अनुच्छेद छह
विपिन और कान्तिभाई लगे रहे कि हठीपुरवा के तेरह लोगों का किसान क्रेडिट कार्ड बन जाय। विपिन का पत्रकारिता का दबाव भी था, तब भी बैंक से जल्दी काम न हो सका। कान्तिभाई ने बैंक मैनेजर को पुरवे में इतवार को ले जाने की योजना बनाई। बत्सला जी को सामान्य भविष्य निधि से कर्ज़ जल्दी मिल गया। विपिन, वत्सला कान्तिभाई और बैंक के मैनेजर इतवार को हठीपुरवा पहुँचे। सब की जानकारी में साठ हजार रुपये विकल्प डेयरी के सचिव अंगद को दिए गए। करीम, अंगद और नन्दू के साथ इन चार लोगों को जिन्हें दुधारू जानवर दिया जाना है खरीद समिति में सम्मिलित किया गया। वत्सला और विपिन दोनों खुश थे, बैंक मैनेजर चकित । कोई अपनी भविष्य निधि से कर्ज लेकर किसानों को दुधारू जानवर उपलब्ध करायेगा यह उनकी सोच से परे था, लेकिन जो घट रहा था, वह प्रत्यक्ष था। मैनेजर पर भी इसका प्रभाव पड़ा। उन्होंने पुरवे के लोगों को बताया कि जल्दी ही तेरह लोगों का किसान क्रेडिट कार्ड बन जाएगा। मैनेजर के मन में कहीं यह भाव था कि पुरवे के लोगों से कुछ सुविधा शुल्क मिल ही जायेगा। पर यहाँ का वातावरण देखकर उनकी यह भावना तिरोहित हो गई बल्कि उनकी सोच में भी एक सकारात्मक परिवर्तन हुआ। उन्होंने पुरवे के लोगों को सम्बोधित किया और यथा संभव हर सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही।
हठी पुरवा से लौटने के बाद दूसरे दिन ही बैंक मैनेजर ने सभी लोगों के क्रेडिट कार्ड बनवा दिए। उन्हें इस काम से एक तरह का संतोष हुआ। अंगद, नन्दू सभी तेरह लोगों को बैंक ले गए और उनके खाते से बीस-बीस हजार रुपये दुधारू जानवर के लिए निकलवाया। सभी लाभार्थियों के मन में एक सपना उग आया था। सभी लोग जल्दी से जल्दी उस सपने को पूरा करना चाहते थे।
एक महीने की कड़ी दौड़-धूप के बाद आज हठीपुरवा में उत्सव का दिन है। जिन लोगों के पास जानवर नहीं थे उन्हें आज दुधारू जानवर उपलब्ध करा दिए गए हैं। माँ जी भी बहुत खुश हैं। अंगद, नन्दू, तन्नी सहित पुरवे के लोग प्रसन्न मन से विकल्प डेयरी को धन्यवाद देते हैं। इस अवसर पर वत्सला भी आ गई थीं। अंगद ने कुछ लड्डुओं का इंतजाम कर लिया था। सभी का मुँह मीठा करते हुए पुरवे के लोग खुशी का इज़हार कर रहे थे। यह एक नई पहल थी। पुरवे का कोई भी व्यक्ति दुधारू पशुओं से वंचित न रह जाय इसी उद्देश्य से विकल्प डेयरी ने यह योजना बनाई थी। अब पंछियों की तरह सभी साथ उड़ेंगे। एक नए समाज की रचना में सभी का साथ होना अत्यन्त आवश्यक है। जो भी पिछड़ जाए, किसी कारण से प्रगति न कर सके उसको अवसर उपलब्ध कराना किसी भी विकास मॉडल का अत्यन्त जरूरी हिस्सा होता है। सरकारें प्रायः यही नहीं कर पातीं और अवसर से वंचित लोगों का प्रतिशत बढ़ता जाता है। फलतः अमीरी और गरीबी की खाई भी बढ़ती जाती है। क्या हठी पुरवा कोई विकल्प दे सकेगा? रह रह कर माँ जी के दिमाग़ में यह बात कौंध जाती। मन में एक विश्वास पैदा होता है कि हम सही विकल्प के रास्ते पर हैं । कितनी सफलता मिलती है? यह अलग बात है।
विकल्प डेयरी के आपूर्ति कर्ताओं में अब सत्रह नाम और जुड़ गए हैं। नन्दू और हरवंश भी खुश हैं। विकल्प डेयरी का काम बढ़ रहा है, इससे दोनों का काम भी बढ़ गया है। डेयरी का दूध बाज़ार पहुँचाकर दोनों लौटे तो एक पेड़ के नीचे छंहाने लगे। 'डेयरी न खुलती तो हम लोगों को भी दिल्ली बम्बई कहीं भागना ही पड़ता', हरवंश ने कहा। 'इसके अलावा और चारा ही क्या था?' नन्दू ने भी सहमति जताई।
'आगे और बच्चों को भागना न पड़े इसका इंतज़ाम भी करना होगा।'
'अगर हम लोगों के छोटे-छोटे धन्धे चलते रहे तो बच्चे क्यों भागेंगे?'
