Kaarva - 10 - 1 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कारवाॅं - 10(1)

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कारवाॅं - 10(1)

अनुच्छेद-दस

प्रधान जी करुना और रामकरन के साथ अपने दरवाज़े पर अलाव पर चर्चा कर रहे थे। रात के ग्यारह बजे थे।

'मालिक, कोई जुगाड़ करो जिससे चौधरी प्रसाद बैठि जायँ। फिर तो आप और तन्नी की सीधी लड़ाई और जीत पक्की।' 'हूँ' प्रधान जी के मुख से निकला । रामकरन कुछ क्षण प्रधान जी का चेहरा देखते रहे फिर बोल पड़े आज पछियाव झारि कै चला है। ठंड कुछ बढ़ि गै है।'

मैं समझ गया रामकरन..... तलब लगी है न?' प्रधान जी के इतना कहते ही करुना भी चहक उठे मालिक आप अन्तर्जामी हौ। मालिक ऐसै चाही।'

प्रधान जी उठे, ललकी एक बोतल और नमकीन लेकर आ गए। करुना ने तीन गिलास में एक एक पेग बनाया। चीयर्स की जगह 'जय शम्भो' कह कर तीनों ने एक एक घूँट गले उतारा।

प्रधान जी सोचने लगे करुना ठीक कहता है। आखिर चौधरी हमारा ही वोट तो काटेंगे। अभी तक हमारे पीछे-पीछे भागते थे। आज हमारे सामने ही तालठोंक कर खड़े हो गए।

एक बार उसे साधना चाहिए। शायद काम बन ही जाय। तब तक करुना ने एक पेग और बनाया। तीनों ने फिर एक एक घूँट लिया। करुना बहक उठे; 'मालिक आप जीता हौ, चिन्ता करै कै कौनो बात नाहीं है।' रामकरन ने भी नमकीन चखते हुए हुँकारी भरी।

आज 'हाईवे पर गैंगरेप और लूट' की खबर अखबार के पहले पन्ने पर देखकर अंजलीधर विचलित हो उठीं। क्या हो गया है इस समाज को ? वे विचारों में डूब गईं। आँखें मुँदी हुई। ओंठों से कभी हल्की बुदबुदाहट कभी वह भी नहीं। इसी बीच नीरा और चांदनी माँ जी से गणित पढ़ने आ गईं। माँ जी की आँखें बन्द देखकर वे ठिठकीं जरूर पर तब तक माँ जी ने आहट पा आँखें खोल दी। लड़कियों को देखकर माँ जी के मुख से निकला, 'बैठो। इसे पढ़ो।'

लड़कियों ने भी ख़बर को पढ़ा। उनके चेहरे पर भी गम-दुश्चिन्ता-आक्रोश की रेखाएँ बनती बिगड़ती रहीं। गणित की जगह सुरक्षा का प्रश्न गहराने लगा। माँ जी ने ही मौन तोड़ा।

'क्या सोचती हो? ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए?'

नीरा और चाँदनी दोनों कुछ सोच नहीं पा रही हैं कि क्या किया जाय?

'हम लोग कुछ सोच नहीं पा रहे हैं माँ जी।'

नीरा बोल पड़ी।

'ऐसी घटनाएँ न घटें इसका प्रयास होना चाहिए। इसके लिए शासन और समाज दोनों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। पर इसका एक दूसरा पक्ष भी है। जिनके साथ इस तरह की घटनाएँ घट जाती हैं उन महिलाओं, बच्चियों को मनोवैज्ञानिक सहारा देने की जरूरत होती है।'

'यह मनोवैज्ञानिक सहारा क्या चीज़ है माँ जी।' चाँदनी बोल पड़ी।

'जब इच्छा के विपरीत कोई काम जबरदस्ती हो जाता है तो मन को पीड़ा होती है। पीड़िता में हताशा घर कर जाती है। ऐसे में उसे सहारा देना जरूरी हो जाता है। केवल रुपये-पैसे का सहारा नहीं, उसे मानसिक सहारा देने की जरूरत होती है। कहा जाता है मन के हारे हार है मन के जीते जीत। हताशा में महिलाओं और बच्चियों का जीना दूभर हो जाता है। उनमें जीने का उत्साह बनाए रखने के लिए समाज को आगे आकर उन्हें सहारा देने की जरूरत होती है। समाज उन्हें आत्मीयता से अपनाए। सम्मान पूर्वक व्यवहार करे।'

अंजलीधर समझाती रहीं।

'पर माँ जी ऐसी बच्चियों को सम्मान देने के बजाय लोग बेइज़्ज़ती की भावना से देखते हैं।' नीरा बोल पड़ी।

'यही नहीं होना चाहिए।' उन्हें सामान्य जीवन जीने में मदद करनी चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए कि तुम्हारी इज़्ज़त खत्म नहीं हो गई। समाज तुम्हारे साथ है। समाज को अपनी मानसिकता बदलनी होगी।' समझाते हुए पीड़िताओं का बिम्ब अंजलीधर के दिमाग़ में घूम जाता। सामने बैठी दोनों बच्चियाँ भी कुछ कुछ उनके मनोभावों को समझतीं ।

