अनुच्छेद-नौ
गाँव में प्रधान पद को लेकर तरह तरह की अफवाहें। प्रधान, बीडीसी एवं जिला पंचायत सदस्य पदों के लिए चुनाव होना है। प्रधान का चुनाव तो सीधे जनता करती है पर ब्लाक प्रमुख का चुनाव बीडीसी और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव पंचायत सदस्य करते हैं। दोनों में पैसे का खेल होता हैं। जो अधिक बोली लगा पाता है, वही जीतने में सफल हो जाता है। पंचायत के त्रिस्तरीय चुनाव में सत्ता में हनक रखने वाले विधायक, सांसद भी अधिक सक्रिय हो जाते हैं। अपने घर, परिवार सगे सम्बन्धी को इन चुनावों में उतार कर जिताने की कोशिश करते हैं। विपक्ष भी अपने लोगों को उतारने की कोशिश करता है। अक्सर यह देखा जाता है कि सत्ता की हनक वाले जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख आदि के चुनाव में अधिक सीटें निकाल लेते हैं। ये चुनाव यद्यपि पार्टी चुनाव चिह्नों पर नहीं लड़े जाते पर अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न दलों के लोग सक्रिय रहते हैं।
भुल्लुर का पर्चा भी चुन्नू की दूकान पर रस लेकर पढ़ा जाने लगा। लोग पूछते क्या सचमुच भुत्लुर चुनाव लड़ेंगे? या किसी ने पर्चा छपवाकर कोई मज़ाक किया है। भुल्लुर के सामने भी लोग चर्चा करते। भुल्लुर से पूछते भी पर भुल्लुर रहस्य का पर्दा बरकरार रखते। यही कहते, 'क्या भुल्लुर प्रधान पद के प्रत्याशी नहीं बन सकते?' तुरन्त कुछ लोग बोल पड़ते 'क्यों नहीं? क्यों नहीं?'
'पर भुल्लुर के प्रचारकों को चाय कौन पिलाएगा?' एक ने व्यंग्य किया।
'मेरे प्रचारक अपने पैसे से चाय पियेंगे और मुझे भी पिलाएँगे।' भुल्लुर बोल पड़े। 'यह तो और अच्छी बात हुई। चुनाव में कम खर्च हो तो कम पैसे वाले भी चुनाव लड़ने की सोच सकते हैं।' उसी व्यक्ति ने टिप्पणी की।
चुन्नू की दूकान पर आज भुल्लुर की ही चर्चा होती रही। भुल्लुर भी मुस्कराते हुए चर्चा का मज़ा लेते रहे।
विकल्प के लोग दूध के साथ ही अँचार का काम भी आगे बढ़ा रहे थे। आम , लहसुन और मिर्च का अँचार। हर घर में औरतें इसे रुचि पूर्वक बना रही थीं। केवल छोटे बड़े होटल और ढाबे ही नहीं, लिट्टी-चोखा बेचने वाले भी अँचार खरीदते। अब कुछ युवक गली, मुहल्लों में घूम कर विकल्प का अँचार बेचते। विकल्प की साख बढ़ रही थी और इसी के साथ उसका व्यापार भी। पुरवों की औरतें भी खुश थीं। साख का कितना असर होता है यह विकल्प के लोग अच्छी तरह जान चुके थे। बच्चे अब दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद जाने की नहीं सोचते। यदि दूध और अँचार का धन्धा चलता रहा तो इन पुरवों के बच्चों को बाहर भागने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ रहा था और इसी के साथ उनकी आकांक्षाएँ भी।
जो बच्चे हाईस्कूल उत्तीर्ण कर चुके थे, वे अब इण्टरमीडीएट में प्रवेश कर भौतिकी, रसायन विज्ञान लेने की तैयारी कर रहे थे। वीरेश भी भौतिक विज्ञान से इण्टरमीडिएट की पढ़ाई करना चाहता था। सुबह के सात बजे थे। माँ जी स्नान कर अपने तख्ते पर बैठी थीं। वीरेश एक कप चाय लेकर आया। माँ जी ने चाय का कप लिया। एक घूँट पी कर वीरेश से पूछ लिया, 'अब क्या करोगे?'