'सभी को काम दे पाएँगे तभी पुरवा आगे बढ़ पाएगा।'
'यह तो है ही। कुछ लोग आगे बढ़ जाएँ और कुछ को रोटी भी न मिल पाए ऐसा नहीं होना चाहिए।' 'ठीक कहते हो जब कुछ लोग रोटी भी न पाएँ तो कैसा विकास?' 'हम लोगों को इस बात का ध्यान रखना है कि सभी का विकास हो, सभी का घर हो, बच्चों की पढ़ाई हो सके और सभी काम भी पा सकें।' 'यह काम तो होना ही चाहिए। लेकिन पुरवे में बिजली नहीं आई है। बच्चों को कम्प्यूटर सीखने के लिए शहर जाना पड़ता है। बिजली आ जाने पर पुरवे का नक्शा बदल जाएगा।'
'धीरे-धीरे बिजली के लिए भी कोशिश की जाएगी। पुरवे में बिजली आएगी। तुम्हारा यह सपना भी पूरा होगा।'
नन्दू, हरवंश थोड़ी देर बतियाते-छँहाते रहे फिर उठे। साइकिल पर बैठे और पुरवे की ओर चल दिए।
हठीपुरवा के लोग निरन्तर कुछ न कुछ करने के लिए सोचने लगे हैं। ग्रामीण जीवन प्रकृति और बाज़ार की थपेड़ से आहत होता रहता है। इसीलिए एक निराशा का भाव कहीं न कहीं पनपता रहता है। यह सोच कि भाग्य में जो होगा वही होगा कभी-कभी निराशा में राहत तो देती है पर उसका एक दूसरा पक्ष भी है जो निष्क्रियता को प्रोत्साहित करता है। जब होना वही है जो राम ने रचि राखा है तो बहुत हाथ-पाँव मारने का भी क्या परिणाम निकलेगा? यही सोचकर कभी-कभी ग्रामीण नई छलांग लगाने, नया जोखिम लेने से कतराते रहे हैं। चार पैसा बच जाय तो उसको गाँठ बाँधकर रख लेते हैं। उसे पुनः विनिवेश के लिए नहीं रख पाते। तभी तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में शर्मीली मुद्रा बैंकों, डाकखानों में पड़ी रहती है। कौन जोखिम उठाए और इस छोटी सी बचत से भी महरूम हो जाए? गाँवों से इस शर्मीली मुद्रा को सक्रिय बनाना भी एक बड़ा काम है। बैंक से चार पैसा ब्याज मिल जाने पर ग्रामीण खुश होता है। पर बचत कर पाने वाले ऐसे ग्रामीण कितने हैं? अधिकांश तो कर्ज़ से दबे तड़फड़ाते रहते हैं। खेती में घाटा हो रहा है या फायदा इसका अनुमान लगाकर लघु-सीमांत कृषक क्या करे ? उसे तो अपनी रोटी के लिए अन्न उपजाना ही है भले ही लागत से उत्पादन कम हो। तिरासी प्रतिशत किसान लघु और सीमांत ही हैं। उनकी छोटी-मोटी छलांग भी अगर असफल हो जाती है तो उस अवसाद से बच पाना बहुत मुश्किल होता है। देश में दो लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसमें से अधिकांश किसान वही हैं जिन्होंने छलांग लगाने के लिए कुछ ज्यादा कर्ज़ ले लिया। उत्पादन हुआ पर बाज़ार ने साथ नहीं दिया। फिर तो अवसादग्रस्त होना ही है। सरकारें तात्कालिक भीख देकर दाता की महिमा का बखान करती हैं पर किसान जहाँ था लगभग वहीं खड़ा है। गाँव के बच्चे अक्सर रोटी के लिए महानगरों की ओर भागते हैं। महानगर उन्हें अवैध सन्तान की तरह पालता है। रहने को घर