'पर जिसके साथ इस तरह कोई घटना घट जाती है उसका दिल टूट जाता है माँ जी। मन करता है कि ज़िन्दगी खत्म हो जाती तो अच्छा था।' चाँदनी भी बोल पड़ी। 'तुमने ठीक समझा है चाँदनी। उनमें निराशा घर न कर जाए इसी लिए उन्हें सहारा देने की ज़रूरत होती है। यदि निराशा से मुक्ति न मिली तो पीड़िता आत्महत्या तक करने पर उतारू हो जाती है। इसीलिए उसे यह समझाना है कि तुम्हें जीना है। इस घटना से तुम्हारी ज़िन्दगी खत्म नहीं हो गई।' अंजलीघर समझाते हुए स्वयं भी भावुक हो गईं।

'पर कोशिश तो यह होनी चाहिए माँ जी कि इस तरह की घटनाएँ घटें ही नहीं।' नीरा का भी दिमाग दौड़ने लगा।

'ठीक कहती हो तुम। ऐसी घटनाएँ न घटें तो यह समाज कितना सुन्दर हो जाएगा। पर समाज में ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, इसलिए इनका निदान ढूँढ़ना भी जरूरी हो जाता है। कोशिश यह होनी चाहिए कि पीड़िता को शीघ्र न्याय मिले। दोषी दंडित हों। सरकारें इस सम्बन्ध में थोड़ी जागरूक हुई हैं। पर समाज को भी जागरूक होना होगा।' अंजलीधर दोनों बच्चियों को गणित के प्रश्न हल कराने लगीं।

प्रधान जी ने विश्वस्त दूतों के माध्यम से चौधरी प्रसाद तक संदेश भिजवाया पर चौधरी प्रसाद मैदान से हटने के लिए तैयार नहीं हुए।

'यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। मैदान से हटने का सवाल ही नहीं उठता। हाँ, प्रथान जी स्वयं मैदान से हटना चाहें तो हट सकते हैं। अभी तक उन्होंने मालपुआ काटा है। अब दूसरों को मौका देना चाहिए।'

चौथरी प्रसाद ने दूत को अच्छी तरह समझाया।

दूत माचिस की तीली से कान से खूँट निकालते हुए चौधरी प्रसाद के हाव-भाव समझता रहा। 'तो चलूँ।' दूत ने खूँट का एक टुकड़ा कान से निकाल कर फेंका।

'यह में कैसे कहूँ? आप रुको, खाओ-पियो और प्रचार करो।' चौधरी प्रसाद की उँगलियाँ नाच उठीं।

'बड़ी आशा से उन्होंने मुझे भेजा था।'

दूत ने चौधरी प्रसाद की ओर देखा।

'सब की आशा कहाँ पूरी होती है? प्रधान जी को समझा देना। वे खुद बहुत बुद्धिमान है।' चौधरी कहते हुए उठे। दूत भी उठ पड़ा।

चौधरी प्रसाद के उत्तर से प्रधान जी को संतुष्ट नहीं होना था। उन्होंने सोचा क्यों न प्रमुख और विधायक जी की मदद ली जाए। वे स्वयं विधायक और प्रमुख से मिले। चौधरी प्रसाद पर दबाव देने की बात कही। दोनों ने चौधरी प्रसाद को बुलाकर समझाया भी, पर वे मैदान से हटने के लिए तैयार नहीं हुए।

'आप के आशीर्वाद चाहीं', चौधरी प्रसाद ने हाथ जोड़कर विधायक जी से कहा।

'अगर प्रधान जी आपके हैं तो हम भी आप ही के हैं। आप जहाँ कहेंगे, वहीं एक पैर पर खड़े रहेंगे। लेकिन हमारी भी इज्ज़त का सवाल है मालिक। नामांकन करके बैठ जाने पर समाज में बहुत किरकिरी होगी। हम जीते तो आपके, हारे तो भी आपके ।'

'बात तो तुम ठीक ही कह रहे हो।' विधायक जी ने सिर खुजाते हुए धीरे से कहा। चौधरी प्रसाद ने विधायक जी का चरण स्पर्श किया।

'खुश रहो', विधायक जी के मुख से निकला और चौधरी प्रसाद ने किक मारी। सरसराती हुई गाड़ी चल पड़ी।

चौधरी प्रसाद सोचते जा रहे हैं। प्रधान जी समझते हैं कि विधायक जी हमें ही ज्यादा मानते हैं। उनका यह मुगालता अब ख़त्म हो जायगा। प्रधान जी को इस बार नानी याद आ जाएगी। अभी तक खूब माल काटते रहे। अबकी बार लगेगा कि किसी से पाला पड़ा है। वे सोचते जा रहे थे। गाँव के निकट पहुँचते ही, भुल्लुर मिल गए। 'अरे भाई चाय पिलाओगे नहीं?'