'मै विज्ञान वर्ग में गणित विषय लेकर पढ़ना चाहता हूँ।'
'तुम ठीक सोचते हो। भौतिकी, रसायन शास्त्र और गणित विषय लेकर पढ़ना तुम्हारे लिए ठीक रहेगा। पर मेहनत थोड़ी अधिक करनी होगी।'
'करूँगा, माँ जी। भरपूर कोशिश करूँगा। दीदी जेल में है, यही कष्ट है।'
'दीदी छूटेगी। उसकी चिन्ता न करो। अपनी पढ़ाई के बारे में सोचो। माई अँचार बनाकर तुम्हारी पढ़ाई का खर्च दे देगी।' माँ जी ने चाय पीते हुए कहा। माँ जी मैं स्वयं विकल्प में काम करने लगा हूँ। पिछले इतवार को मैंने शहर की गलियों में घूमकर अँचार बेचा। हर इतवार को मैं यह काम कर लिया करूँगा। मेरा खर्च निकल आएगा।' 'यह तो और अच्छी बात हुई।'
'माँ जी, नीरा और चांदनी भी हर इतवार को अँचार बनाकर अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने की सोच रही हैं।'
'अच्छी सोच है। अधिक मेहनत करके ही आगे बढ़ा जा सकता है।' माँ जी ने वीरेश को प्रोत्साहित करते हुए अपनी चाय खत्म की। जिन खेतों में दूब विरल होती है उसे लोग कुदाल से खोद कर सूखने के लिए डाल देते हैं, या बीन लेते हैं। इसे ही बिरवाही खोदना कहा जाता है। इसी बीच रामदयाल अपनी कुदाल कंधे पर रखे हुए आ गए। वे दूब की बिरवाही खोद कर लौटे थे। सुबह मुँह अंधेरे ही वे खेत की दूब खोदने का काम शुरू कर देते हैं। उनके खेत में इसीलिए दूब नहीं रह पाती। उनके खेत में अच्छा उत्पादन भी होता है। आज उनका दिमाग एक उलझन में व्यस्त है। वे सोचते हैं कि उनके यहाँ पैदा हुआ अनाज क्यों सस्ते में बिकता है जबकि अन्य वस्तुओं का दाम कई गुना बढ़ जाता है। वे चिट्ठी-पत्री बाँच लेते हैं। अखबार वगैरह भी धीरे धीरे पढ़कर समझने लगे हैं। पर उनका दिमाग़ विभिन्न समस्याओं पर तेजी से काम करता है। आते ही उन्होंने माँ जी को प्रणाम करते हुए कुदाल एक किनारे रखी और सवाल कर दिया-
'हम लोग जो पैदा करते हैं उसका दाम क्यों नहीं बढ़ता माँ जी?'
प्रश्न सुनकर माँ जी हँस पड़ीं, कहा- 'रामदयाल तुमने बहुत जरूरी सवाल उठाया है।' 'माँ जी हमरे बचपन में साठ रुपया कुन्तल गेहूं मिलत रहा और चालीस रुपया हजार अव्वल ईंटा। आज अव्वल ईंटा सात हजार में है और गेहूँ चौदह पन्द्रह सौ में। कोई कैसे खेती से पनपी?' कहते हुए रामदयाल दुखी हो गए।
'सरकार भी यही चाहती है कि अनाज का दाम न बढ़े। अनाज का दाम बढ़ने पर कम कमाई करने वाले लोग अधिक मुश्किल में पड़ जाएँगे। सरकार के लिए भी संकट की स्थिति बन जायगी।'
अंजलीधर के इतना कहते ही रामदयाल ने पुनः प्रश्न कर दिया। 'माँ जी सब को रोटी देने की जिम्मेदारी केवल किसान पर ही क्यों हो? क्यों वह अपना नुक्सान उठाकर सबका पेट पाले? उसके बच्चे रिरियाते रहें। पढ़ाई लिखाई दवा दर्मद के लिए तरसते रहें।' कहते कहते रामदयाल का चेहरा लाल हो गया। यह राम दयाल का नया अवतार था। अंजलीधर भी चकित थीं पर मन ही मन प्रसन्न भी। किसानों को अब तक निरीह प्रजा ही समझा जाता रहा है। किसान अपने हक के बारे में बहुत सोचता नहीं है। यदि अनाज का भाव नियंत्रित रखना है तो किसानों को क्या सब्सीडी दी जा सकती है? आखिर कोई उपाय तो करना ही होगा। उनके मन में यही विचार कौंधता रहा। उन्होंने कहा, 'राम दयाल, तुम खेती की दिक्कतों को समझते हो। पर इसे सरकार और समाज को भी समझना होगा।' 'सरकार कैसे समझी माँ जी?' राम दयाल का दर्द उभर आया।
'समझना पड़ेगा रामदयाल। सब की तनख्वाहें बढ़ती हैं। मँहगाई भत्ता मिलता है पर किसान द्वारा पैदा किए गए अनाज की कीमत ज्यादा नहीं बढ़ती। यह बहुत दिन चलने वाला नहीं है। कोई न कोई प्रबन्ध करना ही होगा।' अंजलीधर समझाती रहीं।
'खेत में किसान की आत्मा बसती है, माँ जी।'
'समझती हूँ। इस बात को मैंने इस मडईं में रहते अच्छी तरह समझा है। जो बात तुम सोच रहे हो इसे सभी किसानों को समझाना होगा। सरकारें तो आन्दोलन की ही भाषा समझती हैं। कहावत है बिना रोये बच्चा भी दूध नहीं पाता।'
'क्या इसके खातिर सड़क जाम करे का पड़ी?'
