फिर लौट के आएगा...। तुम तो यही सोच सब्र कर लो कि अभी तुमने उसे विदेश के किसी हॉस्टल में भर्ती रख दिया है।'

खाते-खाते प्लेट से रोटियां और सब्जी खत्म हो गई तो वह उठकर गई और फिर से थाली भर लाई। तब पता चला कि न जाने कितने दिन से भूखी थी!

खाने से निपटने के बाद मैंने बासबेसिन पर जा अपने हाथ धोए, कुल्ला किया और कहा कि अब चलूँ' तो उसने निराशा से भरकर कहा कि- हां ठीक है...' और मेरा मन तो नहीं था जाने का पर इस तरह से उसके यहां रुकना भी मुझे ठीक नहीं लग रहा था, सो उठकर चला आया।

टर्न का काम समाप्त हो गया था इसलिए सुबह उठकर मैं अपने शहर भी आ गया। फिर दो-चार दिन तलक उसी मानसिकता में रहने के बाद आगामी अंक की तैयारी करने लगा। पर मन में वह हमेशा घूमती रहती...! जैसे पहले बेटी घूमती थी।

शादी से पहले उससे खूब मजाक चलता। मैं कहता कि तुम्हें अब जल्दी ही विदा करूंगा तो वह मुझे बाहों में भर लेती और कहती, हम आपको छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। तब मैं कहता कि फिर तुम मुझसे शादी कर लो। और वह खूब जोर से हंसती और अपनी मां की तस्वीर के आगे जाकर कहती देखो, मम्मी! पापा कितने ढीठ हो गए हैं...। कैसे परेशान करते हेंगे!'

क्षमा में मैं अपनी बेटी को देखने लगा था। संपादन में कोई रचना चुनौती बनकर खड़ी हो जाती तो उसे फोन कर उसका मजमून बताता और पूछता कि क्या करूं, बड़ी उलझन है, इसे छापूं या नहीं?' फोन पर अक्सर उसके भी हाल-चाल लेता रहता और साहस देता।

रचनाओं के बारे में उसकी राय से कई बार चमत्कृत हो जाता। तब धीरे-धीरे मेरे मन में एक बात आई कि क्यों न मैं उसे सहयोगी संपादक बना लूं! और यह विचार पकते-पकते इतना पक गया कि मैंने ऐसा कर लिया। पत्रिका तैयार कर सॉफ्ट कॉपी प्रेस को भेज दी। तब 8 दिन बाद उसका फोन आया कि उठा लीजिए। और मैं अपने कस्बे से पोस्ट ऑफिस वाले, प्रकाशन स्थल वाले शहर में आ गया। डिस्पैच तैयार करने से पहले मन में आया कि सबसे पहले क्यों नहीं पहली प्रति उसे जाकर भेंट करूं।

बस यह ख्याल आते ही मैं सीधा उसके घर जा पहुंचा।

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