नहीं, परिवार रखने की जगह नहीं। एक-एक खोली में दस-दस लोग रहने को बाध्य। हम गाँव से शहर भागने वाले बच्चों के प्रयास की हँसी उड़ाते हैं पर शहर की चमक तो इन्हीं बच्चों के हाथों से आती है। सम्पन्न वर्ग के लोगों के बच्चे क्या इसी तरह विकसित देशों-अमेरिका, यूरोप की ओर नहीं भागते? वे भी तो अधिक कमाई के लिए इन देशों की शरण लेते हैं अपने अनेक राजनीतिक, सामाजिक अवसरों से वंचित होकर। कितने लोग हैं जो अमेरिका और यूरोप से वोट देने के लिए यहाँ आते हैं या स्वयं प्रत्याशी बनकर खड़े हो पाते हैं? लगभग यही स्थिति तो इन ग्रामीण बच्चों की भी है। शहर जाकर वे अपने ग्रामीण जीवन की बहुत सी सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं। खुला-खुला मड़ई का घर भी उन्हें शहर में नसीब नहीं हो पाता। कूड़े के ढेर पर उगती झुग्गियों को देखा जा सकता है।
देश की तिरसठ प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है। इस समय सकल राष्ट्रीय उत्पाद का चौदह प्रतिशत ही खेती से मिल रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान खेती छोड़ रहा है। बात सच है एकाध एकड़ में पूरे परिवार की सभी आवश्यकताएँ कैसे पूरी होंगी? नया बच्चा कहीं दूर-दराज़ मजदूरी करना पसंद करता है पर घर में रहकर खेती करना उसके लिए रुचिकर नहीं रह गया है। बड़े-बूढ़े कहते रहते हैं कि नए लड़के खेती में रुचि नहीं लेते। सवाल यह है कि नए बच्चे आधी-अधूरी खेती कैसे करें? खेती करने वाले बच्चों की शादियाँ कहाँ हो पा रही हैं? हर जगह उन्हें पिछड़ा, देहाती कहकर दुत्कारा जाता है। ऐसी स्थिति में थोड़ी खेती कौन करे? हर बच्चा एक बेहतर भविष्य का सपना देखता है। थोड़ी खेती में उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखता है। उसकी सोच गलत है यह नहीं कहा जा सकता पर खेती करेगा कौन? बड़ी कम्पनियाँ तो अवसर की ताक में हैं कि कब उन्हें अवसर मिले और वे बड़े-बड़े फार्म बनाकर लाभदायक खेती करें। यदि कम्पनियों ने खेती शुरू किया तो किसान और उनके बच्चे कहाँ जायेंगे? अगर वे बेरोजगार होंगे तो उन्हें रोटी कैसे मिल सकेगी? सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया है। इसीलिए एक वैचारिक सुदृढ़ नियोजन की ज़रूरत है जिसमें सभी किसानों के बच्चे गुणवत्तायुक्त शिक्षा और रोजगार के लिए कौशल प्राप्त कर सकें। पर यही नहीं हो रहा है। बड़े किसानों जिनकी संख्या देश में सत्रह प्रतिशत से अधिक नहीं है, के बेटे तो जयपुर, देहरादून, बंगलौर कहीं भी पढ़ सकते हैं पर लघु और सीमांत किसानों के बेटे तो पड़ोसी उन विद्यालयों में ही पढ़ने के लिए बाध्य हैं जिनकी गुणवत्ता पर हमेशा प्रश्नचिह्न लगता रहा है। ऐसी स्थिति में किसान और उनके बेटे क्या करें?