'सड़क जाम न करो पर सभी किसान इस मुद्दे पर एक जुट होकर अपनी आवाज़ तो उठाएँ। अभी तो बहुत से किसान इस बात को समझते ही नहीं।'
'ठीक कहती हैं माँ जी आप। मुला खेती-गृहस्थी मा किसान इतना उलझा रहत है कि
वह का सोचै का फुरसतै नाहीं मिलत है।'
'तुम्हारी बात सही है रामदयाल । पर प्रजातंत्र में हर आदमी को सोचने-समझने की आदत डालनी होगी। बिना सही सोच के समाज में कोई बदलाव नहीं होगा। सही दिशा पकड़ने पर ही समाज सही नेताओं का चुनाव कर सकेगा। इसीलिए अपना काम भी करना है और सोच-विचार की सही दिशा भी पकड़नी है।'
'प्रधानी की खातिर घमासान शुरू है माँ जी।'
'यह तो घोषणा होते ही शुरू हो जाता है।'
'हठी पुरवौ का कुछ सोचे विचारै का परी।
चुन्नू की दुकान पर तो माँ जी प्रधानी पर ही बहस होत रहत।'
कहते हुए रामदयाल ने कुदाल कंधे पर रखी और माँ से विदा ली।
वंशीधर को अवकाश ग्रहण करने में केवल उन्तीस दिन ही शेष रह गए थे। वे सोच रहे थे किसी तरह सम्मानजनक ढंग से अवकाश ग्रहण कर लें फिर देखा जाएगा। वे हर मंगल और शनिवार को हनुमान जी को लड्डू चढ़ाते। उन्हें डर था कि कहीं बीच में ही विभागीय कार्यवाही न हो जाय। कोशिश में थे कि सभी कागज़ पूर्ण हो जाएँ। पेंशन पाने में कोई दिक्कत सेवा निवृत्ति के बाद न हो। पर ऐसा हो नहीं पाया। सत्ताइस दिन पहले निलम्बित कर दिया गया। जेल भी जाना पड़ा। उनके सहायक दरोगा को भी निलम्बित कर जेल भेज दिया गया। वंशीधर अब भी सोचते उसी तरह जैसा वह कोतवाल या उपाधीक्षक रहते सोचा करते थे, पर वह हनक गायब थी। दरोगा निरंजन प्रसाद के सामने ही कभी कभी वे जूते की नोक से मिट्टी उछालने की कोशिश करते जैसा वह पद पर रहते किया करते थे। पर मिट्टी उतनी न उछलती। शायद वह भी आदेश मानने से इनकार करने का मन बना रही हो।
कभी कभी बुदबुदाते हुए कहते 'सोचा न था ऐसे दिन देखने पड़ेंगे।' वे दरोगा निरंजन प्रसाद से मिलते तो दर्द फूट ही पड़ता। दरोगा और वंशीधर दोनों को सायंकाल तलब लगती और अपनी हनक और पैसे के बल पर जुगाड़ बन ही जाता। यदि आप समर्थ हैं, पैसा है तो जेल में भी सब कुछ उपलब्ध करा देते हैं लोग। शाम को स्काच का दो पेग लेने के बाद दोनों कभी कभी बहक भी जाते। जेल की रोटियाँ न खाकर वे खाना बाहर से मँगा लेते। दिमाग उलझा रहता तो कभी-कभी बढ़िया व्यंजन भी फीका लगता। अब भी वंशीधर बदले की भावना से मुक्त नहीं थे। तन्नी नन्दू, हरवंश का हठीपुरवा उन्हें बदला लेने के लिए उकसाता और वे कह उठते, 'देख लूँगा।'
कभी कभी निराश होते तो अपने को ही कोसने लगते। उनकी माँ अभी जीवित हैं। परिवार के साथ वे भी आज बेटे को देखने आ गईं। दुःखी थीं। उनकी आँखों में आँसू देखकर वंशीधर विचलित हो उठे थे। माँ ने केवल इतना कहा, 'बेटा!' वे और कुछ न कह सकीं। 'माँ, मैंने चोरी नहीं की है। कोर्ट से हमें राहत मिलेगी।' वंशीधर आँसू पोछते कह गए। पत्नी सामने खड़ी थी व्याकुलता की प्रतिमूर्ति। क्या कहें ? नज़रें मिलीं पर ठहर नहीं सकीं। 'माँ को सँभालना' वंशीधर के मुख से इतना ही निकल सका। पत्नी मूक खड़ी थी सब कुछ समझती हुई। समझने-समझाने के लिए हमेशा शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती।
