Kaarva - 10 - 3 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 10(3)

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कारवाॅं - 10(3)

वंशीधर का दिमाग़ घूम फिरकर हठीपुरवा पर ही अँटक जाता है। वही नन्दू, हरवंश, तन्नी, ओर अंजलीधर का चेहरा बार बार सामने आ जाता है। वे कुछ कर नहीं पा रहे हैं यह मलाल उन्हें अन्दर ही अन्दर सालता रहता है।..... पर वह करेगा कुछ ऐसा जिसे लोग भूल नहीं पाएँगे। वंशीधर होने का कोई अर्थ है.... समझ लो इसे.... एक गहरा अर्थ....।

पुराने प्रधान जी और चौधरी प्रसाद दोनों बहुत दुखी हैं। इस बार दोनों प्रधानी में पटखनी खा गए। यही दुःख नहीं है दुःख यह भी है कि तन्नी और उसके सहयोगी जिस तरह काम कर रहे हैं उससे तो लगता है कि आने वाले वर्षों में इसी समूह का कोई व्यक्ति प्रधान बन पाएगा। शेष लोग ताकते रह जाएँगे। पूर्वप्रधान जी शहर की ओर साइकिल से जा रहे थे। यही प्रातः आठ बजे का समय। चौधरी प्रसाद भी दूध लिए हरहराते जा रहे थे। प्रधान जी को देखकर रुके। राम राम हुआ। कहो चौधरी क्या हाल-चाल है?' प्रधान जी ने बात शुरू की। 'सब ठीक ही है मालिक।' चौधरी के कहते ही प्रधान जी बोल पड़े 'ठीक तो नहीं हैं।' चौधरी प्रसाद हँस पड़े 'बात तो चालीस सेर की कह्यो प्रधान जी।' 'कुछ करोगे भी या चुपचाप बैठे रहोगे?' 'क्या किया जाए? यही तो समझ में नहीं आता।' 'दूध पानी में ही फँसे रहोगे तो क्या समझ में आएगा? कभी आओ इस पर विचार किया जाय।'

'तो फिर शाम को सात बजे।' 'ठीक है।' और दोनों अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े।

शाम को पूर्व प्रधान जी के यहाँ बैठक जमी। चौधरी प्रसाद भी सहयोगी के साथ उपस्थित हुए। प्रधान जी की आलमारी में शीशे के गिलास और रम की एक बोतल रखी थी, नमकीन भी। वे निकाल कर लाए। नरायन ने दौड़कर गिलास थोया, जग में पानी भर लाया। प्लेट में नमकीन सजा दिया।

'प्रधान रहने पर-साहब सूबा के लिए अँग्रेजी रखना पड़ता था।' प्रधान जी के शब्द जैसे कहीं बहुत नीचे दबे हों मुश्किल से निकल रहे थे। 'अब नई प्रथान के यहाँ पानी भी मिल जाय तो बड़ी बात है।' चौधरी ने तीर छोड़ा। 'साहब सूबा तो आपके ही यहाँ दौड़े आएँगे।' 'क्या किया जाय चौधरी ! साहब लोगों का मान रखना ही पड़ता है। आते हैं तो स्वागत करना ही है।' उचारते हुए प्रधान जी ने बोतल नरायन को पकड़ाई नरायन ने सभी के लिए एक एक पेग गिलास में ढाला और फिर 'जय शम्भो'। चुस्कियों के साथ बातों के पंख लगे। 'नई प्रधान बहुत तेजी दिखा रही हैं।' चौधरी ने बात शुरू की।

'नया धोबी कथरी में भी साबुन लगाता है। नई प्रधानी मिली है तो कुछ न कुछ छनछनाहट तो होगी ही।' कहते हुए प्रधान जी ने एक घूँट गले के नीचे उतारा। गला तर करते हुए चौधरी भी चहके, 'क्या किया जायगा अब प्रधान जी। पाँच साल तो कटना मुश्किल है।' 'देखो, हमें हर काम पर नज़र रखनी है। जैसे ही गलती करें, चढ़ लेना है।' प्रधान जी थोड़ी नमकीन चुलबुलाने लगे।

'पर अंजलीधर के रहते लोग गलती नहीं करने पाएँगे।'

'क्या अंजलीधर? जिसे लोग माँ जी कहते हैं......۲

'हाँ वही। वह हठीपुरवा के साँस साँस में बसी है।'

'बात तो तुम ठीक कहते हो पर।'

'कहो तो उसे हटा दिया जाय। बिना उसको हटाए... ।' चौधरी आगे कुछ कहते कि प्रधान जी ने लपक लिया।