इन्हीं प्रश्नों पर दिन-रात अंजलीधर चिंतन किया करती हैं। कभी-कभी वे अंगद, रामदयाल, करीम, नन्दू, हरबंश, तन्नी के बीच चर्चा करतीं। गनपति के खेत की लिखा-पढ़ी भी उन्हें तंग करती है। एक सही और समरस समाज बना पाने में कितनी बाधाएँ ? यह कहना तो आसान है कि सभी लोग बढ़ें पर बढ़ने के लिए जो कदम उठाए जाएँगे वे क्या होंगे? उन कदमों को किन प्रक्रियाओं से गुज़रना होगा? यह सब निरन्तर सोच विचार की माँग करता है। केवल पुरानी लीक पर चलकर हम नए समाज की रचना कैसे कर सकते हैं? नया समाज कुछ नई अपेक्षाएँ रखता है। उन अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर ही हम कोई सार्थक कदम उठा सकते हैं। प्रश्न केवल प्रश्न ही रहेंगे या उनका उत्तर भी मिलेगा। सोते जागते अंजलीधर की चिंता का विषय यही है।
आखिर खरचू तीर्थयात्रा से लौट आए। पर गनपति और उनकी पत्नी का अब भी कहीं पता नहीं है। प्रधान जी को जैसे ही खरचू के आ जाने की जानकारी मिली, वे खरचू के पास पहुँच गए। 'गनपति कहाँ हैं?' उन्होंने छूटते ही खरचू से पूछा।
"प्रधान जी, गनपति तो मेरे साथ गए नहीं थे। मुझे तो कुछ भी पता नहीं।" खरचू के उत्तर से प्रधान जी कुछ रुष्ट से हो गए।
'पर यह तो पता है कि तुमने गनपति का खेत लिखा लिया।' 'प्रधान जी हमने टनाटन नोट दिया और लिखाया। गनपति ने बेचा हमने लिखाया।"
'पर गनपति का तो पता चलना चाहिए कि वे कहाँ हैं? वे खेत लिखकर अन्तर्धान क्यों हो गए?'
'अब मैं क्या बताऊँ प्रधान जी, मैं तो तीर्थ करने चला गया था।' खरचू ने अपने को सही साबित करने की कोशिश की। प्रधान जी को विश्वास नहीं हो रहा है। सभी लोग जो भी सुनेंगे शायद कोई विश्वास न कर सके। 'तो आप बिलकुल नहीं जानते कि गनपति कहाँ हैं?' प्रधान जी ने एक बार फिर पूछा।
'बिलकुल नहीं प्रधान जी, हमने खेत लिखाया और तीर्थ यात्रा पर चले गए। रुपया लेकर गनपति कहाँ गए यह मैं कैसे बता सकता हूँ?'
'यह बात ठीक नहीं है खरचू। तुमने शराब पिला करके गनपति का खेत लिखाया होगा। शराब के लिए गनपति दो-चार कोस चले जाते थे। शाम को उन्हें ठर्रा न मिले तो छटपटाने लगते थे। मैं गनपति की नस नस को जानता हूँ। तुम्हें जवाब देना ही पड़ेगा खरचू, इस बात को सोच लो।'
इतना कहते हुए प्रधान जी उठे और चल पड़े। गनपति के खेत पर कोई इस तरह झपट्टा मार लेगा ऐसा उन्होंने सोचा नहीं था। गनपति का पता भी लगाना होगा। आखिर वे दोनों पति-पत्नी कहाँ गायब हो गए? क्या किया जाय? कैसे पता चले ? यही सोचते हुए वे घर पहुँचे पर मन अशांत था। वे भी बहुत पाक-साफ नहीं हैं। उनकी नज़र भी गनपति के खेत पर थी पर कोई दूसरा झपट्टा मार ले यह उन्हें सहन नहीं हो रहा है। अंजलीधर बहिन जी ने तो एक नया प्रश्न उठा दिया था राम प्रसाद के परिवार की जीविका का प्रश्न। खरचू का इस तरह इनकार कर जाना प्रधान जी को रह-रहकर कचोटता है।