मिलने का समय खत्म हुआ। माँ और पत्नी मिलकर बाहर निकले। ड्राइवर ने माँ को सँभालते हुए गाड़ी में बिठाया। पत्नी भी बगल में बैठ गई। गाड़ी चल पड़ी। वंशीधर भी जेल में कुछ देर बैठे रहे। उठे तो गालियाँ निकल ही पड़ीं। वे अब भी बमक उठते। 'देख लूँगा' उनके मुख से निकल ही पड़ता। जेल से निकलने को भी मन छटपटाता। सब कुछ का जुगाड़ हो जाने पर भी जेल तो जेल ही है। किसी पियक्कड़ कैदी को यदि तलछट भी उपलब्ध करा देते तो वह मुरीद हो जाता। मौका पाकर हाथ-पैर दबा देता। जेल में समर्थ कैदी किसी की परवाह कम ही करते। कमजोर आर्थिक स्थिति के कैदी समर्थों की हाँ में हाँ मिलाते। उनकी सेवा भी कर देते। चलती यहाँ भी समर्थों की ही। जेल के अधिकारियों को अनुशासन बनाए रखने में काफी मेहनत करनी पड़ती। तब भी वैधअवैध सब चलता रहता।
आज नरसिंह, रामसुख, कान्ति भाई और विपिन अपने वकील के साथ कचहरी पहुँचे। न्यायाधीश को आज अपना हुक्म सुनाना है। सभी आशान्वित हैं। तन्नी, नन्दू और हरबंश तीनों बच्चे हैं। उन्हें आगे बहुत कुछ करना है पर बिना इस मुकदमें से छूटे क्या कर पाएँगे। ठीक ग्यारह बजे पुकार हुई। तीनों कैदी कोर्ट में हाजिर किए गए। वकील आशुतोष के साथ विपिन, कान्ति भाई, रामसुख और नरसिंह भी पहुंचे । सरकारी वकील भी आ गए। तीनों कैदी युवा आँखों में सपने तैरते हुए। तीनों ने सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। न्यायाधीश ने फाइल उलटते हुए एक नज़र तीनों को देखा। फिर सधी हुई आवाज़ में कहा- 'तीनों को बरी किया जाता है ।' तीनों कैदियों ने एक बार पुनः हाथ जोड़कर प्रणाम किया। वकील आशुतोष रिहाई के कागज़ात बनवाने में लग गए। आज बहुत दिन बाद नरसिंह, रामसुख के चेहरे पर प्रसन्नता लौटी। शाम तक रिहाई हो जाय, सभी इसी के लिए प्रयासरत। विपिन और आशुतोष दौड़-धूप करते रहे। अब गाँव के लोग विश्वास कर सकेंगे कि न्याय मिल सकता है, थोड़ी देर भले लगे। कान्ति भाई, रामसुख और नरसिंह वकील के तख्ते पर बैठ गए। नरसिंह थोड़ा भूजा ले आए। तीनों ने उसे चबाकर पानी पिया और प्रतीक्षा करते रहे। सायंकाल पाँच बजे रिहाई का आदेश लेकर पाँचो लोग जिला कारागार पहुँचे। मन प्रसन्नता और उत्साह से भर उठा था। एक घंटे में औपचारिकताएँ पूरी हुईं और छह बजे तीनों जेल से बाहर हो सके। तीनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। सभी का चरण स्पर्श कर तीनों जैसे ही खड़े हुए आँखें भर आईं। आशुतोष ने कहा 'चलो चलें।' सभी चल पड़े। कान्ति भाई और विपिन ने आशुतोष को मुक्त किया। वे अपनी मोटर साइकिल पर बैठे और किक लगाई। सनसनाती गाड़ी चल पड़ी। शेष सभी कुछ दूर पैदल चलकर, रिक्शे से स्टेशन पहुँचे। विपिन ने माँ जी को फोन लगाकर बताया, 'तीनों की रिहाई हो गई है। उन्हें लेकर आ रहे हैं।'
माँ जी के पास से सूचना के पंख उग आए। पूरा गाँव ही नहीं आसपास के पुरवे भी ख़बर से नहा उठे। बिना सोशल मीडिया के भी ख़बर कैसे वाइरल हो जाती है यह कोई यहाँ से सीखे। ग़म और खुशी छिपाए नहीं छिपते ।
पुरवे का हर बच्चा तीनों का स्वागत करने के लिए बेचैन ।
'तन्नी दीदी और भाइयों का स्वागत कैसे किया जाय?' नीरा ने चाँदनी से पूछा।
'चलो वीरेश भैया से भी बात कर लिया जाय।' कहते हुए चाँदनी चल पड़ी।
रास्ते में नादान तेज डग भरते आ रहे थे। 'चाचा तन्नी दीदी का स्वागत कैसे किया जायगा?' नीरा ने पूछ लिया।
'क्या करना चाहती हो?' नादान ने नीरा से ही सवाल कर दिया।
हम सब नृत्य कर......।'
कहते-कहते नीरा अटक गईं।
'ठीक सोचती हो....... हम सब नाच गाकर ही तो खुशी जताएँगे?'