'एक तो किसी को हटाना आसान नहीं होता, दूसरे हमारे पास यही विकल्प नहीं है। अपने को फँसा कर इस तरह का काम करना बुद्धिमानी नहीं है। यह बात सही है कि सेनापति तो अंजलीधर ही है। हर कदम आज़मा कर रखते हुए हर संकट का सामना करने वाली।' 'सेनापति पर ही वार करना पड़ेगा।' चौधरी से न रहा गया। 'सेनापति के गिरते ही सेना बिखर जायगी। यही सोचते हो न? पर यह सोच पुरानी है। एक अंजलीधर की जगह कई अंजलीधर पैदा हो जाएँगी। पहले से अधिक तेज प्रखर ।'
'तब।' 
'सोचा जाएगा कोई कारगर विकल्प।' प्रधान जी ने गिलास को ओंठ से लगाया और गला तर किया। वे कुछ सुरूर में आने लगे। चौधरी ने भी गिलास खाली कर दिया। वे भी झूम उठे। नरायन ने दोनों के लिए एक एक पेग और बनाया। फिर 'जय शम्भो' ।

रविवार की सुबह वत्सलाधर उठीं। रात में देखा सपना बार-बार कौंधता रहा।

'आज माँ जी के पास चलना है', वत्सला ने विपिन से कहा।

'मैं एक रिपोर्ट तैयार कर रहा हूँ। दो घण्टे लगेंगे। उसके बाद चलते हैं।' विपिन की कलम और तेजी से दौड़ने लगी।

नहाते धोते भी वत्सलाधर को सपना तंग करता रहा। उन्होंने जल्दी से पराठा-सब्जी बनाया। विपिन ने भी रिपोर्ट तैयार कर ई मेल किया। चटपट तैयार हुए। दोनों ने पराठा-सब्जी का जलपान किया। माँ जी के लिए पैक कर रखा और चल पड़े। सर सराती हुई मोटर साइकिल जैसे ही हठी पुरवा के समीप पहुँची, कुछ बच्चे पहचानकर निकट आ गए खुशी से उछलते हुए।

माँ जी तख्ते पर पालथीमार कर बैठी कुछ सोच रही थीं। विपिन-वत्सला को देख वे प्रसन्न हो उठीं।

'आपकी तबियत तो ठीक है?' वत्सला ने पहुँचते ही पूछ लिया।

'ठीक ही कहना चाहिए। शरीर शिथिल हो कभी न कभी तो छूटेगा ही।' कहते हुए माँ जी मुस्करा उठीं।

'आज मैंने जो सपना देखा उससे घबड़ा उठी थीं।'

'कैसा सपना?'

'सपना अच्छा नहीं था। मैंने देखा कि आप इस दुनिया में नहीं रहीं। मैं आपके पास बैठी हूँ, विपिन दौड़धूप कर रहे हैं। पूरा गाँव स्तब्ध, आहत है...।

'यह तो सहज स्वाभाविक क्रिया है बेटे। इसमें परेशान होने की क्या बात है? मैं कब तक रहूँगी। चलने का समय तो आ ही गया है। आज नहीं तो कल..... चलते-फिरते प्रस्थान कर जाऊँ यह तो अच्छी बात होगी।' माँ जी आश्वस्त सी करती हुई। इसी बीच अंगद आ गए, गाँव की कुछ औरतें भी। वत्सला उन्हीं के बीच हँसती-बोलती हाल - चाल लेती रहीं। अंगद और विपिन गाँव की विकास योजनाओं और विकल्प डेयरी पर चर्चा करते रहे। माँ जी देखती, सुनती, मुस्कराती रहीं। विपिन भी पुरवे से पूरी तरह जुड़ गए हैं। पूरा पुरवा उन्हें अपना दामाद ही समझता है। वे इस पुरवे के लिए ही नहीं पूरी ग्राम पंचायत के लिए दौड़ते रहते हैं। वत्सला तो गाँव की बेटी हैं ही। योजनाओं को पारदर्शी ढंग से लागू करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। तन्नी और उनकी टीम पर दौड़कर काम कराने का दबाव। 