माँ अंजलीधर को पता चला कि खरचू आ गए है। पर गनपति और उनकी पत्नी का अब भी कोई पता नहीं। उन्होंने अंगद को बुलाकर जानकारी करने को कहा। उसी समय करीम भी आ गए थे। करीम से भी माँ ने वही बात दोहराई। 'ठीक है। हम लोग पता करते हैं', करीम ने कहा। उन्होंने आशंका भी व्यक्त की कि खरचू ने हो सकता है खेत लिखाकर उन्हें कहीं अन्यत्र भेज दिया हो। 'इस सम्बंध में क्या किया जाना चाहिए करीम ?' माँ जी ने पूछा। 'क्या खरचू खेत लौटा देगा?' 'बहुत मुश्किल है माँ जी।' करीम ने कहा। फिर कैसे हम एक अच्छा समाज बनायेंगे जिसमें सभी को विकास का अवसर मिले। हर आदमी यदि एक दूसरे को गच्चा देकर कुछ पाना चाहता है तो कैसे हम एक ईमानदार समाज को बना सकेंगे? 'मैं खुद इस बात से परेशान हूँ', माँ जी से करीम ने कहा। लोग एक दूसरे को नीचा दिखाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। सभी का भला हो, सभी आगे बढ़ें, इस विचार पर चलने वाले बहुत कम हैं। करीम ने दुखी मन से गाँवों के रीति-नीति की चर्चा की। 'पर हम तो विकल्प देना चाहते हैं। समाज में कुछ गलत हो रहा है तभी तो हम विकल्प की बात करते हैं।' माँ जी ने हँसते हुए करीम को प्रोत्साहित करने की कोशिश की। 'पर है काम बहुत मुश्किल ।' करीम ने बात रखी। 'मैंने कब कहा कि यह काम बहुत आसान है। काम कठिन तो है ही पर कठिन काम को करने के लिए हमें आना ही होगा। पानी निचले रास्ते की ओर भागता है यदि हमें उसे ऊपर ले जाना है तो उसे कहीं न कहीं बाँधना तो पड़ेगा ही। क्या खरचू को हम लोग खेत लौटाने के लिए बाध्य कर सकते हैं?' 'खरचू से हम लोग कह सकते हैं पर वह लौटा ही देगा यह जरूरी नहीं है। वह तो यही कहेगा कि हमने पैसा देकर लिखाया है कोई जाल नहीं किया। कोर्ट-कचहरी भी कागज-पत्र देखेगी, उसी के आधार पर अपना फैसला देगी। समाज जानता है कि खरचू ने धोखा किया है पर उस धोखे को सिद्ध करना आसान नहीं होगा। अब तो लोग ज़मीन हथियाने के लिए जोर-जबरदस्ती भी करने लगे हैं। कमजोर आदमी को अपनी ज़मीन बचाना भी मुश्किल हो रहा है। जोर-जबरदस्ती से तंग आकर बहुतों को अपना घर छोड़कर दूसरी जगह भागने के लिए विवश होना पड़ता है। अगर कोई अकेला हुआ या रोजी की तलाश में दो-चार साल बाहर रह गया तो उसकी ज़मीन बचनी मुश्किल हो जाती है।' करीम कमजोरों के दुःख को बताते रहे। माँ अंजलीधर एक क्षण के लिए चुप हो गईं। उन्हें लगा कि करीम समाज का सच बता रहे हैं। समाज का सच सचमुच ऊबड़-खाबड़ ज़मीन की तरह है जिसे समतल करने में काफी मेहनत करनी होगी। उस स्थिति में जब गड्ढे खोदने वाले भी निरंतर अपना काम करते रहें। 'तुम हताश तो नहीं हो गए हो' अंजलीधर ने करीम से पूछा। 'जब तक हम लोग संगठित हैं, आपका नेतृत्व है, हम हताश कैसे हो सकते हैं?' करीम ने कहते हुए मुस्कराने की कोशिश की।
'मेरा नेतृत्व नहीं, तुम सब लोगों का नेतृत्व काम करेगा। हमारी सरकारें भी कुछ असमंजस की स्थिति में हैं। खेती की लागत बढ़ती जा रही है। प्रति व्यक्ति खेतों का रकबा भी घटता जा रहा है। ऐसी स्थिति में किसान के बेटे-बेटियाँ खेती की ओर आशा भरी दृष्टि से नहीं देख पातीं।' माँ जी ने बात को आगे बढ़ाया।