भुल्लुर ने चौधरी से कहा।

'चाय की क्या दिक्कत है। मेरी गाड़ी पर बैठो।' भुल्लुर पीछे बैठ गए। दोनों चुन्नू की दूकान पर पहुँचे। चौधरी ने चाय के लिए आदेश किया।

'क्या भुल्लुर चौधरी का प्रचार कर रहे हैं?' नानमून ने चाय पीते हुए भुल्लुर से कहा। 'यह किसने कहा?' भुल्लुर तमक उठे। 'आप चौधरी साहब के साथ घूम रहे हैं।' नानमून ने आँखें नचाते हुए कहा। 'आप धोखे में हैं। चुनाव लड़ने का मतलब दुश्मनी नहीं होता। वोटर ही हमें चाय पिलाते हैं। आज चौधरी भाई मिल गए। मैंने कहा- चाय पिलाइए। इन्होंने कहा गाड़ी पर बैठो ओर मैं बैठ गया। यहाँ चुन्नू की दुकान पर दोनों चाय पियेंगे। फिर इनका रास्ता अलग, हमारा अलग। वोटर ही हमारे अन्नदाता हैं भाई।' इतना कहकर भुल्लुर मुस्करा उठे।

'भुल्लुर की बात ही अलग है। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।'

चौधरी प्रसाद ने भी जोड़ दिया।

'हमें वोट दीजिएगा चौधरी साहब ?' भुल्लुर ने चाय का एक घूँट पीते हुए पूछ लिया।

'यह कैसे हो सकता है? अपना वोट तुम्हें कैसे दे सकता हूँ? अपना वोट तो पत्नी को देना है।' चौधरी ने चाय सुड़कते हुए बात पूरी की।

'ऐसा न कर लें। आप हमारी पत्नी को वोट देदें और हम आप की पत्नी को। कैसा रहेगा?'

'मज़ाक से वोट नहीं मिलेगा भुल्लुर मियाँ। उसके लिए खून-पसीना एक करना होगा।' चौधरी ने उठते हुए राम राम कहा। उनकी दो पहिया सर-सर करती चल पड़ी।

भुल्लुर थोड़ी देर बैठे। लोगों से गपशप किया और फिर अपनी राह पकड़ी। उनके जाते ही चर्चा का बाज़ार फिर गर्म हो उठा। कौन जीतेगा ? किसके साथ कितने लोग चल रहे हैं? कौन कितना खर्च कर रहा है? कभी कभी देश के विभिन्न भागों में किसानों की आत्महत्याओं पर भी चर्चा होती पर वह चर्चा कुछ पढ़े-लिखे किसान ही करते। शेष लोग उनकी बातें सुनकर ही संतोष करते। इस समय प्रधानी का चुनाव सब पर हावी रहता।

प्रधान जी का जुलूस। बीस कारें, दो सौ मोटर साइकिलें प्रधान जी की अगुवाई में। 'जीतेगा भाई जीतेगा, हमारा नेता जीतेगा', पूरी ग्रामपंचायत में यह जुलूस घूमता रहा। जो भी मिलता प्रधान जी उससे हाथ मिलाते। कुछ लोगों से गले भी मिल लेते। 'जीतेगा भई जीतेगा?'

नारा फिर लहरा उठा। एक ने फिर लहराया 'जीत रहा भई जीत रहा, हमारा नेता जीत रहा। कारों और मोटर साइकिलों की सरसराहट, घरघराहट, कहीं हार्न की आवाज़ । शमा बाँधने की पूरी कोशिश कचनारी, गुलरिहा, परसन पुरवा, लालापुरवा होते हुए जूलूस बरियार पुरवा पहुँच गया। इसी पुरवे में चौधरी प्रसाद का घर था। यहाँ जमकर नारेबाजी हुई। प्रधानजी आगे-आगे सभी से हाथ मिलाते। चौधरी प्रसाद के पुरवे को प्रधान जी अपनी हैसियत बताना चाहते थे। चौधरी को औकात में रहने का संदेश भी देना था।

जूलूस आगे बढ़ा। लखन पुरवा, चंडाल पुरवा, अहिरन गाँव, तेलियन पुरवा में अपनी हनक का परचम लहराते हठी पुरवा पहुँच गया। यहीं से तन्नी प्रत्याशी थीं। जुलूस यहाँ देर तक रुका। हो हल्ला, नारेबाजी होती रही। पुरवे के लोग अपने अपने काम में व्यस्त थे। प्रधान जी ने माँ अंजलीधर से अपनी ताकत दिखाने के लिए भेंट की। 'जीत रहा, भाई जीत रहा' का नारा घंटों गूँजता रहा। फिर जुलूस आगे बढ़ा। सभी पुरवों का चक्कर लगाते शाम हो गई। थोड़ा मैदान पाकर जुलूस सभा में बदल गया। प्रधान जी की तारीफ के पुल बँधे। जिताने की कसमें खाई गईं। प्रधान जी भी गद्गद् दिखे।

जुलूस की हनक को सभी ने अनुभव किया पर यह चर्चा आम रही कि जुलूस में बाहरी लोग ही ज्यादा थे, कुछ बाहुबली और शातिर अपराधी भी। क्या प्रधानी के चुनाव में भी शातिर अपराधियों की जरूरत पड़ेगी? दस्यु पीड़ित क्षेत्रों में दस्युओं के दखल से चुनाव परिणाम निर्धारित होता था पर इस ग्राम पंचायत में.....। चुन्नू की दूकान सरगर्म हो उठी। शाम को कई लोग चर्चा करते रहे। क्या अपराधी और बाहरी लोग ही चुनाव जितवाएँगें? 'पूरी दुनिया एक गाँव हो गई है भैये। भीतरी बाहरी का भेद ही कहाँ रह गया?' दीन बन्धु ने कहा। 'हूँ', टीटू के मुख से निकला।

'अब तो कोई देश भी अलग-थलग नहीं रह सकता भैये!' दीनबन्धु की टिप्पणी

चलती रही।

'पर कोई देश दूसरे देश के चुनाव में दखल तो नहीं देता।' टीटू भी कहाँ चुप रहने वाले थे। 'ऊपर ऊपर कोई दखल नहीं देता पर भीतर के दाँव-पेंच को कौन जान पाता है भैये?' दीन बन्धु की कतरनी चलती रही।