चारो तरफ खुशी की कोंपलें फूटी पड़ रही हैं। हर चेहरा खुशी से दीप्त। खुशी भी वाइरल । हर आदमी का गंतव्य माँ जी की मड़ई। थोड़ी ही देर में माँ जी की मडई के पास सभी इकठा हो गए बाल वृद्ध-युवा प्रसन्नता से खिल उठे। खिला-खिला माँ जी का चेहरा। तीनों बच्चे छूटकर आ रहे है सुनते ही छोटे बच्चे थिरक उठे। 'नादान' ने अपने दल वालों से कहा, 'कीर्तन की तैयारी करो।'
'हम लोग नृत्य भी करेंगे नादान चाचा।' नीरा बोल पड़ी।
'ज़रूर करो। हम तीनों की आरती उतारेंगे।' नादान भी चहक उठे।
रात के दस बज रहे थे। पुरवे के लोग बेचैन। नवम्बर की रात। ठंडक अपना असर दिखाने लगी थी। चाँदनी भी इन बच्चों के स्वागत में खिली हुई । चाँद मुस्कराता हुआ। ओस कण मोती की तरह झरते हुए। पुरवे का हर पौधा अपनी संवदेना को रूप देने की कोशिश में। हवा की गति सिहरन पैदा करती हुई। पुरवे में बिजली के बल्ब नहीं, नियॉन रोशनी की झलमलाहट नहीं, पर चाँद की शान्त चमकदार उपस्थिति। बच्चे सूर्य-चाँद को देखते। उनके उतार-चढ़ाव को समझते। शहरों में बच्चे चाँद को कहाँ देख पाते? वे बिजली की रोशनी में नहाए घर में रहते। प्रकृति की रोशनी का अंदाज उन्हें कैसे हो सकता है? पुरवे के लोग प्रकृति की गोद में पले हैं। इसीलिए यहाँ शहरी रोगों का प्रकोप अभी नहीं हुआ है। अस्सी की उम्र में लोग कुदाल चला लेते, घर का सब काम करते। लेटने की नौबत ही कहाँ आती? घर में यदि एक भी जानवर है तो उसे खिलाने पिलाने के लिए समय निकालना ही पड़ता। बच्चे दौड़-धूप करते। गोबर काढ़ना, दरवाज़े को साफ रखना भी उन्हीं के जिम्मे है। दोनों काम करने में कहीं कोई हीन भावना नहीं। विकसित समाज के मूल्यों से दो-चार होते हुए वे नये मूल्य गढ़ने की कोशिश में। मूल्य हवा में नहीं बनते। क्रियाशील समाज ही नए मूल्यों का सृजन कर पाता है, लकीर पीटने वाला नहीं।
छह साइकिल सवार दौड़ाए गए हैं। रेलवे स्टेशन से वे बच्चों को ला रहे हैं। विपिन स्टेशन से अपने आवास पर आए। वत्सला भी उनके साथ हुईं। जब तक सभी लोग गाँव पहुँचे, विपिन भी वत्सला के साथ आ गए। पूरा पुरवा ही नहीं अन्य पुरवों के लोग भी तीनों बच्चों का स्वागत करने सड़क पर ढोल-मंजीरे के साथ। नाचते-थिरकते बच्चे। लोग तन्नी, नन्दू, हरवंश को छूकर अनुभव करते। वही बच्चे हैं न। कहीं बदल तो नहीं गए।
तीसरे दिन प्रधान जी अपने लाव-लश्कर के साथ हठी पुरवा पहुँचे। तीनों बच्चों के छूटने पर माँ जी को बधाई दी। माँ जी से कहा, 'माँ जी इस पुरवे से पिछली बार मुझे वोट नहीं मिला था। इस बार मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूँ। मेरी पत्नी पद की प्रत्याशी हैं। बहुत मुश्किल हो गया है चुनाव जीतना। सभी के पैर छूते फिरौ पर वोटर है कि.. ..।' कहते हुए प्रधान जी रुक गए।
'मुश्किल समय है ही प्रधान जी।'
'आपकी कृपा हो जायगी तो बेड़ा पार हो जायगा माँ जी।' प्रधान जी विनम्रता की
प्रतिमूर्ति बन गए थे।
'पर मैं तो इस गाँव की वोटर हूँ नहीं, प्रथान जी। मैं क्या कर सकती हूँ?'
'पर आपके हाथ वोटरों की चाभी है माँ जी।'
'नहीं, ऐसा मत सोचो प्रधान जी। हर आदमी स्वतंत्र राय रखता है। अपने वोट का
मालिक है।'
'यही तो मुश्किल है माँ जी। हर आदमी अपने वोट का मूल्य वसूलने की फिराक में है। वह सोचता है कि........।'
'ऐसा मत सोचो। हर आदमी सोचता विचारता है, यह अच्छी बात है। सोच विचार करते हुए वह एक राय कायम करेगा तो ठीक ही रहेगा। लोग अपने वोट का मूल्य समझें। सोच-विचार कर बिना किसी प्रलोभन के वोट दें। आखिर उन्हें पाँच साल के लिए गाँव की सरकार चुननी है।'
'हमारे प्रधान जी देवता है अवढर दानी.......।' कहते हुए एक चमचा चिहुँक उठा।
माँ जी सहित सभी लोग हँस पड़े।
'अच्छा माँ जी। हमें आशीर्वाद दीजिए।'
कहते हुए प्रधान जी उठे, हाथ जोड़कर प्रणाम किया। लश्कर भी साथ चल पड़ी।
प्रधान जी को पुरवे से निकलते नन्दू और हरवंश ने भी देखा। हरवंश नन्दू के पास आ गया। नन्दू उस समय पुरवे के बाहर एक पेड़ के नीचे खड़ा था। 'इस बार क्या किया जायगा भैया?' हरवंश ने तिनका तोड़ते हुए पूछा।
'कुछ करना चाहिए। सोच-विचार कर कदम उठाना चाहिए।' नन्दू का दिमाग़ दौड़ने लगा।
'हम सब को जल्दी कुछ निर्णय करना चाहिए। अब समय बहुत कम बचा है। अगले मंगलवार को ही नामांकन करना है।'
'क्या तुम सोचते हो कि हम लोगों में से कोई प्रधानी का चुनाव लड़े?'