'आप ठीक कहती हैं माँ जी। किसानों की नई पीढ़ी खेती में अपना भविष्य नहीं देख पाती। प्रकृति और बाजार दोनों किसानों को दण्डित करने का प्रयास करते हैं। किसान खेती छोड़ दे तो क्या करे? उसे कोई सार्थक विकल्प दिखाई नहीं पड़ता।' करीम किसानों की पीड़ा को शब्द देते रहे। 'इसीलिए तो हम लोगों को निरंतर यह सोचना होगा कि खेती के अतिरिक्त क्या किया जाए। विकल्प के प्रयास तो इसी दिशा में चलने चाहिए। यदि हमें बाजार में कुछ बेचना है तो देखना होगा कि बाजार में उसकी खपत हो सकती है या नहीं। बाजार जितना जरूरी है उतना ही निर्मम भी है। बाजार में टिकने के लिए हमेशा नई बातों / नई खोजों की ओर बढ़ना होगा। हम तो बहुत थोड़े दिनों के मेहमान हैं। आप लोग निरंतर खोज करते हुए आगे बढ़ेंगे तो शायद गाँव के बच्चों को अकुशल मजदूर के रूप में बाहर नहीं भागना पड़ेगा।' माँ जी एक विचारक की तरह बात करती रहीं।
खरचू सोच रहे थे कि ज़मीन लिखाकर तीर्थ यात्रा पर निकल जाने से सामाजिक आँच से बच जाएँगे पर बातें गली-कूचों में होती हुई समाज में तैरती रहती हैं। उसी में कुछ लोग तीन का तेरह करने वाले भी होते हैं और बात दबते-उभरते ज़िन्दा रहती है। खरचू किसी से आँख मिलाकर बात नहीं कर पा रहे हैं। गनपति और उनकी पत्नी कहाँ हैं? यह प्रश्न हर एक की ज़बान पर है। पर खरचू एक चुप हजार चुप। उनका एक ही नपा हुआ उत्तर, 'मैं नहीं जानता', लोगों में विश्वास पैदा करने में अक्षम साबित हो रहा है। खरचू के भी दो बेटे हैं। उन्होंने अपनी पत्नी के नाम ज़मीन लिखाई है। इससे उन्हें स्टांप ड्यूटी भी थोड़ी कम देनी पड़ी। लोगों के प्रश्नों से वे इतने परेशान हैं कि उन्होंने फिर कहीं प्रस्थान करने की योजना बना ली। रातो-रात वे निकल गए। बच्चों को समझा गए कि मैं एक ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूँ। बड़े लड़के ने पूछा भी कि लोग पूछेंगे तो क्या बताऊँगा। "सिर्फ इतना कहना कि ज़रूरी काम से कहीं गए हैं।' खरचू ने समझाते हुए कहा। लोग अब भी खरचू के घर आते। उनके बारे में सवाल करते। बेटे का वही सधा हुआ उत्तर, 'कहीं ज़रूरी काम से गए हैं।' लोग भुनभुनाते हुए लौट जाते। खरचू का परिवार कितना भी कहे कि उन्होंने पैसा देकर खेत लिखाया है, पर कोई भी आदमी इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। सभी को यही लग रहा है कि गनपति को बरगलाकर खेत लिखा लिया गया है। गनपति की दारू पीने की आदत के कारण कई लोग उसकी जमीन पर दाँत गड़ाए हुए थे। खरचू बाजी मार ले गए, यह सबको हज़म नहीं हो रहा है। रामप्रसाद के बेटे के भविष्य के बारे में कोई नहीं सोचता। खरचू जीते वे हार गए। यही इन्हें कचोट रहा है। प्रधान जी भी इसी श्रेणी में हैं। माँ अंजलीधर अवश्य गनपति की भावी पीढ़ी के बारे में सोचती हैं। गनपति के बेटे के बेटों का भविष्य क्या होगा? भूमिहीन होकर वे मारे मारे फिरेंगे। भागकर दिल्ली, बम्बई की झुग्गी-झोंपड़ियों में दिन गुजारेंगे। हर बड़े शहर में इस तरह की झुग्गियाँ दिखती हैं। कूड़े के ढेर पर या सीमेंट पाइपों के बीच अक्सर लोगों को रहते देखा जाता है। गाँव से भागे हुए बच्चे शहरों में भी अवैध संतति की ही तरह रहते हैं। माँ अजंलीधर बराबर यही सोचकर चिंतित हो उठती हैं। गाँव के असहाय परिवारों ने इसे अपनी नियति मान लिया है। अंजलीधर नैतिक मूल्यों के बारे में सोचती हैं। वे यह भी सोचती हैं कि नैतिक दबाव देकर खरचू से शायद ज़मीन लौट जाए। पर क्या गाँव में ऐसा हो पाएगा? ऐसा होता हुआ कहीं दिखता नहीं । यदि खरचू ने खेत की रजिस्ट्री कराली है तो वे हर कोशिश करेंगे कि खेत उनके ही कब्जे में रहे। खरचू कानूनी दाँवपेच में भी माहिर हैं। अदालतों में मुकदमा वर्षों चलता रहेगा। खरचू को उम्मीद है कि हर दाँव लगाकर जीतेंगे ही।