'ठीक ही कहते हो, 'टीटू ने भी सिर खुजलाते हुए हामी भर दी पर टिप्पणी करने से नहीं चूके, 'आखिर वोट तो गाँव वाले ही देंगे।'

'सही है, वोट गाँव के लोग ही देंगे पर गाँव के लोग देश-दुनिया देखकर ही वोट देते हैं भैये। कौन जीत रहा है? किसकी ओर वोटर झुक रहा है? यह सब माने रखता है।' दीनबन्धु बोलते जा रहे थे। टीटू कुछ नजदीक आकर फुसफुसाए, 'कुछ ललकवो कै जुगाड़ रही?'

'रही .... रही। काहे न रही', दीन बन्धु के कहते ही चिन्टू दस्तक देते हुए बोल पड़े, 'पंचो राम-राम।' सभी ने 'राम-राम' कह उनका स्वागत किया। चिन्टू मुम्बई के पास थाने के एक कारखाने में काम करते हैं। कारखाने में कुछ रसायन बनते हैं जिनका असर चिन्टू के स्वास्थ्य पर भी दिखाई पड़ता है। उन्हें साँस की तकलीफ रहती है। अब भारी काम सधता नहीं। उन्हें कारखाने से पचास रुपये महीने स्वास्थ्य भत्ता मिलता है पर देह का गारद होना जारी है। एक महीने की छुट्टी मुश्किल से मिली थी। आधा दिन पूरे हो चुके हैं। यहीं से एक महीने की छुट्टी और बढ़ा दी है। खाँसी साथ नहीं छोड़ती। खाँसते हुए वे भी चुनाव चर्चा में शामिल हो गए। दीन बन्धु समझाते जा रहे थे, 'वोट सोच समझ कर देना चाहिए। फायदा इसी में है।' 'पर कैसे पता चले कि कौन जीत रहा है?' चिन्टू खाँसते हुए बोल पड़े ।

'बात ठीक कह रहे हो चिन्टू भाई। कैसे पता चले? लेकिन जैसे जैसे वोट की तारीख नज़दीक आती है जनता के रुख का पता चल ही जाता है चिन्टू,' दीनबन्धु हार मानने वाले खिलाड़ी नहीं थे।

'कभी-कभी नहीं मिल पाता है। तमाम कम्पनियाँ अन्दाज़ लगाती हैं लेकिन कभी कभी उनका अन्दाज़ भी गलत हो जाता है। और वोट तो ठीक आदमी को देना चाहिए-हारे या जीते।' चिन्टू भी सँभल कर बैठ गए।

'बात तुम्हारी भी ठीक है। लेकिन ठीक आदमी की पहचान ज़रा मुश्किल है। कोई आदमी आज ठीक लगता है कल कैसा होगा कौन जाने?' दीनबन्धु भी ताल ठोंकते रहे।

चुन्नू की दूकान अपनी भट्ठी से जितनी गर्म रहती उससे ज्यादा चुनावी बातों से। कभी-कभी लोग बात करते करते तैश में आ जाते। बीच बचाव करने की नौबत आ जाती। चुन्नू सबकी बात सुनते रहते पर मुँह खोलने से बचते।

प्रधान जी का जुलूस देखकर चौधरी प्रसाद और उनके समर्थक भी कसमसा उठे। प्रधान जी ने जुलूस निकाला है तो वे भी पीछे नहीं रहेंगे। अब इज़्ज़त का सवाल है, वे बुदबुदाते रहे। प्रधान जी को दिखा देना है कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। दूसरे दिन सायंकाल वे अपने समर्थकों के साथ बैठे। रणनीति पर चर्चा हुई। दूसरा दिन दौड़ धूप में बीता और चौथे दिन चौधरी प्रसाद का जुलूस। कारें, मोटर साइकिलें तो थीं ही कुछ झाँकियाँ भी चल रही थीं। जुलूस के हिसाब से चौधरी प्रसाद कुछ बीस पड़ने लगे तो उन्हें संतोष हुआ। वे जनता ओर प्रधान जी को दिखा देना चाहते थे कि चौधरी प्रसाद होने का कोई अर्थ है। उन्हें लगा कि उन्होंने ठीक सन्देश दिया है।

लोग भुल्लुर से भी पूछते, 'तुम्हारा जुलूस कब निकलेगा?' भुल्लुर मुस्करा कर उत्तर देते। हठी पुरवा में भी जुलूस निकालने या न निकालने पर चर्चा हुई। अन्त में यही तय पाया कि जुलुस न निकाला जाय। घर घर लोगों से मिलकर अपनी बात रखी जाय।

      मतदान का दिन। हर तरफ गहमा-गहमी। बूढ़े, बच्चे, युवा सभी उत्साहित । सुबह से ही बूथ पर लाइन लग गई। जिन्हें काम पर जाना है वे पहले ही मतदान करने पहुँचे। वोटर चुप, कोई अन्दाज़ नहीं लगा पा रहा कि किसका पलड़ा भारी है। सभी अपने को जिता रहे हैं। पर असलियत कौन जाने ? कार्यकर्ता भाग दौड़ करते हुए।