'हाँ भेया?'
'चलो, आज शाम को सब लोग बैठते हैं।'
नन्दू और हरवंश अपने घरों की ओर गए। नन्दू ने सोचना शुरू किया। क्या विकल्प के लोग इसमें भी कोई विकल्प दे सकते हैं। खैर, शाम को चर्चा की जायगी।
सायं काल सात बजे के करीब विकल्प से जुड़े पन्द्रह लोग इकट्ठा हुए। नन्दू ने सभी के सामने समस्या रखी 'क्या विकल्प के लोगों में से कोई प्रत्याशी खड़ा किया जा सकता है?'
'खड़ा तो कोई भी हो सकता है पर जीतेगा या नहीं यह देखने की बात होगी।'
'जो विकल्प से जुड़े हैं क्या उनमें से अधिक वोट......।' करीम कहते रुके कि अंगद ने झपट लिया...... 'मुझे तो लगता है कि अधिक वोट एक साथ जा सकते हैं। क्यों
भाई रामसुख?'
रामसुख ने देश-दुनिया देखी थी, कहा, 'वोट के बारे में पक्का कुछ नहीं कहा जा सकता । एक इशारा भर हो सकता है।'
'देखो....... पाँच साल के लिए गाँव की पंचायत बनने जा रही है। वही विकास का सारा सामाजिक कार्य करेगी। ग्राम पंचायत को ही सरकार से आर्थिक सहायता मिलती है। खर्च किया जाय तो गाँव की सूरत बदल सकती है। अब हम लोगों को सोचना चाहिए कि जो लोग खड़े हो रहे हैं उसमें से कोई ऐसा है जो ईमानदारी से पारदर्शी काम कर सके। गाँव के विकास की कोई दृष्टि भी उसके पास हो।' अंगद ने समस्या रखी।
'तीन-चार लोग दौड़ रहे हैं पर उनमें तो कोई ऐसा नहीं दिखता।' करीम बोल पड़े। 'तब'? अंगद ने सवाल किया। एक क्षण सन्नाटा। सभी का दिमाग दौड़ता रहा।
'क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विकल्प से जुड़ा कोई प्रत्याशी खड़ा किया जाय।' नन्दू ने सभी को सोचने के लिए एक मुद्दा दे दिया।
थोड़ी देर सभी सोच विचार करते रहे। धीरे धीरे यह राय उभरी कि प्रत्याशी खड़ा करना गलत नहीं होगा।
'पर खर्चा?' राम दयाल ने पूछा।
'हम लोग खर्च कम से कम करेंगे। गाँव के चुनाव में खर्च की क्या ज़रूरत?
पैदल ही घर घर मिला जा सकता है।' अंगद ने सुझाव दिया।
'लोग साड़ी, कम्बल बाँटते हैं, शराब पिलाते हैं। एक ने मोबाइल का लालच दिया है।'
राम दयाल सिर खुजाते हुए कहते रहे।
'यही हम लोग नहीं करेंगे। शान्त भाव से सुबह शाम लोगों से मिलेंगे। गाँव का विकास कैसे हो? इसकी चर्चा करेंगे। यदि लोग सहमत होंगे तो हमें वोट देंगे।' अंगद ने योजना की रूप रेखा रखी।
'पर किसको लड़ाया जाएगा?' करीम ने पूछा।
'इस पर सब लोग विचार कर लो। कल शाम की बैठक में कुछ और लोग भी रहें, तभी सभी की सहमति से कोई नाम तय किया जाय।' अंगद ने बात रखी।
'पर समय बहुत कम है। कल प्रत्याशी का नाम तय कर लिया जाय।' नन्दू ने लोगों से आग्रह किया।
दूसरे दिन फिर विकल्प के वरिष्ठ लोग इकट्ठा हुए। बात शुरू हुई। 'किसी महिला को प्रत्याशी बनाना होगा। प्रधान का पद महिला के लिए आरक्षित है। नन्दू ने बात रखी। किस महिला को मैदान में उतारा जाय? सभी इस पर सोच विचार करने लगे। मोलहू की पुत्र वधू समेत कई नामों पर विचार होता रहा। अचानक करीम के दिमाग में एक विचार कौंधा 'क्यों न तन्नी को प्रत्याशी बना दिया जाय?' करीम के मुख से बात निकली कि लोगों ने तत्काल सहमति जता दी।
'वह पढ़ी-लिखी है, संघर्षशील है। सही काम करेगी। तो गाँव आगे बढ़ेगा।' करीम समझाते रहे। तन्नी को बुलाने के लिए नन्दू को दौड़ाया गया। थोड़ी देर में तन्नी हाज़िर ।
'बेटी तुझे हम लोगों ने प्रधान बनाने का फैसला किया है।' करीम ने हाथ उठाकर दुआ देते हुए कहा।
'मैं, मुझको !'