तन्नी, करीम और विपिन की दौड़-धूप का परिणाम यह हुआ कि ग्राम पंचायत के सभी दस पुरवों में जहाँ बिजली नहीं थी, तार खिंच गए। मजरों को बिजली उपलब्ध कराने की योजना को कारगर ढंग से लागू करने की कोशिश हुई। हर घर को बिजली पहुँचाने में सरकारी योजना का लाभ मिला ही, ग्राम वासियों ने भी पूरे उत्साह से लगकर कार्य को सम्पन्न कराया। जिस दिन बिजली जोड़ी गई, सभी पुरवे जगमगा उठे, उसी के साथ युवा-बाल-वृद्ध सभी के पंख लग गए। जगह-जगह लोगों ने कीर्तन कर आनन्द मनाया। हठी पुरवा के लोग भी उत्साह से भर उठे। माँ जी ने करीम के साथ सभी पुरवों को जगमगाते देखा। भूषण अपने बच्चे के खो जाने से दुखी थे ही, उन्होंने बिजली लगवाने से मना कर दिया था। माँ जी ने उन्हें समझाया। अपने खर्चे से बल्ब मँगवाकर जलवाया। हल्की सी खुशी भूषण के चेहरे पर भी उगी। बच्चे और महिलाएँ खुश दिखीं। अब शाम को ढिबरी या लालटेन नहीं खोजना होगा। बिजली के उजाले में काम करना आसान हो गया। माँ जी की मड़ई में भी एक बल्ब लगा दिया जाए', करीम ने सुझाव दिया। 'कोई ज़रूरत नहीं करीम। आप सब के घर का उजाला ही मेरी कुटिया को प्रकाशित करेगा।' माँ जी बोल पड़ीं।

अमावस की अँधेरी रात। पछुआ सनसना रही है। ठंडक बढ़ गई है। पुरवे के लोग अपने जानवरों को ठंड से बचाने के लिए बाड़ों या घरों में बाँध रहे हैं। स्वयं भी सुरक्षित स्थान पर ही सो रहे हैं। माँ जी मड़ई छोड़ना नहीं चाहती थीं। मड़ई को तीन तरफ से टाटी लगाकर घेर दिया गया है। वे निश्चिन्त हैं। कोई क्या करेगा उनका ? ज्यादा से ज्यादा प्राण ही ले लेगा। चलने का समय नज़दीक आ ही रहा है। ऐसे में डरना क्या? 'मौत से भयभीत क्यों होऊँ?' वे कहती भी रहतीं।
पछुआ सन्न सन्न कर रही है। आदमी ही नहीं पुरवे के कुत्ते भी पयालों आदि के बीच घुसकर अपने शरीर को गर्मा कर सो रहे हैं। बाहर कोई हलचल नहीं। दूर कहीं से सियारों के हुआँ.... हुआँ करने की आवाजें जरूर आ रही हैं। पूरा पुरवा नींद के आगोश में।

पिछला प्रहर बीतते सुगबुगाहट शुरू। लोग अपने जानवरों को नाँद पर लगाने के लिए उठे। वीरेश ने अपनी भैंस को नाँद पर लगाया। चूनी-भूसी-आटा लाकर नाँद में डाला। भैंस खाने लगी। वह भी शौचादि से निवृत्त होने में लग गया। माँ जी अक्सर इस समय तक उठ जाती थीं। आज नहीं उठीं। शायद तबियत कुछ ढीली रही हो। वे उठेंगी तो बाहर आकर टहलेंगी। वीरेश को पुकारेंगी।

जब काफी देर तक माँ जी नहीं उठीं। वीरेश ने मड़ई में झाँक कर देखा । रजाई से पूरा शरीर ढका है। माँ जी शायद गहरी नींद में सो रही हैं। कुछ देर वह प्रतीक्षा करता अपना काम करता रहा। वीरेश की माँ भँवरी मैके गई थीं। अभी लौट नहीं पाई थीं। तन्नी माँ जी के लिए चाय लेकर घर से बाहर निकली।

'अभी तो माँ जी उठी ही नहीं।' वीरेश बोल पड़ा।

'क्यों?'

'अभी उठी नहीं हैं?' चाय वीरेश को देकर तन्नी मड़ई में घुसीं। रजाई को मुँह से हटाते ही उसके होश उड़ गए।

'वीरू, अंगद चाचा को जल्दी से बुला ला ।'

'क्या हो गया दीदी?'

'दौड़कर बुला लाओ तब पूछो।'

आँखें खुलीं चेहरा जैसे मुस्कराता हुआ। गले में शाल लपेटा हुआ। क्या सचमुच माँ जी चली गईं? वह रो पड़ी। मुँह ढका और दौड़कर वत्सला जी को फोन करने लगी। 'आप जीजा जी को लेकर जल्दी आ जाइए।'

वत्सला जी हलो....हलो करती रहीं पर उसने फोन काट दिया। वह बहिन जी से क्या बताए?