भीड़ प्रधान जी और चौधरी प्रसाद के तम्बुओं में। भुल्लुर का कोई तम्बू नहीं लगा। तन्नी की ओर से हठी पुरवा के लोगों ने एक छोटा तम्बू लगा रखा है। मतदान पर्चियाँ तो आयोग ही बँटवा रहा है। इसीलिए कार्यकर्त्ता का काम वोटरों को बूथ तक पहुँचाना ही रह गया है। कौन छूट गया? कौन नहीं आ पाया? सब की गणना कर रहे हैं लोग। प्रशासन चुस्त, कहीं कोई चूक न होने पाए।

तीसरे प्रहर तक अधिकांश वोट पड़ चुके थे। ग्राम पंचायत के जो लोग बाहर हैं, उन्हीं का वोट नहीं पड़ पा रहा है। सही मतदान हो इसके लिए चुनाव आयोग भी अधिक सक्रिय हुआ है। ई.वी. एम मशीनों ने भी हेरा फेरी रोकने में मदद की है। पर प्रधान का चुनाव मतपत्रों के ही सहारे हो रहा है। वोट देने के लिए जो गाँव नहीं पहुँच पाए हैं उनकी कोई मदद क्या तकनीक कर सकती है ? इस पर विचार होना चाहिए। रोजी-रोटी के लिए आदमी दुनिया भर में घूमता रहता है। मतदान के दिन मतदान स्थल पर पहुँच पाना दिनोंदिन अधिक खर्चीला एवं मुश्किल होता जायगा। मत देने के लिए हजारों किलोमीटर की यात्रा कभी-कभी संभव नहीं हो पाती। ऐसे में तकनीकी विकास किसी माध्यम से उनका मत डलवा सके तभी अधिकतम मत पड़ सकेंगे। लोकतंत्र की लम्बी यात्रा ने मतदाताओं को भी प्रशिक्षित किया है। मतदाता भी जल्दी अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं हो रहा। कुछ तो स्पष्ट रूप से किसी प्रत्याशी का समर्थन करते मिल जाएँगे। पर अधिकांश मतदाता वाचाल नहीं होते। ऐसे मतदाता ही निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

तीन बजते बजते ग्राम पंचायत के अधिकांश मत पड़ चुके थे। बूथ पर इक्का दुक्का कोई आ जाता। तम्बुओं की भीड़ भी छँट गई थी। शाम होते होते प्रत्याशियों का भाग्य मतदान पेटियों में बन्द हो चुका था

सभी प्रत्याशी अपने मतों का जोड़-घटाव कर रहे थे पर भुल्लुर ने टेरा, 'माया महाठगिनि हम जानी।'

वोट पड़ जाने पर जहाँ भी चार लोग इकट्ठा होते, यही चर्चा करते कि कौन जीतेगा। सभी अंदाज़ लगाते, जोड़-घटाव करते। प्रचार के समय चाय-पान मुफ्त मिल जाता था। अब वह सब बन्द हो गया है। महीनों से लोग व्यस्त थे। अब खाली-खाली लग रहा है।

आज क्षेत्र मुख्यालय पर वोटों की गिनती होनी है। सभी प्रत्याशी अपने प्रतिनिधियों के साथ मुख्यालय पहुँच गए। वहाँ मेला लगा हुआ था। साठ ग्राम सभाओं के प्रत्याशी उनके प्रतिनिधि। आठ बजे से गणना प्रारम्भ हुई। मत पेटियों में मत्रपत्रों की गिनती में बहुत समय नहीं लगता पर सारी व्यवस्था और जाँच पड़ताल में कुछ समय लग ही जाता। बारी-बारी से गिनती हो रही थी। जो जीत जाता चेहरा खुशी से चमक उठता। जो हारता वह दुखीमन से अपना रास्ता पकड़ लेता। दोपहर बाद तीन बजे गुलरिहा ग्राम सभा का नम्बर लगा। थोड़ी ही देर में परिणाम सामने । तन्नी ने दो सौ इक्यावन वोटों से जीत दर्ज की। प्रधान जी और चौधरी प्रसाद हतप्रभ । समर्थक हैरान ! तन्नी ने हाथ जोड़कर प्रधान जी और चौधरी प्रसाद को प्रणाम किया।

चौधरी प्रसाद प्रधान जी से गले मिलते पूछ बैठे, 'क्या हो गया मालिक?' 'जो हुआ सामने है।' प्रधान जी के मुख से निकला।

'अब क्या किया जायगा?' चौधरी प्रसाद ने पूछा, 'जो भी बन पड़ेगा', कहते हुए

प्रधान जी का दल भी चल पड़ा।

करीम, तन्नी नन्दू, हरवंश अंगद भी खुशीखुशी लौटे।

'जिम्मेदारी बहुत बड़ी आ गई है', करीम ने कहा। 
'वह तो है ही;' अंगद ने भी हामी भरी। तन्नी, नन्दू, हरवंश चुप। लेकिन दिमाग़ में आँधी चल रही थी। क्या करना होगा? कैसे किया जायगा? क्या हम सब खरे उतर पाएँगे? चुनौतियाँ बड़ी हैं। ग्राम पंचायत में खबर पहुँचते देर न लगी। हठीपुरवा के लोग नाच उठे। ग्राम पंचायत के अधिकांश लोगों ने परिणाम का स्वागत किया। जो लोग प्रधान जी और चौधरी प्रसाद से अधिक जुड़े थे, वही दुखी थे। भुल्लुर मस्त थे। उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे चुन्नू, की दुकान पर पहुँचे, कहा, 'चाय पिलाओ।' दूकान के सामने भुल्लुर को देख कुछ लोग आ गए थे परिणाम जानने के लिए। भुल्लुर ने चटखारे लेकर परिणाम की जानकारी दी। चाय की चुस्की लेते हुए बोल गएः 'अब तो बिटिया राज करेगी।'