'हाँ बेटी तुझे ही। हम विकल्प के लोग चाहते हैं कि अपना कोई आदमी चुनाव लड़े। सभी ने तुम्हें ही इसके लिए चुना है।'
'आप सब का हुक्म सिरमाथे। जो आप उचित समझिए, कीजिए।'
तन्नी की सहमति से सभी के चेहरे खिल उठे।
'जनता के सामने यहाँ भी एक विकल्प रखेंगे।' मोलहू भी चहके। बैठक ख़त्म कर सभी माँ जी के पास पहुँचे। बैठक का निर्णय बताया।
माँ जी खुश हुईं। उन्होंने कहा, 'तुम लोगों ने खुद निर्णय लिया, यह अच्छी बात हुई। आगे भी निर्णय सर्वसम्मति से ले सको तो मुझे और खुशी होगी। मैं तो चंद दिनों की मेहमान हूँ। कब पर्वाना आ जाय क्या ठिकाना? अपने निर्णय को साहस और ईमानदारी से लागू करो। सबके भले के लिए काम करो।'
ख़बरें बिना पंख के उड़ती हैं। हठी पुरवा की ख़बर भी उड़ चली। प्रधान जी के एक चमचे ने सुबह पहुँच कर उन्हें सूचना दी। वे नल के पास खड़े दातून कर रहे थे। जल्दी से उन्होंने हाथ मुँह धोया और तख्ते पर बैठ गए।
'हाँ, कैसे पता चला, ननकू?'
'मालिक दिन-राति आप का सुमिरित है। राति के दस बजा रहा। हठी पुरवा के किनारे होइ कै आवत रहेन। दुइ आदमी बतियात जात रहे। हम थोड़ा ठिठक गएन मुला कान उनके बातिन माँ लाग रहा। उनहीं से पता चला कि मंगल की बेटी तन्नी परधानी की खातिर खड़ी होय रही है।'
'मंगल की बेटी तन्नी। ऊ तो जेलो काटि आई है।'
'हाँ मालिक।'
'कोई बात नहीं ननकू। हठी पुरवा का वोट हमें मिलतै कहाँ रहा? लडाई कई लोगों के बीच होई ती ठीकै रही। पता लगावत रहो। कौनो नई बात होई तो तुरन्त बतायौ।' 'मालिक बताइब, दौरि कै बताइब। आपके नमक खाइत है।' प्रथान जी ने जेब से दस रुपये का नोट निकाला। ननकू को देते हुए कहा, 'चाय-पानी कर लेना।' ननकू दस का नोट लेकर चलते बने पर प्रधान जी को अपनी रणनीति बनाने, सोचने-विचारने की सामग्री दे गए। हठी पुरवा का नाम आते ही उनके मुँह से एक भद्दी गाली निकल गई। वे सोचते रहे हो न हो, यह उस महिला अंजलीधर की करतूत हो। मैं तो उसे समाज सेविका समझने लगा था। उससे आशीर्वाद लेने भी गया था। उस समय उसने अपना पत्ता नहीं खोला था। चलो ठीक ही है। तन्नी का प्रत्याशी होना मेरे लिए फायदेमंद ही होगा। विरोधी मत बिखर जायँ यह अच्छी बात है। बहुकोणीय लड़ाई में जीत आसान होती है। मुझे जीतना है-साम दाम दण्ड भेद-किसी का भी सहारा लेना पड़े। वे तख्ते पर बैठे सोचते रहे। एक बालिका चाय दे गई। चाय की चुस्कियों के बीच भी उनका दिमाग़ दौड़ता रहा। जीतना है, हर कीमत पर जीतना है। मुझे कोई हरा नहीं सकता, एक तन्नी नहीं, कई तन्नियाँ खड़ी हो जायँ तब भी ।......तब भी । हाँ...चौधरी प्रसाद की जीभ भी प्रधानी के लिए लपलपा रही थी। अपनी पत्नी कम्मो को खड़ा कर वे भी प्रचार करने लगे। एक महीनें पाँव छूकर जीत जाओ और पाँच साल पाँव छुआओ। कितना अच्छा धन्धा है यह ! वे भी सोचते। पैसा मिले वह अलग से। वे दुधहा लोगों से मिलकर अपनी योजनाएँ बनाते। दूध बेचकर उन्होंने कुछ पैसा इकट्ठा कर लिया था। वे सुबह का समय दूध के धन्धे में लगाते और शाम का चुनाव प्रचार में। आधी आधीरात तक सभी पुरवों का चक्कर लगाते।