प्रधान जी घर बैठे गनपति के बारे में ही सोचते हैं पर गनपति का कहीं पता नहीं चल पा रहा है। उनका बेटा भी इधर-उधर दौड़ धूप करके अपनी मेहनत मजदूरी में लग गया है। उसके बच्चे शहर के कुछ घरों में घरेलू नौकर के रूप में काम करने लगे हैं। उसी आमदनी से उसके घर का खर्च चलता है। भले ही यह कानून बना हो कि चौदह साल से कम उम्र के बच्चे काम पर नहीं लगाये जा सकते पर घरेलू नौकर के रूप में दस-बारह साल के बच्चे घरों में काम करते दिखते हैं। कानून अपनी जगह है और रोटी के लिए काम अपनी जगह। अंजलीधर ने अंगद को प्रधान जी के घर भेजा यह जानने के लिए कि गनपति का कोई पता चला या नहीं। वे जब भी गनपति के बारे में सोचती हैं, उनका सारा शरीर सनसना जाता है। क्या नैतिक मूल्य अब कोई महत्व नहीं रखेंगे? सम्पत्ति अर्जित करने के लिए लोग कुछ भी करने के लिए तैयार दिखते हैं, पर इसी से विकल्प डेयरी के लोग भी निकले हैं जिन्होंने स्वीकार किया है कि हम ईमानदारी से इस संस्था को चलाएँगे। जो ईमानदारी कर रहा है उसे हर जगह ईमानदार रहना चाहिए। यदि विकल्प डेयरी के सदस्यों में से किसी ने इसी तरह गनपति का खेत लिखाया होता तो? संयोग से ऐसा नहीं हुआ। हम विकल्प डेयरी के माध्यम से नैतिक मूल्यों का भी सृजन करते हैं। नैतिकता आत्मबल और साहस की माँग करती है। उस नैतिकता में हमारा अपना विश्वास होना चाहिए जिसके लिए हम अपना सब कुछ दाँव पर लगाते हैं। खरचू पर नैतिकता का क्या कोई दबाव पड़ेगा? कानून की दृष्टि से यदि खेत उसकी पत्नी के नाम दर्ज हो गया तो खेत उसका है। गनपति का गुम होना अंजलीधर को कचोटता रहता है। गाँवों से रोजी की तलाश में बच्चे बाहर भागते हैं। बहुत से बच्चे लौटकर घर नहीं आ पाते। गाँव वाले खोजते रहते हैं किन्तु उनका पता नहीं चल पाता। आखिर ये बच्चे कहाँ चले जाते हैं। इसी गाँव का एक बच्चा दस साल पहले दिल्ली गया था, लौटकर नहीं आया। आज भी उसके पिता भूषण रोते रहते हैं। उनकी पत्नी भी कुछ दिन पहले चल बसीं। उनका यह अकेला लड़का था। अब वे खुद अपने हाथों रोटियाँ सेंकते हैं। बहुत से लोग इस ताक में हैं कि भूषण की दो बीघा जमीन उनके हाथ में आ जाय। एक दिन वे थके हारे अंजलीधर की मड़ई पर पहुँचे। उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। चिट्ठी को अंजलीधर ने पढ़ा। उसमें इसी जनपद के डाकघर की मुहर लगी थी। चिट्ठी कहाँ से आई? इसका पता नहीं चल पा रहा था। चिट्ठी देखते ही अंजलीधर समझ गईं कि यह किसी स्थानीय व्यक्ति की चाल हो सकती है, पर भूषण उस चिट्ठी को सच मान रहे थे। उसमें लिखा था कि आपका बेटा उदित दिल्ली से पानीपत जाने वाली रोड पर अस्सीवें किमी. पर एक तेल मिल में कार्यरत है। भूषण को लग रहा था कि चिट्ठी के अनुसार यदि खोज की जाय तो उदित मिल जाएगा। उनका मन लहक उठा था। वे चाहते थे कि माँ जी उदित को लाने की कोई व्यवस्था करें। पत्र संदेहास्पद होते हुए भी भूषण को समझाना कठिन था। संयोग ऐसा बना कि उसी समय विपिन आ गए।