       माँ अंजलीधर को सूचना मिल गई थी। उनके पास लोग आने लगे। 'बिटिया जीत गई है', माँ जी बतातीं। वे तख्ते पर पालथी मार कर बैठी थीं। तन्नी, करीम, नन्दू, हरवंश, आदि भी पहुँचे। माँ जी गद्गद। 'माँ जी, जीतने से ज्यादा मुश्किल काम है सही काम करना।' करीम की चिन्ता भविष्य को लेकर थी। 'ठीक कहते हो करीम, लोगों का विश्वास बना रहे, यह बहुत ज़रूरी है। ईमानदारी और लगन से काम करोगे तो कोई दिक्कत नहीं होगी।' माँ जी ने समझाते हुए कहा। जिन कार्यकत्ताओं ने घर घर जाकर लोगों को विश्वास में लिया, वोट दिलाया, वे सभी प्रसन्न मुद्रा में एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे हैं। जीत तो कार्यकर्त्ताओं की ही है। उन्ही के अथक परिश्रम से कोई जीत पाता है। स्वाभाविक है जीतने के बाद कार्यकर्ताओं की आकांक्षाएँ भी बढ़ जाती हैं। उन सब की पूर्ति हो पाए ही यह आवश्यक नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसलिए आत्मानुशासन की विशेष जरूरत होती है। संयमित रहने की हिदायत के बाद भी हठी पुरवा में बच्चों ने कीर्तन का आयोजन किया। गा-बज़ाकर ही वे अपनी मंशा प्रकट करते रहे हैं।

दो घंटे कीर्तन करने के बाद बच्चे माँ को प्रणाम करने पहुँचे। उन्होंने आशीष दिया कहा, 'बच्चो गाँव को अब तुम्हें ही चलाना है। ईमानदारी से काम करना। सभी का भला हो ऐसा काम पहले करना। अपना स्वार्थ नहीं, जनहित देखना।'

'माँ जी, आप तो रहेंगी ही हमें मार्गदर्शन देने के लिए।' कीर्तन दल के एक बच्चे ने

आदर के साथ कहा।

'कौन जाने बेटा, मेरा पर्वाना कब आ जाय। तुमको अब स्वयं नेतृत्व सँभालना है। तुम चाहोगे तो समाज बदल जायगा।' माँ जी कहते कहते भावुक हो गईं। सभी बच्चे माँ जी को प्रणाम कर घर गए। माँ जी भी लेट गईं।

चाँदनी खिली हुई थी। पूरा पुरवा चाँदनी में नहाया हुआ महीने भर की थकान से मुक्ति मिली थी। हवा धीरे धीरे साँस ले रही थी। कोई कोलाहल, कोई आवाज़ नहीं। आसमान में चाँद मुस्करा रहा था। ठंड बढ़ी। पक्षी भी अपने नीड़ों में दुबक गए थे। इक्का-दुक्का आवाज़ें। पूरा पुरवा जैसे घोड़े बेच कर सो गया हो। महीने भर लोग देर रात तक प्रचार करते रहे। गाँव के कुत्ते भी परेशान रहते। उन्हें झपकी लेने का अवसर नहीं मिल पाता था। आज वे भी निश्चित थे। झपकी लेने में कोई बाधा नहीं।

चुन्नू की दूकान भी अब जल्दी बंद हो जाती। लोग देर रात तक बैठकर उसकी दूकान पर चर्चा नहीं करते। भुल्लुर जरूर आ जाते। बैठकर गप्पें हाँकते। कहते 'बिटीवा जीति गै। यहौ अच्छा भा। अब काम तो होई।' प्रधान जी और चौधरी प्रसाद के घरों पर भी अब भीड़ नहीं लगती। कुछ कार्यकर्त्ता ही कभी-कभी आ जाते।

अब गाँव के लोग अपने अपने कामों में लग गए थे। जो गेहूँ की बुवाई नहीं कर पाए थे, अब जल्दी से काम निबटाना चाहते थे। खेतों में गेहूँ के अंकुर भी दिखने लगे थे। जिन्होंने पहले बुवाई कर दी थी वे अब सिंचाई का डौर बना रहे थे। खेतों में हरियाली पाँव पसारने लगी थी। चुनावी बुखार उतर चुका था। रूखा-सूखा खाकर हाड़ तोड़ मेहनत। गाँव में अब कामकाज सामान्य हो गया था। हर कोई अपनी थोड़ी खेती सँभालने में लग गया था। जो कार्यकर्त्ता अपने प्रत्याशियों से ज्यादा जुड़े थे उन्हें हार का अनुभव अधिक थकाने वाला था। जिनका प्रत्याशी जीत गया वे संतोष का अनुभव कर रहे थे। तन्नी, नन्दू, हरवंश, अंगद, करीम सभी लोगों से आत्मीमता से मिलते । सहयोग के लिए धन्यवाद देते ।

प्रधानों का शपथ ग्रहण भी एक उत्सव की तरह था। जीते हुए ग्राम प्रधान प्रसन्न। कुछ कर दिखाने के लिए आतुर। शपथ ग्रहण में भी तन्नी के साथ नन्दू, हरवंश, करीम और अगंद भी थे। करीम शपथ ग्रहण के एक एक शब्द को देर तक बाँचते और अर्थ करते रहे। पूछ बैठे- 'यह बताओ भैया अंगद, जब लोग ईमान की कसम खाते हैं तो बेईमानी क्यों करते हैं?'