वत्सला जी ने समझा कि माँ जी अस्वस्थ हो गई होंगी। तन्नी फोन काटकर उनकी सेवा में लग गई होगी।

अंगद भी दौड़कर आए। रजाई उठाकर माँ जी का चेहरा देखा। वे अचंभित, दुखी ।
'माँ जी कैसे परलोक सिधार गईं?' वे पिहँक उठे। खबरों के पंख उड़े, 'माँ जी नहीं रहीं।' पुरवे के लोग दौड़ पड़े। तब तक विपिन और वत्सला भी पहुँचे।

वत्सला माँ की खुली आँखें देखते ही जैसे बेहोश हो गईं। विपिन ने उन्हें सँभाला। गाँव के लोग हतप्रभ। करीम भी दौड़े हुए आए। पुरवे की स्त्रियों का रोते-रोते बुरा हाल ।

'हम लोग अनाथ हो गए', करीम रोते हुए कहते रहे। विपिन ने ..... कान्तिभाई... को फोन मिलाया। माँ जी के देहान्त की सूचना दी। वे भी पति-पत्नी भागे।

'दूध बाज़ार में पहुँचाने का इन्तजाम करो।' विपिन ने अंगद से कहा। अंगद, नंदू हरवंश डेयरी का काम सँभालने लगे पर आँखों से आँसू झरते रहे।

पूर्व प्रधान जी, चौधरी प्रसाद भी दौड़कर आए। सभी दुखी, आँखें नम।

विपिन ने माँ जी की झोली उतारी। उसमें डायरी, कलम तथा फुटकर दो सौ पच्चीस रुपये मिले।

डायरी में कल की ही टिप्पणी थी-

आज मैं सोचती हूँ कि मेरा अन्त नज़दीक है। गाँव के लोग जिस रास्ते पर चल पड़े हैं उससे वे आगे बढ़ सकेंगे। यदि मैं कुछ और दिन रह गई तो कुछ और गाँवों को अपने पैरों पर खड़े करने की कोशिश करूँगी। यदि पर्वाना जल्दी आ गया तो इस गाँव के लोग ही दूसरे गाँवों को प्रेरित करेंगे और फिर कारवाँ बनता रहेगा। गाँव के लोगों को बता देना है कि मेरे न रहने पर कोई स्मारक या निशान बनाने की कोशिश न करें। संगठित होकर गाँव के लोग यदि आगे बढ़ते हैं तो यही मेरे लिए खुशी की बात होगी। शरीर दान कर ही दिया है। निश्चित हूँ। आज ठंडक ज्यादा होगी। जाड़े में पछुआ चलने पर ठंडक बढ़ जाती है। इस ठंडक से किसी असहाय की मौत न हो।

पाँव के निशान ही आने वालों को राह का संकेत देते हैं। धीरे धीरे यही लीक बन जाती है। लीक ही परम्परा है। पर परम्परा की जकड़न से भी बचना होगा। पाँव नए रास्ते बना सकें, यह भी उतना ही ज़रूरी है। दुनिया की गति बहुत तेज है। तेज गति के कारण स्थिति-काल एवं दिशाभ्रम भावी समाज में निरन्तर तनाव पैदा करता रहेगा। हमें इन्हीं के बीच रहते हुए अपने पाँव बढ़ाने होंगे, तनाव के बीच मुस्कराते, नए-नए रास्ते खोजते हुए। पुरवे में अभी तो शुरूआत भर हुई हैं। एक तरह से सभी ककहरा ही सीख रहे हैं। पर इतने से ही लोगों में आत्मविश्वास बढ़ा है। निरन्तर इसमें बढ़ोत्तरी होती रहे इसी का प्रयास करना होगा। निरन्तर प्रयास.... अनुचिन्तन. ... राह निर्धारण. प्रयास निरन्तर यही गाँव के बच्चे नए समाज का निर्माण करेंगे। पाँवों के निशान से चिपकेंगे नहीं..... नए नए निशान सृजित करेंगे अपने कर्म और चिन्तन से।'

विपिन ने पढ़ा, करीम ने भी। 'अब?' उन्होंने विपिन से पूछा। विपिन ने मुख्य चिकित्साधिकारी को फोन पर सूचना दी। उन्होंने कहा, 'आधे घण्टे में डॉक्टरके साथ एम्बुलेंस पहुँच जाएगी।'

'अब माँ के शरीर को नहला कर तैयार कर देना है।' करीम ने सभी को बताया। पर आँखों से आँसू झर रहे थे।

महिलाएँ माँ जी के शरीर को नहलाने लगीं। उन्हें शव वस्त्र पहनाया गया। तब तक चिकित्साविभाग की गाड़ी आ गई। वत्सला कुछ चुप हो गई थीं पर गाड़ी आते ही उनकी चीख निकल गई।

विपिन ने सभी को बताया, 'माँ जी ने अपना शरीर दान कर दिया था। इसीलिए गाड़ी आई है। माँ जी का शव मेडिकल कालेज ले जाया जायगा ।'

सभी ने मिलकर माँ जी का शव गाड़ी में रखवाया। एक बार फिर हाहाकार और उसी के साथ राम नाम सत्य है..... राम नाम.....राम नाम का उद्घोषl गाड़ी रेंग चली।  

पूरा गाँव गाड़ी का जाना देखता रहा।