उन्होंने भूषण से कहा कि यह चिट्ठी जाली है। इसमें भेजने वाले का पता नहीं है। केवल एक ही डाकघर की मुहर लगी है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस चिट्ठी का लेखक कोई नज़दीक का ही आदमी है। पर भूषण रोते हुए कहते रहे, 'बाबू साहब इस चिट्ठी में जो पता दिया है उसकी जाँच कर ली जाय। हो सकता है बेटा मिल ही जाय।' विपिन समझाते रहे, पर भूषण की समझ में कोई बात आ नहीं रही थी। उन्हें लग रहा था कि चिट्ठी की बात पूरी तरह सच है और उनका बेटा उदित जरूर मिल जाएगा।
अंजलीधर ने विपिन से कहा, 'बेटा एक काम करो,। तुम्हारे कुछ परिचित पत्रकार दिल्ली के भी हैं। तुम उनसे इस तथ्य की जाँच करा सकते हो। भले ही चिट्ठी संदिग्ध है, पर भूषण के विश्वास के लिए इसकी जाँच आवश्यक है।' विपिन ने तत्काल अपने एक मित्र पत्रकार को फोन मिला दिया। उसे चिट्ठी के तथ्य से अवगत कराया और कहा कि दो-चार दिन में जाँच कर हमें सूचित कर दो। भूषण तब भी निश्चित नहीं थे। वे विपिन से कहने लगे, 'बाबू जी हमें ले चलो। हमें देखते ही बेटा उदित भागकर आएगा। बेटा मिल गया तो आपके लिए भी इनाम अकराम का इंतजाम करूँगा।' अंजलीधर ने भूषण को समझाया कि जाँच की जा रही है। दो-चार दिन में पता लग जाएगा। अगर बच्चे का पता लगेगा तो विपिन तुम्हारे साथ जरूर जाएगा।
अभी थोड़ा धैर्य रखो। भूषण बहुत विहल हो गए। माँ जी से कहा, 'आप ही का सहारा है। गाँव वाले तो हमरे खेत पर दाँत गड़ाए हैं। 'माँ और विपिन के समझाने पर भी भूषण का हृदय चिट्ठी को सच मानता था। माँ जी ने कहा, 'भूषण घर जाओ। भूखे प्यासे कब तक बैठे रहोगे? अगर बच्चे का कहीं भी पता चलता है तो विपिन को तुम्हारे साथ भेज देंगे।' प्रणाम कर भूषण उठे और कुछ बुदबुदाते हुए चल पड़े। अपने आवास पर पहुँचकर भूषण चारपाई पर बैठ गये। चिट्ठी को जेब से निकाला और एक-एक शब्द उचारते हुए पढ़ते रहे। उनकी आँखों से लगातार आँसू गिर रहे थे। चिट्ठी ने उनके हृदय को विह्वल कर दिया। उन्हें लगने लगा कि बच्चा तेल मशीन के पास खड़ा उसे देख रहा है। वे उदित-उदित कहते हुए उठ पड़े पर यह तो एक आभासी सत्य था। सामने न उदित था, न तेल की मशीन। माँ जी ने आश्वस्त करने की भरपूर कोशिश की थी पर भूषण को यही लगता कि वे देर कर रहे हैं। उन्हें जल्दी से जल्दी किसी को साथ लेकर चिट्ठी में बताए स्थान पर पहुँचना चाहिए। पर दिक्कत यह है कि कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी चिट्ठी को देखकर उन्हें चिट्ठी में निर्दिष्ट स्थान पर जाने की सलाह नहीं देता। माँ जी ने भी यही कहा कि जाँच करके ही जाना उचित होगा। थके-हारे मन से भूषण घर के अंदर गए। अपनी थोती उठाया और नल पर नहाने चले गए। उदित के पहले भी कई बच्चे इसी तरह रोटी कमाने के लिए बाहर गए और नहीं लौटे। कितने ही घरों के लोग बच्चे के न लौटने पर विक्षिप्त से हो गए। गुम हुए बच्चों की माँएँ प्रायः अपना होश खो बैठतीं। भूषण की तरह और भी परिवार थे जिनके चिराग का अन्त इसी प्रकार हुआ था। बूढ़े माता-पिता जब तक जिए, झींखते रहे। जब भी कहीं कोयल की 'कू' या पपीहे की 'पी कहा' की आवाज़ आती, वे कुहुक उठते ।