'यह तो उन्हीं से पूछना चाहिए जो ऐसा करते हैं।' 'वे क्यों जवाब देंगे अंगद भाई?' करीम कहते हुए कुछ विचलित से हो गए। 'क्या हम लोग भी ऐसा ही करेंगे?' उनके मुख से अनायास निकल गया। इसे तन्नी ने भी सुना। तत्काल बोल पड़ी। 'चाचा हम लोग ऐसा कैसे करेंगे? ईमानदारी की शपथ न लेना होता, तब भी क्या हम बेईमानी करते? हम ईमानदारी से काम करने के लिए ही तो मैदान में उतरे हैं।'

करीम तन्नी के इस उत्तर से गद्गद् हो गए, कहा 'बेटी। हम लोग कुछ अच्छा कर सकें, यही तमन्ना है। मन बार-बार यही कहता है ईमानदारी से डिगना नहीं।'

'नहीं डिगा जायगा, चाचा जी।' तन्नी ने करीम को आश्वस्त किया तो सभी के चेहरे खिल उठे। हठीपुरवा लौटकर तन्नी ने माँ जी को शपथ ग्रहण समारोह की एक एक बात बताई। करीम ने भी बीच-बीच में अपना अनुभव सुनाया। माँ जी आश्वस्त दिखीं 'आप सब लोग अच्छा काम करेंगे।' 'माँ जी आप हैं ही?' करीम के कहते ही माँ जी बोल पड़ीं 'मैं कब तक रहूँगी करीम भाई? आप सब लोग खुद चिराग बनेंगे तो अँधेरा खुद-बखुद दूर हो जायगा। अब जाकर आराम करो, थके हो। आप ईमानदारी से काम करेंगे, ऊपरवाला भी मदद करेगा। विकल्प डेयरी और अँचार के नाम को भी आगे बढ़ाओ। गाँव के सभी लोग कुछ कमा सकें, यह बहुत जरूरी है करीम।' 'ठीक कहती हैं माँ जी आप, ज़मीनी हकीकत कर जायज़ा लेते हुए ईमानदारी से आगे बढ़ना होगा।' करीम उठे। माँ जी को प्रणाम कर घर की राह पकड़ी।  
विपिन ने हठी पुरवा से तन्नी के जीत की खबर को विशेष टिप्पणी और फोटो के साथ छपवा दी। वे अखबार की कुछ प्रतियाँ लेकर हठीपुरवा पहुँचे। माँ जी भी खबर देखकर प्रसन्न हुईं। उन्होंने विपिन से पूछा, 'क्या गाँव के विकास को लेकर कोई सार्थक विचार-विमर्श किया जा सकता है? क्या इस तरह के विचार-विमर्श से गाँव को कोई फायदा भी हो सकता है?'

'यह अच्छी पहल होगी। इससे गाँव के विकास को दिशा मिल सकती है।' विपिन ने सकारात्मक उत्तर दिया।

'तो अपने संपर्कों को टटोलो।'

'ठीक है, मैं देखता हूँ।' विपिन के मुख से निकला ही था कि अंगद डेयरी का काम सहेज कर माँ जी को प्रणाम करने आ गए। विपिन से राम राम हुआ। अखबार की ख़बर देखकर वे भी खुश हुए। कुछ प्रतियाँ बच्चे लेकर उड़ लिए। वे समूह में बैठकर एक एक अक्षर टोहते हुए बाँचते रहे। छोटे सपने देखने वाले बच्चों में एक छोटी ख़बर भी बड़ी बन जाती है। बच्चों के लिए तन्नी प्रेरणा का स्रोत बन गई।

'हम लोग भी कुछ कर सकते हैं?'

एक बच्चे ने कहा। 'क्यों नहीं कर सकते?' दूसरा चिंहुका ।

'पर कुछ कर पाने के लिए मेहनत करनी होगी।'

'मैं कहाँ कहता हूँ कि बिना कुछ किए ही बहुत कुछ मिल जायगा? पर कुछ कर पाने के लिए सही रास्ते पर चलकर मेहनत करनी होती है। दिशा साफ नहीं होती तो मेहनत भी बेकार हो जाती है।'

'ठीक कहते हो भाई। तुम्हारी बात सुनकर हम लोगों में भी कुछ करने की सुरसुरी पैदा हुई है। सबसे पहले हम लोगों को पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना होगा। कहते हैं कि पढ़े-लिखे के चार आँखें होती हैं।' 'मुला हम लोगों को घर का काम भी करना रहता है।'

'घर का काम करते हुए पढ़ाई पूरी मेहनत से करनी होगी।'

'बात तो ठीक है पर हम लोगों के स्कूल की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। तभी तो मेहनत करने की अधिक ज़रूरत है। जो सुविधा मिल पाए उसका उपयोग करते हुए कीचड़ में कमल बनो।'

शाम का समय । वंशीधर और निरंजन प्रसाद साथ बैठे। एक कैदी दो गिलास और एक जग में पानी ले आया। वंशीधर ने डाटा-दो ही गिलास क्यों? तुम नहीं पियोगे?' दौड़कर कैदी एक गिलास और ले आया। स्काच की बोतल खुली। वंशीधर ने ही तीनों गिलास में ढाला। थोड़ा पानी मिलाओ कैदी से कहा। 
'और नमकीन?'