अन्ततः नामांकन का समय आ गया। चौधरी प्रसाद की पत्नी कम्मो, प्रधान जी की पत्नी दुरपता, तन्नी और भुल्लुर की पत्नी सूरसती ने पर्चा दाखिल किया। लोगों को उम्मीद थी कि भुल्लुर शायद पर्चा न दाखिल कराएँ। पर ऐसा हुआ नहीं। प्रधान जी के साथ उनके रिश्तेदार, इष्टमित्र भी थे। सबसे ज्यादा लोग नामांकन में उन्हीं के साथ दिखे। उसमें कुछ पहलवानी के शौकीन भी, कुछ मोटर साइकिलें और कारें भी। भुल्लुर के साथ भी कुछ लोग थे। चौधरी प्रसाद का खेमा भी बड़ा दिखा। तन्नी के साथ दो महिलाएँ, अंगद, नन्दू, और करीम। चारो पर्चे सही पाए गए। लोग उम्मीद कर रहे थे कि भुल्लुर दबाव में आकर अपना पर्चा वापस ले लेंगे। दबाव पड़ा भी, पर भुल्लुर सिर झटकते हुए खड़े रहे। अब तो बारह पुरवों की ग्राम पंचायत में घमासान शुरू । भुल्लुर जिसे लोग सबसे कमजोर प्रत्याशी समझते थे, की चर्चा ही सबसे अधिक होती। भुल्लुर किससे मिले? किसने भुल्लुर की मदद की? कौन भुल्लुर की पत्नी को वोट देगा? उधर प्रधान जी बहुत सोच समझ कर अपना दाँव चलते। शाम को लोग उनके घर पर इकट्ठा होते। चाय-पानी का दौर चलता। रणनीति पर चर्चा होती। जो प्रथान द्वारा लाभान्वित हुए थे, वे प्रायः उन्हें जिताने की बात करते। ऐसे लोगों का ही जमावड़ा प्रधान जी के घर होता। रोज गिनती होती। कौन कितने वोट दिलाएगा? चौधरी प्रसाद भी अपना खेमा बनाने की कोशिश में लग गए। उनके भी समर्थक सहयोगी उनके घर इकट्ठा होते। चुनाव जीतने की तरकीबें सोची जातीं। भुल्लुर के यहाँ बैठकों का सिलसिला नहीं चलता। उनके दो-चार संगी साथी मौका निकाल कर उनके साथ हो लेते। भुल्लुर को देखकर लोग मुस्कराकर पूछतेः 'गाड़ी कब खरीद रहे हो?' भुल्लुर भी उसी मुस्तैदी से जवाब देते; 'जितैबौ, तबै तो गाड़ी खरीदब?' सभी लोग हँस पड़ते और भुल्लुर आगे बढ़ जाते। हठी पुरवा के लोग कुछ सोचविचार कर ही रहे थे कि एक सुबह अंगद उठे तो अपने दरवाजे पर एक पर्चा पड़ा पाया। उन्होंने उसे उठाकर पढ़ा। उसमें तन्नी, चौधरी प्रसाद तथा भुल्लुर पर अनेक आक्षेप किए गए थे। वर्तमान प्रधान जी को अत्यन्त कर्मठ, सभी का भला करने वाला बताया गया था। यह पर्चा समस्त ग्रामवासी की ओर से छापा गया था। तन्नी के बारे में कहा गया कि वह जेल जा चुकी है। कल को उसकी शादी हो जायगी तो गाँव में कैसे रह पाएगी? ऐसी लड़की को वोट कैसे दिया जा सकता है? चौधरी प्रसाद के लिए कहा गया कि वह अभी दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं। कल को ग्राम पंचायत को जो पैसा मिलेगा उसको हड़प लेंगे और गाँव की स्थिति बदतर हो जायगी। भुल्लुर को मसखरा बताया गया। उसको गम्भीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। पर्चे में यह भी बताया गया था कि वर्तमान प्रथान जी देवता आदमी हैं। सभी का भला करते रहे हैं। आगे भी गाँव को आगे ले जाएँगे। पर पर्चे में इस बात का उल्लेख नहीं था कि लोग वोट किसको दें। यह पर्चा वर्तमान प्रधान के पक्ष में जनमत तैयार करने का एक सार्थक प्रयास था।
यह पर्चा केवल अंगद के ही दरवाजे पर नहीं बल्कि अधिकांश घरों के दरवाज़े पर डाला गया था। पर्चा डालने वाले को किसी ने देखा नहीं। शायद रात में दो से तीन बजे के बीच यह पर्चा कोई डाल गया था। कुत्ते रात में भोंक रहे थे पर लोगों ने समझा कोई आया-गया होगा। कुत्तों के भोंकने की आवाज़ अंगद ने भी सुनी थी।