'नमकीन तो नहीं है साहब।'

'बिना नमकीन के कैसे चलेगा? एक काम करो, मेरे बिस्तर के नीचे एक पुटकी होगी।

उसमें भुने काजू होंगे। थोड़े ले आओ। सब मत ले आना। मैं एक एक काजू मुँह में डालकर सोचता हूँ।' कैदी दौड़कर कोठरी से काजू ले आया।

दरोगा जी अभी तक बिना पिये ही टुन्न दीखते थे। वंशीधर ने टोका।

'दरोगा जी क्या हुआ आपको? अभी तक आप बिलकुल चुप हैं।'

दरोगा जी कुनमुनाए जैसे समाधि से उठे हों। जबान से तब भी कुछ नहीं कहा।

'लगता है बहुत चिन्तित हो।' वंशीधर ने एक उँगली से कनपटी खुजलाते हुए कहा।

'चिन्ता की बात ही है साहब।' दरोगा जी की वाणी फूटी।

'अच्छा अपना गिलास उठाओ।'

दरोगा जी ने अपना गिलास उठा लिया।

'तुम भी।' वंशीधर ने कैदी की और इशारा किया।

तीनों ने 'जयशम्भो' कहकर गिलास खनकाया।

एक घूँट पीकर वंशीधर बोल पड़े,

'अमा यार.... इतना डरोगे तो कैसे काम चलेगा? निचली अदालत का फैसला पलटेगा।

निश्चित पलटेगा। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आखिर किस लिए बने हैं।'

वंशीधर की इन बातों से भी दरोगा निरंजन प्रसाद की चिन्ता की लकीरें कम नहीं हुईं। वे चुपचाप कभी काजू कुतरते, कभी धीरे धीरे चुस्कियाँ लेते।

तीनों पर थोड़ा थोड़ा सुरूर चढ़ा। डिप्टी साहब और दरोगा असली डिप्टी और दरोगा के मूड में आने लगे। तब तक संकेत पाकर कैदी ने एक एक पेग और बना दिया। फिर 'जयशम्भो' और चुस्कियाँ। दो घूँट पीने के बाद डिप्टी साहब असली डिप्टी के रूप में आ गए। उन्होंने बैठे बैठे अपने चप्पल की नोक से मिट्टी का एक टुकड़ा उछालने की कोशिश की। टुकड़ा तो नहीं उछला पर उनकी चप्पल उछल कर दरोगा जी के गाल पर बैठ गई। दरोगा जी भी सुरूर में आ चुके थे। 'किसने यह हिमाकत की?' उनके मुख से निकला। 'इस नाचीज़ ने।' डिप्टी साहब ने उत्तर दिया। 'तुम नाचीज़ की यह हिम्मत?' दरोगा कुछ ताव में आ गए।

'तुम दरोगा मुझसे बात करने की हिमाकत करेगा। दरोगी कहीं के।' कैदी पर भी नशा का असर था पर अधिक नहीं। उसे डर लगने लगा कि यदि दोनों लड़ गए तो बात डिप्टी जेलर तक पहुँच ही जायगी और फिर....। वह खिसकने की सोचने लगा पर वंशीधर ने डाटा, 'तुम इस दरोगी को समझाओ ।..... समझाओ इस दरोगी की हिम्मत कैसे पड़ी वंशीधर से बात करने की। वंशीधर जेल में भी डिप्टी ही रहेगा फिर यह दरोगी।' तेज आवाज़ सुनकर पक्का भी आ गया। उसे देखते ही वंशीधर कुछ और तल्ख हो उठे, 'तुम को अभी परसों ही सौ की कड़कड़ाती नोट दी थी। दिया था न?' 
पक्के ने हँसकर बात टालने की कोशिश की। 'आज नोट नहीं मिलेगा। नोट उसे मिलेगा जो मुझे हुजूर कहेगा। समझ गए न। नोट मेंह की तरह बरसती नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलती है। उसे पानी की तरह बहाया तो नहीं जा सकता।'

दरोगा निरंजन प्रसाद फिर चुप हो गए थे। तिलमिलाहट तो थी पर वह मुखर नहीं हो पाई। पुलिस विभाग में 'यस सर' 'जी सर' 'जय हिन्द सर' कहना ही तो सिखाया जाता है। अपनी बात रखने की छूट कहाँ होती है?

वंशीधर उठकर खड़े हो गए। स्काच की बोतल में थोड़ी बची हुई थी। उसे पक्के को पकड़ाकर वे अपने आसन पर आ गए। निरंजन प्रसाद भी उठे। बुदबुदा पड़े 'साला जेल में सी.ओ. बनता है।' वे भी अपने अड्डे की ओर बढ़ गए। पक्का बैठ गया। कैदी दौड़कर गिलास थो लाया। गिलास में बोतल खाली कर दिया।

धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेकर पक्के का पीना जारी रहा।